ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Doha / दोहा
दो. निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह। सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥ ९ ॥
Chaupai / चोपाई
मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना ॥ मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक ॥
प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा। करत मनोरथ आतुर धावा ॥ हे बिधि दीनबंधु रघुराया। मो से सठ पर करिहहिं दाया ॥
सहित अनुज मोहि राम गोसाई। मिलिहहिं निज सेवक की नाई ॥ मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीं ॥
नहिं सतसंग जोग जप जागा। नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा ॥ एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥
होइहैं सुफल आजु मम लोचन। देखि बदन पंकज भव मोचन ॥ निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी ॥
दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा। को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा ॥ कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई ॥
अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई ॥ अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा ॥
मुनि मग माझ अचल होइ बैसा। पुलक सरीर पनस फल जैसा ॥ तब रघुनाथ निकट चलि आए। देखि दसा निज जन मन भाए ॥
मुनिहि राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यानजनित सुख पावा ॥ भूप रूप तब राम दुरावा। हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा ॥
मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें। बिकल हीन मनि फनि बर जैसें ॥ आगें देखि राम तन स्यामा। सीता अनुज सहित सुख धामा ॥
परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी। प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी ॥ भुज बिसाल गहि लिए उठाई। परम प्रीति राखे उर लाई ॥
मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला। कनक तरुहि जनु भेंट तमाला ॥ राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़ा। मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़ा ॥
Doha / दोहा
दो. तब मुनि हृदयँ धीर धीर गहि पद बारहिं बार। निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार ॥ १० ॥
Chaupai / चोपाई
कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी ॥ महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी ॥
श्याम तामरस दाम शरीरं। जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं ॥ पाणि चाप शर कटि तूणीरं। नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं ॥
मोह विपिन घन दहन कृशानुः। संत सरोरुह कानन भानुः ॥ निशिचर करि वरूथ मृगराजः। त्रातु सदा नो भव खग बाजः ॥
अरुण नयन राजीव सुवेशं। सीता नयन चकोर निशेशं ॥ हर ह्रदि मानस बाल मरालं। नौमि राम उर बाहु विशालं ॥
संशय सर्प ग्रसन उरगादः। शमन सुकर्कश तर्क विषादः ॥ भव भंजन रंजन सुर यूथः। त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ॥
निर्गुण सगुण विषम सम रूपं। ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं ॥ अमलमखिलमनवद्यमपारं। नौमि राम भंजन महि भारं ॥
भक्त कल्पपादप आरामः। तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ॥ अति नागर भव सागर सेतुः। त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः ॥
अतुलित भुज प्रताप बल धामः। कलि मल विपुल विभंजन नामः ॥ धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः। संतत शं तनोतु मम रामः ॥
जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरंतर बासी ॥ तदपि अनुज श्री सहित खरारी। बसतु मनसि मम काननचारी ॥
जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अंतरजामी ॥ जो कोसल पति राजिव नयना। करउ सो राम हृदय मम अयना।
अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे ॥ सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए ॥
परम प्रसन्न जानु मुनि मोही। जो बर मागहु देउ सो तोही ॥ मुनि कह मै बर कबहुँ न जाचा। समुझि न परइ झूठ का साचा ॥
तुम्हहि नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई ॥ अबिरल भगति बिरति बिग्याना। होहु सकल गुन ग्यान निधाना ॥
Doha / दोहा
दो. अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम। मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम ॥ ११ ॥
Chaupai / चोपाई
एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुभंज रिषि पासा ॥ बहुत दिवस गुर दरसन पाएँ। भए मोहि एहिं आश्रम आएँ ॥
अब प्रभु संग जाउँ गुर पाहीं। तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं ॥ देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए संग बिहसै द्वौ भाई ॥
पंथ कहत निज भगति अनूपा। मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा ॥ तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ। करि दंडवत कहत अस भयऊ ॥
नाथ कौसलाधीस कुमारा। आए मिलन जगत आधारा ॥ राम अनुज समेत बैदेही। निसि दिनु देव जपत हहु जेही ॥
सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए। हरि बिलोकि लोचन जल छाए ॥ मुनि पद कमल परे द्वौ भाई। रिषि अति प्रीति लिए उर लाई ॥
सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी। आसन बर बैठारे आनी ॥ पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा। मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा ॥
जहँ लगि रहे अपर मुनि बृंदा। हरषे सब बिलोकि सुखकंदा ॥
Doha / दोहा
दो. मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर। सरद इंदु तन चितवत मानहुँ निकर चकोर ॥ १२ ॥
Chaupai / चोपाई
तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं। तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाही ॥ तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ। ताते तात न कहि समुझायउँ ॥
अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही। जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही ॥ मुनि मुसकाने सुनि प्रभु बानी। पूछेहु नाथ मोहि का जानी ॥
तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी। जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी ॥ ऊमरि तरु बिसाल तव माया। फल ब्रह्मांड अनेक निकाया ॥
जीव चराचर जंतु समाना। भीतर बसहि न जानहिं आना ॥ ते फल भच्छक कठिन कराला। तव भयँ डरत सदा सोउ काला ॥
ते तुम्ह सकल लोकपति साईं। पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं ॥ यह बर मागउँ कृपानिकेता। बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता ॥
अबिरल भगति बिरति सतसंगा। चरन सरोरुह प्रीति अभंगा ॥ जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता। अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता ॥
अस तव रूप बखानउँ जानउँ। फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ ॥ संतत दासन्ह देहु बड़ाई। तातें मोहि पूँछेहु रघुराई ॥
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