ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Chaupai / चोपाई
आपु आश्रमहि धारिअ पाऊ। भयउ सनेह सिथिल मुनिराऊ ॥ करि प्रनाम तब रामु सिधाए। रिषि धरि धीर जनक पहिं आए ॥
राम बचन गुरु नृपहि सुनाए। सील सनेह सुभायँ सुहाए ॥ महाराज अब कीजिअ सोई। सब कर धरम सहित हित होई।
Doha / दोहा
दो. ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल। तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल ॥ २९१ ॥
Chaupai / चोपाई
सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे। लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे ॥ सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं। आए इहाँ कीन्ह भल नाही ॥
रामहि रायँ कहेउ बन जाना। कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना ॥ हम अब बन तें बनहि पठाई। प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई ॥
तापस मुनि महिसुर सुनि देखी। भए प्रेम बस बिकल बिसेषी ॥ समउ समुझि धरि धीरजु राजा। चले भरत पहिं सहित समाजा ॥
भरत आइ आगें भइ लीन्हे। अवसर सरिस सुआसन दीन्हे ॥ तात भरत कह तेरहुति राऊ। तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ ॥
Doha / दोहा
दो. राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु सनेहु ॥ संकट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु ॥ २९२ ॥
Chaupai / चोपाई
सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले भरतु धीर धरि भारी ॥ प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू ॥
कौसिकादि मुनि सचिव समाजू। ग्यान अंबुनिधि आपुनु आजू ॥ सिसु सेवक आयसु अनुगामी। जानि मोहि सिख देइअ स्वामी ॥
एहिं समाज थल बूझब राउर। मौन मलिन मैं बोलब बाउर ॥ छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता। छमब तात लखि बाम बिधाता ॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। सेवाधरमु कठिन जगु जाना ॥ स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू। बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू ॥
Doha / दोहा
दो. राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि। सब कें संमत सर्ब हित करिअ पेमु पहिचानि ॥ २९३ ॥
Chaupai / चोपाई
भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ। सहित समाज सराहत राऊ ॥ सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे ॥
ज्यौ मुख मुकुर मुकुरु निज पानी। गहि न जाइ अस अदभुत बानी ॥ भूप भरत मुनि सहित समाजू। गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू ॥
सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा। मनहुँ मीनगन नव जल जोगा ॥ देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी। निरखि बिदेह सनेह बिसेषी ॥
राम भगतिमय भरतु निहारे। सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे ॥ सब कोउ राम पेममय पेखा। भउ अलेख सोच बस लेखा ॥
Doha / दोहा
दो. रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराज। रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु ॥ २९४ ॥
Chaupai / चोपाई
सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही। देबि देव सरनागत पाही ॥ फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया ॥
बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी। बोली सुर स्वारथ जड़ जानी ॥ मो सन कहहु भरत मति फेरू। लोचन सहस न सूझ सुमेरू ॥
बिधि हरि हर माया बड़ि भारी। सोउ न भरत मति सकइ निहारी ॥ सो मति मोहि कहत करु भोरी। चंदिनि कर कि चंडकर चोरी ॥
भरत हृदयँ सिय राम निवासू। तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू ॥ अस कहि सारद गइ बिधि लोका। बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका ॥
Doha / दोहा
दो. सुर स्वारथी मलीन मन कीन्ह कुमंत्र कुठाटु ॥ रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु ॥ २९५ ॥
Chaupai / चोपाई
करि कुचालि सोचत सुरराजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू ॥ गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा ॥
समय समाज धरम अबिरोधा। बोले तब रघुबंस पुरोधा ॥ जनक भरत संबादु सुनाई। भरत कहाउति कही सुहाई ॥
तात राम जस आयसु देहू। सो सबु करै मोर मत एहू ॥ सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी। बोले सत्य सरल मृदु बानी ॥
बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू। मोर कहब सब भाँति भदेसू ॥ राउर राय रजायसु होई। राउरि सपथ सही सिर सोई ॥
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