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ॐ श्री गणेशाय नमः

Chanda / छन्द
छं. चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं । नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं ॥ कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं । मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गती बर बाजहीं ॥
Doha / दोहा
दो. सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय । छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय ॥ ३२२ ॥
Chaupai / चोपाई
सिय सुंदरता बरनि न जाई । लघु मति बहुत मनोहरताई ॥ आवत दीखि बरातिन्ह सीता ॥ रूप रासि सब भाँति पुनीता ॥
सबहि मनहिं मन किए प्रनामा । देखि राम भए पूरनकामा ॥ हरषे दसरथ सुतन्ह समेता । कहि न जाइ उर आनँदु जेता ॥
सुर प्रनामु करि बरसहिं फूला । मुनि असीस धुनि मंगल मूला ॥ गान निसान कोलाहलु भारी । प्रेम प्रमोद मगन नर नारी ॥
एहि बिधि सीय मंडपहिं आई । प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई ॥ तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू । दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू ॥
Chanda / छन्द
छं. आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं । सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं ॥ मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहैं । भरे कनक कोपर कलस सो सब लिएहिं परिचारक रहैं ॥ १ ॥
कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो । एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो ॥ सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेम काहु न लखि परै ॥ मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै ॥ २ ॥
Doha / दोहा
दो. होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं । बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं ॥ ३२३ ॥
Chaupai / चोपाई
जनक पाटमहिषी जग जानी । सीय मातु किमि जाइ बखानी ॥ सुजसु सुकृत सुख सुदंरताई । सब समेटि बिधि रची बनाई ॥
समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाई । सुनत सुआसिनि सादर ल्याई ॥ जनक बाम दिसि सोह सुनयना । हिमगिरि संग बनि जनु मयना ॥
कनक कलस मनि कोपर रूरे । सुचि सुंगध मंगल जल पूरे ॥ निज कर मुदित रायँ अरु रानी । धरे राम के आगें आनी ॥
पढ़हिं बेद मुनि मंगल बानी । गगन सुमन झरि अवसरु जानी ॥ बरु बिलोकि दंपति अनुरागे । पाय पुनीत पखारन लागे ॥
Chanda / छन्द
छं. लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली । नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली ॥ जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं । जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं ॥ १ ॥
जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई । मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई ॥ करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं । ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहै ॥ २ ॥
बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं । भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आँनद भरैं ॥ सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो । करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो ॥ ३ ॥
हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई । तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई ॥ क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरी । करि होम बिधिवत गाँठि जोरी होन लागी भावँरी ॥ ४ ॥
Doha / दोहा
दो. जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान । सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान ॥ ३२४ ॥
Chaupai / चोपाई
कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं ॥ नयन लाभु सब सादर लेहीं ॥ जाइ न बरनि मनोहर जोरी । जो उपमा कछु कहौं सो थोरी ॥
राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं । जगमगात मनि खंभन माहीं । मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा । देखत राम बिआहु अनूपा ॥
दरस लालसा सकुच न थोरी । प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी ॥ भए मगन सब देखनिहारे । जनक समान अपान बिसारे ॥
प्रमुदित मुनिन्ह भावँरी फेरी । नेगसहित सब रीति निबेरीं ॥ राम सीय सिर सेंदुर देहीं । सोभा कहि न जाति बिधि केहीं ॥
अरुन पराग जलजु भरि नीकें । ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें ॥ बहुरि बसिष्ठ दीन्ह अनुसासन । बरु दुलहिनि बैठे एक आसन ॥
Chanda / छन्द
छं. बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए । तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु फल नए ॥ भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा । केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा ॥ १ ॥
तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै । माँडवी श्रुतिकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि के ॥ कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई । सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई ॥ २ ॥
जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै । सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै ॥ जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी । सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी ॥ ३ ॥
अनुरुप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं । सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं ॥ सुंदरी सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं । जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिमुन सहित बिराजहीं ॥ ४ ॥
Doha / दोहा
दो. मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि । जनु पार महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि ॥ ३२५ ॥
Chaupai / चोपाई
जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी । सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी ॥ कहि न जाइ कछु दाइज भूरी । रहा कनक मनि मंडपु पूरी ॥
कंबल बसन बिचित्र पटोरे । भाँति भाँति बहु मोल न थोरे ॥ गज रथ तुरग दास अरु दासी । धेनु अलंकृत कामदुहा सी ॥
बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा । कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा ॥ लोकपाल अवलोकि सिहाने । लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने ॥
दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा । उबरा सो जनवासेहिं आवा ॥ तब कर जोरि जनकु मृदु बानी । बोले सब बरात सनमानी ॥
Chanda / छन्द
छं. सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै । प्रमुदित महा मुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै ॥ सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ । सुर साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ ॥ १ ॥
कर जोरि जनकु बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों । बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों ॥ संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए । एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए ॥ २ ॥
ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई । अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई ॥ पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए । कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए ॥ ३ ॥
बृंदारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले । दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले ॥ तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै । दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै ॥ ४ ॥
Doha / दोहा
दो. पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न । हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन ॥ ३२६ ॥
Chaupai / चोपाई
स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन । सोभा कोटि मनोज लजावन ॥ जावक जुत पद कमल सुहाए । मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए ॥
पीत पुनीत मनोहर धोती । हरति बाल रबि दामिनि जोती ॥ कल किंकिनि कटि सूत्र मनोहर । बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर ॥
पीत जनेउ महाछबि देई । कर मुद्रिका चोरि चितु लेई ॥ सोहत ब्याह साज सब साजे । उर आयत उरभूषन राजे ॥
पिअर उपरना काखासोती । दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती ॥ नयन कमल कल कुंडल काना । बदनु सकल सौंदर्ज निधाना ॥
सुंदर भृकुटि मनोहर नासा । भाल तिलकु रुचिरता निवासा ॥ सोहत मौरु मनोहर माथे । मंगलमय मुकुता मनि गाथे ॥
Chanda / छन्द
छं. गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं । पुर नारि सुर सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं ॥ मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहिं । सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं ॥ १ ॥
कोहबरहिं आने कुँअर कुँअरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै । अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै ॥ लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं । रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं ॥ २ ॥
निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की । चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी ॥ कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं । बर कुअँरि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं ॥ ३ ॥
तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा । चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चारयो मुदित मन सबहीं कहा ॥ जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी । चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी ॥ ४ ॥
Doha / दोहा
दो. सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास । सोभा मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास ॥ ३२७ ॥
Chaupai / चोपाई
पुनि जेवनार भई बहु भाँती । पठए जनक बोलाइ बराती ॥ परत पाँवड़े बसन अनूपा । सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा ॥
सादर सबके पाय पखारे । जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे ॥ धोए जनक अवधपति चरना । सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना ॥
बहुरि राम पद पंकज धोए । जे हर हृदय कमल महुँ गोए ॥ तीनिउ भाई राम सम जानी । धोए चरन जनक निज पानी ॥
आसन उचित सबहि नृप दीन्हे । बोलि सूपकारी सब लीन्हे ॥ सादर लगे परन पनवारे । कनक कील मनि पान सँवारे ॥
Doha / दोहा
दो. सूपोदन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत । छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत ॥ ३२८ ॥
Chaupai / चोपाई
पंच कवल करि जेवन लागे । गारि गान सुनि अति अनुरागे ॥ भाँति अनेक परे पकवाने । सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने ॥
परुसन लगे सुआर सुजाना । बिंजन बिबिध नाम को जाना ॥ चारि भाँति भोजन बिधि गाई । एक एक बिधि बरनि न जाई ॥
छरस रुचिर बिंजन बहु जाती । एक एक रस अगनित भाँती ॥ जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी । लै लै नाम पुरुष अरु नारी ॥
समय सुहावनि गारि बिराजा । हँसत राउ सुनि सहित समाजा ॥ एहि बिधि सबहीं भौजनु कीन्हा । आदर सहित आचमनु दीन्हा ॥
Doha / दोहा
दो. देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज । जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज ॥ ३२९ ॥
Chaupai / चोपाई
नित नूतन मंगल पुर माहीं । निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं ॥ बड़े भोर भूपतिमनि जागे । जाचक गुन गन गावन लागे ॥
देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता । किमि कहि जात मोदु मन जेता ॥ प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं । महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं ॥
करि प्रनाम पूजा कर जोरी । बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी ॥ तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा । भयउँ आजु मैं पूरनकाजा ॥
अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं । देहु धेनु सब भाँति बनाई ॥ सुनि गुर करि महिपाल बड़ाई । पुनि पठए मुनि बृंद बोलाई ॥
Doha / दोहा
दो. बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि । आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि ॥ ३३० ॥
Chaupai / चोपाई
दंड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे । पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे ॥ चारि लच्छ बर धेनु मगाई । कामसुरभि सम सील सुहाई ॥
सब बिधि सकल अलंकृत कीन्हीं । मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीं ॥ करत बिनय बहु बिधि नरनाहू । लहेउँ आजु जग जीवन लाहू ॥
पाइ असीस महीसु अनंदा । लिए बोलि पुनि जाचक बृंदा ॥ कनक बसन मनि हय गय स्यंदन । दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन ॥
चले पढ़त गावत गुन गाथा । जय जय जय दिनकर कुल नाथा ॥ एहि बिधि राम बिआह उछाहू । सकइ न बरनि सहस मुख जाहू ॥
Doha / दोहा
दो. बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ । यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ ॥ ३३१ ॥
Chaupai / चोपाई
जनक सनेहु सीलु करतूती । नृपु सब भाँति सराह बिभूती ॥ दिन उठि बिदा अवधपति मागा । राखहिं जनकु सहित अनुरागा ॥
नित नूतन आदरु अधिकाई । दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई ॥ नित नव नगर अनंद उछाहू । दसरथ गवनु सोहाइ न काहू ॥
बहुत दिवस बीते एहि भाँती । जनु सनेह रजु बँधे बराती ॥ कौसिक सतानंद तब जाई । कहा बिदेह नृपहि समुझाई ॥
अब दसरथ कहँ आयसु देहू । जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू ॥ भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए । कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए ॥
Doha / दोहा
दो. अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ । भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ ॥ ३३२ ॥
Chaupai / चोपाई
पुरबासी सुनि चलिहि बराता । बूझत बिकल परस्पर बाता ॥ सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने । मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने ॥
जहँ जहँ आवत बसे बराती । तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती ॥ बिबिध भाँति मेवा पकवाना । भोजन साजु न जाइ बखाना ॥
भरि भरि बसहँ अपार कहारा । पठई जनक अनेक सुसारा ॥ तुरग लाख रथ सहस पचीसा । सकल सँवारे नख अरु सीसा ॥
मत्त सहस दस सिंधुर साजे । जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे ॥ कनक बसन मनि भरि भरि जाना । महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना ॥
Doha / दोहा
दो. दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि । जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि ॥ ३३३ ॥
Chaupai / चोपाई
सबु समाजु एहि भाँति बनाई । जनक अवधपुर दीन्ह पठाई ॥ चलिहि बरात सुनत सब रानीं । बिकल मीनगन जनु लघु पानीं ॥
पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं । देइ असीस सिखावनु देहीं ॥ होएहु संतत पियहि पिआरी । चिरु अहिबात असीस हमारी ॥
सासु ससुर गुर सेवा करेहू । पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू ॥ अति सनेह बस सखीं सयानी । नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी ॥
सादर सकल कुअँरि समुझाई । रानिन्ह बार बार उर लाई ॥ बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं । कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं ॥
Doha / दोहा
दो. तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु । चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु ॥ ३३४ ॥
Chaupai / चोपाई
चारिअ भाइ सुभायँ सुहाए । नगर नारि नर देखन धाए ॥ कोउ कह चलन चहत हहिं आजू । कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू ॥
लेहु नयन भरि रूप निहारी । प्रिय पाहुने भूप सुत चारी ॥ को जानै केहि सुकृत सयानी । नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी ॥
मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा । सुरतरु लहै जनम कर भूखा ॥ पाव नारकी हरिपदु जैसें । इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसे ॥
निरखि राम सोभा उर धरहू । निज मन फनि मूरति मनि करहू ॥ एहि बिधि सबहि नयन फलु देता । गए कुअँर सब राज निकेता ॥
Doha / दोहा
दो. रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु । करहि निछावरि आरती महा मुदित मन सासु ॥ ३३५ ॥
Chaupai / चोपाई
देखि राम छबि अति अनुरागीं । प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं ॥ रही न लाज प्रीति उर छाई । सहज सनेहु बरनि किमि जाई ॥
भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए । छरस असन अति हेतु जेवाँए ॥ बोले रामु सुअवसरु जानी । सील सनेह सकुचमय बानी ॥
राउ अवधपुर चहत सिधाए । बिदा होन हम इहाँ पठाए ॥ मातु मुदित मन आयसु देहू । बालक जानि करब नित नेहू ॥
सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू । बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू ॥ हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही । पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही ॥
Chanda / छन्द
छं. करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै । बलि जाँउ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै ॥ परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी । तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी ॥
Sortha/ सोरठा
सो. तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय । जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन ॥ ३३६ ॥
Chaupai / चोपाई
अस कहि रही चरन गहि रानी । प्रेम पंक जनु गिरा समानी ॥ सुनि सनेहसानी बर बानी । बहुबिधि राम सासु सनमानी ॥
राम बिदा मागत कर जोरी । कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी ॥ पाइ असीस बहुरि सिरु नाई । भाइन्ह सहित चले रघुराई ॥
मंजु मधुर मूरति उर आनी । भई सनेह सिथिल सब रानी ॥ पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारी । बार बार भेटहिं महतारीं ॥
पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी । बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी ॥ पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई । बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई ॥
Doha / दोहा
दो. प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु । मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु ॥ ३३७ ॥
Chaupai / चोपाई
सुक सारिका जानकी ज्याए । कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए ॥ ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही । सुनि धीरजु परिहरइ न केही ॥
भए बिकल खग मृग एहि भाँति । मनुज दसा कैसें कहि जाती ॥ बंधु समेत जनकु तब आए । प्रेम उमगि लोचन जल छाए ॥
सीय बिलोकि धीरता भागी । रहे कहावत परम बिरागी ॥ लीन्हि राँय उर लाइ जानकी । मिटी महामरजाद ग्यान की ॥
समुझावत सब सचिव सयाने । कीन्ह बिचारु न अवसर जाने ॥ बारहिं बार सुता उर लाई । सजि सुंदर पालकीं मगाई ॥
Doha / दोहा
दो. प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस । कुँअरि चढ़ाई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस ॥ ३३८ ॥
Chaupai / चोपाई
बहुबिधि भूप सुता समुझाई । नारिधरमु कुलरीति सिखाई ॥ दासीं दास दिए बहुतेरे । सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे ॥
सीय चलत ब्याकुल पुरबासी । होहिं सगुन सुभ मंगल रासी ॥ भूसुर सचिव समेत समाजा । संग चले पहुँचावन राजा ॥
समय बिलोकि बाजने बाजे । रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे ॥ दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे । दान मान परिपूरन कीन्हे ॥
चरन सरोज धूरि धरि सीसा । मुदित महीपति पाइ असीसा ॥ सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना । मंगलमूल सगुन भए नाना ॥
Doha / दोहा
दो. सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान । चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान ॥ ३३९ ॥
Chaupai / चोपाई
नृप करि बिनय महाजन फेरे । सादर सकल मागने टेरे ॥ भूषन बसन बाजि गज दीन्हे । प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे ॥
बार बार बिरिदावलि भाषी । फिरे सकल रामहि उर राखी ॥ बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं । जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं ॥
पुनि कह भूपति बचन सुहाए । फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए ॥ राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े । प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े ॥
तब बिदेह बोले कर जोरी । बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी ॥ करौ कवन बिधि बिनय बनाई । महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई ॥
Doha / दोहा
दो. कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति । मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति ॥ ३४० ॥
Chaupai / चोपाई
मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा । आसिरबादु सबहि सन पावा ॥ सादर पुनि भेंटे जामाता । रूप सील गुन निधि सब भ्राता ॥
जोरि पंकरुह पानि सुहाए । बोले बचन प्रेम जनु जाए ॥ राम करौ केहि भाँति प्रसंसा । मुनि महेस मन मानस हंसा ॥
करहिं जोग जोगी जेहि लागी । कोहु मोहु ममता मदु त्यागी ॥ ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी । चिदानंदु निरगुन गुनरासी ॥
मन समेत जेहि जान न बानी । तरकि न सकहिं सकल अनुमानी ॥ महिमा निगमु नेति कहि कहई । जो तिहुँ काल एकरस रहई ॥
Doha / दोहा
दो. नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल । सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल ॥ ३४१ ॥
Chaupai / चोपाई
सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई । निज जन जानि लीन्ह अपनाई ॥ होहिं सहस दस सारद सेषा । करहिं कलप कोटिक भरि लेखा ॥
मोर भाग्य राउर गुन गाथा । कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा ॥ मै कछु कहउँ एक बल मोरें । तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें ॥
बार बार मागउँ कर जोरें । मनु परिहरै चरन जनि भोरें ॥ सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे । पूरनकाम रामु परितोषे ॥
करि बर बिनय ससुर सनमाने । पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने ॥ बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही । मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही ॥
Doha / दोहा
दो. मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस । भए परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस ॥ ३४२ ॥
Chaupai / चोपाई
बार बार करि बिनय बड़ाई । रघुपति चले संग सब भाई ॥ जनक गहे कौसिक पद जाई । चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई ॥
सुनु मुनीस बर दरसन तोरें । अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें ॥ जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं । करत मनोरथ सकुचत अहहीं ॥
सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी । सब सिधि तव दरसन अनुगामी ॥ कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई । फिरे महीसु आसिषा पाई ॥

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