ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Chaupai / चोपाई
लागि तृषा अतिसय अकुलाने। मिलइ न जल घन गहन भुलाने ॥ मन हनुमान कीन्ह अनुमाना। मरन चहत सब बिनु जल पाना ॥
चढ़ि गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा। भूमि बिबिर एक कौतुक पेखा ॥ चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं। बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं ॥
गिरि ते उतरि पवनसुत आवा। सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा ॥ आगें कै हनुमंतहि लीन्हा। पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा ॥
Doha / दोहा
दो. दीख जाइ उपवन बर सर बिगसित बहु कंज। मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज ॥ २४ ॥
Chaupai / चोपाई
दूरि ते ताहि सबन्हि सिर नावा। पूछें निज बृत्तांत सुनावा ॥ तेहिं तब कहा करहु जल पाना। खाहु सुरस सुंदर फल नाना ॥
मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए। तासु निकट पुनि सब चलि आए ॥ तेहिं सब आपनि कथा सुनाई। मैं अब जाब जहाँ रघुराई ॥
मूदहु नयन बिबर तजि जाहू। पैहहु सीतहि जनि पछिताहू ॥ नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा। ठाढ़े सकल सिंधु कें तीरा ॥
सो पुनि गई जहाँ रघुनाथा। जाइ कमल पद नाएसि माथा ॥ नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्ही। अनपायनी भगति प्रभु दीन्ही ॥
Doha / दोहा
दो. बदरीबन कहुँ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस । उर धरि राम चरन जुग जे बंदत अज ईस ॥ २५ ॥
Chaupai / चोपाई
इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं। बीती अवधि काज कछु नाहीं ॥ सब मिलि कहहिं परस्पर बाता। बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता ॥
कह अंगद लोचन भरि बारी। दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी ॥ इहाँ न सुधि सीता कै पाई। उहाँ गएँ मारिहि कपिराई ॥
पिता बधे पर मारत मोही। राखा राम निहोर न ओही ॥ पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं। मरन भयउ कछु संसय नाहीं ॥
अंगद बचन सुनत कपि बीरा। बोलि न सकहिं नयन बह नीरा ॥ छन एक सोच मगन होइ रहे। पुनि अस वचन कहत सब भए ॥
हम सीता कै सुधि लिन्हें बिना। नहिं जैंहैं जुबराज प्रबीना ॥ अस कहि लवन सिंधु तट जाई। बैठे कपि सब दर्भ डसाई ॥
जामवंत अंगद दुख देखी। कहिं कथा उपदेस बिसेषी ॥ तात राम कहुँ नर जनि मानहु। निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु ॥
Doha / दोहा
दो. निज इच्छा प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि। सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि ॥ २६ ॥
Chaupai / चोपाई
एहि बिधि कथा कहहि बहु भाँती गिरि कंदराँ सुनी संपाती ॥ बाहेर होइ देखि बहु कीसा। मोहि अहार दीन्ह जगदीसा ॥
आजु सबहि कहँ भच्छन करऊँ। दिन बहु चले अहार बिनु मरऊँ ॥ कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा। आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा ॥
डरपे गीध बचन सुनि काना। अब भा मरन सत्य हम जाना ॥ कपि सब उठे गीध कहँ देखी। जामवंत मन सोच बिसेषी ॥
कह अंगद बिचारि मन माहीं। धन्य जटायू सम कोउ नाहीं ॥ राम काज कारन तनु त्यागी । हरि पुर गयउ परम बड़ भागी ॥
सुनि खग हरष सोक जुत बानी । आवा निकट कपिन्ह भय मानी ॥ तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई। कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई ॥
सुनि संपाति बंधु कै करनी। रघुपति महिमा बधुबिधि बरनी ॥
Doha / दोहा
दो. मोहि लै जाहु सिंधुतट देउँ तिलांजलि ताहि । बचन सहाइ करवि मैं पैहहु खोजहु जाहि ॥ २७ ॥
Chaupai / चोपाई
अनुज क्रिया करि सागर तीरा। कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा ॥ हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई । गगन गए रबि निकट उडाई ॥
तेज न सहि सक सो फिरि आवा । मै अभिमानी रबि निअरावा ॥ जरे पंख अति तेज अपारा । परेउँ भूमि करि घोर चिकारा ॥
मुनि एक नाम चंद्रमा ओही। लागी दया देखी करि मोही ॥ बहु प्रकार तेंहि ग्यान सुनावा । देहि जनित अभिमानी छड़ावा ॥
त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही। तासु नारि निसिचर पति हरिही ॥ तासु खोज पठइहि प्रभू दूता। तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता ॥
जमिहहिं पंख करसि जनि चिंता । तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता ॥ मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू । सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू ॥
गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका । तहँ रह रावन सहज असंका ॥ तहँ असोक उपबन जहँ रहई ॥ सीता बैठि सोच रत अहई ॥
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