ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Doha / दोहा
दो. भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि। करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि ॥ २५८ ॥
Chaupai / चोपाई
गुरु अनुराग भरत पर देखी। राम ह्दयँ आनंदु बिसेषी ॥ भरतहि धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी ॥
बोले गुर आयस अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगलमूला ॥ नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई ॥
जे गुर पद अंबुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी ॥ राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू ॥
लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई ॥ भरतु कहहीं सोइ किएँ भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई ॥
Doha / दोहा
दो. तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात। कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात ॥ २५९ ॥
Chaupai / चोपाई
सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई ॥ लखि अपने सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू ॥
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढें। नीरज नयन नेह जल बाढ़ें ॥ कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ ॥ मो पर कृपा सनेह बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी ॥
सिसुपन तेम परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू ॥ मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहुँ खेल जितावहिं मोही ॥
Doha / दोहा
दो. महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन। दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन ॥ २६० ॥
Chaupai / चोपाई
बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा।यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनीं समुझि साधु सुचि को भा ॥
मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली ॥ फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकुता प्रसव कि संबुक काली ॥
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू ॥ बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू ॥
हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा ॥ गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू ॥
Doha / दोहा
दो. साधु सभा गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ। प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ ॥ २६१ ॥
Chaupai / चोपाई
भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी ॥ देखि न जाहि बिकल महतारी। जरहिं दुसह जर पुर नर नारी ॥
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला ॥ सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा ॥
बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ ॥ बहुरि निहार निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू ॥
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई ॥ जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी ॥
Doha / दोहा
दो. तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि। तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि ॥ २६२ ॥
Chaupai / चोपाई
सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरति प्रीति बिनय नय सानी ॥ सोक मगन सब सभाँ खभारू। मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू ॥
कहि अनेक बिधि कथा पुरानी। भरत प्रबोधु कीन्ह मुनि ग्यानी ॥ बोले उचित बचन रघुनंदू। दिनकर कुल कैरव बन चंदू ॥
तात जाँय जियँ करहु गलानी। ईस अधीन जीव गति जानी ॥ तीनि काल तिभुअन मत मोरें। पुन्यसिलोक तात तर तोरे ॥
उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई। जाइ लोकु परलोकु नसाई ॥ दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई। जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई ॥
Doha / दोहा
दो. मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार। लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार ॥ २६३ ॥
Chaupai / चोपाई
कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी ॥ तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहि दुरइ दुराएँ ॥
मुनि गन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं ॥ हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना ॥
तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें। करौं काह असमंजस जीकें ॥ राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी ॥
तासु बचन मेटत मन सोचू। तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू ॥ ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा ॥
Doha / दोहा
दो. मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु। सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु ॥ २६४ ॥
Chaupai / चोपाई
सुर गन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू ॥ बनत उपाउ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं ॥
बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगत भगति बस अहहीं।सुधि करि अंबरीष दुरबासा। भे सुर सुरपति निपट निरासा ॥
सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा। नरहरि किए प्रगट प्रहलादा ॥ लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा ॥
आन उपाउ न देखिअ देवा। मानत रामु सुसेवक सेवा ॥ हियँ सपेम सुमिरहु सब भरतहि। निज गुन सील राम बस करतहि ॥
Doha / दोहा
दो. सुनि सुर मत सुरगुर कहेउ भल तुम्हार बड़ भागु। सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु ॥ २६५ ॥
Chaupai / चोपाई
सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु सय सरिस सुहाई ॥ भरत भगति तुम्हरें मन आई। तजहु सोचु बिधि बात बनाई ॥
देखु देवपति भरत प्रभाऊ। सहज सुभायँ बिबस रघुराऊ ॥ मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहि जानि राम परिछाहीं ॥
सुनो सुरगुर सुर संमत सोचू। अंतरजामी प्रभुहि सकोचू ॥ निज सिर भारु भरत जियँ जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमाना ॥
करि बिचारु मन दीन्ही ठीका। राम रजायस आपन नीका ॥ निज पन तजि राखेउ पनु मोरा। छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा ॥
Doha / दोहा
दो. कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ। करि प्रनामु बोले भरतु जोरि जलज जुग हाथ ॥ २६६ ॥
Chaupai / चोपाई
कहौं कहावौं का अब स्वामी। कृपा अंबुनिधि अंतरजामी ॥ गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला ॥
अपडर डरेउँ न सोच समूलें। रबिहि न दोसु देव दिसि भूलें ॥ मोर अभागु मातु कुटिलाई। बिधि गति बिषम काल कठिनाई ॥
पाउ रोऽपि सब मिलि मोहि घाला। प्रनतपाल पन आपन पाला ॥ यह नइ रीति न राउरि होई। लोकहुँ बेद बिदित नहिं गोई ॥
जगु अनभल भल एकु गोसाईं। कहिअ होइ भल कासु भलाईं ॥ देउ देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ ॥
Doha / दोहा
दो. जाइ निकट पहिचानि तरु छाहँ समनि सब सोच। मागत अभिमत पाव जग राउ रंकु भल पोच ॥ २६७ ॥
Chaupai / चोपाई
लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटेउ छोभु नहिं मन संदेहू ॥ अब करुनाकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई ॥
जो सेवकु साहिबहि सँकोची। निज हित चहइ तासु मति पोची ॥ सेवक हित साहिब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ बिहाई ॥
स्वारथु नाथ फिरें सबही का। किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका ॥ यह स्वारथ परमारथ सारु। सकल सुकृत फल सुगति सिंगारु ॥
देव एक बिनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी ॥ तिलक समाजु साजि सबु आना। करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना ॥
Doha / दोहा
दो. सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ। नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ ॥ २६८ ॥
Chaupai / चोपाई
नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई। बहुरिअ सीय सहित रघुराई ॥ जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई ॥
देवँ दीन्ह सबु मोहि अभारु। मोरें नीति न धरम बिचारु ॥ कहउँ बचन सब स्वारथ हेतू। रहत न आरत कें चित चेतू ॥
उतरु देइ सुनि स्वामि रजाई। सो सेवकु लखि लाज लजाई ॥ अस मैं अवगुन उदधि अगाधू। स्वामि सनेहँ सराहत साधू ॥
अब कृपाल मोहि सो मत भावा। सकुच स्वामि मन जाइँ न पावा ॥ प्रभु पद सपथ कहउँ सति भाऊ। जग मंगल हित एक उपाऊ ॥
Doha / दोहा
दो. प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देब। सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब ॥ २६९ ॥
Chaupai / चोपाई
भरत बचन सुचि सुनि सुर हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे ॥ असमंजस बस अवध नेवासी। प्रमुदित मन तापस बनबासी ॥
चुपहिं रहे रघुनाथ सँकोची। प्रभु गति देखि सभा सब सोची ॥ जनक दूत तेहि अवसर आए। मुनि बसिष्ठँ सुनि बेगि बोलाए ॥
करि प्रनाम तिन्ह रामु निहारे। बेषु देखि भए निपट दुखारे ॥ दूतन्ह मुनिबर बूझी बाता। कहहु बिदेह भूप कुसलाता ॥
सुनि सकुचाइ नाइ महि माथा। बोले चर बर जोरें हाथा ॥ बूझब राउर सादर साईं। कुसल हेतु सो भयउ गोसाईं ॥
Doha / दोहा
दो. नाहि त कोसल नाथ कें साथ कुसल गइ नाथ। मिथिला अवध बिसेष तें जगु सब भयउ अनाथ ॥ २७० ॥
Chaupai / चोपाई
कोसलपति गति सुनि जनकौरा। भे सब लोक सोक बस बौरा ॥ जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू। नामु सत्य अस लाग न केहू ॥
रानि कुचालि सुनत नरपालहि। सूझ न कछु जस मनि बिनु ब्यालहि ॥ भरत राज रघुबर बनबासू। भा मिथिलेसहि हृदयँ हराँसू ॥
नृप बूझे बुध सचिव समाजू। कहहु बिचारि उचित का आजू ॥ समुझि अवध असमंजस दोऊ। चलिअ कि रहिअ न कह कछु कोऊ ॥
नृपहि धीर धरि हृदयँ बिचारी। पठए अवध चतुर चर चारी ॥ बूझि भरत सति भाउ कुभाऊ। आएहु बेगि न होइ लखाऊ ॥
Doha / दोहा
दो. गए अवध चर भरत गति बूझि देखि करतूति। चले चित्रकूटहि भरतु चार चले तेरहूति ॥ २७१ ॥
Chaupai / चोपाई
दूतन्ह आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामति बरनी ॥ सुनि गुर परिजन सचिव महीपति। भे सब सोच सनेहँ बिकल अति ॥
धरि धीरजु करि भरत बड़ाई। लिए सुभट साहनी बोलाई ॥ घर पुर देस राखि रखवारे। हय गय रथ बहु जान सँवारे ॥
दुघरी साधि चले ततकाला। किए बिश्रामु न मग महीपाला ॥ भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा। चले जमुन उतरन सबु लागा ॥
खबरि लेन हम पठए नाथा। तिन्ह कहि अस महि नायउ माथा ॥ साथ किरात छ सातक दीन्हे। मुनिबर तुरत बिदा चर कीन्हे ॥
Doha / दोहा
दो. सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु। रघुनंदनहि सकोचु बड़ सोच बिबस सुरराजु ॥ २७२ ॥
Chaupai / चोपाई
गरइ गलानि कुटिल कैकेई। काहि कहै केहि दूषनु देई ॥ अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी ॥
एहि प्रकार गत बासर सोऊ। प्रात नहान लाग सबु कोऊ ॥ करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनप गौरि तिपुरारि तमारी ॥
रमा रमन पद बंदि बहोरी। बिनवहिं अंजुलि अंचल जोरी ॥ राजा रामु जानकी रानी। आनँद अवधि अवध रजधानी ॥
सुबस बसउ फिरि सहित समाजा। भरतहि रामु करहुँ जुबराजा ॥ एहि सुख सुधाँ सींची सब काहू। देव देहु जग जीवन लाहू ॥
Doha / दोहा
दो. गुर समाज भाइन्ह सहित राम राजु पुर होउ। अछत राम राजा अवध मरिअ माग सबु कोउ ॥ २७३ ॥
Chaupai / चोपाई
सुनि सनेहमय पुरजन बानी। निंदहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी ॥ एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन। रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन ॥
ऊँच नीच मध्यम नर नारी। लहहिं दरसु निज निज अनुहारी ॥ सावधान सबही सनमानहिं। सकल सराहत कृपानिधानहिं ॥
लरिकाइहि ते रघुबर बानी। पालत नीति प्रीति पहिचानी ॥ सील सकोच सिंधु रघुराऊ। सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ ॥
कहत राम गुन गन अनुरागे। सब निज भाग सराहन लागे ॥ हम सम पुन्य पुंज जग थोरे। जिन्हहि रामु जानत करि मोरे ॥
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