ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Doha / दोहा
दो. करि प्रबोध मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु। कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु ॥ २१२ ॥
Chaupai / चोपाई
सुनि मुनि बचन भरत हिँय सोचू। भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू ॥ जानि गरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी ॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरम यहु नाथ हमारा ॥ भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए ॥
चाहिए कीन्ह भरत पहुनाई। कंद मूल फल आनहु जाई ॥ भलेहीं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए ॥
मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता। तसि पूजा चाहिअ जस देवता ॥ सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आई। आयसु होइ सो करहिं गोसाई ॥
Doha / दोहा
दो. राम बिरह ब्याकुल भरतु सानुज सहित समाज। पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज ॥ २१३ ॥
Chaupai / चोपाई
रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी। बड़भागिनि आपुहि अनुमानी ॥ कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई ॥
मुनि पद बंदि करिअ सोइ आजू। होइ सुखी सब राज समाजू ॥ अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना। जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना ॥
भोग बिभूति भूरि भरि राखे। देखत जिन्हहि अमर अभिलाषे ॥ दासीं दास साजु सब लीन्हें। जोगवत रहहिं मनहि मनु दीन्हें ॥
सब समाजु सजि सिधि पल माहीं। जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाहीं ॥ प्रथमहिं बास दिए सब केही। सुंदर सुखद जथा रुचि जेही ॥
Doha / दोहा
दो. बहुरि सपरिजन भरत कहुँ रिषि अस आयसु दीन्ह। बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबर तपबल कीन्ह ॥ २१४ ॥
Chaupai / चोपाई
मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोकपति लोका ॥ सुख समाजु नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहीं ग्यानी ॥
आसन सयन सुबसन बिताना। बन बाटिका बिहग मृग नाना ॥ सुरभि फूल फल अमिअ समाना। बिमल जलासय बिबिध बिधाना।
असन पान सुच अमिअ अमी से। देखि लोग सकुचात जमी से ॥ सुर सुरभी सुरतरु सबही कें। लखि अभिलाषु सुरेस सची कें ॥
रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी ॥ स्त्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बस लोगा ॥
Doha / दोहा
दो. संपत चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार ॥ तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार ॥ २१५ ॥
Chaupai / चोपाई
कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाइ मुनिहि सिरु सहित समाजा ॥ रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दंडवत बिनय बहु भाषी ॥
पथ गति कुसल साथ सब लीन्हे। चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें ॥ रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू ॥
नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया ॥ लखन राम सिय पंथ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृदु बानी ॥
राम बास थल बिटप बिलोकें। उर अनुराग रहत नहिं रोकैं ॥ दैखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भइ मृदु महि मगु मंगल मूला ॥
Doha / दोहा
दो. किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात। तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात ॥ २१६ ॥
Chaupai / चोपाई
जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे ॥ ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू ॥
यह बड़ि बात भरत कइ नाहीं। सुमिरत जिनहि रामु मन माहीं ॥ बारक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ ॥
भरतु राम प्रिय पुनि लघु भ्राता। कस न होइ मगु मंगलदाता ॥ सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं। भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीं ॥
देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू ॥ गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई ॥
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