ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Doha / दोहा
दो. एहि सुख जोग न लोग सब कहहिं कहाँ अस भागु ॥ सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु ॥ २८० ॥
Chaupai / चोपाई
एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं ॥ सीय मातु तेहि समय पठाईं। दासीं देखि सुअवसरु आईं ॥
सावकास सुनि सब सिय सासू। आयउ जनकराज रनिवासू ॥ कौसल्याँ सादर सनमानी। आसन दिए समय सम आनी ॥
सीलु सनेह सकल दुहु ओरा। द्रवहिं देखि सुनि कुलिस कठोरा ॥ पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन। महि नख लिखन लगीं सब सोचन ॥
सब सिय राम प्रीति कि सि मूरती। जनु करुना बहु बेष बिसूरति ॥ सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी। जो पय फेनु फोर पबि टाँकी ॥
Doha / दोहा
दो. सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल। जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल ॥ २८१ ॥
Chaupai / चोपाई
सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा। बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा ॥ जो सृजि पालइ हरइ बहोरी। बाल केलि सम बिधि मति भोरी ॥
कौसल्या कह दोसु न काहू। करम बिबस दुख सुख छति लाहू ॥ कठिन करम गति जान बिधाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता ॥
ईस रजाइ सीस सबही कें। उतपति थिति लय बिषहु अमी कें ॥ देबि मोह बस सोचिअ बादी। बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी ॥
भूपति जिअब मरब उर आनी। सोचिअ सखि लखि निज हित हानी ॥ सीय मातु कह सत्य सुबानी। सुकृती अवधि अवधपति रानी ॥
Doha / दोहा
दो. लखनु राम सिय जाहुँ बन भल परिनाम न पोचु। गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु ॥ २८२ ॥
Chaupai / चोपाई
ईस प्रसाद असीस तुम्हारी। सुत सुतबधू देवसरि बारी ॥ राम सपथ मैं कीन्ह न काऊ। सो करि कहउँ सखी सति भाऊ ॥
भरत सील गुन बिनय बड़ाई। भायप भगति भरोस भलाई ॥ कहत सारदहु कर मति हीचे। सागर सीप कि जाहिं उलीचे ॥
जानउँ सदा भरत कुलदीपा। बार बार मोहि कहेउ महीपा ॥ कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ। पुरुष परिखिअहिं समयँ सुभाएँ।
अनुचित आजु कहब अस मोरा। सोक सनेहँ सयानप थोरा ॥ सुनि सुरसरि सम पावनि बानी। भईं सनेह बिकल सब रानी ॥
Doha / दोहा
दो. कौसल्या कह धीर धरि सुनहु देबि मिथिलेसि। को बिबेकनिधि बल्लभहि तुम्हहि सकइ उपदेसि ॥ २८३ ॥
Chaupai / चोपाई
रानि राय सन अवसरु पाई। अपनी भाँति कहब समुझाई ॥ रखिअहिं लखनु भरतु गबनहिं बन। जौं यह मत मानै महीप मन ॥
तौ भल जतनु करब सुबिचारी। मोरें सौचु भरत कर भारी ॥ गूढ़ सनेह भरत मन माही। रहें नीक मोहि लागत नाहीं ॥
लखि सुभाउ सुनि सरल सुबानी। सब भइ मगन करुन रस रानी ॥ नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि। सिथिल सनेहँ सिद्ध जोगी मुनि ॥
सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ। तब धरि धीर सुमित्राँ कहेऊ ॥ देबि दंड जुग जामिनि बीती। राम मातु सुनी उठी सप्रीती ॥
Doha / दोहा
दो. बेगि पाउ धारिअ थलहि कह सनेहँ सतिभाय। हमरें तौ अब ईस गति के मिथिलेस सहाय ॥ २८४ ॥
Chaupai / चोपाई
लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनकप्रिया गह पाय पुनीता ॥ देबि उचित असि बिनय तुम्हारी। दसरथ घरिनि राम महतारी ॥
प्रभु अपने नीचहु आदरहीं। अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं ॥ सेवकु राउ करम मन बानी। सदा सहाय महेसु भवानी ॥
रउरे अंग जोगु जग को है। दीप सहाय कि दिनकर सोहै ॥ रामु जाइ बनु करि सुर काजू। अचल अवधपुर करिहहिं राजू ॥
अमर नाग नर राम बाहुबल। सुख बसिहहिं अपनें अपने थल ॥ यह सब जागबलिक कहि राखा। देबि न होइ मुधा मुनि भाषा ॥
Doha / दोहा
दो. अस कहि पग परि पेम अति सिय हित बिनय सुनाइ ॥ सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ ॥ २८५ ॥
Chaupai / चोपाई
प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही ॥ तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी ॥
जनक राम गुर आयसु पाई। चले थलहि सिय देखी आई ॥ लीन्हि लाइ उर जनक जानकी। पाहुन पावन पेम प्रान की ॥
उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू। भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू ॥ सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा। ता पर राम पेम सिसु सोहा ॥
चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु। बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु ॥ मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की ॥
Doha / दोहा
दो. सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि। धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि ॥ २८६ ॥
Chaupai / चोपाई
तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ पेमु परितोषु बिसेषी ॥ पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ ॥
जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी। गवनु कीन्ह बिधि अंड करोरी ॥ गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे। एहिं किए साधु समाज घनेरे ॥
पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी। सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी ॥ पुनि पितु मातु लीन्ह उर लाई। सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई ॥
कहति न सीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं ॥ लखि रुख रानि जनायउ राऊ। हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ ॥
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