ॐ श्री परमात्मने नमः
मोहि उपदेसु दीन्ह गुर नीका। प्रजा सचिव संमत सबही का ॥ मातु उचित धरि आयसु दीन्हा। अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा ॥
गुर पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी ॥ उचित कि अनुचित किएँ बिचारू। धरमु जाइ सिर पातक भारू ॥
तुम्ह तौ देहु सरल सिख सोई। जो आचरत मोर भल होई ॥ जद्यपि यह समुझत हउँ नीकें। तदपि होत परितोषु न जी कें ॥
अब तुम्ह बिनय मोरि सुनि लेहू। मोहि अनुहरत सिखावनु देहू ॥ ऊतरु देउँ छमब अपराधू। दुखित दोष गुन गनहिं न साधू ॥
दो. पितु सुरपुर सिय रामु बन करन कहहु मोहि राजु। एहि तें जानहु मोर हित कै आपन बड़ काजु ॥ १७७ ॥
हित हमार सियपति सेवकाई। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाई ॥ मैं अनुमानि दीख मन माहीं। आन उपायँ मोर हित नाहीं ॥
सोक समाजु राजु केहि लेखें। लखन राम सिय बिनु पद देखें ॥ बादि बसन बिनु भूषन भारू। बादि बिरति बिनु ब्रह्म बिचारू ॥
सरुज सरीर बादि बहु भोगा। बिनु हरिभगति जायँ जप जोगा ॥ जायँ जीव बिनु देह सुहाई। बादि मोर सबु बिनु रघुराई ॥
जाउँ राम पहिं आयसु देहू। एकहिं आँक मोर हित एहू ॥ मोहि नृप करि भल आपन चहहू। सोउ सनेह जड़ता बस कहहू ॥
दो. कैकेई सुअ कुटिलमति राम बिमुख गतलाज। तुम्ह चाहत सुखु मोहबस मोहि से अधम कें राज ॥ १७८ ॥
कहउँ साँचु सब सुनि पतिआहू। चाहिअ धरमसील नरनाहू ॥ मोहि राजु हठि देइहहु जबहीं। रसा रसातल जाइहि तबहीं ॥
मोहि समान को पाप निवासू। जेहि लगि सीय राम बनबासू ॥ रायँ राम कहुँ काननु दीन्हा। बिछुरत गमनु अमरपुर कीन्हा ॥
मैं सठु सब अनरथ कर हेतू। बैठ बात सब सुनउँ सचेतू ॥ बिनु रघुबीर बिलोकि अबासू। रहे प्रान सहि जग उपहासू ॥
राम पुनीत बिषय रस रूखे। लोलुप भूमि भोग के भूखे ॥ कहँ लगि कहौं हृदय कठिनाई। निदरि कुलिसु जेहिं लही बड़ाई ॥
दो. कारन तें कारजु कठिन होइ दोसु नहि मोर। कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर ॥ १७९ ॥
कैकेई भव तनु अनुरागे। पाँवर प्रान अघाइ अभागे ॥ जौं प्रिय बिरहँ प्रान प्रिय लागे। देखब सुनब बहुत अब आगे ॥
लखन राम सिय कहुँ बनु दीन्हा। पठइ अमरपुर पति हित कीन्हा ॥ लीन्ह बिधवपन अपजसु आपू। दीन्हेउ प्रजहि सोकु संतापू ॥
मोहि दीन्ह सुखु सुजसु सुराजू। कीन्ह कैकेईं सब कर काजू ॥ एहि तें मोर काह अब नीका। तेहि पर देन कहहु तुम्ह टीका ॥
कैकई जठर जनमि जग माहीं। यह मोहि कहँ कछु अनुचित नाहीं ॥ मोरि बात सब बिधिहिं बनाई। प्रजा पाँच कत करहु सहाई ॥
दो. ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार। तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार ॥ १८० ॥
कैकइ सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरंचि दीन्ह मोहि सोई ॥ दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़ाई ॥
तुम्ह सब कहहु कढ़ावन टीका। राय रजायसु सब कहँ नीका ॥ उतरु देउँ केहि बिधि केहि केही। कहहु सुखेन जथा रुचि जेही ॥
मोहि कुमातु समेत बिहाई। कहहु कहिहि के कीन्ह भलाई ॥ मो बिनु को सचराचर माहीं। जेहि सिय रामु प्रानप्रिय नाहीं ॥
परम हानि सब कहँ बड़ लाहू। अदिनु मोर नहि दूषन काहू ॥ संसय सील प्रेम बस अहहू। सबुइ उचित सब जो कछु कहहू ॥
दो. राम मातु सुठि सरलचित मो पर प्रेमु बिसेषि। कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि ॥ १८१।
गुर बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना ॥ मो कहँ तिलक साज सज सोऊ। भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ ॥
परिहरि रामु सीय जग माहीं। कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं ॥ सो मैं सुनब सहब सुखु मानी। अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी ॥
डरु न मोहि जग कहिहि कि पोचू। परलोकहु कर नाहिन सोचू ॥ एकइ उर बस दुसह दवारी। मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी ॥
जीवन लाहु लखन भल पावा। सबु तजि राम चरन मनु लावा ॥ मोर जनम रघुबर बन लागी। झूठ काह पछिताउँ अभागी ॥
दो. आपनि दारुन दीनता कहउँ सबहि सिरु नाइ। देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ ॥ १८२ ॥
आन उपाउ मोहि नहि सूझा। को जिय कै रघुबर बिनु बूझा ॥ एकहिं आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं ॥
जद्यपि मैं अनभल अपराधी। भै मोहि कारन सकल उपाधी ॥ तदपि सरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी ॥
सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन रघुराऊ ॥ अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा ॥
तुम्ह पै पाँच मोर भल मानी। आयसु आसिष देहु सुबानी ॥ जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि रामु रजधानी ॥
दो. जद्यपि जनमु कुमातु तें मैं सठु सदा सदोस। आपन जानि न त्यागिहहिं मोहि रघुबीर भरोस ॥ १८३ ॥
भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनु पागे ॥ लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे ॥
मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भए भारी ॥ भरतहि कहहि सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही ॥
तात भरत अस काहे न कहहू। प्रान समान राम प्रिय अहहू ॥ जो पावँरु अपनी जड़ताई। तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाई ॥
सो सठु कोटिक पुरुष समेता। बसिहि कलप सत नरक निकेता ॥ अहि अघ अवगुन नहि मनि गहई। हरइ गरल दुख दारिद दहई ॥
दो. अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल कीन्ह। सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह ॥ १८४ ॥
भा सब कें मन मोदु न थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा ॥ चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के ॥
मुनिहि बंदि भरतहि सिरु नाई। चले सकल घर बिदा कराई ॥ धन्य भरत जीवनु जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाहीं ॥
कहहि परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर साजहिं साजू ॥ जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी ॥
कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू। को न चहइ जग जीवन लाहू ॥
दो. जरउ सो संपति सदन सुखु सुहद मातु पितु भाइ। सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ ॥ १८५ ॥
घर घर साजहिं बाहन नाना। हरषु हृदयँ परभात पयाना ॥ भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजि गज भवन भँडारू ॥
संपति सब रघुपति कै आही। जौ बिनु जतन चलौं तजि ताही ॥ तौ परिनाम न मोरि भलाई। पाप सिरोमनि साइँ दोहाई ॥
करइ स्वामि हित सेवकु सोई। दूषन कोटि देइ किन कोई ॥ अस बिचारि सुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले ॥
कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा। जो जेहि लायक सो तेहिं राखा ॥ करि सबु जतनु राखि रखवारे। राम मातु पहिं भरतु सिधारे ॥
दो. आरत जननी जानि सब भरत सनेह सुजान। कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान ॥ १८६ ॥
चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी। चहत प्रात उर आरत भारी ॥ जागत सब निसि भयउ बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना ॥
कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहिं देब मुनि रामहिं राजू ॥ बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे ॥
अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ ॥ बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना ॥
नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना ॥ सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भई सब रानी ॥
दो. सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ। सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ ॥ १८७ ॥
राम दरस बस सब नर नारी। जनु करि करिनि चले तकि बारी ॥ बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं ॥
देखि सनेहु लोग अनुरागे। उतरि चले हय गय रथ त्यागे ॥ जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली ॥
तात चढ़हु रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय परिवारु दुखारी ॥ तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहिं मग जोगू ॥
सिर धरि बचन चरन सिरु नाई। रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई ॥ तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू ॥
दो. पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग। करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग ॥ १८८ ॥
सई तीर बसि चले बिहाने। सृंगबेरपुर सब निअराने ॥ समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा ॥
कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीं ॥ जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई ॥
जानहिं सानुज रामहि मारी। करउँ अकंटक राजु सुखारी ॥ भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी ॥
सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न जीतनिहारा ॥ का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं ॥
दो. अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु। हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु ॥ १८९ ॥
होहु सँजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै के ठाटा ॥ सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ ॥
समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा। राम काजु छनभंगु सरीरा ॥ भरत भाइ नृपु मै जन नीचू। बड़ें भाग असि पाइअ मीचू ॥
स्वामि काज करिहउँ रन रारी। जस धवलिहउँ भुवन दस चारी ॥ तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें ॥
साधु समाज न जाकर लेखा। राम भगत महुँ जासु न रेखा ॥ जायँ जिअत जग सो महि भारू। जननी जौबन बिटप कुठारू ॥
दो. बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढ़ाइ उछाहु। सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु ॥ १९० ॥
बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ। सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ ॥ भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक बढ़ावइ करषा ॥
चले निषाद जोहारि जोहारी। सूर सकल रन रूचइ रारी ॥ सुमिरि राम पद पंकज पनहीं। भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं ॥
अँगरी पहिरि कूँड़ि सिर धरहीं। फरसा बाँस सेल सम करहीं ॥ एक कुसल अति ओड़न खाँड़े। कूदहि गगन मनहुँ छिति छाँड़े ॥
निज निज साजु समाजु बनाई। गुह राउतहि जोहारे जाई ॥ देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने ॥
दो. भाइहु लावहु धोख जनि आजु काज बड़ मोहि। सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि ॥ १९१ ॥
राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे ॥ जीवत पाउ न पाछें धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं ॥
दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू ॥ एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए ॥
बूढ़ु एकु कह सगुन बिचारी। भरतहि मिलिअ न होइहि रारी ॥ रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं ॥
सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा करि पछिताहिं बिमूढ़ा ॥ भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें। बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें ॥
दो. गहहु घाट भट समिटि सब लेउँ मरम मिलि जाइ। बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ ॥ १९२ ॥
लखन सनेहु सुभायँ सुहाएँ। बैरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ ॥ अस कहि भेंट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग मागे ॥
मीन पीन पाठीन पुराने। भरि भरि भार कहारन्ह आने ॥ मिलन साजु सजि मिलन सिधाए। मंगल मूल सगुन सुभ पाए ॥
देखि दूरि तें कहि निज नामू। कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू ॥ जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा। भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा ॥
राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उतरि उमगत अनुरागा ॥ गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहारु माथ महि लाई ॥
दो. करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ। मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेम न हृदयँ समाइ ॥ १९३ ॥
भेंटत भरतु ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती ॥ धन्य धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला ॥
लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा ॥ तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता ॥
राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं ॥ यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा ॥
करमनास जलु सुरसरि परई। तेहि को कहहु सीस नहिं धरई ॥ उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना ॥
दो. स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात। रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात ॥ १९४ ॥
नहिं अचिरजु जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई ॥ राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवधलोग सुखु लहहीं ॥
रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूँछी कुसल सुमंगल खेमा ॥ देखि भरत कर सील सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू ॥
सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा ॥ धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी ॥
कुसल मूल पद पंकज पेखी। मैं तिहुँ काल कुसल निज लेखी ॥ अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें। सहित कोटि कुल मंगल मोरें ॥
दो. समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियँ जोइ। जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ ॥ १९५ ॥
कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती ॥ राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउँ भुवन भूषन तबही तें ॥
देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई। मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई ॥ कहि निषाद निज नाम सुबानीं। सादर सकल जोहारीं रानीं ॥
जानि लखन सम देहिं असीसा। जिअहु सुखी सय लाख बरीसा ॥ निरखि निषादु नगर नर नारी। भए सुखी जनु लखनु निहारी ॥
कहहिं लहेउ एहिं जीवन लाहू। भेंटेउ रामभद्र भरि बाहू ॥ सुनि निषादु निज भाग बड़ाई। प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई ॥
दो. सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ। घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ ॥ १९६ ॥
सृंगबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अंग सिथिल तब ॥ सोहत दिएँ निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू ॥
एहि बिधि भरत सेनु सबु संगा। दीखि जाइ जग पावनि गंगा ॥ रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू। भा मनु मगनु मिले जनु रामू ॥
करहिं प्रनाम नगर नर नारी। मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी ॥ करि मज्जनु मागहिं कर जोरी। रामचंद्र पद प्रीति न थोरी ॥
भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू ॥ जोरि पानि बर मागउँ एहू। सीय राम पद सहज सनेहू ॥
दो. एहि बिधि मज्जनु भरतु करि गुर अनुसासन पाइ। मातु नहानीं जानि सब डेरा चले लवाइ ॥ १९७ ॥
जहँ तहँ लोगन्ह डेरा कीन्हा। भरत सोधु सबही कर लीन्हा ॥ सुर सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहिं गे दोउ भाई ॥
चरन चाँपि कहि कहि मृदु बानी। जननीं सकल भरत सनमानी ॥ भाइहि सौंपि मातु सेवकाई। आपु निषादहि लीन्ह बोलाई ॥
चले सखा कर सों कर जोरें। सिथिल सरीर सनेह न थोरें ॥ पूँछत सखहि सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ ॥
जहँ सिय रामु लखनु निसि सोए। कहत भरे जल लोचन कोए ॥ भरत बचन सुनि भयउ बिषादू। तुरत तहाँ लइ गयउ निषादू ॥
दो. जहँ सिंसुपा पुनीत तर रघुबर किय बिश्रामु। अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु ॥ १९८ ॥
कुस साँथरीíनिहारि सुहाई। कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई ॥ चरन रेख रज आँखिन्ह लाई। बनइ न कहत प्रीति अधिकाई ॥
कनक बिंदु दुइ चारिक देखे। राखे सीस सीय सम लेखे ॥ सजल बिलोचन हृदयँ गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानी ॥
श्रीहत सीय बिरहँ दुतिहीना। जथा अवध नर नारि बिलीना ॥ पिता जनक देउँ पटतर केही। करतल भोगु जोगु जग जेही ॥
ससुर भानुकुल भानु भुआलू। जेहि सिहात अमरावतिपालू ॥ प्राननाथु रघुनाथ गोसाई। जो बड़ होत सो राम बड़ाई ॥
दो. पति देवता सुतीय मनि सीय साँथरी देखि। बिहरत ह्रदउ न हहरि हर पबि तें कठिन बिसेषि ॥ १९९ ॥
लालन जोगु लखन लघु लोने। भे न भाइ अस अहहिं न होने ॥ पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे। सिय रघुबरहि प्रानपिआरे ॥
मृदु मूरति सुकुमार सुभाऊ। तात बाउ तन लाग न काऊ ॥ ते बन सहहिं बिपति सब भाँती। निदरे कोटि कुलिस एहिं छाती ॥
राम जनमि जगु कीन्ह उजागर। रूप सील सुख सब गुन सागर ॥ पुरजन परिजन गुर पितु माता। राम सुभाउ सबहि सुखदाता ॥
बैरिउ राम बड़ाई करहीं। बोलनि मिलनि बिनय मन हरहीं ॥ सारद कोटि कोटि सत सेषा। करि न सकहिं प्रभु गुन गन लेखा ॥
दो. सुखस्वरुप रघुबंसमनि मंगल मोद निधान। ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान ॥ २०० ॥
राम सुना दुखु कान न काऊ। जीवनतरु जिमि जोगवइ राऊ ॥ पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती ॥
ते अब फिरत बिपिन पदचारी। कंद मूल फल फूल अहारी ॥ धिग कैकेई अमंगल मूला। भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला ॥
मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी। सबु उतपातु भयउ जेहि लागी ॥ कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाताँ। साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ ॥
सुनि सप्रेम समुझाव निषादू। नाथ करिअ कत बादि बिषादू ॥ राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि। यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि ॥
छं. बिधि बाम की करनी कठिन जेंहिं मातु कीन्ही बावरी। तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी ॥ तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौहें किएँ। परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ ॥
सो. अंतरजामी रामु सकुच सप्रेम कृपायतन। चलिअ करिअ बिश्रामु यह बिचारि दृढ़ आनि मन ॥ २०१ ॥
सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा ॥ यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी ॥
परदखिना करि करहिं प्रनामा। देहिं कैकइहि खोरि निकामा ॥ भरी भरि बारि बिलोचन लेंहीं। बाम बिधाताहि दूषन देहीं ॥
एक सराहहिं भरत सनेहू। कोउ कह नृपति निबाहेउ नेहू ॥ निंदहिं आपु सराहि निषादहि। को कहि सकइ बिमोह बिषादहि ॥
एहि बिधि राति लोगु सबु जागा। भा भिनुसार गुदारा लागा ॥ गुरहि सुनावँ चढ़ाइ सुहाईं। नईं नाव सब मातु चढ़ाईं ॥
दंड चारि महँ भा सबु पारा। उतरि भरत तब सबहि सँभारा ॥
दो. प्रातक्रिया करि मातु पद बंदि गुरहि सिरु नाइ। आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकु चलाइ ॥ २०२ ॥
कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं ॥ साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा ॥
आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू ॥ गवने भरत पयोदेहिं पाए। कोतल संग जाहिं डोरिआए ॥
कहहिं सुसेवक बारहिं बारा। होइअ नाथ अस्व असवारा ॥ रामु पयोदेहि पायँ सिधाए। हम कहँ रथ गज बाजि बनाए ॥
सिर भर जाउँ उचित अस मोरा। सब तें सेवक धरमु कठोरा ॥ देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी ॥
दो. भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग। कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग ॥ २०३ ॥
झलका झलकत पायन्ह कैंसें। पंकज कोस ओस कन जैसें ॥ भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू ॥
खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए ॥ सबिधि सितासित नीर नहाने। दिए दान महिसुर सनमाने ॥
देखत स्यामल धवल हलोरे। पुलकि सरीर भरत कर जोरे ॥ सकल काम प्रद तीरथराऊ। बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ ॥
मागउँ भीख त्यागि निज धरमू। आरत काह न करइ कुकरमू ॥ अस जियँ जानि सुजान सुदानी। सफल करहिं जग जाचक बानी ॥
दो. अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान। जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन ॥ २०४ ॥
जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही ॥ सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें ॥
जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ। जाचत जलु पबि पाहन डारउ ॥ चातकु रटनि घटें घटि जाई। बढ़े प्रेमु सब भाँति भलाई ॥
कनकहिं बान चढ़इ जिमि दाहें। तिमि प्रियतम पद नेम निबाहें ॥ भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी। भइ मृदु बानि सुमंगल देनी ॥
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू ॥ बाद गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं ॥
दो. तनु पुलकेउ हियँ हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल। भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरषहिं फूल ॥ २०५ ॥
प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी ॥ कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेह सीलु सुचि साँचा ॥
सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए ॥ दंड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमंत भाग्य निज लेखे ॥
धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे ॥ आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे ॥
मुनि पूँछब कछु यह बड़ सोचू। बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू ॥ सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर किछु न बसाई ॥
दो. तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझी मातु करतूति। तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति ॥ २०६ ॥
यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ। लोकु बेद बुध संमत दोऊ ॥ तात तुम्हार बिमल जसु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई ॥
लोक बेद संमत सबु कहई। जेहि पितु देइ राजु सो लहई ॥ राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई। देत राजु सुखु धरमु बड़ाई ॥
राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला ॥ सो भावी बस रानि अयानी। करि कुचालि अंतहुँ पछितानी ॥
तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू ॥ करतेहु राजु त तुम्हहि न दोषू। रामहि होत सुनत संतोषू ॥
दो. अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहि उचित मत एहु। सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु ॥ २०७ ॥
सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना। भूरिभाग को तुम्हहि समाना ॥ यह तम्हार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता ॥
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं ॥ लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती ॥
जाना मरमु नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा ॥ तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें। सुख जीवन जग जस जड़ नर कें ॥
यह न अधिक रघुबीर बड़ाई। प्रनत कुटुंब पाल रघुराई ॥ तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू ॥
दो. तुम्ह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेसु। राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु ॥ २०८ ॥
नव बिधु बिमल तात जसु तोरा। रघुबर किंकर कुमुद चकोरा ॥ उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना। घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना ॥
कोक तिलोक प्रीति अति करिही। प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही ॥ निसि दिन सुखद सदा सब काहू। ग्रसिहि न कैकइ करतबु राहू ॥
पूरन राम सुपेम पियूषा। गुर अवमान दोष नहिं दूषा ॥ राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ। कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ ॥
भूप भगीरथ सुरसरि आनी। सुमिरत सकल सुंमगल खानी ॥ दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं। अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं ॥
दो. जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भए आइ ॥ जे हर हिय नयननि कबहुँ निरखे नहीं अघाइ ॥ २०९ ॥
कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा। जहँ बस राम पेम मृगरूपा ॥ तात गलानि करहु जियँ जाएँ। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ ॥ ॥
सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं ॥ सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा ॥
तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित पयाग सुभाग हमारा ॥ भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ। कहि अस पेम मगन पुनि भयऊ ॥
सुनि मुनि बचन सभासद हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे ॥ धन्य धन्य धुनि गगन पयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा ॥
दो. पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन। करि प्रनामु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन ॥ २१० ॥
मुनि समाजु अरु तीरथराजू। साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू ॥ एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि सम अधिक न अघ अधमाई ॥
तुम्ह सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ। उर अंतरजामी रघुराऊ ॥ मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू ॥
नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू। पितहु मरन कर मोहि न सोकू ॥ सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए ॥
राम बिरहँ तजि तनु छनभंगू। भूप सोच कर कवन प्रसंगू ॥ राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेष फिरहिं बन बनही ॥
दो. अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात। बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात ॥ २११ ॥
एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती। भूख न बासर नीद न राती ॥ एहि कुरोग कर औषधु नाहीं। सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं ॥
मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेहिं हमार हित कीन्ह बँसूला ॥ कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू। गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रु ॥
मोहि लगि यहु कुठाटु तेहिं ठाटा। घालेसि सब जगु बारहबाटा ॥ मिटइ कुजोगु राम फिरि आएँ। बसइ अवध नहिं आन उपाएँ ॥
भरत बचन सुनि मुनि सुखु पाई। सबहिं कीन्ह बहु भाँति बड़ाई ॥ तात करहु जनि सोचु बिसेषी। सब दुखु मिटहि राम पग देखी ॥
दो. करि प्रबोध मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु। कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु ॥ २१२ ॥
सुनि मुनि बचन भरत हिँय सोचू। भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू ॥ जानि गरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी ॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरम यहु नाथ हमारा ॥ भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए ॥
चाहिए कीन्ह भरत पहुनाई। कंद मूल फल आनहु जाई ॥ भलेहीं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए ॥
मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता। तसि पूजा चाहिअ जस देवता ॥ सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आई। आयसु होइ सो करहिं गोसाई ॥
दो. राम बिरह ब्याकुल भरतु सानुज सहित समाज। पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज ॥ २१३ ॥
रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी। बड़भागिनि आपुहि अनुमानी ॥ कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई ॥
मुनि पद बंदि करिअ सोइ आजू। होइ सुखी सब राज समाजू ॥ अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना। जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना ॥
भोग बिभूति भूरि भरि राखे। देखत जिन्हहि अमर अभिलाषे ॥ दासीं दास साजु सब लीन्हें। जोगवत रहहिं मनहि मनु दीन्हें ॥
सब समाजु सजि सिधि पल माहीं। जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाहीं ॥ प्रथमहिं बास दिए सब केही। सुंदर सुखद जथा रुचि जेही ॥
दो. बहुरि सपरिजन भरत कहुँ रिषि अस आयसु दीन्ह। बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबर तपबल कीन्ह ॥ २१४ ॥
मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोकपति लोका ॥ सुख समाजु नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहीं ग्यानी ॥
आसन सयन सुबसन बिताना। बन बाटिका बिहग मृग नाना ॥ सुरभि फूल फल अमिअ समाना। बिमल जलासय बिबिध बिधाना।
असन पान सुच अमिअ अमी से। देखि लोग सकुचात जमी से ॥ सुर सुरभी सुरतरु सबही कें। लखि अभिलाषु सुरेस सची कें ॥
रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी ॥ स्त्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बस लोगा ॥
दो. संपत चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार ॥ तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार ॥ २१५ ॥
Masaparayana 19 Ends
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