ॐ श्री परमात्मने नमः
कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाइ मुनिहि सिरु सहित समाजा ॥ रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दंडवत बिनय बहु भाषी ॥
पथ गति कुसल साथ सब लीन्हे। चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें ॥ रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू ॥
नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया ॥ लखन राम सिय पंथ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृदु बानी ॥
राम बास थल बिटप बिलोकें। उर अनुराग रहत नहिं रोकैं ॥ दैखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भइ मृदु महि मगु मंगल मूला ॥
दो. किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात। तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात ॥ २१६ ॥
जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे ॥ ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू ॥
यह बड़ि बात भरत कइ नाहीं। सुमिरत जिनहि रामु मन माहीं ॥ बारक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ ॥
भरतु राम प्रिय पुनि लघु भ्राता। कस न होइ मगु मंगलदाता ॥ सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं। भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीं ॥
देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू ॥ गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई ॥
दो. रामु सँकोची प्रेम बस भरत सपेम पयोधि। बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि ॥ २१७ ॥
बचन सुनत सुरगुरु मुसकाने। सहस्रनयन बिनु लोचन जाने ॥ मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया ॥
तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी ॥ सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ ॥
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई ॥ लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा ॥
भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही ॥
दो. मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु। अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु ॥ २१८ ॥
सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा ॥ मानत सुखु सेवक सेवकाई। सेवक बैर बैरु अधिकाई ॥
जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू ॥ करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा ॥
तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा ॥ अगुन अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत पेम बस ॥
राम सदा सेवक रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी ॥ अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई। करहु भरत पद प्रीति सुहाई ॥
दो. राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल। भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल ॥ २१९ ॥
सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी ॥ स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू ॥
सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटी गलानी ॥ बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ ॥
एहि बिधि भरत चले मग जाहीं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं ॥ जबहिं रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत पेमु मनहँ चहु पासा ॥
द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना ॥ बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए ॥
दो. रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज। होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज ॥ २२० ॥
जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय सम सबहि सुपासू ॥ रातहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी ॥
प्रात पार भए एकहि खेंवाँ। तोषे रामसखा की सेवाँ ॥ चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई ॥
आगें मुनिबर बाहन आछें। राजसमाज जाइ सबु पाछें ॥ तेहिं पाछें दोउ बंधु पयादें। भूषन बसन बेष सुठि सादें ॥
सेवक सुह्रद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा ॥ जहँ जहँ राम बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा ॥
दो. मगबासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ। देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ ॥ २२१ ॥
कहहिं सपेम एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं ॥ बय बपु बरन रूप सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली ॥
बेषु न सो सखि सीय न संगा। आगें अनी चली चतुरंगा ॥ नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि संदेहु होइ एहिं भेदा ॥
तासु तरक तियगन मन मानी। कहहिं सकल तेहि सम न सयानी ॥ तेहि सराहि बानी फुरि पूजी। बोली मधुर बचन तिय दूजी ॥
कहि सपेम सब कथाप्रसंगू। जेहि बिधि राम राज रस भंगू ॥ भरतहि बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी ॥
दो. चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु। जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु ॥ २२२ ॥
भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू ॥ जो कछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई ॥
हम सब सानुज भरतहि देखें। भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें ॥ सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं ॥
कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन। बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन ॥ कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी ॥
बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा। कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा ॥ अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा ॥
दो. भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु। जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु ॥ २२३ ॥
निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा ॥ तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा ॥
मनहीं मन मागहिं बरु एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू ॥ मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी ॥
करि प्रनामु पूँछहिं जेहिं तेही। केहि बन लखनु रामु बैदेही ॥ ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहि देखि जनम फलु लहहीं ॥
जे जन कहहिं कुसल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे ॥ एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी ॥
दो. तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ। राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ ॥ २२४ ॥
मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू ॥ भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटहि दुख दाहू ॥
करत मनोरथ जस जियँ जाके। जाहिं सनेह सुराँ सब छाके ॥ सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन पेम बस बोलहिं ॥
रामसखाँ तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा ॥ जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा ॥
देखि करहिं सब दंड प्रनामा। कहि जय जानकि जीवन रामा ॥ प्रेम मगन अस राज समाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू ॥
दो. भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु। कबिहिं अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु ॥ २२५।
सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें ॥ जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें ॥
उहाँ रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा ॥ सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए ॥
सकल मलिन मन दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी ॥ सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन ॥
लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई ॥ अस कहि बंधु समेत नहाने। पूजि पुरारि साधु सनमाने ॥
छं. सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उत्तर दिसि देखत भए। नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए ॥ तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे। सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे ॥
दो. सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर। सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल ॥ २२६ ॥
बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू ॥ एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी ॥
सो सुनि रामहि भा अति सोचू। इत पितु बच इत बंधु सकोचू ॥ भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाही ॥
समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने ॥ लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू ॥
बिनु पूँछ कछु कहउँ गोसाईं। सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाई ॥ तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी ॥
दो. नाथ सुह्रद सुठि सरल चित सील सनेह निधान ॥ सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान ॥ २२७ ॥
बिषई जीव पाइ प्रभुताई। मूढ़ मोह बस होहिं जनाई ॥ भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेम सकल जगु जाना ॥
तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई ॥ कुटिल कुबंध कुअवसरु ताकी। जानि राम बनवास एकाकी ॥
करि कुमंत्रु मन साजि समाजू। आए करै अकंटक राजू ॥ कोटि प्रकार कलपि कुटलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई ॥
जौं जियँ होति न कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली ॥ भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ ॥
दो. ससि गुर तिय गामी नघुषु चढ़ेउ भूमिसुर जान। लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान ॥ २२८ ॥
सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू ॥ भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काऊ ॥
एक कीन्हि नहिं भरत भलाई। निदरे रामु जानि असहाई ॥ समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी ॥
एतना कहत नीति रस भूला। रन रस बिटपु पुलक मिस फूला ॥ प्रभु पद बंदि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी ॥
अनुचित नाथ न मानब मोरा। भरत हमहि उपचार न थोरा ॥ कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारें ॥
दो. छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान। लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान ॥ २२९ ॥
उठि कर जोरि रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा ॥ बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा ॥
आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतहि समर सिखावन देऊँ ॥ राम निरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई ॥
आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू ॥ जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू ॥
तैसेहिं भरतहि सेन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता ॥ जौं सहाय कर संकरु आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई ॥
दो. अति सरोष माखे लखनु लखि सुनि सपथ प्रवान। सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान ॥ २३० ॥
जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी ॥ तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा ॥
अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ ॥ सहसा करि पाछैं पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं ॥
सुनि सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीयँ सादर सनमाने ॥ कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई ॥
जो अचवँत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई ॥ सुनहु लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा ॥
दो. भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ ॥ कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ ॥ २३१ ॥
तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई ॥ गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी ॥
मसक फूँक मकु मेरु उड़ाई। होइ न नृपमदु भरतहि भाई ॥ लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना ॥
सगुन खीरु अवगुन जलु ताता। मिलइ रचइ परपंचु बिधाता ॥ भरतु हंस रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा ॥
गहि गुन पय तजि अवगुन बारी। निज जस जगत कीन्हि उजिआरी ॥ कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। पेम पयोधि मगन रघुराऊ ॥
दो. सुनि रघुबर बानी बिबुध देखि भरत पर हेतु। सकल सराहत राम सो प्रभु को कृपानिकेतु ॥ २३२ ॥
जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को ॥ कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा ॥
लखन राम सियँ सुनि सुर बानी। अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी ॥ इहाँ भरतु सब सहित सहाए। मंदाकिनीं पुनीत नहाए ॥
सरित समीप राखि सब लोगा। मागि मातु गुर सचिव नियोगा ॥ चले भरतु जहँ सिय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई ॥
समुझि मातु करतब सकुचाहीं। करत कुतरक कोटि मन माहीं ॥ रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ ॥
दो. मातु मते महुँ मानि मोहि जो कछु करहिं सो थोर। अघ अवगुन छमि आदरहिं समुझि आपनी ओर ॥ २३३ ॥
जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी। जौ सनमानहिं सेवकु मानी ॥ मोरें सरन रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही ॥
जग जस भाजन चातक मीना। नेम पेम निज निपुन नबीना ॥ अस मन गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता ॥
फेरत मनहुँ मातु कृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी ॥ जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ ॥
भरत दसा तेहि अवसर कैसी। जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी ॥ देखि भरत कर सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू ॥
दो. लगे होन मंगल सगुन सुनि गुनि कहत निषादु। मिटिहि सोचु होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु ॥ २३४ ॥
सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने ॥ भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू ॥
ईति भीति जनु प्रजा दुखारी। त्रिबिध ताप पीड़ित ग्रह मारी ॥ जाइ सुराज सुदेस सुखारी। होहिं भरत गति तेहि अनुहारी ॥
राम बास बन संपति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा ॥ सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू। बिपिन सुहावन पावन देसू ॥
भट जम नियम सैल रजधानी। सांति सुमति सुचि सुंदर रानी ॥ सकल अंग संपन्न सुराऊ। राम चरन आश्रित चित चाऊ ॥
दो. जीति मोह महिपालु दल सहित बिबेक भुआलु। करत अकंटक राजु पुरँ सुख संपदा सुकालु ॥ २३५ ॥
बन प्रदेस मुनि बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे ॥ बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना ॥
खगहा करि हरि बाघ बराहा। देखि महिष बृष साजु सराहा ॥ बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा। जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरंगा ॥
झरना झरहिं मत्त गज गाजहिं। मनहुँ निसान बिबिधि बिधि बाजहिं ॥ चक चकोर चातक सुक पिक गन। कूजत मंजु मराल मुदित मन ॥
अलिगन गावत नाचत मोरा। जनु सुराज मंगल चहु ओरा ॥ बेलि बिटप तृन सफल सफूला। सब समाजु मुद मंगल मूला ॥
दो. राम सैल सोभा निरखि भरत हृदयँ अति पेमु। तापस तप फलु पाइ जिमि सुखी सिरानें नेमु ॥ २३६ ॥
Masaparayana 20 Ends
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