ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Doha / दोहा
दो. अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप। राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप ॥ ३०९ ॥
Chaupai / चोपाई
भरत अत्रि अनुसासन पाई। जल भाजन सब दिए चलाई ॥ सानुज आपु अत्रि मुनि साधू। सहित गए जहँ कूप अगाधू ॥
पावन पाथ पुन्यथल राखा। प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा ॥ तात अनादि सिद्ध थल एहू। लोपेउ काल बिदित नहिं केहू ॥
तब सेवकन्ह सरस थलु देखा। किन्ह सुजल हित कूप बिसेषा ॥ बिधि बस भयउ बिस्व उपकारू। सुगम अगम अति धरम बिचारू ॥
भरतकूप अब कहिहहिं लोगा। अति पावन तीरथ जल जोगा ॥ प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी। होइहहिं बिमल करम मन बानी ॥
Doha / दोहा
दो. कहत कूप महिमा सकल गए जहाँ रघुराउ। अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ ॥ ३१० ॥
Chaupai / चोपाई
कहत धरम इतिहास सप्रीती। भयउ भोरु निसि सो सुख बीती ॥ नित्य निबाहि भरत दोउ भाई। राम अत्रि गुर आयसु पाई ॥
सहित समाज साज सब सादें। चले राम बन अटन पयादें ॥ कोमल चरन चलत बिनु पनहीं। भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं ॥
कुस कंटक काँकरीं कुराईं। कटुक कठोर कुबस्तु दुराईं ॥ महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे। बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे ॥
सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं। बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं ॥ मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी। सेवहिं सकल राम प्रिय जानी ॥
Doha / दोहा
दो. सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहु राम कहत जमुहात। राम प्रान प्रिय भरत कहुँ यह न होइ बड़ि बात ॥ ३११ ॥
Chaupai / चोपाई
एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं। नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं ॥ पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा। खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा ॥
चारु बिचित्र पबित्र बिसेषी। बूझत भरतु दिब्य सब देखी ॥ सुनि मन मुदित कहत रिषिराऊ। हेतु नाम गुन पुन्य प्रभाऊ ॥
कतहुँ निमज्जन कतहुँ प्रनामा। कतहुँ बिलोकत मन अभिरामा ॥ कतहुँ बैठि मुनि आयसु पाई। सुमिरत सीय सहित दोउ भाई ॥
देखि सुभाउ सनेहु सुसेवा। देहिं असीस मुदित बनदेवा ॥ फिरहिं गएँ दिनु पहर अढ़ाई। प्रभु पद कमल बिलोकहिं आई ॥
Doha / दोहा
दो. देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ। कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ ॥ ३१२ ॥
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