ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Chaupai / चोपाई
सूपनखा रावन कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी ॥ पंचबटी सो गइ एक बारा। देखि बिकल भइ जुगल कुमारा ॥
भ्राता पिता पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी ॥ होइ बिकल सक मनहि न रोकी। जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी ॥
रुचिर रुप धरि प्रभु पहिं जाई। बोली बचन बहुत मुसुकाई ॥ तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी। यह सँजोग बिधि रचा बिचारी ॥
मम अनुरूप पुरुष जग माहीं। देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीं ॥ ताते अब लगि रहिउँ कुमारी। मनु माना कछु तुम्हहि निहारी ॥
सीतहि चितइ कही प्रभु बाता। अहइ कुआर मोर लघु भ्राता ॥ गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी। प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी ॥
सुंदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा। पराधीन नहिं तोर सुपासा ॥ प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा। जो कछु करहिं उनहि सब छाजा ॥
सेवक सुख चह मान भिखारी। ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी ॥ लोभी जसु चह चार गुमानी। नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी ॥
पुनि फिरि राम निकट सो आई। प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई ॥ लछिमन कहा तोहि सो बरई। जो तृन तोरि लाज परिहरई ॥
तब खिसिआनि राम पहिं गई। रूप भयंकर प्रगटत भई ॥ सीतहि सभय देखि रघुराई। कहा अनुज सन सयन बुझाई ॥
Doha / दोहा
दो. लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि। ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि ॥ १७ ॥
Chaupai / चोपाई
नाक कान बिनु भइ बिकरारा। जनु स्त्रव सैल गैरु कै धारा ॥ खर दूषन पहिं गइ बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता ॥
तेहि पूछा सब कहेसि बुझाई। जातुधान सुनि सेन बनाई ॥ धाए निसिचर निकर बरूथा। जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा ॥
नाना बाहन नानाकारा। नानायुध धर घोर अपारा ॥ सुपनखा आगें करि लीनी। असुभ रूप श्रुति नासा हीनी ॥
असगुन अमित होहिं भयकारी। गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी ॥ गर्जहि तर्जहिं गगन उड़ाहीं। देखि कटकु भट अति हरषाहीं ॥
कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई। धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई ॥ धूरि पूरि नभ मंडल रहा। राम बोलाइ अनुज सन कहा ॥
लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर। आवा निसिचर कटकु भयंकर ॥ रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी। चले सहित श्री सर धनु पानी ॥
देखि राम रिपुदल चलि आवा। बिहसि कठिन कोदंड चढ़ावा ॥
Chanda / छन्द
छं. कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों। मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों ॥
कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै ॥ चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै ॥
Sortha / सोरठा
सो. आइ गए बगमेल धरहु धरहु धावत सुभट। जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज ॥ १८ ॥
Chaupai / चोपाई
प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी। थकित भई रजनीचर धारी ॥ सचिव बोलि बोले खर दूषन। यह कोउ नृपबालक नर भूषन ॥
नाग असुर सुर नर मुनि जेते। देखे जिते हते हम केते ॥ हम भरि जन्म सुनहु सब भाई। देखी नहिं असि सुंदरताई ॥
जद्यपि भगिनी कीन्ह कुरूपा। बध लायक नहिं पुरुष अनूपा ॥ देहु तुरत निज नारि दुराई। जीअत भवन जाहु द्वौ भाई ॥
मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु। तासु बचन सुनि आतुर आवहु ॥ दूतन्ह कहा राम सन जाई। सुनत राम बोले मुसकाई ॥
हम छत्री मृगया बन करहीं। तुम्ह से खल मृग खौजत फिरहीं ॥ रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं। एक बार कालहु सन लरहीं ॥
जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक। मुनि पालक खल सालक बालक ॥ जौं न होइ बल घर फिरि जाहू। समर बिमुख मैं हतउँ न काहू ॥
रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई। रिपु पर कृपा परम कदराई ॥ दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ। सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ ॥
Chanda / छन्द
छं. उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा। सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा ॥
प्रभु कीन्ह धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा। भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा ॥
Doha / दोहा
दो. सावधान होइ धाए जानि सबल आराति। लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहु भाँति ॥ १९(क) ॥
तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर। तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँड़े निज तीर ॥ १९(ख) ॥
Chanda / छन्द
छं. तब चले जान बबान कराल। फुंकरत जनु बहु ब्याल ॥ कोपेउ समर श्रीराम। चले बिसिख निसित निकाम ॥
अवलोकि खरतर तीर। मुरि चले निसिचर बीर ॥ भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ। जो भागि रन ते जाइ ॥
तेहि बधब हम निज पानि। फिरे मरन मन महुँ ठानि ॥ आयुध अनेक प्रकार। सनमुख ते करहिं प्रहार ॥
रिपु परम कोपे जानि। प्रभु धनुष सर संधानि ॥ छाँड़े बिपुल नाराच। लगे कटन बिकट पिसाच ॥
उर सीस भुज कर चरन। जहँ तहँ लगे महि परन ॥ चिक्करत लागत बान। धर परत कुधर समान ॥
भट कटत तन सत खंड। पुनि उठत करि पाषंड ॥ नभ उड़त बहु भुज मुंड। बिनु मौलि धावत रुंड ॥
खग कंक काक सृगाल। कटकटहिं कठिन कराल ॥
Chanda / छन्द
छं. कटकटहिं ज़ंबुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर संचहीं। बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नंचहीं ॥
रघुबीर बान प्रचंड खंडहिं भटन्ह के उर भुज सिरा। जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयकर गिरा ॥
अंतावरीं गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि धावहीं ॥ संग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुड़ी उड़ावहीं ॥
मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे। अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे ॥
सर सक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं। करि कोप श्रीरघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं ॥
प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका। दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका ॥
महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी। सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी ॥
सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर् यो। देखहि परसपर राम करि संग्राम रिपुदल लरि मर् यो ॥
Doha / दोहा
दो. राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान। करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान ॥ २०(क) ॥
Chaupai / चोपाई
हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान। अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान ॥ २०(ख) ॥
जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते ॥ तब लछिमन सीतहि लै आए। प्रभु पद परत हरषि उर लाए।
सीता चितव स्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता ॥ पंचवटीं बसि श्रीरघुनायक। करत चरित सुर मुनि सुखदायक ॥
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