ॐ श्री परमात्मने नमः
नाम प्रसाद संभु अबिनासी । साजु अमंगल मंगल रासी ॥ सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी । नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी ॥
नारद जानेउ नाम प्रतापू । जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू ॥ नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू । भगत सिरोमनि भे प्रहलादू ॥
ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ । पायउ अचल अनूपम ठाऊँ ॥ सुमिरि पवनसुत पावन नामू । अपने बस करि राखे रामू ॥
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ । भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ ॥ कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई । रामु न सकहिं नाम गुन गाई ॥
दो. नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु । जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु ॥ २६ ॥
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका । भए नाम जपि जीव बिसोका ॥ बेद पुरान संत मत एहू । सकल सुकृत फल राम सनेहू ॥
ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें । द्वापर परितोषत प्रभु पूजें ॥ कलि केवल मल मूल मलीना । पाप पयोनिधि जन जन मीना ॥
नाम कामतरु काल कराला । सुमिरत समन सकल जग जाला ॥ राम नाम कलि अभिमत दाता । हित परलोक लोक पितु माता ॥
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू । राम नाम अवलंबन एकू ॥ कालनेमि कलि कपट निधानू । नाम सुमति समरथ हनुमानू ॥
दो. राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल । जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल ॥ २७ ॥
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ । नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥ सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा । करउँ नाइ रघुनाथहि माथा ॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती । जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती ॥ राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो । निज दिसि दैखि दयानिधि पोसो ॥
लोकहुँ बेद सुसाहिब रीतीं । बिनय सुनत पहिचानत प्रीती ॥ गनी गरीब ग्रामनर नागर । पंडित मूढ़ मलीन उजागर ॥
सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी । नृपहि सराहत सब नर नारी ॥ साधु सुजान सुसील नृपाला । ईस अंस भव परम कृपाला ॥
सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी । भनिति भगति नति गति पहिचानी ॥ यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ । जान सिरोमनि कोसलराऊ ॥
रीझत राम सनेह निसोतें । को जग मंद मलिनमति मोतें ॥
दो. सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु । उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु ॥ २८(क) ॥
हौहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास । साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास ॥ २८(ख) ॥
अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी । सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी ॥ समुझि सहम मोहि अपडर अपनें । सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें ॥
सुनि अवलोकि सुचित चख चाही । भगति मोरि मति स्वामि सराही ॥ कहत नसाइ होइ हियँ नीकी । रीझत राम जानि जन जी की ॥
रहति न प्रभु चित चूक किए की । करत सुरति सय बार हिए की ॥ जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली । फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली ॥
सोइ करतूति बिभीषन केरी । सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी ॥ ते भरतहि भेंटत सनमाने । राजसभाँ रघुबीर बखाने ॥
दो. प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान ॥ तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान ॥ २९(क) ॥
राम निकाईं रावरी है सबही को नीक । जों यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक ॥ २९(ख) ॥
एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ । बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ ॥ २९(ग) ॥
जागबलिक जो कथा सुहाई । भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई ॥ कहिहउँ सोइ संबाद बखानी । सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी ॥
संभु कीन्ह यह चरित सुहावा । बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा ॥ सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा । राम भगत अधिकारी चीन्हा ॥
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा । तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा ॥ ते श्रोता बकता समसीला । सवँदरसी जानहिं हरिलीला ॥
जानहिं तीनि काल निज ग्याना । करतल गत आमलक समाना ॥ औरउ जे हरिभगत सुजाना । कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना ॥
दो. मै पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत । समुझी नहि तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत ॥ ३०(क) ॥
श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़ । किमि समुझौं मै जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़ ॥ ३०(ख)
तदपि कही गुर बारहिं बारा । समुझि परी कछु मति अनुसारा ॥ भाषाबद्ध करबि मैं सोई । मोरें मन प्रबोध जेहिं होई ॥
जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें । तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें ॥ निज संदेह मोह भ्रम हरनी । करउँ कथा भव सरिता तरनी ॥
बुध बिश्राम सकल जन रंजनि । रामकथा कलि कलुष बिभंजनि ॥ रामकथा कलि पंनग भरनी । पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी ॥
रामकथा कलि कामद गाई । सुजन सजीवनि मूरि सुहाई ॥ सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि । भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि ॥
असुर सेन सम नरक निकंदिनि । साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि ॥ संत समाज पयोधि रमा सी । बिस्व भार भर अचल छमा सी ॥
जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी । जीवन मुकुति हेतु जनु कासी ॥ रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी । तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी ॥
सिवप्रय मेकल सैल सुता सी । सकल सिद्धि सुख संपति रासी ॥ सदगुन सुरगन अंब अदिति सी । रघुबर भगति प्रेम परमिति सी ॥
दो. राम कथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु । तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु ॥ ३१ ॥
राम चरित चिंतामनि चारू । संत सुमति तिय सुभग सिंगारू ॥ जग मंगल गुन ग्राम राम के । दानि मुकुति धन धरम धाम के ॥
सदगुर ग्यान बिराग जोग के । बिबुध बैद भव भीम रोग के ॥ जननि जनक सिय राम प्रेम के । बीज सकल ब्रत धरम नेम के ॥
समन पाप संताप सोक के । प्रिय पालक परलोक लोक के ॥ सचिव सुभट भूपति बिचार के । कुंभज लोभ उदधि अपार के ॥
काम कोह कलिमल करिगन के । केहरि सावक जन मन बन के ॥ अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद घन दारिद दवारि के ॥
मंत्र महामनि बिषय ब्याल के । मेटत कठिन कुअंक भाल के ॥ हरन मोह तम दिनकर कर से । सेवक सालि पाल जलधर से ॥
अभिमत दानि देवतरु बर से । सेवत सुलभ सुखद हरि हर से ॥ सुकबि सरद नभ मन उडगन से । रामभगत जन जीवन धन से ॥
सकल सुकृत फल भूरि भोग से । जग हित निरुपधि साधु लोग से ॥ सेवक मन मानस मराल से । पावक गंग तंरग माल से ॥
दो. कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड । दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड ॥ ३२(क) ॥
रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु । सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु ॥ ३२(ख) ॥
कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी । जेहि बिधि संकर कहा बखानी ॥ सो सब हेतु कहब मैं गाई । कथाप्रबंध बिचित्र बनाई ॥
जेहि यह कथा सुनी नहिं होई । जनि आचरजु करैं सुनि सोई ॥ कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी । नहिं आचरजु करहिं अस जानी ॥
रामकथा कै मिति जग नाहीं । असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं ॥ नाना भाँति राम अवतारा । रामायन सत कोटि अपारा ॥
कलपभेद हरिचरित सुहाए । भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए ॥ करिअ न संसय अस उर आनी । सुनिअ कथा सारद रति मानी ॥
दो. राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार । सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार ॥ ३३ ॥
एहि बिधि सब संसय करि दूरी । सिर धरि गुर पद पंकज धूरी ॥ पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी । करत कथा जेहिं लाग न खोरी ॥
सादर सिवहि नाइ अब माथा । बरनउँ बिसद राम गुन गाथा ॥ संबत सोरह सै एकतीसा । करउँ कथा हरि पद धरि सीसा ॥
नौमी भौम बार मधु मासा । अवधपुरीं यह चरित प्रकासा ॥ जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं । तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं ॥
असुर नाग खग नर मुनि देवा । आइ करहिं रघुनायक सेवा ॥ जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना । करहिं राम कल कीरति गाना ॥
दो. मज्जहि सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर । जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर ॥ ३४ ॥
दरस परस मज्जन अरु पाना । हरइ पाप कह बेद पुराना ॥ नदी पुनीत अमित महिमा अति । कहि न सकइ सारद बिमलमति ॥
राम धामदा पुरी सुहावनि । लोक समस्त बिदित अति पावनि ॥ चारि खानि जग जीव अपारा । अवध तजे तनु नहि संसारा ॥
सब बिधि पुरी मनोहर जानी । सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी ॥ बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा । सुनत नसाहिं काम मद दंभा ॥
रामचरितमानस एहि नामा । सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा ॥ मन करि विषय अनल बन जरई । होइ सुखी जौ एहिं सर परई ॥
रामचरितमानस मुनि भावन । बिरचेउ संभु सुहावन पावन ॥ त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन । कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन ॥
रचि महेस निज मानस राखा । पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा ॥ तातें रामचरितमानस बर । धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर ॥
कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई । सादर सुनहु सुजन मन लाई ॥
दो. जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु । अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु ॥ ३५ ॥
संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी । रामचरितमानस कबि तुलसी ॥ करइ मनोहर मति अनुहारी । सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी ॥
सुमति भूमि थल हृदय अगाधू । बेद पुरान उदधि घन साधू ॥ बरषहिं राम सुजस बर बारी । मधुर मनोहर मंगलकारी ॥
लीला सगुन जो कहहिं बखानी । सोइ स्वच्छता करइ मल हानी ॥ प्रेम भगति जो बरनि न जाई । सोइ मधुरता सुसीतलताई ॥
सो जल सुकृत सालि हित होई । राम भगत जन जीवन सोई ॥ मेधा महि गत सो जल पावन । सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन ॥
भरेउ सुमानस सुथल थिराना । सुखद सीत रुचि चारु चिराना ॥
दो. सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि । तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि ॥ ३६ ॥
सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना । ग्यान नयन निरखत मन माना ॥ रघुपति महिमा अगुन अबाधा । बरनब सोइ बर बारि अगाधा ॥
राम सीय जस सलिल सुधासम । उपमा बीचि बिलास मनोरम ॥ पुरइनि सघन चारु चौपाई । जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई ॥
छंद सोरठा सुंदर दोहा । सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा ॥ अरथ अनूप सुमाव सुभासा । सोइ पराग मकरंद सुबासा ॥
सुकृत पुंज मंजुल अलि माला । ग्यान बिराग बिचार मराला ॥ धुनि अवरेब कबित गुन जाती । मीन मनोहर ते बहुभाँती ॥
अरथ धरम कामादिक चारी । कहब ग्यान बिग्यान बिचारी ॥ नव रस जप तप जोग बिरागा । ते सब जलचर चारु तड़ागा ॥
सुकृती साधु नाम गुन गाना । ते बिचित्र जल बिहग समाना ॥ संतसभा चहुँ दिसि अवँराई । श्रद्धा रितु बसंत सम गाई ॥
भगति निरुपन बिबिध बिधाना । छमा दया दम लता बिताना ॥ सम जम नियम फूल फल ग्याना । हरि पत रति रस बेद बखाना ॥
औरउ कथा अनेक प्रसंगा । तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा ॥
दो. पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु । माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु ॥ ३७ ॥
जे गावहिं यह चरित सँभारे । तेइ एहि ताल चतुर रखवारे ॥ सदा सुनहिं सादर नर नारी । तेइ सुरबर मानस अधिकारी ॥
अति खल जे बिषई बग कागा । एहिं सर निकट न जाहिं अभागा ॥ संबुक भेक सेवार समाना । इहाँ न बिषय कथा रस नाना ॥
तेहि कारन आवत हियँ हारे । कामी काक बलाक बिचारे ॥ आवत एहिं सर अति कठिनाई । राम कृपा बिनु आइ न जाई ॥
कठिन कुसंग कुपंथ कराला । तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला ॥ गृह कारज नाना जंजाला । ते अति दुर्गम सैल बिसाला ॥
बन बहु बिषम मोह मद माना । नदीं कुतर्क भयंकर नाना ॥
दो. जे श्रद्धा संबल रहित नहि संतन्ह कर साथ । तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ ॥ ३८ ॥
जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई । जातहिं नींद जुड़ाई होई ॥ जड़ता जाड़ बिषम उर लागा । गएहुँ न मज्जन पाव अभागा ॥
करि न जाइ सर मज्जन पाना । फिरि आवइ समेत अभिमाना ॥ जौं बहोरि कोउ पूछन आवा । सर निंदा करि ताहि बुझावा ॥
सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही । राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही ॥ सोइ सादर सर मज्जनु करई । महा घोर त्रयताप न जरई ॥
ते नर यह सर तजहिं न काऊ । जिन्ह के राम चरन भल भाऊ ॥ जो नहाइ चह एहिं सर भाई । सो सतसंग करउ मन लाई ॥
अस मानस मानस चख चाही । भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही ॥ भयउ हृदयँ आनंद उछाहू । उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू ॥
चली सुभग कबिता सरिता सो । राम बिमल जस जल भरिता सो ॥ सरजू नाम सुमंगल मूला । लोक बेद मत मंजुल कूला ॥
नदी पुनीत सुमानस नंदिनि । कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि ॥
दो. श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल । संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल ॥ ३९ ॥
रामभगति सुरसरितहि जाई । मिली सुकीरति सरजु सुहाई ॥ सानुज राम समर जसु पावन । मिलेउ महानदु सोन सुहावन ॥
जुग बिच भगति देवधुनि धारा । सोहति सहित सुबिरति बिचारा ॥ त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी । राम सरुप सिंधु समुहानी ॥
मानस मूल मिली सुरसरिही । सुनत सुजन मन पावन करिही ॥ बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा । जनु सरि तीर तीर बन बागा ॥
उमा महेस बिबाह बराती । ते जलचर अगनित बहुभाँती ॥ रघुबर जनम अनंद बधाई । भवँर तरंग मनोहरताई ॥
दो. बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग । नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारिबिहंग ॥ ४० ॥
सीय स्वयंबर कथा सुहाई । सरित सुहावनि सो छबि छाई ॥ नदी नाव पटु प्रस्न अनेका । केवट कुसल उतर सबिबेका ॥
सुनि अनुकथन परस्पर होई । पथिक समाज सोह सरि सोई ॥ घोर धार भृगुनाथ रिसानी । घाट सुबद्ध राम बर बानी ॥
सानुज राम बिबाह उछाहू । सो सुभ उमग सुखद सब काहू ॥ कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं । ते सुकृती मन मुदित नहाहीं ॥
राम तिलक हित मंगल साजा । परब जोग जनु जुरे समाजा ॥ काई कुमति केकई केरी । परी जासु फल बिपति घनेरी ॥
दो. समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग । कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग ॥ ४१ ॥
कीरति सरित छहूँ रितु रूरी । समय सुहावनि पावनि भूरी ॥ हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू । सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू ॥
बरनब राम बिबाह समाजू । सो मुद मंगलमय रितुराजू ॥ ग्रीषम दुसह राम बनगवनू । पंथकथा खर आतप पवनू ॥
बरषा घोर निसाचर रारी । सुरकुल सालि सुमंगलकारी ॥ राम राज सुख बिनय बड़ाई । बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई ॥
सती सिरोमनि सिय गुनगाथा । सोइ गुन अमल अनूपम पाथा ॥ भरत सुभाउ सुसीतलताई । सदा एकरस बरनि न जाई ॥
दो. अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास । भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास ॥ ४२ ॥
आरति बिनय दीनता मोरी । लघुता ललित सुबारि न थोरी ॥ अदभुत सलिल सुनत गुनकारी । आस पिआस मनोमल हारी ॥
राम सुप्रेमहि पोषत पानी । हरत सकल कलि कलुष गलानौ ॥ भव श्रम सोषक तोषक तोषा । समन दुरित दुख दारिद दोषा ॥
काम कोह मद मोह नसावन । बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन ॥ सादर मज्जन पान किए तें । मिटहिं पाप परिताप हिए तें ॥
जिन्ह एहि बारि न मानस धोए । ते कायर कलिकाल बिगोए ॥ तृषित निरखि रबि कर भव बारी । फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी ॥
दो. मति अनुहारि सुबारि गुन गनि मन अन्हवाइ । सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ ॥ ४३(क) ॥
अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद । कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग संबाद ॥ ४३(ख) ॥
भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा । तिन्हहि राम पद अति अनुरागा ॥ तापस सम दम दया निधाना । परमारथ पथ परम सुजाना ॥
माघ मकरगत रबि जब होई । तीरथपतिहिं आव सब कोई ॥ देव दनुज किंनर नर श्रेनी । सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं ॥
पूजहि माधव पद जलजाता । परसि अखय बटु हरषहिं गाता ॥ भरद्वाज आश्रम अति पावन । परम रम्य मुनिबर मन भावन ॥
तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा । जाहिं जे मज्जन तीरथराजा ॥ मज्जहिं प्रात समेत उछाहा । कहहिं परसपर हरि गुन गाहा ॥
दो. ब्रह्म निरूपम धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग । कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग ॥ ४४ ॥
एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं । पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं ॥ प्रति संबत अति होइ अनंदा । मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा ॥
एक बार भरि मकर नहाए । सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए ॥ जगबालिक मुनि परम बिबेकी । भरव्दाज राखे पद टेकी ॥
सादर चरन सरोज पखारे । अति पुनीत आसन बैठारे ॥ करि पूजा मुनि सुजस बखानी । बोले अति पुनीत मृदु बानी ॥
नाथ एक संसउ बड़ मोरें । करगत बेदतत्व सबु तोरें ॥ कहत सो मोहि लागत भय लाजा । जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा ॥
दो. संत कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव । होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव ॥ ४५ ॥
अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू । हरहु नाथ करि जन पर छोहू ॥ रास नाम कर अमित प्रभावा । संत पुरान उपनिषद गावा ॥
संतत जपत संभु अबिनासी । सिव भगवान ग्यान गुन रासी ॥ आकर चारि जीव जग अहहीं । कासीं मरत परम पद लहहीं ॥
सोऽपि राम महिमा मुनिराया । सिव उपदेसु करत करि दाया ॥ रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही । कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही ॥
एक राम अवधेस कुमारा । तिन्ह कर चरित बिदित संसारा ॥ नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा । भयहु रोषु रन रावनु मारा ॥
दो. प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि । सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि ॥ ४६ ॥
जैसे मिटै मोर भ्रम भारी । कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी ॥ जागबलिक बोले मुसुकाई । तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई ॥
राममगत तुम्ह मन क्रम बानी । चतुराई तुम्हारी मैं जानी ॥ चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा । कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा ॥
तात सुनहु सादर मनु लाई । कहउँ राम कै कथा सुहाई ॥ महामोहु महिषेसु बिसाला । रामकथा कालिका कराला ॥
रामकथा ससि किरन समाना । संत चकोर करहिं जेहि पाना ॥ ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी । महादेव तब कहा बखानी ॥
दो. कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद । भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद ॥ ४७ ॥
एक बार त्रेता जुग माहीं । संभु गए कुंभज रिषि पाहीं ॥ संग सती जगजननि भवानी । पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी ॥
रामकथा मुनीबर्ज बखानी । सुनी महेस परम सुखु मानी ॥ रिषि पूछी हरिभगति सुहाई । कही संभु अधिकारी पाई ॥
कहत सुनत रघुपति गुन गाथा । कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा ॥ मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी । चले भवन सँग दच्छकुमारी ॥
तेहि अवसर भंजन महिभारा । हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा ॥ पिता बचन तजि राजु उदासी । दंडक बन बिचरत अबिनासी ॥
दो. ह्दयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ । गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ ॥ ४८(क) ॥
सो. संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ ॥ तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची ॥ ४८(ख) ॥
रावन मरन मनुज कर जाचा । प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा ॥ जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा । करत बिचारु न बनत बनावा ॥
एहि बिधि भए सोचबस ईसा । तेहि समय जाइ दससीसा ॥ लीन्ह नीच मारीचहि संगा । भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा ॥
करि छलु मूढ़ हरी बैदेही । प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही ॥ मृग बधि बन्धु सहित हरि आए । आश्रमु देखि नयन जल छाए ॥
बिरह बिकल नर इव रघुराई । खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई ॥ कबहूँ जोग बियोग न जाकें । देखा प्रगट बिरह दुख ताकें ॥
दो. अति विचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान । जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन ॥ ४९ ॥
संभु समय तेहि रामहि देखा । उपजा हियँ अति हरपु बिसेषा ॥ भरि लोचन छबिसिंधु निहारी । कुसमय जानिन कीन्हि चिन्हारी ॥
जय सच्चिदानंद जग पावन । अस कहि चलेउ मनोज नसावन ॥ चले जात सिव सती समेता । पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता ॥
सतीं सो दसा संभु कै देखी । उर उपजा संदेहु बिसेषी ॥ संकरु जगतबंद्य जगदीसा । सुर नर मुनि सब नावत सीसा ॥
तिन्ह नृपसुतहि नह परनामा । कहि सच्चिदानंद परधामा ॥ भए मगन छबि तासु बिलोकी । अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी ॥
दो. ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद । सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत वेद ॥ ५० ॥
बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी । सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी ॥ खोजइ सो कि अग्य इव नारी । ग्यानधाम श्रीपति असुरारी ॥
संभुगिरा पुनि मृषा न होई । सिव सर्बग्य जान सबु कोई ॥ अस संसय मन भयउ अपारा । होई न हृदयँ प्रबोध प्रचारा ॥
जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी । हर अंतरजामी सब जानी ॥ सुनहि सती तव नारि सुभाऊ । संसय अस न धरिअ उर काऊ ॥
जासु कथा कुभंज रिषि गाई । भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई ॥ सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा । सेवत जाहि सदा मुनि धीरा ॥
छं. मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं । कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं ॥ सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी । अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनि ॥
सो. लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु । बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ ॥ ५१ ॥
जौं तुम्हरें मन अति संदेहू । तौ किन जाइ परीछा लेहू ॥ तब लगि बैठ अहउँ बटछाहिं । जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाही ॥
जैसें जाइ मोह भ्रम भारी । करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी ॥ चलीं सती सिव आयसु पाई । करहिं बिचारु करौं का भाई ॥
इहाँ संभु अस मन अनुमाना । दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना ॥ मोरेहु कहें न संसय जाहीं । बिधी बिपरीत भलाई नाहीं ॥
होइहि सोइ जो राम रचि राखा । को करि तर्क बढ़ावै साखा ॥ अस कहि लगे जपन हरिनामा । गई सती जहँ प्रभु सुखधामा ॥
दो. पुनि पुनि हृदयँ विचारु करि धरि सीता कर रुप । आगें होइ चलि पंथ तेहि जेहिं आवत नरभूप ॥ ५२ ॥
लछिमन दीख उमाकृत बेषा चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा ॥ कहि न सकत कछु अति गंभीरा । प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा ॥
सती कपटु जानेउ सुरस्वामी । सबदरसी सब अंतरजामी ॥ सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना । सोइ सरबग्य रामु भगवाना ॥
सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ । देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ ॥ निज माया बलु हृदयँ बखानी । बोले बिहसि रामु मृदु बानी ॥
जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू । पिता समेत लीन्ह निज नामू ॥ कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू । बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू ॥
दो. राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु । सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु ॥ ५३ ॥
मैं संकर कर कहा न माना । निज अग्यानु राम पर आना ॥ जाइ उतरु अब देहउँ काहा । उर उपजा अति दारुन दाहा ॥
जाना राम सतीं दुखु पावा । निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा ॥ सतीं दीख कौतुकु मग जाता । आगें रामु सहित श्री भ्राता ॥
फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा । सहित बंधु सिय सुंदर वेषा ॥ जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना । सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना ॥
देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका । अमित प्रभाउ एक तें एका ॥ बंदत चरन करत प्रभु सेवा । बिबिध बेष देखे सब देवा ॥
दो. सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप । जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप ॥ ५४ ॥
देखे जहँ तहँ रघुपति जेते । सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते ॥ जीव चराचर जो संसारा । देखे सकल अनेक प्रकारा ॥
पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा । राम रूप दूसर नहिं देखा ॥ अवलोके रघुपति बहुतेरे । सीता सहित न बेष घनेरे ॥
सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता । देखि सती अति भई सभीता ॥ हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं । नयन मूदि बैठीं मग माहीं ॥
बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी । कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी ॥ पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा । चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा ॥
दो. गई समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात । लीन्ही परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात ॥ ५५ ॥
Masaparayana 2 Ends
Sign In