ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Doha / दोहा
दो. परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु । प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु ॥ ५६ ॥
Chaupai / चोपाई
तब संकर प्रभु पद सिरु नावा । सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा ॥ एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं । सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं ॥
अस बिचारि संकरु मतिधीरा । चले भवन सुमिरत रघुबीरा ॥ चलत गगन भै गिरा सुहाई । जय महेस भलि भगति दृढ़ाई ॥
अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना । रामभगत समरथ भगवाना ॥ सुनि नभगिरा सती उर सोचा । पूछा सिवहि समेत सकोचा ॥
कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला । सत्यधाम प्रभु दीनदयाला ॥ जदपि सतीं पूछा बहु भाँती । तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती ॥
Doha / दोहा
दो. सतीं हृदय अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य । कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य ॥ ५७क ॥
Chaupai / चोपाई
हृदयँ सोचु समुझत निज करनी । चिंता अमित जाइ नहि बरनी ॥ कृपासिंधु सिव परम अगाधा । प्रगट न कहेउ मोर अपराधा ॥
संकर रुख अवलोकि भवानी । प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी ॥ निज अघ समुझि न कछु कहि जाई । तपइ अवाँ इव उर अधिकाई ॥
सतिहि ससोच जानि बृषकेतू । कहीं कथा सुंदर सुख हेतू ॥ बरनत पंथ बिबिध इतिहासा । बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा ॥
तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन । बैठे बट तर करि कमलासन ॥ संकर सहज सरुप संहारा । लागि समाधि अखंड अपारा ॥
Doha / दोहा
दो. सती बसहि कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं । मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं ॥ ५८ ॥
Chaupai / चोपाई
नित नव सोचु सतीं उर भारा । कब जैहउँ दुख सागर पारा ॥ मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना । पुनिपति बचनु मृषा करि जाना ॥
सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा । जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा ॥ अब बिधि अस बूझिअ नहि तोही । संकर बिमुख जिआवसि मोही ॥
कहि न जाई कछु हृदय गलानी । मन महुँ रामाहि सुमिर सयानी ॥ जौ प्रभु दीनदयालु कहावा । आरती हरन बेद जसु गावा ॥
तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी । छूटउ बेगि देह यह मोरी ॥ जौं मोरे सिव चरन सनेहू । मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू ॥
Doha / दोहा
दो. तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ । होइ मरनु जेही बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ ॥ ५९ ॥
Sortha/ सोरठा
सो. जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि । बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि ॥ ५७ख ॥
Chaupai / चोपाई
एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी । अकथनीय दारुन दुखु भारी ॥ बीतें संबत सहस सतासी । तजी समाधि संभु अबिनासी ॥
राम नाम सिव सुमिरन लागे । जानेउ सतीं जगतपति जागे ॥ जाइ संभु पद बंदनु कीन्ही । सनमुख संकर आसनु दीन्हा ॥
लगे कहन हरिकथा रसाला । दच्छ प्रजेस भए तेहि काला ॥ देखा बिधि बिचारि सब लायक । दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक ॥
बड़ अधिकार दच्छ जब पावा । अति अभिमानु हृदयँ तब आवा ॥ नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं । प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ॥
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