Ram Charita Manas

Kishkinda Kanda

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ॐ श्री परमात्मने नमः


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ॐ श्री गणेशाय नमः

Doha / दोहा

दो. प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेउ रुचिर बनाइ। राम कृपानिधि कछु दिन बास करहिंगे आइ ॥ १२ ॥

Chapter : 7 Number : 15

Chaupai / चोपाई

सुंदर बन कुसुमित अति सोभा। गुंजत मधुप निकर मधु लोभा ॥ कंद मूल फल पत्र सुहाए। भए बहुत जब ते प्रभु आए ॥

Chapter : 7 Number : 15

देखि मनोहर सैल अनूपा। रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा ॥ मधुकर खग मृग तनु धरि देवा। करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा ॥

Chapter : 7 Number : 15

मंगलरुप भयउ बन तब ते । कीन्ह निवास रमापति जब ते ॥ फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई। सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई ॥

Chapter : 7 Number : 15

कहत अनुज सन कथा अनेका। भगति बिरति नृपनीति बिबेका ॥ बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए ॥

Chapter : 7 Number : 15

Doha / दोहा

दो. लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पैखि। गृही बिरति रत हरष जस बिष्नु भगत कहुँ देखि ॥ १३ ॥

Chapter : 7 Number : 16

Chaupai / चोपाई

घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा ॥ दामिनि दमक रह न घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं ॥

Chapter : 7 Number : 16

बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ ॥ बूँद अघात सहहिं गिरि कैंसें । खल के बचन संत सह जैसें ॥

Chapter : 7 Number : 16

छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई ॥ भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी ॥

Chapter : 7 Number : 16

समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा ॥ सरिता जल जलनिधि महुँ जाई। होई अचल जिमि जिव हरि पाई ॥

Chapter : 7 Number : 16

Doha / दोहा

दो. हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ। जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ ॥ १४ ॥

Chapter : 7 Number : 17

Chaupai / चोपाई

दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ॥ नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका ॥

Chapter : 7 Number : 17

अर्क जबास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ ॥ खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी ॥

Chapter : 7 Number : 17

ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी ॥ निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा ॥

Chapter : 7 Number : 17

महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं । जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं ॥ कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ॥

Chapter : 7 Number : 17

देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं ॥ ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा ॥

Chapter : 7 Number : 17

बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ॥ जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना ॥

Chapter : 7 Number : 17

Doha / दोहा

दो. कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं। जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं ॥ १५(क) ॥

Chapter : 7 Number : 18

कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग। बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग ॥ १५(ख) ॥

Chapter : 7 Number : 18

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