ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Doha / दोहा
दो. सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग। बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग ॥ २४९ ॥
Chaupai / चोपाई
कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी ॥ भरि भरि परन पुटीं रचि रुरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी ॥
सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा ॥ देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं ॥
कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पहिचानी ॥ तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा ॥
हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरनि देवधुनि धारा ॥ राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा ॥
Doha / दोहा
दो. यह जिँयँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु। हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु ॥ २५० ॥
Chaupai / चोपाई
तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे ॥ देब काह हम तुम्हहि गोसाँई। ईधनु पात किरात मिताई ॥
यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहि न बासन बसन चोराई ॥ हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती ॥
पाप करत निसि बासर जाहीं। नहिं पट कटि नहि पेट अघाहीं ॥ सपोनेहुँ धरम बुद्धि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ ॥
जब तें प्रभु पद पदुम निहारे। मिटे दुसह दुख दोष हमारे ॥ बचन सुनत पुरजन अनुरागे। तिन्ह के भाग सराहन लागे ॥
Chanda / छन्द
छं. लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं। बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं ॥ नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा। तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा ॥
Sortha / सोरठा
सो. बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब। जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम ॥ २५१ ॥
Chaupai / चोपाई
पुर जन नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं पलक सम बीती ॥ सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करइ सरिस सेवकाई ॥
लखा न मरमु राम बिनु काहूँ। माया सब सिय माया माहूँ ॥ सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं। तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं ॥
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानि पछितानि अघाई ॥ अवनि जमहि जाचति कैकेई। महि न बीचु बिधि मीचु न देई ॥
लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं। राम बिमुख थलु नरक न लहहीं ॥ यहु संसउ सब के मन माहीं। राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं ॥
Doha / दोहा
दो. निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच। नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच ॥ २५२ ॥
Chaupai / चोपाई
कीन्ही मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली ॥ केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू ॥
अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी। मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी ॥ मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ। राम जननि हठ करबि कि काऊ ॥
मोहि अनुचर कर केतिक बाता। तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता ॥ जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू। हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू ॥
एकउ जुगुति न मन ठहरानी। सोचत भरतहि रैनि बिहानी ॥ प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई। बैठत पठए रिषयँ बोलाई ॥
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