ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Doha / दोहा
दो. लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान । होहि सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान ॥ ९१ ॥
Chaupai / चोपाई
सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा । जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा ॥ कुंडल कंकन पहिरे ब्याला । तन बिभूति पट केहरि छाला ॥
ससि ललाट सुंदर सिर गंगा । नयन तीनि उपबीत भुजंगा ॥ गरल कंठ उर नर सिर माला । असिव बेष सिवधाम कृपाला ॥
कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा । चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा ॥ देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं । बर लायक दुलहिनि जग नाहीं ॥
बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता । चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता ॥ सुर समाज सब भाँति अनूपा । नहिं बरात दूलह अनुरूपा ॥
Doha / दोहा
दो. बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज । बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज ॥ ९२ ॥
Chaupai / चोपाई
बर अनुहारि बरात न भाई । हँसी करैहहु पर पुर जाई ॥ बिष्नु बचन सुनि सुर मुसकाने । निज निज सेन सहित बिलगाने ॥
मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं । हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं ॥ अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे । भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे ॥
सिव अनुसासन सुनि सब आए । प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए ॥ नाना बाहन नाना बेषा । बिहसे सिव समाज निज देखा ॥
कोउ मुखहीन बिपुल मुख काहू । बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू ॥ बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना । रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना ॥
Chanda / छन्द
छं. तन खीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें । भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें ॥ खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै । बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै ॥
Sortha/ सोरठा
सो. नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब । देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि ॥ ९३ ॥
Chaupai / चोपाई
जस दूलहु तसि बनी बराता । कौतुक बिबिध होहिं मग जाता ॥ इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना । अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना ॥
सैल सकल जहँ लगि जग माहीं । लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं ॥ बन सागर सब नदीं तलावा । हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा ॥
कामरूप सुंदर तन धारी । सहित समाज सहित बर नारी ॥ गए सकल तुहिनाचल गेहा । गावहिं मंगल सहित सनेहा ॥
प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए । जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए ॥ पुर सोभा अवलोकि सुहाई । लागइ लघु बिरंचि निपुनाई ॥
Chanda / छन्द
छं. लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही । बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही ॥ मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं ॥ बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं ॥
Doha / दोहा
दो. जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ । रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ ॥ ९४ ॥
Chaupai / चोपाई
नगर निकट बरात सुनि आई । पुर खरभरु सोभा अधिकाई ॥ करि बनाव सजि बाहन नाना । चले लेन सादर अगवाना ॥
हियँ हरषे सुर सेन निहारी । हरिहि देखि अति भए सुखारी ॥ सिव समाज जब देखन लागे । बिडरि चले बाहन सब भागे ॥
धरि धीरजु तहँ रहे सयाने । बालक सब लै जीव पराने ॥ गएँ भवन पूछहिं पितु माता । कहहिं बचन भय कंपित गाता ॥
कहिअ काह कहि जाइ न बाता । जम कर धार किधौं बरिआता ॥ बरु बौराह बसहँ असवारा । ब्याल कपाल बिभूषन छारा ॥
Chanda / छन्द
छं. तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा । सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा ॥ जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही । देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही ॥
Doha / दोहा
दो. समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं । बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं ॥ ९५ ॥
Chaupai / चोपाई
लै अगवान बरातहि आए । दिए सबहि जनवास सुहाए ॥ मैनाँ सुभ आरती सँवारी । संग सुमंगल गावहिं नारी ॥
कंचन थार सोह बर पानी । परिछन चली हरहि हरषानी ॥ बिकट बेष रुद्रहि जब देखा । अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा ॥
भागि भवन पैठीं अति त्रासा । गए महेसु जहाँ जनवासा ॥ मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी । लीन्ही बोलि गिरीसकुमारी ॥
अधिक सनेहँ गोद बैठारी । स्याम सरोज नयन भरे बारी ॥ जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा । तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा ॥
Chanda / छन्द
छं. कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई । जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई ॥ तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं ॥ घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं ॥
Doha / दोहा
दो. भई बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि । करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि ॥ ९६ ॥
Chaupai / चोपाई
नारद कर मैं काह बिगारा । भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा ॥ अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा । बौरे बरहि लगि तपु कीन्हा ॥
साचेहुँ उन्ह के मोह न माया । उदासीन धनु धामु न जाया ॥ पर घर घालक लाज न भीरा । बाझँ कि जान प्रसव कैं पीरा ॥
जननिहि बिकल बिलोकि भवानी । बोली जुत बिबेक मृदु बानी ॥ अस बिचारि सोचहि मति माता । सो न टरइ जो रचइ बिधाता ॥
करम लिखा जौ बाउर नाहू । तौ कत दोसु लगाइअ काहू ॥ तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका । मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका ॥
Chanda / छन्द
छं. जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं । दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं ॥ सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं ॥ बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं ॥
Doha / दोहा
दो. तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत । समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत ॥ ९७ ॥
Chaupai / चोपाई
तब नारद सबहि समुझावा । पूरुब कथाप्रसंगु सुनावा ॥ मयना सत्य सुनहु मम बानी । जगदंबा तव सुता भवानी ॥
अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि । सदा संभु अरधंग निवासिनि ॥ जग संभव पालन लय कारिनि । निज इच्छा लीला बपु धारिनि ॥
जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई । नामु सती सुंदर तनु पाई ॥ तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं । कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं ॥
एक बार आवत सिव संगा । देखेउ रघुकुल कमल पतंगा ॥ भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा । भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा ॥
Chanda / छन्द
छं. सिय बेषु सती जो कीन्ह तेहि अपराध संकर परिहरीं । हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं ॥ अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया । अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकर प्रिया ॥
Doha / दोहा
दो. सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद । छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद ॥ ९८ ॥
Chaupai / चोपाई
तब मयना हिमवंतु अनंदे । पुनि पुनि पारबती पद बंदे ॥ नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने । नगर लोग सब अति हरषाने ॥
लगे होन पुर मंगलगाना । सजे सबहि हाटक घट नाना ॥ भाँति अनेक भई जेवराना । सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा ॥
सो जेवनार कि जाइ बखानी । बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी ॥ सादर बोले सकल बराती । बिष्नु बिरंचि देव सब जाती ॥
बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा । लागे परुसन निपुन सुआरा ॥ नारिबृंद सुर जेवँत जानी । लगीं देन गारीं मृदु बानी ॥
Chanda / छन्द
छं. गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं । भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं ॥ जेवँत जो बढ़्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो । अचवाँइ दीन्हे पान गवने बास जहँ जाको रह्यो ॥
Doha / दोहा
दो. बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ । समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ ॥ ९९ ॥
Chaupai / चोपाई
बोलि सकल सुर सादर लीन्हे । सबहि जथोचित आसन दीन्हे ॥ बेदी बेद बिधान सँवारी । सुभग सुमंगल गावहिं नारी ॥
सिंघासनु अति दिब्य सुहावा । जाइ न बरनि बिरंचि बनावा ॥ बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई । हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई ॥
बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाई । करि सिंगारु सखीं लै आई ॥ देखत रूपु सकल सुर मोहे । बरनै छबि अस जग कबि को है ॥
जगदंबिका जानि भव भामा । सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा ॥ सुंदरता मरजाद भवानी । जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी ॥
Chanda / छन्द
छं. कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा । सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा ॥ छबिखानि मातु भवानि गवनी मध्य मंडप सिव जहाँ ॥ अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ ॥
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