ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Doha / दोहा
दो. राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत। सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न उतरु देत ॥ २९६ ॥
Chaupai / चोपाई
सभा सकुच बस भरत निहारी। रामबंधु धरि धीरजु भारी ॥ कुसमउ देखि सनेहु सँभारा। बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा ॥
सोक कनकलोचन मति छोनी। हरी बिमल गुन गन जगजोनी ॥ भरत बिबेक बराहँ बिसाला। अनायास उधरी तेहि काला ॥
करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे। रामु राउ गुर साधु निहोरे ॥ छमब आजु अति अनुचित मोरा। कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा ॥
हियँ सुमिरी सारदा सुहाई। मानस तें मुख पंकज आई ॥ बिमल बिबेक धरम नय साली। भरत भारती मंजु मराली ॥
Doha / दोहा
दो. निरखि बिबेक बिलोचनन्हि सिथिल सनेहँ समाजु। करि प्रनामु बोले भरतु सुमिरि सीय रघुराजु ॥ २९७ ॥
Chaupai / चोपाई
प्रभु पितु मातु सुह्रद गुर स्वामी। पूज्य परम हित अतंरजामी ॥ सरल सुसाहिबु सील निधानू। प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू ॥
समरथ सरनागत हितकारी। गुनगाहकु अवगुन अघ हारी ॥ स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाई। मोहि समान मैं साइँ दोहाई ॥
प्रभु पितु बचन मोह बस पेली। आयउँ इहाँ समाजु सकेली ॥ जग भल पोच ऊँच अरु नीचू। अमिअ अमरपद माहुरु मीचू ॥
राम रजाइ मेट मन माहीं। देखा सुना कतहुँ कोउ नाहीं ॥ सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई। प्रभु मानी सनेह सेवकाई ॥
Doha / दोहा
दो. कृपाँ भलाई आपनी नाथ कीन्ह भल मोर। दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहु ओर ॥ २९८ ॥
Chaupai / चोपाई
राउरि रीति सुबानि बड़ाई। जगत बिदित निगमागम गाई ॥ कूर कुटिल खल कुमति कलंकी। नीच निसील निरीस निसंकी ॥
तेउ सुनि सरन सामुहें आए। सकृत प्रनामु किहें अपनाए ॥ देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने ॥
को साहिब सेवकहि नेवाजी। आपु समाज साज सब साजी ॥ निज करतूति न समुझिअ सपनें। सेवक सकुच सोचु उर अपनें ॥
सो गोसाइँ नहि दूसर कोपी। भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी ॥ पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना ॥
Doha / दोहा
दो. यों सुधारि सनमानि जन किए साधु सिरमोर। को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर ॥ २९९ ॥
Chaupai / चोपाई
सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ ॥ तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा ॥
देखेउँ पाय सुमंगल मूला। जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला ॥ बड़ें समाज बिलोकेउँ भागू। बड़ीं चूक साहिब अनुरागू ॥
कृपा अनुग्रह अंगु अघाई। कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई ॥ राखा मोर दुलार गोसाईं। अपनें सील सुभायँ भलाईं ॥
नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई। स्वामि समाज सकोच बिहाई ॥ अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिहि देउ अति आरति जानी ॥
Doha / दोहा
दो. सुह्रद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि। आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि ॥ ३०० ॥
Chaupai / चोपाई
प्रभु पद पदुम पराग दोहाई। सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई ॥ सो करि कहउँ हिए अपने की। रुचि जागत सोवत सपने की ॥
सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई। स्वारथ छल फल चारि बिहाई ॥ अग्या सम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु जन पावै देवा ॥
अस कहि प्रेम बिबस भए भारी। पुलक सरीर बिलोचन बारी ॥ प्रभु पद कमल गहे अकुलाई। समउ सनेहु न सो कहि जाई ॥
कृपासिंधु सनमानि सुबानी। बैठाए समीप गहि पानी ॥ भरत बिनय सुनि देखि सुभाऊ। सिथिल सनेहँ सभा रघुराऊ ॥
Chanda / छन्द
छं. रघुराउ सिथिल सनेहँ साधु समाज मुनि मिथिला धनी। मन महुँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी ॥ भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से। तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से ॥
Sortha / सोरठा
सो. देखि दुखारी दीन दुहु समाज नर नारि सब। मघवा महा मलीन मुए मारि मंगल चहत ॥ ३०१ ॥
Chaupai / चोपाई
कपट कुचालि सीवँ सुरराजू। पर अकाज प्रिय आपन काजू ॥ काक समान पाकरिपु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती ॥
प्रथम कुमत करि कपटु सँकेला। सो उचाटु सब कें सिर मेला ॥ सुरमायाँ सब लोग बिमोहे। राम प्रेम अतिसय न बिछोहे ॥
भय उचाट बस मन थिर नाहीं। छन बन रुचि छन सदन सोहाहीं ॥ दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी। सरित सिंधु संगम जनु बारी ॥
दुचित कतहुँ परितोषु न लहहीं। एक एक सन मरमु न कहहीं ॥ लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू। सरिस स्वान मघवान जुबानू ॥
Doha / दोहा
दो. भरतु जनकु मुनिजन सचिव साधु सचेत बिहाइ। लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ ॥ ३०२ ॥
Chaupai / चोपाई
कृपासिंधु लखि लोग दुखारे। निज सनेहँ सुरपति छल भारे ॥ सभा राउ गुर महिसुर मंत्री। भरत भगति सब कै मति जंत्री ॥
रामहि चितवत चित्र लिखे से। सकुचत बोलत बचन सिखे से ॥ भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई। सुनत सुखद बरनत कठिनाई ॥
जासु बिलोकि भगति लवलेसू। प्रेम मगन मुनिगन मिथिलेसू ॥ महिमा तासु कहै किमि तुलसी। भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी ॥
आपु छोटि महिमा बड़ि जानी। कबिकुल कानि मानि सकुचानी ॥ कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई। मति गति बाल बचन की नाई ॥
Doha / दोहा
दो. भरत बिमल जसु बिमल बिधु सुमति चकोरकुमारि। उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारि ॥ ३०३ ॥
Chaupai / चोपाई
भरत सुभाउ न सुगम निगमहूँ। लघु मति चापलता कबि छमहूँ ॥ कहत सुनत सति भाउ भरत को। सीय राम पद होइ न रत को ॥
सुमिरत भरतहि प्रेमु राम को। जेहि न सुलभ तेहि सरिस बाम को ॥ देखि दयाल दसा सबही की। राम सुजान जानि जन जी की ॥
धरम धुरीन धीर नय नागर। सत्य सनेह सील सुख सागर ॥ देसु काल लखि समउ समाजू। नीति प्रीति पालक रघुराजू ॥
बोले बचन बानि सरबसु से। हित परिनाम सुनत ससि रसु से ॥ तात भरत तुम्ह धरम धुरीना। लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना ॥
Doha / दोहा
दो. करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम्ह तात। गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात ॥ ३०४ ॥
Chaupai / चोपाई
जानहु तात तरनि कुल रीती। सत्यसंध पितु कीरति प्रीती ॥ समउ समाजु लाज गुरुजन की। उदासीन हित अनहित मन की ॥
तुम्हहि बिदित सबही कर करमू। आपन मोर परम हित धरमू ॥ मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा। तदपि कहउँ अवसर अनुसारा ॥
तात तात बिनु बात हमारी। केवल गुरुकुल कृपाँ सँभारी ॥ नतरु प्रजा परिजन परिवारू। हमहि सहित सबु होत खुआरू ॥
जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू। जग केहि कहहु न होइ कलेसू ॥ तस उतपातु तात बिधि कीन्हा। मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा ॥
Doha / दोहा
दो. राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम। गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम ॥ ३०५ ॥
Chaupai / चोपाई
सहित समाज तुम्हार हमारा। घर बन गुर प्रसाद रखवारा ॥ मातु पिता गुर स्वामि निदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू ॥
सो तुम्ह करहु करावहु मोहू। तात तरनिकुल पालक होहू ॥ साधक एक सकल सिधि देनी। कीरति सुगति भूतिमय बेनी ॥
सो बिचारि सहि संकटु भारी। करहु प्रजा परिवारु सुखारी ॥ बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई। तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई ॥
जानि तुम्हहि मृदु कहउँ कठोरा। कुसमयँ तात न अनुचित मोरा ॥ होहिं कुठायँ सुबंधु सुहाए। ओड़िअहिं हाथ असनिहु के घाए ॥
Doha / दोहा
दो. सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ। तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ ॥ ३०६ ॥
Chaupai / चोपाई
सभा सकल सुनि रघुबर बानी। प्रेम पयोधि अमिअ जनु सानी ॥ सिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दसा चुप सारद साधी ॥
भरतहि भयउ परम संतोषू। सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू ॥ मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू। भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू ॥
कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी। बोले पानि पंकरुह जोरी ॥ नाथ भयउ सुखु साथ गए को। लहेउँ लाहु जग जनमु भए को ॥
अब कृपाल जस आयसु होई। करौं सीस धरि सादर सोई ॥ सो अवलंब देव मोहि देई। अवधि पारु पावौं जेहि सेई ॥
Doha / दोहा
दो. देव देव अभिषेक हित गुर अनुसासनु पाइ। आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ ॥ ३०७ ॥
Chaupai / चोपाई
एकु मनोरथु बड़ मन माहीं। सभयँ सकोच जात कहि नाहीं ॥ कहहु तात प्रभु आयसु पाई। बोले बानि सनेह सुहाई ॥
चित्रकूट सुचि थल तीरथ बन। खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन ॥ प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी। आयसु होइ त आवौं देखी ॥
अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू। तात बिगतभय कानन चरहू ॥ मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता। पावन परम सुहावन भ्राता ॥
रिषिनायकु जहँ आयसु देहीं। राखेहु तीरथ जलु थल तेहीं ॥ सुनि प्रभु बचन भरत सुख पावा। मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा ॥
Doha / दोहा
दो. भरत राम संबादु सुनि सकल सुमंगल मूल। सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल ॥ ३०८ ॥
Chaupai / चोपाई
धन्य भरत जय राम गोसाईं। कहत देव हरषत बरिआई। मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू। भरत बचन सुनि भयउ उछाहू ॥
भरत राम गुन ग्राम सनेहू। पुलकि प्रसंसत राउ बिदेहू ॥ सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन। नेमु पेमु अति पावन पावन ॥
मति अनुसार सराहन लागे। सचिव सभासद सब अनुरागे ॥ सुनि सुनि राम भरत संबादू। दुहु समाज हियँ हरषु बिषादू ॥
राम मातु दुखु सुखु सम जानी। कहि गुन राम प्रबोधीं रानी ॥ एक कहहिं रघुबीर बड़ाई। एक सराहत भरत भलाई ॥
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