ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Doha / दोहा
दो. बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर । करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर ॥ २६२ ॥
Chaupai / चोपाई
झाँझि मृदंग संख सहनाई । भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई ॥ बाजहिं बहु बाजने सुहाए । जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए ॥
सखिन्ह सहित हरषी अति रानी । सूखत धान परा जनु पानी ॥ जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई । पैरत थकें थाह जनु पाई ॥
श्रीहत भए भूप धनु टूटे । जैसें दिवस दीप छबि छूटे ॥ सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती । जनु चातकी पाइ जलु स्वाती ॥
रामहि लखनु बिलोकत कैसें । ससिहि चकोर किसोरकु जैसें ॥ सतानंद तब आयसु दीन्हा । सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा ॥
Doha / दोहा
दो. संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार । गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार ॥ २६३ ॥
Chaupai / चोपाई
सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे । छबिगन मध्य महाछबि जैसें ॥ कर सरोज जयमाल सुहाई । बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई ॥
तन सकोचु मन परम उछाहू । गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू ॥ जाइ समीप राम छबि देखी । रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी ॥
चतुर सखीं लखि कहा बुझाई । पहिरावहु जयमाल सुहाई ॥ सुनत जुगल कर माल उठाई । प्रेम बिबस पहिराइ न जाई ॥
सोहत जनु जुग जलज सनाला । ससिहि सभीत देत जयमाला ॥ गावहिं छबि अवलोकि सहेली । सियँ जयमाल राम उर मेली ॥
Sortha/ सोरठा
सो. रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन । सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन ॥ २६४ ॥
Chaupai / चोपाई
पुर अरु ब्योम बाजने बाजे । खल भए मलिन साधु सब राजे ॥ सुर किंनर नर नाग मुनीसा । जय जय जय कहि देहिं असीसा ॥
नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं । बार बार कुसुमांजलि छूटीं ॥ जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं । बंदी बिरदावलि उच्चरहीं ॥
महि पाताल नाक जसु ब्यापा । राम बरी सिय भंजेउ चापा ॥ करहिं आरती पुर नर नारी । देहिं निछावरि बित्त बिसारी ॥
सोहति सीय राम कै जौरी । छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी ॥ सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता । करति न चरन परस अति भीता ॥
Doha / दोहा
दो. गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि । मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि ॥ २६५ ॥
Chaupai / चोपाई
तब सिय देखि भूप अभिलाषे । कूर कपूत मूढ़ मन माखे ॥ उठि उठि पहिरि सनाह अभागे । जहँ तहँ गाल बजावन लागे ॥
लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ । धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ ॥ तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई । जीवत हमहि कुअँरि को बरई ॥
जौं बिदेहु कछु करै सहाई । जीतहु समर सहित दोउ भाई ॥ साधु भूप बोले सुनि बानी । राजसमाजहि लाज लजानी ॥
बलु प्रतापु बीरता बड़ाई । नाक पिनाकहि संग सिधाई ॥ सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई । असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई ॥
Doha / दोहा
दो. देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु । लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु ॥ २६६ ॥
Chaupai / चोपाई
बैनतेय बलि जिमि चह कागू । जिमि ससु चहै नाग अरि भागू ॥ जिमि चह कुसल अकारन कोही । सब संपदा चहै सिवद्रोही ॥
लोभी लोलुप कल कीरति चहई । अकलंकता कि कामी लहई ॥ हरि पद बिमुख परम गति चाहा । तस तुम्हार लालचु नरनाहा ॥
कोलाहलु सुनि सीय सकानी । सखीं लवाइ गईं जहँ रानी ॥ रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं । सिय सनेहु बरनत मन माहीं ॥
रानिन्ह सहित सोचबस सीया । अब धौं बिधिहि काह करनीया ॥ भूप बचन सुनि इत उत तकहीं । लखनु राम डर बोलि न सकहीं ॥
Doha / दोहा
दो. अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप । मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप ॥ २६७ ॥
Chaupai / चोपाई
खरभरु देखि बिकल पुर नारीं । सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं ॥ तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा । आयसु भृगुकुल कमल पतंगा ॥
देखि महीप सकल सकुचाने । बाज झपट जनु लवा लुकाने ॥ गौरि सरीर भूति भल भ्राजा । भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा ॥
सीस जटा ससिबदनु सुहावा । रिसबस कछुक अरुन होइ आवा ॥ भृकुटी कुटिल नयन रिस राते । सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते ॥
बृषभ कंध उर बाहु बिसाला । चारु जनेउ माल मृगछाला ॥ कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें । धनु सर कर कुठारु कल काँधें ॥
Doha / दोहा
दो. सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप । धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप ॥ २६८ ॥
Chaupai / चोपाई
देखत भृगुपति बेषु कराला । उठे सकल भय बिकल भुआला ॥ पितु समेत कहि कहि निज नामा । लगे करन सब दंड प्रनामा ॥
जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी । सो जानइ जनु आइ खुटानी ॥ जनक बहोरि आइ सिरु नावा । सीय बोलाइ प्रनामु करावा ॥
आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं । निज समाज लै गई सयानीं ॥ बिस्वामित्रु मिले पुनि आई । पद सरोज मेले दोउ भाई ॥
रामु लखनु दसरथ के ढोटा । दीन्हि असीस देखि भल जोटा ॥ रामहि चितइ रहे थकि लोचन । रूप अपार मार मद मोचन ॥
Doha / दोहा
दो. बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर ॥ पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर ॥ २६९ ॥
Chaupai / चोपाई
समाचार कहि जनक सुनाए । जेहि कारन महीप सब आए ॥ सुनत बचन फिरि अनत निहारे । देखे चापखंड महि डारे ॥
अति रिस बोले बचन कठोरा । कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा ॥ बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू । उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू ॥
अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं । कुटिल भूप हरषे मन माहीं ॥ सुर मुनि नाग नगर नर नारी ॥ सोचहिं सकल त्रास उर भारी ॥
मन पछिताति सीय महतारी । बिधि अब सँवरी बात बिगारी ॥ भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता । अरध निमेष कलप सम बीता ॥
Doha / दोहा
दो. सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु । हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु ॥ २७० ॥
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