कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो । एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो ॥ सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेम काहु न लखि परै ॥ मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै ॥ २ ॥
छं. लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली । नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली ॥ जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं । जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं ॥ १ ॥
जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई । मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई ॥ करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं । ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहै ॥ २ ॥
छं. बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए । तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु फल नए ॥ भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा । केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा ॥ १ ॥
तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै । माँडवी श्रुतिकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि के ॥ कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई । सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई ॥ २ ॥
कर जोरि जनकु बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों । बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों ॥ संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए । एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए ॥ २ ॥
तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा । चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चारयो मुदित मन सबहीं कहा ॥ जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी । चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी ॥ ४ ॥