ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Doha / दोहा
दो. सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बंधु समेत। बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत ॥ ७९ ॥
Chaupai / चोपाई
निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े। देखे लोग बिरह दव दाढ़े ॥ कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए ॥
गुर सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनय बस कीन्हे ॥ जाचक दान मान संतोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे ॥
दासीं दास बोलाइ बहोरी। गुरहि सौंपि बोले कर जोरी ॥ सब कै सार सँभार गोसाईं। करबि जनक जननी की नाई ॥
बारहिं बार जोरि जुग पानी। कहत रामु सब सन मृदु बानी ॥ सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जेहि तें रहै भुआल सुखारी ॥
Doha / दोहा
दो. मातु सकल मोरे बिरहँ जेहिं न होहिं दुख दीन। सोइ उपाउ तुम्ह करेहु सब पुर जन परम प्रबीन ॥ ८० ॥
Chaupai / चोपाई
एहि बिधि राम सबहि समुझावा। गुर पद पदुम हरषि सिरु नावा।गनपती गौरि गिरीसु मनाई। चले असीस पाइ रघुराई ॥
राम चलत अति भयउ बिषादू। सुनि न जाइ पुर आरत नादू ॥ कुसगुन लंक अवध अति सोकू। हहरष बिषाद बिबस सुरलोकू ॥
गइ मुरुछा तब भूपति जागे। बोलि सुमंत्रु कहन अस लागे ॥ रामु चले बन प्रान न जाहीं। केहि सुख लागि रहत तन माहीं।
एहि तें कवन ब्यथा बलवाना। जो दुखु पाइ तजहिं तनु प्राना ॥ पुनि धरि धीर कहइ नरनाहू। लै रथु संग सखा तुम्ह जाहू ॥
Doha / दोहा
दो. -सुठि सुकुमार कुमार दोउ जनकसुता सुकुमारि। रथ चढ़ाइ देखराइ बनु फिरेहु गएँ दिन चारि ॥ ८१ ॥
Chaupai / चोपाई
जौ नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसंध दृढ़ब्रत रघुराई ॥ तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी ॥
जब सिय कानन देखि डेराई। कहेहु मोरि सिख अवसरु पाई ॥ सासु ससुर अस कहेउ सँदेसू। पुत्रि फिरिअ बन बहुत कलेसू ॥
पितृगृह कबहुँ कबहुँ ससुरारी। रहेहु जहाँ रुचि होइ तुम्हारी ॥ एहि बिधि करेहु उपाय कदंबा। फिरइ त होइ प्रान अवलंबा ॥
नाहिं त मोर मरनु परिनामा। कछु न बसाइ भएँ बिधि बामा ॥ अस कहि मुरुछि परा महि राऊ। रामु लखनु सिय आनि देखाऊ ॥
Doha / दोहा
दो. -पाइ रजायसु नाइ सिरु रथु अति बेग बनाइ। गयउ जहाँ बाहेर नगर सीय सहित दोउ भाइ ॥ ८२ ॥
Chaupai / चोपाई
तब सुमंत्र नृप बचन सुनाए। करि बिनती रथ रामु चढ़ाए ॥ चढ़ि रथ सीय सहित दोउ भाई। चले हृदयँ अवधहि सिरु नाई ॥
चलत रामु लखि अवध अनाथा। बिकल लोग सब लागे साथा ॥ कृपासिंधु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेम बस पुनि फिरि आवहिं ॥
लागति अवध भयावनि भारी। मानहुँ कालराति अँधिआरी ॥ घोर जंतु सम पुर नर नारी। डरपहिं एकहि एक निहारी ॥
घर मसान परिजन जनु भूता। सुत हित मीत मनहुँ जमदूता ॥ बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं। सरित सरोवर देखि न जाहीं ॥
Doha / दोहा
दो. हय गय कोटिन्ह केलिमृग पुरपसु चातक मोर। पिक रथांग सुक सारिका सारस हंस चकोर ॥ ८३ ॥
Chaupai / चोपाई
राम बियोग बिकल सब ठाढ़े। जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढ़े ॥ नगरु सफल बनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर नारी ॥
बिधि कैकेई किरातिनि कीन्ही। जेंहि दव दुसह दसहुँ दिसि दीन्ही ॥ सहि न सके रघुबर बिरहागी। चले लोग सब ब्याकुल भागी ॥
सबहिं बिचार कीन्ह मन माहीं। राम लखन सिय बिनु सुखु नाहीं ॥ जहाँ रामु तहँ सबुइ समाजू। बिनु रघुबीर अवध नहिं काजू ॥
चले साथ अस मंत्रु दृढ़ाई। सुर दुर्लभ सुख सदन बिहाई ॥ राम चरन पंकज प्रिय जिन्हही। बिषय भोग बस करहिं कि तिन्हही ॥
Doha / दोहा
दो. बालक बृद्ध बिहाइ गृँह लगे लोग सब साथ। तमसा तीर निवासु किय प्रथम दिवस रघुनाथ ॥ ८४ ॥
Chaupai / चोपाई
रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी। सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी ॥ करुनामय रघुनाथ गोसाँई। बेगि पाइअहिं पीर पराई ॥
कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए। बहुबिधि राम लोग समुझाए ॥ किए धरम उपदेस घनेरे। लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे ॥
सीलु सनेहु छाड़ि नहिं जाई। असमंजस बस भे रघुराई ॥ लोग सोग श्रम बस गए सोई। कछुक देवमायाँ मति मोई ॥
जबहिं जाम जुग जामिनि बीती। राम सचिव सन कहेउ सप्रीती ॥ खोज मारि रथु हाँकहु ताता। आन उपायँ बनिहि नहिं बाता ॥
Doha / दोहा
दो. राम लखन सुय जान चढ़ि संभु चरन सिरु नाइ ॥ सचिवँ चलायउ तुरत रथु इत उत खोज दुराइ ॥ ८५ ॥
Chaupai / चोपाई
जागे सकल लोग भएँ भोरू। गे रघुनाथ भयउ अति सोरू ॥ रथ कर खोज कतहहुँ नहिं पावहिं। राम राम कहि चहु दिसि धावहिं ॥
मनहुँ बारिनिधि बूड़ जहाजू। भयउ बिकल बड़ बनिक समाजू ॥ एकहि एक देंहिं उपदेसू। तजे राम हम जानि कलेसू ॥
निंदहिं आपु सराहहिं मीना। धिग जीवनु रघुबीर बिहीना ॥ जौं पै प्रिय बियोगु बिधि कीन्हा। तौ कस मरनु न मागें दीन्हा ॥
एहि बिधि करत प्रलाप कलापा। आए अवध भरे परितापा ॥ बिषम बियोगु न जाइ बखाना। अवधि आस सब राखहिं प्राना ॥
Doha / दोहा
दो. राम दरस हित नेम ब्रत लगे करन नर नारि। मनहुँ कोक कोकी कमल दीन बिहीन तमारि ॥ ८६ ॥
Chaupai / चोपाई
सीता सचिव सहित दोउ भाई। सृंगबेरपुर पहुँचे जाई ॥ उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी ॥
लखन सचिवँ सियँ किए प्रनामा। सबहि सहित सुखु पायउ रामा ॥ गंग सकल मुद मंगल मूला। सब सुख करनि हरनि सब सूला ॥
कहि कहि कोटिक कथा प्रसंगा। रामु बिलोकहिं गंग तरंगा ॥ सचिवहि अनुजहि प्रियहि सुनाई। बिबुध नदी महिमा अधिकाई ॥
मज्जनु कीन्ह पंथ श्रम गयऊ। सुचि जलु पिअत मुदित मन भयऊ ॥ सुमिरत जाहि मिटइ श्रम भारू। तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू ॥
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