ॐ श्री परमात्मने नमः
कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे ॥ सुनि सनेहमय मंजुल बानी। सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी ॥
तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी। दुहुँ सकोच सकुचित बरबरनी ॥ सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी ॥
सहज सुभाय सुभग तन गोरे। नामु लखनु लघु देवर मोरे ॥ बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी। पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी ॥
खंजन मंजु तिरीछे नयननि। निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि ॥ भइ मुदित सब ग्रामबधूटीं। रंकन्ह राय रासि जनु लूटीं ॥
दो. अति सप्रेम सिय पायँ परि बहुबिधि देहिं असीस। सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लगि महि अहि सीस ॥ ११७ ॥
पारबती सम पतिप्रिय होहू। देबि न हम पर छाड़ब छोहू ॥ पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी। जौं एहि मारग फिरिअ बहोरी ॥
दरसनु देब जानि निज दासी। लखीं सीयँ सब प्रेम पिआसी ॥ मधुर बचन कहि कहि परितोषीं। जनु कुमुदिनीं कौमुदीं पोषीं ॥
तबहिं लखन रघुबर रुख जानी। पूँछेउ मगु लोगन्हि मृदु बानी ॥ सुनत नारि नर भए दुखारी। पुलकित गात बिलोचन बारी ॥
मिटा मोदु मन भए मलीने। बिधि निधि दीन्ह लेत जनु छीने ॥ समुझि करम गति धीरजु कीन्हा। सोधि सुगम मगु तिन्ह कहि दीन्हा ॥
दो. लखन जानकी सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ। फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ ॥ ११८ ॥ ý
फिरत नारि नर अति पछिताहीं। देअहि दोषु देहिं मन माहीं ॥ सहित बिषाद परसपर कहहीं। बिधि करतब उलटे सब अहहीं ॥
निपट निरंकुस निठुर निसंकू। जेहिं ससि कीन्ह सरुज सकलंकू ॥ रूख कलपतरु सागरु खारा। तेहिं पठए बन राजकुमारा ॥
जौं पे इन्हहि दीन्ह बनबासू। कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू ॥ ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना। रचे बादि बिधि बाहन नाना ॥
ए महि परहिं डासि कुस पाता। सुभग सेज कत सृजत बिधाता ॥ तरुबर बास इन्हहि बिधि दीन्हा। धवल धाम रचि रचि श्रमु कीन्हा ॥
दो. जौं ए मुनि पट धर जटिल सुंदर सुठि सुकुमार। बिबिध भाँति भूषन बसन बादि किए करतार ॥ ११९ ॥
जौं ए कंद मूल फल खाहीं। बादि सुधादि असन जग माहीं ॥ एक कहहिं ए सहज सुहाए। आपु प्रगट भए बिधि न बनाए ॥
जहँ लगि बेद कही बिधि करनी। श्रवन नयन मन गोचर बरनी ॥ देखहु खोजि भुअन दस चारी। कहँ अस पुरुष कहाँ असि नारी ॥
इन्हहि देखि बिधि मनु अनुरागा। पटतर जोग बनावै लागा ॥ कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए। तेहिं इरिषा बन आनि दुराए ॥
एक कहहिं हम बहुत न जानहिं। आपुहि परम धन्य करि मानहिं ॥ ते पुनि पुन्यपुंज हम लेखे। जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे ॥
दो. एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय लेहिं नयन भरि नीर। किमि चलिहहि मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर ॥ १२० ॥
नारि सनेह बिकल बस होहीं। चकई साँझ समय जनु सोहीं ॥ मृदु पद कमल कठिन मगु जानी। गहबरि हृदयँ कहहिं बर बानी ॥
परसत मृदुल चरन अरुनारे। सकुचति महि जिमि हृदय हमारे ॥ जौं जगदीस इन्हहि बनु दीन्हा। कस न सुमनमय मारगु कीन्हा ॥
जौं मागा पाइअ बिधि पाहीं। ए रखिअहिं सखि आँखिन्ह माहीं ॥ जे नर नारि न अवसर आए। तिन्ह सिय रामु न देखन पाए ॥
सुनि सुरुप बूझहिं अकुलाई। अब लगि गए कहाँ लगि भाई ॥ समरथ धाइ बिलोकहिं जाई। प्रमुदित फिरहिं जनमफलु पाई ॥
दो. अबला बालक बृद्ध जन कर मीजहिं पछिताहिं ॥ होहिं प्रेमबस लोग इमि रामु जहाँ जहँ जाहिं ॥ १२१ ॥
गाँव गाँव अस होइ अनंदू। देखि भानुकुल कैरव चंदू ॥ जे कछु समाचार सुनि पावहिं। ते नृप रानिहि दोसु लगावहिं ॥
कहहिं एक अति भल नरनाहू। दीन्ह हमहि जोइ लोचन लाहू ॥ कहहिं परस्पर लोग लोगाईं। बातें सरल सनेह सुहाईं ॥
ते पितु मातु धन्य जिन्ह जाए। धन्य सो नगरु जहाँ तें आए ॥ धन्य सो देसु सैलु बन गाऊँ। जहँ जहँ जाहिं धन्य सोइ ठाऊँ ॥
सुख पायउ बिरंचि रचि तेही। ए जेहि के सब भाँति सनेही ॥ राम लखन पथि कथा सुहाई। रही सकल मग कानन छाई ॥
दो. एहि बिधि रघुकुल कमल रबि मग लोगन्ह सुख देत। जाहिं चले देखत बिपिन सिय सौमित्रि समेत ॥ १२२ ॥
आगे रामु लखनु बने पाछें। तापस बेष बिराजत काछें ॥ उभय बीच सिय सोहति कैसे। ब्रह्म जीव बिच माया जैसे ॥
बहुरि कहउँ छबि जसि मन बसई। जनु मधु मदन मध्य रति लसई ॥ उपमा बहुरि कहउँ जियँ जोही। जनु बुध बिधु बिच रोहिनि सोही ॥
प्रभु पद रेख बीच बिच सीता। धरति चरन मग चलति सभीता ॥ सीय राम पद अंक बराएँ। लखन चलहिं मगु दाहिन लाएँ ॥
राम लखन सिय प्रीति सुहाई। बचन अगोचर किमि कहि जाई ॥ खग मृग मगन देखि छबि होहीं। लिए चोरि चित राम बटोहीं ॥
दो. जिन्ह जिन्ह देखे पथिक प्रिय सिय समेत दोउ भाइ। भव मगु अगमु अनंदु तेइ बिनु श्रम रहे सिराइ ॥ १२३ ॥
अजहुँ जासु उर सपनेहुँ काऊ। बसहुँ लखनु सिय रामु बटाऊ ॥ राम धाम पथ पाइहि सोई। जो पथ पाव कबहुँ मुनि कोई ॥
तब रघुबीर श्रमित सिय जानी। देखि निकट बटु सीतल पानी ॥ तहँ बसि कंद मूल फल खाई। प्रात नहाइ चले रघुराई ॥
देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीकि आश्रम प्रभु आए ॥ राम दीख मुनि बासु सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन ॥
सरनि सरोज बिटप बन फूले। गुंजत मंजु मधुप रस भूले ॥ खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं ॥
दो. सुचि सुंदर आश्रमु निरखि हरषे राजिवनेन। सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगें आयउ लेन ॥ १२४ ॥
मुनि कहुँ राम दंडवत कीन्हा। आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा ॥ देखि राम छबि नयन जुड़ाने। करि सनमानु आश्रमहिं आने ॥
मुनिबर अतिथि प्रानप्रिय पाए। कंद मूल फल मधुर मगाए ॥ सिय सौमित्रि राम फल खाए। तब मुनि आश्रम दिए सुहाए ॥
बालमीकि मन आनँदु भारी। मंगल मूरति नयन निहारी ॥ तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई ॥
तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा ॥ अस कहि प्रभु सब कथा बखानी। जेहि जेहि भाँति दीन्ह बनु रानी ॥
दो. तात बचन पुनि मातु हित भाइ भरत अस राउ। मो कहुँ दरस तुम्हार प्रभु सबु मम पुन्य प्रभाउ ॥ १२५ ॥
देखि पाय मुनिराय तुम्हारे। भए सुकृत सब सुफल हमारे ॥ अब जहँ राउर आयसु होई। मुनि उदबेगु न पावै कोई ॥
मुनि तापस जिन्ह तें दुखु लहहीं। ते नरेस बिनु पावक दहहीं ॥ मंगल मूल बिप्र परितोषू। दहइ कोटि कुल भूसुर रोषू ॥
अस जियँ जानि कहिअ सोइ ठाऊँ। सिय सौमित्रि सहित जहँ जाऊँ ॥ तहँ रचि रुचिर परन तृन साला। बासु करौ कछु काल कृपाला ॥
सहज सरल सुनि रघुबर बानी। साधु साधु बोले मुनि ग्यानी ॥ कस न कहहु अस रघुकुलकेतू। तुम्ह पालक संतत श्रुति सेतू ॥
छं. श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी। जो सृजति जगु पालति हरति रूख पाइ कृपानिधान की ॥ जो सहससीसु अहीसु महिधरु लखनु सचराचर धनी। सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी ॥
सो. राम सरुप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर। अबिगत अकथ अपार नेति नित निगम कह ॥ १२६ ॥
जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे ॥ तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा ॥
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ॥ तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन ॥
चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी ॥ नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा ॥
राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे ॥ तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा। जस काछिअ तस चाहिअ नाचा ॥
दो. पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ। जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ ॥ १२७ ॥
सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने। सकुचि राम मन महुँ मुसुकाने ॥ बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिअ रस बोरी ॥
सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता ॥ जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ॥
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे ॥ लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे ॥
निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी ॥ तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक ॥
दो. जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु। मुकुताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु ॥ १२८ ॥
प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा ॥ तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं ॥
सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी ॥ कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ नहि दूजा ॥
चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं ॥ मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा ॥
तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना ॥ तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी ॥
दो. सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ। तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ ॥ १२९ ॥
काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा ॥ जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया ॥
सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी ॥ कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी ॥
तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं ॥ जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी ॥
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी ॥ जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे ॥
दो. स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात। मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात ॥ १३० ॥
अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं ॥ नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका ॥
गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा ॥ राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही ॥
जाति पाँति धनु धरम बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई ॥ सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई ॥
सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरें धनु बाना ॥ करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा ॥
दो. जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु। बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु ॥ १३१ ॥
एहि बिधि मुनिबर भवन देखाए। बचन सप्रेम राम मन भाए ॥ कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक। आश्रम कहउँ समय सुखदायक ॥
चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू ॥ सैलु सुहावन कानन चारू। करि केहरि मृग बिहग बिहारू ॥
नदी पुनीत पुरान बखानी। अत्रिप्रिया निज तपबल आनी ॥ सुरसरि धार नाउँ मंदाकिनि। जो सब पातक पोतक डाकिनि ॥
अत्रि आदि मुनिबर बहु बसहीं। करहिं जोग जप तप तन कसहीं ॥ चलहु सफल श्रम सब कर करहू। राम देहु गौरव गिरिबरहू ॥
दो. चित्रकूट महिमा अमित कहीं महामुनि गाइ। आए नहाए सरित बर सिय समेत दोउ भाइ ॥ १३२ ॥
रघुबर कहेउ लखन भल घाटू। करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू ॥ लखन दीख पय उतर करारा। चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा ॥
नदी पनच सर सम दम दाना। सकल कलुष कलि साउज नाना ॥ चित्रकूट जनु अचल अहेरी। चुकइ न घात मार मुठभेरी ॥
अस कहि लखन ठाउँ देखरावा। थलु बिलोकि रघुबर सुखु पावा ॥ रमेउ राम मनु देवन्ह जाना। चले सहित सुर थपति प्रधाना ॥
कोल किरात बेष सब आए। रचे परन तृन सदन सुहाए ॥ बरनि न जाहि मंजु दुइ साला। एक ललित लघु एक बिसाला ॥
दो. लखन जानकी सहित प्रभु राजत रुचिर निकेत। सोह मदनु मुनि बेष जनु रति रितुराज समेत ॥ १३३ ॥
Masaparayana 17 Ends
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