ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Chaupai / चोपाई
यह बृत्तांत दसानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ ॥ ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा ॥
जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा ॥ कुंभकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई ॥
कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी ॥ तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महामहा जोधा संघारे ॥
दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी ॥ अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा ॥
Sortha/ सोरठा
दो. सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान। जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान ॥ ६२ ॥
Chaupai / चोपाई
भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा ॥ अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना ॥
हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक ॥ अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई ॥
कीन्हेहु प्रभू बिरोध तेहि देवक। सिव बिरंचि सुर जाके सेवक ॥ नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबहा ॥
अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई। लोचन सूफल करौ मैं जाई ॥ स्याम गात सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन ॥
Doha/ दोहा
दो. राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक। रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक ॥ ६३ ॥
Chaupai / चोपाई
महिष खाइ करि मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समाना ॥ कुंभकरन दुर्मद रन रंगा। चला दुर्ग तजि सेन न संगा ॥
देखि बिभीषनु आगें आयउ। परेउ चरन निज नाम सुनायउ ॥ अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो। रघुपति भक्त जानि मन भायो ॥
तात लात रावन मोहि मारा। कहत परम हित मंत्र बिचारा ॥ तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ। देखि दीन प्रभु के मन भायउँ ॥
सुनु सुत भयउ कालबस रावन। सो कि मान अब परम सिखावन ॥ धन्य धन्य तैं धन्य बिभीषन। भयहु तात निसिचर कुल भूषन ॥
बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर ॥
Doha/ दोहा
दो. बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर। जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर। ६४ ॥
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