ॐ श्री परमात्मने नमः
अमर नाग किंनर दिसिपाला। चित्रकूट आए तेहि काला ॥ राम प्रनामु कीन्ह सब काहू। मुदित देव लहि लोचन लाहू ॥
बरषि सुमन कह देव समाजू। नाथ सनाथ भए हम आजू ॥ करि बिनती दुख दुसह सुनाए। हरषित निज निज सदन सिधाए ॥
चित्रकूट रघुनंदनु छाए। समाचार सुनि सुनि मुनि आए ॥ आवत देखि मुदित मुनिबृंदा। कीन्ह दंडवत रघुकुल चंदा ॥
मुनि रघुबरहि लाइ उर लेहीं। सुफल होन हित आसिष देहीं ॥ सिय सौमित्र राम छबि देखहिं। साधन सकल सफल करि लेखहिं ॥
दो. जथाजोग सनमानि प्रभु बिदा किए मुनिबृंद। करहि जोग जप जाग तप निज आश्रमन्हि सुछंद ॥ १३४ ॥
यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। हरषे जनु नव निधि घर आई ॥ कंद मूल फल भरि भरि दोना। चले रंक जनु लूटन सोना ॥
तिन्ह महँ जिन्ह देखे दोउ भ्राता। अपर तिन्हहि पूँछहि मगु जाता ॥ कहत सुनत रघुबीर निकाई। आइ सबन्हि देखे रघुराई ॥
करहिं जोहारु भेंट धरि आगे। प्रभुहि बिलोकहिं अति अनुरागे ॥ चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े। पुलक सरीर नयन जल बाढ़े ॥
राम सनेह मगन सब जाने। कहि प्रिय बचन सकल सनमाने ॥ प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिं कर जोरी ॥
दो. अब हम नाथ सनाथ सब भए देखि प्रभु पाय। भाग हमारे आगमनु राउर कोसलराय ॥ १३५ ॥
धन्य भूमि बन पंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाउ तुम्ह धारा ॥ धन्य बिहग मृग काननचारी। सफल जनम भए तुम्हहि निहारी ॥
हम सब धन्य सहित परिवारा। दीख दरसु भरि नयन तुम्हारा ॥ कीन्ह बासु भल ठाउँ बिचारी। इहाँ सकल रितु रहब सुखारी ॥
हम सब भाँति करब सेवकाई। करि केहरि अहि बाघ बराई ॥ बन बेहड़ गिरि कंदर खोहा। सब हमार प्रभु पग पग जोहा ॥
तहँ तहँ तुम्हहि अहेर खेलाउब। सर निरझर जलठाउँ देखाउब ॥ हम सेवक परिवार समेता। नाथ न सकुचब आयसु देता ॥
दो. बेद बचन मुनि मन अगम ते प्रभु करुना ऐन। बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन ॥ १३६ ॥
रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जाननिहारा ॥ राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे ॥
बिदा किए सिर नाइ सिधाए। प्रभु गुन कहत सुनत घर आए ॥ एहि बिधि सिय समेत दोउ भाई। बसहिं बिपिन सुर मुनि सुखदाई ॥
जब ते आइ रहे रघुनायकु। तब तें भयउ बनु मंगलदायकु ॥ फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना ॥ मंजु बलित बर बेलि बिताना ॥
सुरतरु सरिस सुभायँ सुहाए। मनहुँ बिबुध बन परिहरि आए ॥ गंज मंजुतर मधुकर श्रेनी। त्रिबिध बयारि बहइ सुख देनी ॥
दो. नीलकंठ कलकंठ सुक चातक चक्क चकोर। भाँति भाँति बोलहिं बिहग श्रवन सुखद चित चोर ॥ १३७ ॥
केरि केहरि कपि कोल कुरंगा। बिगतबैर बिचरहिं सब संगा ॥ फिरत अहेर राम छबि देखी। होहिं मुदित मृगबंद बिसेषी ॥
बिबुध बिपिन जहँ लगि जग माहीं। देखि राम बनु सकल सिहाहीं ॥ सुरसरि सरसइ दिनकर कन्या। मेकलसुता गोदावरि धन्या ॥
सब सर सिंधु नदी नद नाना। मंदाकिनि कर करहिं बखाना ॥ उदय अस्त गिरि अरु कैलासू। मंदर मेरु सकल सुरबासू ॥
सैल हिमाचल आदिक जेते। चित्रकूट जसु गावहिं तेते ॥ बिंधि मुदित मन सुखु न समाई। श्रम बिनु बिपुल बड़ाई पाई ॥
दो. चित्रकूट के बिहग मृग बेलि बिटप तृन जाति। पुन्य पुंज सब धन्य अस कहहिं देव दिन राति ॥ १३८ ॥
नयनवंत रघुबरहि बिलोकी। पाइ जनम फल होहिं बिसोकी ॥ परसि चरन रज अचर सुखारी। भए परम पद के अधिकारी ॥
सो बनु सैलु सुभायँ सुहावन। मंगलमय अति पावन पावन ॥ महिमा कहिअ कवनि बिधि तासू। सुखसागर जहँ कीन्ह निवासू ॥
पय पयोधि तजि अवध बिहाई। जहँ सिय लखनु रामु रहे आई ॥ कहि न सकहिं सुषमा जसि कानन। जौं सत सहस होंहिं सहसानन ॥
सो मैं बरनि कहौं बिधि केहीं। डाबर कमठ कि मंदर लेहीं ॥ सेवहिं लखनु करम मन बानी। जाइ न सीलु सनेहु बखानी ॥
दो. -छिनु छिनु लखि सिय राम पद जानि आपु पर नेहु। करत न सपनेहुँ लखनु चितु बंधु मातु पितु गेहु ॥ १३९ ॥
राम संग सिय रहति सुखारी। पुर परिजन गृह सुरति बिसारी ॥ छिनु छिनु पिय बिधु बदनु निहारी। प्रमुदित मनहुँ चकोरकुमारी ॥
नाह नेहु नित बढ़त बिलोकी। हरषित रहति दिवस जिमि कोकी ॥ सिय मनु राम चरन अनुरागा। अवध सहस सम बनु प्रिय लागा ॥
परनकुटी प्रिय प्रियतम संगा। प्रिय परिवारु कुरंग बिहंगा ॥ सासु ससुर सम मुनितिय मुनिबर। असनु अमिअ सम कंद मूल फर ॥
नाथ साथ साँथरी सुहाई। मयन सयन सय सम सुखदाई ॥ लोकप होहिं बिलोकत जासू। तेहि कि मोहि सक बिषय बिलासू ॥
दो. -सुमिरत रामहि तजहिं जन तृन सम बिषय बिलासु। रामप्रिया जग जननि सिय कछु न आचरजु तासु ॥ १४० ॥
सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं। सोइ रघुनाथ करहि सोइ कहहीं ॥ कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखनु सिय अति सुखु मानी।
जब जब रामु अवध सुधि करहीं। तब तब बारि बिलोचन भरहीं ॥ सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेहु सीलु सेवकाई ॥
कृपासिंधु प्रभु होहिं दुखारी। धीरजु धरहिं कुसमउ बिचारी ॥ लखि सिय लखनु बिकल होइ जाहीं। जिमि पुरुषहि अनुसर परिछाहीं ॥
प्रिया बंधु गति लखि रघुनंदनु। धीर कृपाल भगत उर चंदनु ॥ लगे कहन कछु कथा पुनीता। सुनि सुखु लहहिं लखनु अरु सीता ॥
दो. रामु लखन सीता सहित सोहत परन निकेत। जिमि बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत ॥ १४१ ॥
जोगवहिं प्रभु सिय लखनहिं कैसें। पलक बिलोचन गोलक जैसें ॥ सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि ॥
एहि बिधि प्रभु बन बसहिं सुखारी। खग मृग सुर तापस हितकारी ॥ कहेउँ राम बन गवनु सुहावा। सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा ॥
फिरेउ निषादु प्रभुहि पहुँचाई। सचिव सहित रथ देखेसि आई ॥ मंत्री बिकल बिलोकि निषादू। कहि न जाइ जस भयउ बिषादू ॥
राम राम सिय लखन पुकारी। परेउ धरनितल ब्याकुल भारी ॥ देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं। जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं ॥
दो. नहिं तृन चरहिं पिअहिं जलु मोचहिं लोचन बारि। ब्याकुल भए निषाद सब रघुबर बाजि निहारि ॥ १४२ ॥
धरि धीरज तब कहइ निषादू। अब सुमंत्र परिहरहु बिषादू ॥ तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता। धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता
बिबिध कथा कहि कहि मृदु बानी। रथ बैठारेउ बरबस आनी ॥ सोक सिथिल रथ सकइ न हाँकी। रघुबर बिरह पीर उर बाँकी ॥
चरफराहिँ मग चलहिं न घोरे। बन मृग मनहुँ आनि रथ जोरे ॥ अढ़ुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछें। राम बियोगि बिकल दुख तीछें ॥
जो कह रामु लखनु बैदेही। हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेही ॥ बाजि बिरह गति कहि किमि जाती। बिनु मनि फनिक बिकल जेहि भाँती ॥
दो. भयउ निषाद बिषादबस देखत सचिव तुरंग। बोलि सुसेवक चारि तब दिए सारथी संग ॥ १४३ ॥
गुह सारथिहि फिरेउ पहुँचाई। बिरहु बिषादु बरनि नहिं जाई ॥ चले अवध लेइ रथहि निषादा। होहि छनहिं छन मगन बिषादा ॥
सोच सुमंत्र बिकल दुख दीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना ॥ रहिहि न अंतहुँ अधम सरीरू। जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू ॥
भए अजस अघ भाजन प्राना। कवन हेतु नहिं करत पयाना ॥ अहह मंद मनु अवसर चूका। अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका ॥
मीजि हाथ सिरु धुनि पछिताई। मनहँ कृपन धन रासि गवाँई ॥ बिरिद बाँधि बर बीरु कहाई। चलेउ समर जनु सुभट पराई ॥
दो. बिप्र बिबेकी बेदबिद संमत साधु सुजाति। जिमि धोखें मदपान कर सचिव सोच तेहि भाँति ॥ १४४ ॥
जिमि कुलीन तिय साधु सयानी। पतिदेवता करम मन बानी ॥ रहै करम बस परिहरि नाहू। सचिव हृदयँ तिमि दारुन दाहु ॥
लोचन सजल डीठि भइ थोरी। सुनइ न श्रवन बिकल मति भोरी ॥ सूखहिं अधर लागि मुहँ लाटी। जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी ॥
बिबरन भयउ न जाइ निहारी। मारेसि मनहुँ पिता महतारी ॥ हानि गलानि बिपुल मन ब्यापी। जमपुर पंथ सोच जिमि पापी ॥
बचनु न आव हृदयँ पछिताई। अवध काह मैं देखब जाई ॥ राम रहित रथ देखिहि जोई। सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई ॥
दो. -धाइ पूँछिहहिं मोहि जब बिकल नगर नर नारि। उतरु देब मैं सबहि तब हृदयँ बज्रु बैठारि ॥ १४५ ॥
पुछिहहिं दीन दुखित सब माता। कहब काह मैं तिन्हहि बिधाता ॥ पूछिहि जबहिं लखन महतारी। कहिहउँ कवन सँदेस सुखारी ॥
राम जननि जब आइहि धाई। सुमिरि बच्छु जिमि धेनु लवाई ॥ पूँछत उतरु देब मैं तेही। गे बनु राम लखनु बैदेही ॥
जोइ पूँछिहि तेहि ऊतरु देबा।जाइ अवध अब यहु सुखु लेबा ॥ पूँछिहि जबहिं राउ दुख दीना। जिवनु जासु रघुनाथ अधीना ॥
देहउँ उतरु कौनु मुहु लाई। आयउँ कुसल कुअँर पहुँचाई ॥ सुनत लखन सिय राम सँदेसू। तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू ॥
दो. -ह्रदउ न बिदरेउ पंक जिमि बिछुरत प्रीतमु नीरु ॥ जानत हौं मोहि दीन्ह बिधि यहु जातना सरीरु ॥ १४६ ॥
एहि बिधि करत पंथ पछितावा। तमसा तीर तुरत रथु आवा ॥ बिदा किए करि बिनय निषादा। फिरे पायँ परि बिकल बिषादा ॥
पैठत नगर सचिव सकुचाई। जनु मारेसि गुर बाँभन गाई ॥ बैठि बिटप तर दिवसु गवाँवा। साँझ समय तब अवसरु पावा ॥
अवध प्रबेसु कीन्ह अँधिआरें। पैठ भवन रथु राखि दुआरें ॥ जिन्ह जिन्ह समाचार सुनि पाए। भूप द्वार रथु देखन आए ॥
रथु पहिचानि बिकल लखि घोरे। गरहिं गात जिमि आतप ओरे ॥ नगर नारि नर ब्याकुल कैंसें। निघटत नीर मीनगन जैंसें ॥
दो. -सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयउ रनिवासु। भवन भयंकरु लाग तेहि मानहुँ प्रेत निवासु ॥ १४७ ॥
अति आरति सब पूँछहिं रानी। उतरु न आव बिकल भइ बानी ॥ सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा। कहहु कहाँ नृप तेहि तेहि बूझा ॥
दासिन्ह दीख सचिव बिकलाई। कौसल्या गृहँ गईं लवाई ॥ जाइ सुमंत्र दीख कस राजा। अमिअ रहित जनु चंदु बिराजा ॥
आसन सयन बिभूषन हीना। परेउ भूमितल निपट मलीना ॥ लेइ उसासु सोच एहि भाँती। सुरपुर तें जनु खँसेउ जजाती ॥
लेत सोच भरि छिनु छिनु छाती। जनु जरि पंख परेउ संपाती ॥ राम राम कह राम सनेही। पुनि कह राम लखन बैदेही ॥
दो. देखि सचिवँ जय जीव कहि कीन्हेउ दंड प्रनामु। सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कहँ रामु ॥ १४८ ॥
भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई ॥ सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी ॥
राम कुसल कहु सखा सनेही। कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही ॥ आने फेरि कि बनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए ॥
सोक बिकल पुनि पूँछ नरेसू। कहु सिय राम लखन संदेसू ॥ राम रूप गुन सील सुभाऊ। सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ ॥
राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू ॥ सो सुत बिछुरत गए न प्राना। को पापी बड़ मोहि समाना ॥
दो. सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ। नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ ॥ १४९ ॥
पुनि पुनि पूँछत मंत्रहि राऊ। प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ ॥ करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ। रामु लखनु सिय नयन देखाऊ ॥
सचिव धीर धरि कह मुदु बानी। महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी ॥ बीर सुधीर धुरंधर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा ॥
जनम मरन सब दुख भोगा। हानि लाभ प्रिय मिलन बियोगा ॥ काल करम बस हौहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं ॥
सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं ॥ धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी ॥
दो. प्रथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसरि तीर। न्हाई रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ बीर ॥ १५० ॥
केवट कीन्हि बहुत सेवकाई। सो जामिनि सिंगरौर गवाँई ॥ होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा ॥
राम सखाँ तब नाव मगाई। प्रिया चढ़ाइ चढ़े रघुराई ॥ लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई ॥
बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धीरा ॥ तात प्रनामु तात सन कहेहु। बार बार पद पंकज गहेहू ॥
करबि पायँ परि बिनय बहोरी। तात करिअ जनि चिंता मोरी ॥ बन मग मंगल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें ॥
छं. तुम्हरे अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं। प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं ॥ जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी। तुलसी करेहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसल धनी ॥
सो. गुर सन कहब सँदेसु बार बार पद पदुम गहि। करब सोइ उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति ॥ १५१ ॥
पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी ॥ सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी ॥
कहब सँदेसु भरत के आएँ। नीति न तजिअ राजपदु पाएँ ॥ पालेहु प्रजहि करम मन बानी। सीहु मातु सकल सम जानी ॥
ओर निबाहेहु भायप भाई। करि पितु मातु सुजन सेवकाई ॥ तात भाँति तेहि राखब राऊ। सोच मोर जेहिं करै न काऊ ॥
लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरजि राम पुनि मोहि निहोरा ॥ बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन लरिकाई ॥
दो. कहि प्रनाम कछु कहन लिय सिय भइ सिथिल सनेह। थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह ॥ १५२ ॥
तेहि अवसर रघुबर रूख पाई। केवट पारहि नाव चलाई ॥ रघुकुलतिलक चले एहि भाँती। देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती ॥
मैं आपन किमि कहौं कलेसू। जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू ॥ अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि गलानि सोच बस भयऊ ॥
सुत बचन सुनतहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू ॥ तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा ॥
करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी ॥ सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहू कर धीरजु भागा ॥
दो. भयउ कोलाहलु अवध अति सुनि नृप राउर सोरु। बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुँ कुलिस कठोरु ॥ १५३ ॥
प्रान कंठगत भयउ भुआलू। मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू ॥ इद्रीं सकल बिकल भइँ भारी। जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी ॥
कौसल्याँ नृपु दीख मलाना। रबिकुल रबि अँथयउ जियँ जाना।उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी ॥
नाथ समुझि मन करिअ बिचारू। राम बियोग पयोधि अपारू ॥ करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू ॥
धीरजु धरिअ त पाइअ पारू। नाहिं त बूड़िहि सबु परिवारू ॥ जौं जियँ धरिअ बिनय पिय मोरी। रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी ॥
दो. -प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयउ आँखि उघारि। तलफत मीन मलीन जनु सींचत सीतल बारि ॥ १५४ ॥
धरि धीरजु उठी बैठ भुआलू। कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू ॥ कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही ॥
बिलपत राउ बिकल बहु भाँती। भइ जुग सरिस सिराति न राती ॥ तापस अंध साप सुधि आई। कौसल्यहि सब कथा सुनाई ॥
भयउ बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा ॥ सो तनु राखि करब मैं काहा। जेंहि न प्रेम पनु मोर निबाहा ॥
हा रघुनंदन प्रान पिरीते। तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते ॥ हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर।
दो. राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम। तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम ॥ १५५ ॥
जिअन मरन फलु दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जसु छावा ॥ जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु सँवारा ॥
सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सील बलु तेजु बखानी ॥ करहिं बिलाप अनेक प्रकारा। परहीं भूमितल बारहिं बारा ॥
बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदनु करहिं पुरबासी ॥ अँथयउ आजु भानुकुल भानू। धरम अवधि गुन रूप निधानू ॥
गारीं सकल कैकइहि देहीं। नयन बिहीन कीन्ह जग जेहीं ॥ एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी। आए सकल महामुनि ग्यानी ॥
दो. तब बसिष्ठ मुनि समय सम कहि अनेक इतिहास। सोक नेवारेउ सबहि कर निज बिग्यान प्रकास ॥ १५६ ॥
तेल नाँव भरि नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अस भाषा ॥ धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू ॥
एतनेइ कहेहु भरत सन जाई। गुर बोलाई पठयउ दोउ भाई ॥ सुनि मुनि आयसु धावन धाए। चले बेग बर बाजि लजाए ॥
अनरथु अवध अरंभेउ जब तें। कुसगुन होहिं भरत कहुँ तब तें ॥ देखहिं राति भयानक सपना। जागि करहिं कटु कोटि कलपना ॥
बिप्र जेवाँइ देहिं दिन दाना। सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना ॥ मागहिं हृदयँ महेस मनाई। कुसल मातु पितु परिजन भाई ॥
दो. एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ। गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाइ ॥ १५७ ॥
चले समीर बेग हय हाँके। नाघत सरित सैल बन बाँके ॥ हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई ॥
एक निमेष बरस सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई ॥ असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा ॥
खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला ॥ श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा ॥
खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए ॥ नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुँ सबन्हि सब संपति हारी ॥
दो. पुरजन मिलिहिं न कहहिं कछु गवँहिं जोहारहिं जाहिं। भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं ॥ १५८ ॥
हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी ॥ आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि ॥
सजि आरती मुदित उठि धाई। द्वारेहिं भेंटि भवन लेइ आई ॥ भरत दुखित परिवारु निहारा। मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा ॥
कैकेई हरषित एहि भाँति। मनहुँ मुदित दव लाइ किराती ॥ सुतहि ससोच देखि मनु मारें। पूँछति नैहर कुसल हमारें ॥
सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुसल भलाई ॥ कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता ॥
दो. सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन। भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन ॥ १५९ ॥
तात बात मैं सकल सँवारी। भै मंथरा सहाय बिचारी ॥ कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ ॥
सुनत भरतु भए बिबस बिषादा। जनु सहमेउ करि केहरि नादा ॥ तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी ॥
चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोही ॥ बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी ॥
सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पाँछि जनु माहुर देई ॥ आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी ॥
दो. भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु। हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु ॥ १६० ॥
बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुँ जरे पर लोनु लगावति ॥ तात राउ नहिं सोचे जोगू। बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू ॥
जीवत सकल जनम फल पाए। अंत अमरपति सदन सिधाए ॥ अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू ॥
सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू ॥ धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापनि सबहि भाँति कुल नासा ॥
जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही ॥ पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा ॥
दो. हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ। जननी तूँ जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ ॥ १६१ ॥
जब तैं कुमति कुमत जियँ ठयऊ। खंड खंड होइ ह्रदउ न गयऊ ॥ बर मागत मन भइ नहिं पीरा। गरि न जीह मुहँ परेउ न कीरा ॥
भूपँ प्रतीत तोरि किमि कीन्ही। मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही ॥ बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी ॥
सरल सुसील धरम रत राऊ। सो किमि जानै तीय सुभाऊ ॥ अस को जीव जंतु जग माहीं। जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं ॥
भे अति अहित रामु तेउ तोही। को तू अहसि सत्य कहु मोही ॥ जो हसि सो हसि मुहँ मसि लाई। आँखि ओट उठि बैठहिं जाई ॥
दो. राम बिरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह बिधि मोहि। मो समान को पातकी बादि कहउँ कछु तोहि ॥ १६२ ॥
सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई। जरहिं गात रिस कछु न बसाई ॥ तेहि अवसर कुबरी तहँ आई। बसन बिभूषन बिबिध बनाई ॥
लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई। बरत अनल घृत आहुति पाई ॥ हुमगि लात तकि कूबर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा ॥
कूबर टूटेउ फूट कपारू। दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू ॥ आह दइअ मैं काह नसावा। करत नीक फलु अनइस पावा ॥
सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी। लगे घसीटन धरि धरि झोंटी ॥ भरत दयानिधि दीन्हि छड़ाई। कौसल्या पहिं गे दोउ भाई ॥
दो. मलिन बसन बिबरन बिकल कृस सरीर दुख भार। कनक कलप बर बेलि बन मानहुँ हनी तुसार ॥ १६३ ॥
भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुछित अवनि परी झइँ आई ॥ देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी ॥
मातु तात कहँ देहि देखाई। कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई ॥ कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा ॥
कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही ॥ को तिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातु जेहि लागी ॥
पितु सुरपुर बन रघुबर केतू। मैं केवल सब अनरथ हेतु ॥ धिग मोहि भयउँ बेनु बन आगी। दुसह दाह दुख दूषन भागी ॥
दो. मातु भरत के बचन मृदु सुनि सुनि उठी सँभारि ॥ लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि ॥ १६४ ॥
सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए ॥ भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई ॥
देखि सुभाउ कहत सबु कोई। राम मातु अस काहे न होई ॥ माताँ भरतु गोद बैठारे। आँसु पौंछि मृदु बचन उचारे ॥
अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू। कुसमउ समुझि सोक परिहरहू ॥ जनि मानहु हियँ हानि गलानी। काल करम गति अघटित जानि ॥
काहुहि दोसु देहु जनि ताता। भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता ॥ जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा। अजहुँ को जानइ का तेहि भावा ॥
दो. पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर। बिसमउ हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर। १६५ ॥
मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू। सब कर सब बिधि करि परितोषू ॥ चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी। रहइ न राम चरन अनुरागी ॥
सुनतहिं लखनु चले उठि साथा। रहहिं न जतन किए रघुनाथा ॥ तब रघुपति सबही सिरु नाई। चले संग सिय अरु लघु भाई ॥
रामु लखनु सिय बनहि सिधाए। गइउँ न संग न प्रान पठाए ॥ यहु सबु भा इन्ह आँखिन्ह आगें। तउ न तजा तनु जीव अभागें ॥
मोहि न लाज निज नेहु निहारी। राम सरिस सुत मैं महतारी ॥ जिऐ मरै भल भूपति जाना। मोर हृदय सत कुलिस समाना ॥
दो. कौसल्या के बचन सुनि भरत सहित रनिवास। ब्याकुल बिलपत राजगृह मानहुँ सोक नेवासु ॥ १६६ ॥
बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई। कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई ॥ भाँति अनेक भरतु समुझाए। कहि बिबेकमय बचन सुनाए ॥
भरतहुँ मातु सकल समुझाईं। कहि पुरान श्रुति कथा सुहाईं ॥ छल बिहीन सुचि सरल सुबानी। बोले भरत जोरि जुग पानी ॥
जे अघ मातु पिता सुत मारें। गाइ गोठ महिसुर पुर जारें ॥ जे अघ तिय बालक बध कीन्हें। मीत महीपति माहुर दीन्हें ॥
जे पातक उपपातक अहहीं। करम बचन मन भव कबि कहहीं ॥ ते पातक मोहि होहुँ बिधाता। जौं यहु होइ मोर मत माता ॥
दो. जे परिहरि हरि हर चरन भजहिं भूतगन घोर। तेहि कइ गति मोहि देउ बिधि जौं जननी मत मोर ॥ १६७ ॥
बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं। पिसुन पराय पाप कहि देहीं ॥ कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी। बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी ॥
लोभी लंपट लोलुपचारा। जे ताकहिं परधनु परदारा ॥ पावौं मैं तिन्ह के गति घोरा। जौं जननी यहु संमत मोरा ॥
जे नहिं साधुसंग अनुरागे। परमारथ पथ बिमुख अभागे ॥ जे न भजहिं हरि नरतनु पाई। जिन्हहि न हरि हर सुजसु सोहाई ॥
तजि श्रुतिपंथु बाम पथ चलहीं। बंचक बिरचि बेष जगु छलहीं ॥ तिन्ह कै गति मोहि संकर देऊ। जननी जौं यहु जानौं भेऊ ॥
दो. मातु भरत के बचन सुनि साँचे सरल सुभायँ। कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा बचन मन कायँ ॥ १६८ ॥
राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे ॥ बिधु बिष चवै स्त्रवै हिमु आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी ॥
भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू। तुम्ह रामहि प्रतिकूल न होहू ॥ मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं। सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं ॥
अस कहि मातु भरतु हियँ लाए। थन पय स्त्रवहिं नयन जल छाए ॥ करत बिलाप बहुत यहि भाँती। बैठेहिं बीति गइ सब राती ॥
बामदेउ बसिष्ठ तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए ॥ मुनि बहु भाँति भरत उपदेसे। कहि परमारथ बचन सुदेसे ॥
दो. तात हृदयँ धीरजु धरहु करहु जो अवसर आजु। उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु ॥ १६९ ॥
नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमानु बनावा ॥ गहि पद भरत मातु सब राखी। रहीं रानि दरसन अभिलाषी ॥
चंदन अगर भार बहु आए। अमित अनेक सुगंध सुहाए ॥ सरजु तीर रचि चिता बनाई। जनु सुरपुर सोपान सुहाई ॥
एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही। बिधिवत न्हाइ तिलांजुलि दीन्ही ॥ सोधि सुमृति सब बेद पुराना। कीन्ह भरत दसगात बिधाना ॥
जहँ जस मुनिबर आयसु दीन्हा। तहँ तस सहस भाँति सबु कीन्हा ॥ भए बिसुद्ध दिए सब दाना। धेनु बाजि गज बाहन नाना ॥
दो. सिंघासन भूषन बसन अन्न धरनि धन धाम। दिए भरत लहि भूमिसुर भे परिपूरन काम ॥ १७० ॥
पितु हित भरत कीन्हि जसि करनी। सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी ॥ सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए ॥
बैठे राजसभाँ सब जाई। पठए बोलि भरत दोउ भाई ॥ भरतु बसिष्ठ निकट बैठारे। नीति धरममय बचन उचारे ॥
प्रथम कथा सब मुनिबर बरनी। कैकइ कुटिल कीन्हि जसि करनी ॥ भूप धरमब्रतु सत्य सराहा। जेहिं तनु परिहरि प्रेमु निबाहा ॥
कहत राम गुन सील सुभाऊ। सजल नयन पुलकेउ मुनिराऊ ॥ बहुरि लखन सिय प्रीति बखानी। सोक सनेह मगन मुनि ग्यानी ॥
दो. सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ। हानि लाभु जीवन मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ ॥ १७१ ॥
अस बिचारि केहि देइअ दोसू। ब्यरथ काहि पर कीजिअ रोसू ॥ तात बिचारु केहि करहु मन माहीं। सोच जोगु दसरथु नृपु नाहीं ॥
सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना। तजि निज धरमु बिषय लयलीना ॥ सोचिअ नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना ॥
सोचिअ बयसु कृपन धनवानू। जो न अतिथि सिव भगति सुजानू ॥ सोचिअ सूद्रु बिप्र अवमानी। मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी ॥
सोचिअ पुनि पति बंचक नारी। कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी ॥ सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई। जो नहिं गुर आयसु अनुसरई ॥
दो. सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग। सोचिअ जति प्रंपच रत बिगत बिबेक बिराग ॥ १७२ ॥
बैखानस सोइ सोचै जोगु। तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू ॥ सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुर बंधु बिरोधी ॥
सब बिधि सोचिअ पर अपकारी। निज तनु पोषक निरदय भारी ॥ सोचनीय सबहि बिधि सोई। जो न छाड़ि छलु हरि जन होई ॥
सोचनीय नहिं कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ ॥ भयउ न अहइ न अब होनिहारा। भूप भरत जस पिता तुम्हारा ॥
बिधि हरि हरु सुरपति दिसिनाथा। बरनहिं सब दसरथ गुन गाथा ॥
दो. कहहु तात केहि भाँति कोउ करिहि बड़ाई तासु। राम लखन तुम्ह सत्रुहन सरिस सुअन सुचि जासु ॥ १७३ ॥
सब प्रकार भूपति बड़भागी। बादि बिषादु करिअ तेहि लागी ॥ यहु सुनि समुझि सोचु परिहरहू। सिर धरि राज रजायसु करहू ॥
राँय राजपदु तुम्ह कहुँ दीन्हा। पिता बचनु फुर चाहिअ कीन्हा ॥ तजे रामु जेहिं बचनहि लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी ॥
नृपहि बचन प्रिय नहिं प्रिय प्राना। करहु तात पितु बचन प्रवाना ॥ करहु सीस धरि भूप रजाई। हइ तुम्ह कहँ सब भाँति भलाई ॥
परसुराम पितु अग्या राखी। मारी मातु लोक सब साखी ॥ तनय जजातिहि जौबनु दयऊ। पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ ॥
दो. अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन। ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन ॥ १७४ ॥
अवसि नरेस बचन फुर करहू। पालहु प्रजा सोकु परिहरहू ॥ सुरपुर नृप पाइहि परितोषू। तुम्ह कहुँ सुकृत सुजसु नहिं दोषू ॥
बेद बिदित संमत सबही का। जेहि पितु देइ सो पावइ टीका ॥ करहु राजु परिहरहु गलानी। मानहु मोर बचन हित जानी ॥
सुनि सुखु लहब राम बैदेहीं। अनुचित कहब न पंडित केहीं ॥ कौसल्यादि सकल महतारीं। तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारीं ॥
परम तुम्हार राम कर जानिहि। सो सब बिधि तुम्ह सन भल मानिहि ॥ सौंपेहु राजु राम कै आएँ। सेवा करेहु सनेह सुहाएँ ॥
दो. कीजिअ गुर आयसु अवसि कहहिं सचिव कर जोरि। रघुपति आएँ उचित जस तस तब करब बहोरि ॥ १७५ ॥
कौसल्या धरि धीरजु कहई। पूत पथ्य गुर आयसु अहई ॥ सो आदरिअ करिअ हित मानी। तजिअ बिषादु काल गति जानी ॥
बन रघुपति सुरपति नरनाहू। तुम्ह एहि भाँति तात कदराहू ॥ परिजन प्रजा सचिव सब अंबा। तुम्हही सुत सब कहँ अवलंबा ॥
लखि बिधि बाम कालु कठिनाई। धीरजु धरहु मातु बलि जाई ॥ सिर धरि गुर आयसु अनुसरहू। प्रजा पालि परिजन दुखु हरहू ॥
गुर के बचन सचिव अभिनंदनु। सुने भरत हिय हित जनु चंदनु ॥ सुनी बहोरि मातु मृदु बानी। सील सनेह सरल रस सानी ॥
छं. सानी सरल रस मातु बानी सुनि भरत ब्याकुल भए। लोचन सरोरुह स्त्रवत सींचत बिरह उर अंकुर नए ॥ सो दसा देखत समय तेहि बिसरी सबहि सुधि देह की। तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की ॥
सो. भरतु कमल कर जोरि धीर धुरंधर धीर धरि। बचन अमिअँ जनु बोरि देत उचित उत्तर सबहि ॥ १७६ ॥
Masaparayana 18 Ends
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