ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Doha / दोहा
दो. सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई ॥ राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ ॥ १४१ ॥
Chaupai / चोपाई
स्वायंभू मनु अरु सतरूपा । जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा ॥ दंपति धरम आचरन नीका । अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका ॥
नृप उत्तानपाद सुत तासू । ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू ॥ लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही । बेद पुरान प्रसंसहि जाही ॥
देवहूति पुनि तासु कुमारी । जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी ॥ आदिदेव प्रभु दीनदयाला । जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला ॥
सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना । तत्त्व बिचार निपुन भगवाना ॥ तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला । प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला ॥
Sortha/ सोरठा
सो. होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन । हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु ॥ १४२ ॥
Chaupai / चोपाई
बरबस राज सुतहि तब दीन्हा । नारि समेत गवन बन कीन्हा ॥ तीरथ बर नैमिष बिख्याता । अति पुनीत साधक सिधि दाता ॥
बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा । तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा ॥ पंथ जात सोहहिं मतिधीरा । ग्यान भगति जनु धरें सरीरा ॥
पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा । हरषि नहाने निरमल नीरा ॥ आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी । धरम धुरंधर नृपरिषि जानी ॥
जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए । मुनिन्ह सकल सादर करवाए ॥ कृस सरीर मुनिपट परिधाना । सत समाज नित सुनहिं पुराना ।
Doha / दोहा
दो. द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग । बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग ॥ १४३ ॥
Chaupai / चोपाई
करहिं अहार साक फल कंदा । सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा ॥ पुनि हरि हेतु करन तप लागे । बारि अधार मूल फल त्यागे ॥
उर अभिलाष निंरंतर होई । देखा नयन परम प्रभु सोई ॥ अगुन अखंड अनंत अनादी । जेहि चिंतहिं परमारथबादी ॥
नेति नेति जेहि बेद निरूपा । निजानंद निरुपाधि अनूपा ॥ संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना । उपजहिं जासु अंस तें नाना ॥
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई । भगत हेतु लीलातनु गहई ॥ जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा । तौ हमार पूजहि अभिलाषा ॥
Doha / दोहा
दो. एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार । संबत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार ॥ १४४ ॥
Chaupai / चोपाई
बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ । ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥ बिधि हरि तप देखि अपारा । मनु समीप आए बहु बारा ॥
मागहु बर बहु भाँति लोभाए । परम धीर नहिं चलहिं चलाए ॥ अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा । तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा ॥
प्रभु सर्बग्य दास निज जानी । गति अनन्य तापस नृप रानी ॥ मागु मागु बरु भै नभ बानी । परम गभीर कृपामृत सानी ॥
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई । श्रबन रंध्र होइ उर जब आई ॥ ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए । मानहुँ अबहिं भवन ते आए ॥
Doha / दोहा
दो. श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात । बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात ॥ १४५ ॥
Chaupai / चोपाई
सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु । बिधि हरि हर बंदित पद रेनू ॥ सेवत सुलभ सकल सुख दायक । प्रनतपाल सचराचर नायक ॥
जौं अनाथ हित हम पर नेहू । तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू ॥ जो सरूप बस सिव मन माहीं । जेहि कारन मुनि जतन कराहीं ॥
जो भुसुंडि मन मानस हंसा । सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा ॥ देखहिं हम सो रूप भरि लोचन । कृपा करहु प्रनतारति मोचन ॥
दंपति बचन परम प्रिय लागे । मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे ॥ भगत बछल प्रभु कृपानिधाना । बिस्वबास प्रगटे भगवाना ॥
Doha / दोहा
दो. नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम । लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥ १४६ ॥
Chaupai / चोपाई
सरद मयंक बदन छबि सींवा । चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा ॥ अधर अरुन रद सुंदर नासा । बिधु कर निकर बिनिंदक हासा ॥
नव अबुंज अंबक छबि नीकी । चितवनि ललित भावँती जी की ॥ भुकुटि मनोज चाप छबि हारी । तिलक ललाट पटल दुतिकारी ॥
कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा । कुटिल केस जनु मधुप समाजा ॥ उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला । पदिक हार भूषन मनिजाला ॥
केहरि कंधर चारु जनेउ । बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ ॥ करि कर सरि सुभग भुजदंडा । कटि निषंग कर सर कोदंडा ॥
Doha / दोहा
दो. तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि ॥ नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि ॥ १४७ ॥
Chaupai / चोपाई
पद राजीव बरनि नहि जाहीं । मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं ॥ बाम भाग सोभति अनुकूला । आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला ॥
जासु अंस उपजहिं गुनखानी । अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ॥ भृकुटि बिलास जासु जग होई । राम बाम दिसि सीता सोई ॥
छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी । एकटक रहे नयन पट रोकी ॥ चितवहिं सादर रूप अनूपा । तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा ॥
हरष बिबस तन दसा भुलानी । परे दंड इव गहि पद पानी ॥ सिर परसे प्रभु निज कर कंजा । तुरत उठाए करुनापुंजा ॥
Doha / दोहा
दो. बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि । मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि ॥ १४८ ॥
Chaupai / चोपाई
सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी । धरि धीरजु बोली मृदु बानी ॥ नाथ देखि पद कमल तुम्हारे । अब पूरे सब काम हमारे ॥
एक लालसा बड़ि उर माही । सुगम अगम कहि जात सो नाहीं ॥ तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं । अगम लाग मोहि निज कृपनाईं ॥
जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई । बहु संपति मागत सकुचाई ॥ तासु प्रभा जान नहिं सोई । तथा हृदयँ मम संसय होई ॥
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी । पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी ॥ सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि । मोरें नहिं अदेय कछु तोही ॥
Doha / दोहा
दो. दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ ॥ चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ ॥ १४९ ॥
Chaupai / चोपाई
देखि प्रीति सुनि बचन अमोले । एवमस्तु करुनानिधि बोले ॥ आपु सरिस खोजौं कहँ जाई । नृप तव तनय होब मैं आई ॥
सतरूपहि बिलोकि कर जोरें । देबि मागु बरु जो रुचि तोरे ॥ जो बरु नाथ चतुर नृप मागा । सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा ॥
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई । जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई ॥ तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी । ब्रह्म सकल उर अंतरजामी ॥
अस समुझत मन संसय होई । कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई ॥ जे निज भगत नाथ तव अहहीं । जो सुख पावहिं जो गति लहहीं ॥
Doha / दोहा
दो. सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु ॥ सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु ॥ १५० ॥
Chaupai / चोपाई
सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना । कृपासिंधु बोले मृदु बचना ॥ जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं । मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं ॥
मातु बिबेक अलोकिक तोरें । कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें । बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी । अवर एक बिनति प्रभु मोरी ॥
सुत बिषइक तव पद रति होऊ । मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ ॥ मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना । मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना ॥
अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ । एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ ॥ अब तुम्ह मम अनुसासन मानी । बसहु जाइ सुरपति रजधानी ॥
Sortha/ सोरठा
सो. तहँ करि भोग बिसाल तात गउँ कछु काल पुनि । होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत ॥ १५१ ॥
Chaupai / चोपाई
इच्छामय नरबेष सँवारें । होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे ॥ अंसन्ह सहित देह धरि ताता । करिहउँ चरित भगत सुखदाता ॥
जे सुनि सादर नर बड़भागी । भव तरिहहिं ममता मद त्यागी ॥ आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया । सोउ अवतरिहि मोरि यह माया ॥
पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा । सत्य सत्य पन सत्य हमारा ॥ पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना । अंतरधान भए भगवाना ॥
दंपति उर धरि भगत कृपाला । तेहिं आश्रम निवसे कछु काला ॥ समय पाइ तनु तजि अनयासा । जाइ कीन्ह अमरावति बासा ॥
Doha / दोहा
दो. यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु । भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु ॥ १५२ ॥
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