ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Chaupai / चोपाई
सीय स्वयंबरु देखिअ जाई । ईसु काहि धौं देइ बड़ाई ॥ लखन कहा जस भाजनु सोई । नाथ कृपा तव जापर होई ॥
हरषे मुनि सब सुनि बर बानी । दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी ॥ पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला । देखन चले धनुषमख साला ॥
रंगभूमि आए दोउ भाई । असि सुधि सब पुरबासिंह पाई ॥ चले सकल गृह काज बिसारी । बाल जुबान जरठ नर नारी ॥
देखी जनक भीर भै भारी । सुचि सेवक सब लिए हँकारी ॥ तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू । आसन उचित देहू सब काहू ॥
Doha / दोहा
दो. कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि । उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि ॥ २४० ॥
Chaupai / चोपाई
राजकुअँर तेहि अवसर आए । मनहुँ मनोहरता तन छाए ॥ गुन सागर नागर बर बीरा । सुंदर स्यामल गौर सरीरा ॥
राज समाज बिराजत रूरे । उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे ॥ जिन्ह कें रही भावना जैसी । प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥
देखहिं रूप महा रनधीरा । मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा ॥ डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी । मनहुँ भयानक मूरति भारी ॥
रहे असुर छल छोनिप बेषा । तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा ॥ पुरबासिंह देखे दोउ भाई । नरभूषन लोचन सुखदाई ॥
Doha / दोहा
दो. नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप । जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप ॥ २४१ ॥
Chaupai / चोपाई
बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा । बहु मुख कर पग लोचन सीसा ॥ जनक जाति अवलोकहिं कैसैं । सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें ॥
सहित बिदेह बिलोकहिं रानी । सिसु सम प्रीति न जाति बखानी ॥ जोगिन्ह परम तत्त्वमय भासा । सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा ॥
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता । इष्टदेव इव सब सुख दाता ॥ रामहि चितव भायँ जेहि सीया । सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया ॥
उर अनुभवति न कहि सक सोऊ । कवन प्रकार कहै कबि कोऊ ॥ एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ । तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ ॥
Doha / दोहा
दो. राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर । सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर ॥ २४२ ॥
Chaupai / चोपाई
सहज मनोहर मूरति दोऊ । कोटि काम उपमा लघु सोऊ ॥ सरद चंद निंदक मुख नीके । नीरज नयन भावते जी के ॥
चितवत चारु मार मनु हरनी । भावति हृदय जाति नहीं बरनी ॥ कल कपोल श्रुति कुंडल लोला । चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला ॥
कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा । भृकुटी बिकट मनोहर नासा ॥ भाल बिसाल तिलक झलकाहीं । कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं ॥
पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई । कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं ॥ रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ । जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ ॥
Doha / दोहा
दो. कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल । बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल ॥ २४३ ॥
Chaupai / चोपाई
कटि तूनीर पीत पट बाँधे । कर सर धनुष बाम बर काँधे ॥ पीत जग्य उपबीत सुहाए । नख सिख मंजु महाछबि छाए ॥
देखि लोग सब भए सुखारे । एकटक लोचन चलत न तारे ॥ हरषे जनकु देखि दोउ भाई । मुनि पद कमल गहे तब जाई ॥
करि बिनती निज कथा सुनाई । रंग अवनि सब मुनिहि देखाई ॥ जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ । तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ ॥
निज निज रुख रामहि सबु देखा । कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा ॥ भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ । राजाँ मुदित महासुख लहेऊ ॥
Doha / दोहा
दो. सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल । मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल ॥ २४४ ॥
Chaupai / चोपाई
प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे । जनु राकेस उदय भएँ तारे ॥ असि प्रतीति सब के मन माहीं । राम चाप तोरब सक नाहीं ॥
बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला । मेलिहि सीय राम उर माला ॥ अस बिचारि गवनहु घर भाई । जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई ॥
बिहसे अपर भूप सुनि बानी । जे अबिबेक अंध अभिमानी ॥ तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा । बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा ॥
एक बार कालउ किन होऊ । सिय हित समर जितब हम सोऊ ॥ यह सुनि अवर महिप मुसकाने । धरमसील हरिभगत सयाने ॥
Sortha/ सोरठा
सो. सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के ॥ जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे ॥ २४५ ॥
Chaupai / चोपाई
ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई । मन मोदकन्हि कि भूख बुताई ॥ सिख हमारि सुनि परम पुनीता । जगदंबा जानहु जियँ सीता ॥
जगत पिता रघुपतिहि बिचारी । भरि लोचन छबि लेहु निहारी ॥ सुंदर सुखद सकल गुन रासी । ए दोउ बंधु संभु उर बासी ॥
सुधा समुद्र समीप बिहाई । मृगजलु निरखि मरहु कत धाई ॥ करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा । हम तौ आजु जनम फलु पावा ॥
अस कहि भले भूप अनुरागे । रूप अनूप बिलोकन लागे ॥ देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना । बरषहिं सुमन करहिं कल गाना ॥
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