ॐ श्री परमात्मने नमः
सखा समुझि अस परिहरि मोहु। सिय रघुबीर चरन रत होहू ॥ कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागे जग मंगल सुखदारा ॥
सकल सोच करि राम नहावा। सुचि सुजान बट छीर मगावा ॥ अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए ॥
हृदयँ दाहु अति बदन मलीना। कह कर जोरि बचन अति दीना ॥ नाथ कहेउ अस कोसलनाथा। लै रथु जाहु राम कें साथा ॥
बनु देखाइ सुरसरि अन्हवाई। आनेहु फेरि बेगि दोउ भाई ॥ लखनु रामु सिय आनेहु फेरी। संसय सकल सँकोच निबेरी ॥
दो. नृप अस कहेउ गोसाईँ जस कहइ करौं बलि सोइ। करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ ॥ ९४ ॥
तात कृपा करि कीजिअ सोई। जातें अवध अनाथ न होई ॥ मंत्रहि राम उठाइ प्रबोधा। तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा ॥
सिबि दधीचि हरिचंद नरेसा। सहे धरम हित कोटि कलेसा ॥ रंतिदेव बलि भूप सुजाना। धरमु धरेउ सहि संकट नाना ॥
धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना ॥ मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा। तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा ॥
संभावित कहुँ अपजस लाहू। मरन कोटि सम दारुन दाहू ॥ तुम्ह सन तात बहुत का कहऊँ। दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ ॥
दो. पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि। चिंता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि ॥ ९५ ॥
तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें। बिनती करउँ तात कर जोरें ॥ सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच हमारें ॥
सुनि रघुनाथ सचिव संबादू। भयउ सपरिजन बिकल निषादू ॥ पुनि कछु लखन कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी ॥
सकुचि राम निज सपथ देवाई। लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई ॥ कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू। सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू ॥
जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया। सोइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया ॥ नतरु निपट अवलंब बिहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना ॥
दो. मइकें ससरें सकल सुख जबहिं जहाँ मनु मान ॥ तँह तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान ॥ ९६ ॥
बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती। आरति प्रीति न सो कहि जाती ॥ पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना ॥
सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू। फिरतु त सब कर मिटै खभारू ॥ सुनि पति बचन कहति बैदेही। सुनहु प्रानपति परम सनेही ॥
प्रभु करुनामय परम बिबेकी। तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी ॥ प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई। कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई ॥
पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई। कहति सचिव सन गिरा सुहाई ॥ तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी। उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी ॥
दो. आरति बस सनमुख भइउँ बिलगु न मानब तात। आरजसुत पद कमल बिनु बादि जहाँ लगि नात ॥ ९७ ॥
पितु बैभव बिलास मैं डीठा। नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा ॥ सुखनिधान अस पितु गृह मोरें। पिय बिहीन मन भाव न भोरें ॥
ससुर चक्कवइ कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ ॥ आगें होइ जेहि सुरपति लेई। अरध सिंघासन आसनु देई ॥
ससुरु एतादृस अवध निवासू। प्रिय परिवारु मातु सम सासू ॥ बिनु रघुपति पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा ॥
अगम पंथ बनभूमि पहारा। करि केहरि सर सरित अपारा ॥ कोल किरात कुरंग बिहंगा। मोहि सब सुखद प्रानपति संगा ॥
दो. सासु ससुर सन मोरि हुँति बिनय करबि परि पायँ ॥ मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ ॥ ९८ ॥
प्राननाथ प्रिय देवर साथा। बीर धुरीन धरें धनु भाथा ॥ नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें। मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरें ॥
सुनि सुमंत्रु सिय सीतलि बानी। भयउ बिकल जनु फनि मनि हानी ॥ नयन सूझ नहिं सुनइ न काना। कहि न सकइ कछु अति अकुलाना ॥
राम प्रबोधु कीन्ह बहु भाँति। तदपि होति नहिं सीतलि छाती ॥ जतन अनेक साथ हित कीन्हे। उचित उतर रघुनंदन दीन्हे ॥
मेटि जाइ नहिं राम रजाई। कठिन करम गति कछु न बसाई ॥ राम लखन सिय पद सिरु नाई। फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई ॥
दो. -रथ हाँकेउ हय राम तन हेरि हेरि हिहिनाहिं। देखि निषाद बिषादबस धुनहिं सीस पछिताहिं ॥ ९९ ॥
जासु बियोग बिकल पसु ऐसे। प्रजा मातु पितु जीहहिं कैसें ॥ बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए ॥
मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना ॥ चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई ॥
छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई ॥ तरनिउ मुनि घरिनि होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई ॥
एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू ॥ जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू ॥
छं. पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं। मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं ॥ बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं। तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं ॥
सो. सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे। बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन ॥ १०० ॥
कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेंहि तव नाव न जाई ॥ वेगि आनु जल पाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू ॥
जासु नाम सुमरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा ॥ सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा ॥
पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी ॥ केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा ॥
अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा ॥ बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं ॥
दो. पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार। पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार ॥ १०१ ॥
उतरि ठाड़ भए सुरसरि रेता। सीयराम गुह लखन समेता ॥ केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा ॥
पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी ॥ कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई ॥
नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा ॥ बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी ॥
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीनदयाल अनुग्रह तोरें ॥ फिरती बार मोहि जे देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा ॥
दो. बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ। बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ ॥ १०२ ॥
तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा। पूजि पारथिव नायउ माथा ॥ सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी ॥
पति देवर संग कुसल बहोरी। आइ करौं जेहिं पूजा तोरी ॥ सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी। भइ तब बिमल बारि बर बानी ॥
सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही। तव प्रभाउ जग बिदित न केही ॥ लोकप होहिं बिलोकत तोरें। तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें ॥
तुम्ह जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई। कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई ॥ तदपि देबि मैं देबि असीसा। सफल होपन हित निज बागीसा ॥
दो. प्राननाथ देवर सहित कुसल कोसला आइ। पूजहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ ॥ १०३ ॥
गंग बचन सुनि मंगल मूला। मुदित सीय सुरसरि अनुकुला ॥ तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुखु भा उर दाहू ॥
दीन बचन गुह कह कर जोरी। बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी ॥ नाथ साथ रहि पंथु देखाई। करि दिन चारि चरन सेवकाई ॥
जेहिं बन जाइ रहब रघुराई। परनकुटी मैं करबि सुहाई ॥ तब मोहि कहँ जसि देब रजाई। सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई ॥
सहज सनेह राम लखि तासु। संग लीन्ह गुह हृदय हुलासू ॥ पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे। करि परितोषु बिदा तब कीन्हे ॥
दो. तब गनपति सिव सुमिरि प्रभु नाइ सुरसरिहि माथ। सखा अनुज सिया सहित बन गवनु कीन्ह रधुनाथ ॥ १०४ ॥
तेहि दिन भयउ बिटप तर बासू। लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू ॥ प्रात प्रातकृत करि रधुसाई। तीरथराजु दीख प्रभु जाई ॥
सचिव सत्य श्रध्दा प्रिय नारी। माधव सरिस मीतु हितकारी ॥ चारि पदारथ भरा भँडारु। पुन्य प्रदेस देस अति चारु ॥
छेत्र अगम गढ़ु गाढ़ सुहावा। सपनेहुँ नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा ॥ सेन सकल तीरथ बर बीरा। कलुष अनीक दलन रनधीरा ॥
संगमु सिंहासनु सुठि सोहा। छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा ॥ चवँर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुख दारिद भंगा ॥
दो. सेवहिं सुकृति साधु सुचि पावहिं सब मनकाम। बंदी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम ॥ १०५ ॥
को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ ॥ अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा ॥
कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई। श्रीमुख तीरथराज बड़ाई ॥ करि प्रनामु देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा ॥
एहि बिधि आइ बिलोकी बेनी। सुमिरत सकल सुमंगल देनी ॥ मुदित नहाइ कीन्हि सिव सेवा। पुजि जथाबिधि तीरथ देवा ॥
तब प्रभु भरद्वाज पहिं आए। करत दंडवत मुनि उर लाए ॥ मुनि मन मोद न कछु कहि जाइ। ब्रह्मानंद रासि जनु पाई ॥
दो. दीन्हि असीस मुनीस उर अति अनंदु अस जानि। लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि ॥ १०६ ॥
कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे। पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे ॥ कंद मूल फल अंकुर नीके। दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के ॥
सीय लखन जन सहित सुहाए। अति रुचि राम मूल फल खाए ॥ भए बिगतश्रम रामु सुखारे। भरव्दाज मृदु बचन उचारे ॥
आजु सुफल तपु तीरथ त्यागू। आजु सुफल जप जोग बिरागू ॥ सफल सकल सुभ साधन साजू। राम तुम्हहि अवलोकत आजू ॥
लाभ अवधि सुख अवधि न दूजी। तुम्हारें दरस आस सब पूजी ॥ अब करि कृपा देहु बर एहू। निज पद सरसिज सहज सनेहू ॥
दो. करम बचन मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार। तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार ॥
सुनि मुनि बचन रामु सकुचाने। भाव भगति आनंद अघाने ॥ तब रघुबर मुनि सुजसु सुहावा। कोटि भाँति कहि सबहि सुनावा ॥
सो बड सो सब गुन गन गेहू। जेहि मुनीस तुम्ह आदर देहू ॥ मुनि रघुबीर परसपर नवहीं। बचन अगोचर सुखु अनुभवहीं ॥
यह सुधि पाइ प्रयाग निवासी। बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी ॥ भरद्वाज आश्रम सब आए। देखन दसरथ सुअन सुहाए ॥
राम प्रनाम कीन्ह सब काहू। मुदित भए लहि लोयन लाहू ॥ देहिं असीस परम सुखु पाई। फिरे सराहत सुंदरताई ॥
दो. राम कीन्ह बिश्राम निसि प्रात प्रयाग नहाइ। चले सहित सिय लखन जन मुददित मुनिहि सिरु नाइ ॥ १०८ ॥
राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं ॥ मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं। सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं ॥
साथ लागि मुनि सिष्य बोलाए। सुनि मन मुदित पचासक आए ॥ सबन्हि राम पर प्रेम अपारा। सकल कहहि मगु दीख हमारा ॥
मुनि बटु चारि संग तब दीन्हे। जिन्ह बहु जनम सुकृत सब कीन्हे ॥ करि प्रनामु रिषि आयसु पाई। प्रमुदित हृदयँ चले रघुराई ॥
ग्राम निकट जब निकसहि जाई। देखहि दरसु नारि नर धाई ॥ होहि सनाथ जनम फलु पाई। फिरहि दुखित मनु संग पठाई ॥
दो. बिदा किए बटु बिनय करि फिरे पाइ मन काम। उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम ॥ १०९ ॥
सुनत तीरवासी नर नारी। धाए निज निज काज बिसारी ॥ लखन राम सिय सुन्दरताई। देखि करहिं निज भाग्य बड़ाई ॥
अति लालसा बसहिं मन माहीं। नाउँ गाउँ बूझत सकुचाहीं ॥ जे तिन्ह महुँ बयबिरिध सयाने। तिन्ह करि जुगुति रामु पहिचाने ॥
सकल कथा तिन्ह सबहि सुनाई। बनहि चले पितु आयसु पाई ॥ सुनि सबिषाद सकल पछिताहीं। रानी रायँ कीन्ह भल नाहीं ॥
तेहि अवसर एक तापसु आवा। तेजपुंज लघुबयस सुहावा ॥ कवि अलखित गति बेषु बिरागी। मन क्रम बचन राम अनुरागी ॥
दो. सजल नयन तन पुलकि निज इष्टदेउ पहिचानि। परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि ॥ ११० ॥
राम सप्रेम पुलकि उर लावा। परम रंक जनु पारसु पावा ॥ मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ। मिलत धरे तन कह सबु कोऊ ॥
बहुरि लखन पायन्ह सोइ लागा। लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा ॥ पुनि सिय चरन धूरि धरि सीसा। जननि जानि सिसु दीन्हि असीसा ॥
कीन्ह निषाद दंडवत तेही। मिलेउ मुदित लखि राम सनेही ॥ पिअत नयन पुट रूपु पियूषा। मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा ॥
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे ॥ राम लखन सिय रूपु निहारी। होहिं सनेह बिकल नर नारी ॥
दो. तब रघुबीर अनेक बिधि सखहि सिखावनु दीन्ह। राम रजायसु सीस धरि भवन गवनु तेँइँ कीन्ह ॥ १११ ॥
पुनि सियँ राम लखन कर जोरी। जमुनहि कीन्ह प्रनामु बहोरी ॥ चले ससीय मुदित दोउ भाई। रबितनुजा कइ करत बड़ाई ॥
पथिक अनेक मिलहिं मग जाता। कहहिं सप्रेम देखि दोउ भ्राता ॥ राज लखन सब अंग तुम्हारें। देखि सोचु अति हृदय हमारें ॥
मारग चलहु पयादेहि पाएँ। ज्योतिषु झूठ हमारें भाएँ ॥ अगमु पंथ गिरि कानन भारी। तेहि महँ साथ नारि सुकुमारी ॥
करि केहरि बन जाइ न जोई। हम सँग चलहि जो आयसु होई ॥ जाब जहाँ लगि तहँ पहुँचाई। फिरब बहोरि तुम्हहि सिरु नाई ॥
दो. एहि बिधि पूँछहिं प्रेम बस पुलक गात जलु नैन। कृपासिंधु फेरहि तिन्हहि कहि बिनीत मृदु बैन ॥ ११२ ॥
जे पुर गाँव बसहिं मग माहीं। तिन्हहि नाग सुर नगर सिहाहीं ॥ केहि सुकृतीं केहि घरीं बसाए। धन्य पुन्यमय परम सुहाए ॥
जहँ जहँ राम चरन चलि जाहीं। तिन्ह समान अमरावति नाहीं ॥ पुन्यपुंज मग निकट निवासी। तिन्हहि सराहहिं सुरपुरबासी ॥
जे भरि नयन बिलोकहिं रामहि। सीता लखन सहित घनस्यामहि ॥ जे सर सरित राम अवगाहहिं। तिन्हहि देव सर सरित सराहहिं ॥
जेहि तरु तर प्रभु बैठहिं जाई। करहिं कलपतरु तासु बड़ाई ॥ परसि राम पद पदुम परागा। मानति भूमि भूरि निज भागा ॥
दो. छाँह करहि घन बिबुधगन बरषहि सुमन सिहाहिं। देखत गिरि बन बिहग मृग रामु चले मग जाहिं ॥ ११३ ॥
सीता लखन सहित रघुराई। गाँव निकट जब निकसहिं जाई ॥ सुनि सब बाल बृद्ध नर नारी। चलहिं तुरत गृहकाजु बिसारी ॥
राम लखन सिय रूप निहारी। पाइ नयनफलु होहिं सुखारी ॥ सजल बिलोचन पुलक सरीरा। सब भए मगन देखि दोउ बीरा ॥
बरनि न जाइ दसा तिन्ह केरी। लहि जनु रंकन्ह सुरमनि ढेरी ॥ एकन्ह एक बोलि सिख देहीं। लोचन लाहु लेहु छन एहीं ॥
रामहि देखि एक अनुरागे। चितवत चले जाहिं सँग लागे ॥ एक नयन मग छबि उर आनी। होहिं सिथिल तन मन बर बानी ॥
दो. एक देखिं बट छाँह भलि डासि मृदुल तृन पात। कहहिं गवाँइअ छिनुकु श्रमु गवनब अबहिं कि प्रात ॥ ११४ ॥
एक कलस भरि आनहिं पानी। अँचइअ नाथ कहहिं मृदु बानी ॥ सुनि प्रिय बचन प्रीति अति देखी। राम कृपाल सुसील बिसेषी ॥
जानी श्रमित सीय मन माहीं। घरिक बिलंबु कीन्ह बट छाहीं ॥ मुदित नारि नर देखहिं सोभा। रूप अनूप नयन मनु लोभा ॥
एकटक सब सोहहिं चहुँ ओरा। रामचंद्र मुख चंद चकोरा ॥ तरुन तमाल बरन तनु सोहा। देखत कोटि मदन मनु मोहा ॥
दामिनि बरन लखन सुठि नीके। नख सिख सुभग भावते जी के ॥ मुनिपट कटिन्ह कसें तूनीरा। सोहहिं कर कमलिनि धनु तीरा ॥
दो. जटा मुकुट सीसनि सुभग उर भुज नयन बिसाल। सरद परब बिधु बदन बर लसत स्वेद कन जाल ॥ ११५ ॥
बरनि न जाइ मनोहर जोरी। सोभा बहुत थोरि मति मोरी ॥ राम लखन सिय सुंदरताई। सब चितवहिं चित मन मति लाई ॥
थके नारि नर प्रेम पिआसे। मनहुँ मृगी मृग देखि दिआ से ॥ सीय समीप ग्रामतिय जाहीं। पूँछत अति सनेहँ सकुचाहीं ॥
बार बार सब लागहिं पाएँ। कहहिं बचन मृदु सरल सुभाएँ ॥ राजकुमारि बिनय हम करहीं। तिय सुभायँ कछु पूँछत डरहीं।
स्वामिनि अबिनय छमबि हमारी। बिलगु न मानब जानि गवाँरी ॥ राजकुअँर दोउ सहज सलोने। इन्ह तें लही दुति मरकत सोने ॥
दो. स्यामल गौर किसोर बर सुंदर सुषमा ऐन। सरद सर्बरीनाथ मुखु सरद सरोरुह नैन ॥ ११६ ॥
Masaparayana 16 Ends
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