ॐ श्री परमात्मने नमः
तब केवट ऊँचें चढ़ि धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई ॥ नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला ॥
जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा। मंजु बिसाल देखि मनु मोहा ॥ नील सघन पल्ल्व फल लाला। अबिरल छाहँ सुखद सब काला ॥
मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी। बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी ॥ ए तरु सरित समीप गोसाँई। रघुबर परनकुटी जहँ छाई ॥
तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए। कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए ॥ बट छायाँ बेदिका बनाई। सियँ निज पानि सरोज सुहाई ॥
दो. जहाँ बैठि मुनिगन सहित नित सिय रामु सुजान। सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान ॥ २३७ ॥
सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगे भरत बिलोचन बारी ॥ करत प्रनाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई ॥
हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहुँ पारसु पायउ रंका ॥ रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं ॥
देखि भरत गति अकथ अतीवा। प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा ॥ सखहि सनेह बिबस मग भूला। कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला ॥
निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे ॥ होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को ॥
दो. पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गँभीर। मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर ॥ २३८ ॥
सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा ॥ भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन ॥
करत प्रबेस मिटे दुख दावा। जनु जोगीं परमारथु पावा ॥ देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे ॥
सीस जटा कटि मुनि पट बाँधें। तून कसें कर सरु धनु काँधें ॥ बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राजत रघुराजू ॥
बलकल बसन जटिल तनु स्यामा। जनु मुनि बेष कीन्ह रति कामा ॥ कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि हरत हँसि हेरत ॥
दो. लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचंदु। ग्यान सभाँ जनु तनु धरे भगति सच्चिदानंदु ॥ २३९ ॥
सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन ॥ पाहि नाथ कहि पाहि गोसाई। भूतल परे लकुट की नाई ॥
बचन सपेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियँ जाने ॥ बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा ॥
मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति भनई ॥ रहे राखि सेवा पर भारू। चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू ॥
कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा ॥ उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा ॥
दो. बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान। भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान ॥ २४० ॥
मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी ॥ परम पेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई ॥
कहहु सुपेम प्रगट को करई। केहि छाया कबि मति अनुसरई ॥ कबिहि अरथ आखर बलु साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा ॥
अगम सनेह भरत रघुबर को। जहँ न जाइ मनु बिधि हरि हर को ॥ सो मैं कुमति कहौं केहि भाँती। बाज सुराग कि गाँडर ताँती ॥
मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की। सुरगन सभय धकधकी धरकी ॥ समुझाए सुरगुरु जड़ जागे। बरषि प्रसून प्रसंसन लागे ॥
दो. मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम। भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम ॥ २४१ ॥
भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई ॥ पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे। अभिमत आसिष पाइ अनंदे ॥
सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा ॥ पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए ॥
सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं। मगन सनेहँ देह सुधि नाहीं ॥ सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता ॥
कोउ किछु कहइ न कोउ किछु पूँछा। प्रेम भरा मन निज गति छूँछा ॥ तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि। जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि ॥
दो. नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग। सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग ॥ २४२ ॥
सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू। सिय समीप राखे रिपुदवनू ॥ चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला ॥
गुरहि देखि सानुज अनुरागे। दंड प्रनाम करन प्रभु लागे ॥ मुनिबर धाइ लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई ॥
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू ॥ रामसखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा ॥
रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला ॥ एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं ॥
दो. जेहि लखि लखनहु तें अधिक मिले मुदित मुनिराउ। सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ ॥ २४३ ॥
आरत लोग राम सबु जाना। करुनाकर सुजान भगवाना ॥ जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी। तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी ॥
सानुज मिलि पल महु सब काहू। कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू ॥ यह बड़ि बातँ राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं ॥
मिलि केवटिहि उमगि अनुरागा। पुरजन सकल सराहहिं भागा ॥ देखीं राम दुखित महतारीं। जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं ॥
प्रथम राम भेंटी कैकेई। सरल सुभायँ भगति मति भेई ॥ पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल करम बिधि सिर धरि खोरी ॥
दो. भेटीं रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु ॥ अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु ॥ २४४ ॥
गुरतिय पद बंदे दुहु भाई। सहित बिप्रतिय जे सँग आई ॥ गंग गौरि सम सब सनमानीं ॥ देहिं असीस मुदित मृदु बानी ॥
गहि पद लगे सुमित्रा अंका। जनु भेटीं संपति अति रंका ॥ पुनि जननि चरननि दोउ भ्राता। परे पेम ब्याकुल सब गाता ॥
अति अनुराग अंब उर लाए। नयन सनेह सलिल अन्हवाए ॥ तेहि अवसर कर हरष बिषादू। किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू ॥
मिलि जननहि सानुज रघुराऊ। गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ ॥ पुरजन पाइ मुनीस नियोगू। जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू ॥
दो. महिसुर मंत्री मातु गुर गने लोग लिए साथ ॥ पावन आश्रम गवनु किय भरत लखन रघुनाथ ॥ २४५ ॥
सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस लही मन मागी ॥ गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता ॥
बंदि बंदि पग सिय सबही के। आसिरबचन लहे प्रिय जी के ॥ सासु सकल जब सीयँ निहारीं। मूदे नयन सहमि सुकुमारीं ॥
परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं। काह कीन्ह करतार कुचालीं ॥ तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा ॥
जनकसुता तब उर धरि धीरा। नील नलिन लोयन भरि नीरा ॥ मिली सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुना महि छाई ॥
दो. लागि लागि पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग ॥ हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग ॥ २४६ ॥
बिकल सनेहँ सीय सब रानीं। बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं ॥ कहि जग गति मायिक मुनिनाथा। कहे कछुक परमारथ गाथा ॥
नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा ॥ मरन हेतु निज नेहु बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी ॥
कुलिस कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीय सब रानी ॥ सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहुँ राजु अकाजेउ आजू ॥
मुनिबर बहुरि राम समुझाए। सहित समाज सुसरित नहाए ॥ ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा ॥
दो. भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह ॥ श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह ॥ २४७ ॥
करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी ॥ जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला ॥
सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुरसरि जस ॥ सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सन राम पिरीते ॥
नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु अहारी ॥ सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता ॥
सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु इहाँ अमरावति राऊ ॥ बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई ॥
दो. धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम। लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम ॥ २४८ ॥
राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू ॥ सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकुला ॥
पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं। जो बिलोकि अंघ ओघ नसाहीं ॥ मंगलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दंडवत करि करि ॥
राम सैल बन देखन जाहीं। जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं ॥ झरना झरिहिं सुधासम बारी। त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी ॥
बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहु भाँती ॥ सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं ॥
दो. सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग। बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग ॥ २४९ ॥
कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी ॥ भरि भरि परन पुटीं रचि रुरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी ॥
सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा ॥ देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं ॥
कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पहिचानी ॥ तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा ॥
हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरनि देवधुनि धारा ॥ राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा ॥
दो. यह जिँयँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु। हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु ॥ २५० ॥
तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे ॥ देब काह हम तुम्हहि गोसाँई। ईधनु पात किरात मिताई ॥
यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहि न बासन बसन चोराई ॥ हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती ॥
पाप करत निसि बासर जाहीं। नहिं पट कटि नहि पेट अघाहीं ॥ सपोनेहुँ धरम बुद्धि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ ॥
जब तें प्रभु पद पदुम निहारे। मिटे दुसह दुख दोष हमारे ॥ बचन सुनत पुरजन अनुरागे। तिन्ह के भाग सराहन लागे ॥
छं. लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं। बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं ॥ नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा। तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा ॥
सो. बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब। जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम ॥ २५१ ॥
पुर जन नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं पलक सम बीती ॥ सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करइ सरिस सेवकाई ॥
लखा न मरमु राम बिनु काहूँ। माया सब सिय माया माहूँ ॥ सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं। तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं ॥
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानि पछितानि अघाई ॥ अवनि जमहि जाचति कैकेई। महि न बीचु बिधि मीचु न देई ॥
लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं। राम बिमुख थलु नरक न लहहीं ॥ यहु संसउ सब के मन माहीं। राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं ॥
दो. निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच। नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच ॥ २५२ ॥
कीन्ही मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली ॥ केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू ॥
अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी। मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी ॥ मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ। राम जननि हठ करबि कि काऊ ॥
मोहि अनुचर कर केतिक बाता। तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता ॥ जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू। हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू ॥
एकउ जुगुति न मन ठहरानी। सोचत भरतहि रैनि बिहानी ॥ प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई। बैठत पठए रिषयँ बोलाई ॥
दो. गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ। बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ ॥ २५३ ॥
बोले मुनिबरु समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना ॥ धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू ॥
सत्यसंध पालक श्रुति सेतू। राम जनमु जग मंगल हेतू ॥ गुर पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलु दलन देव हितकारी ॥
नीति प्रीति परमारथ स्वारथु। कोउ न राम सम जान जथारथु ॥ बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला। माया जीव करम कुलि काला ॥
अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई। जोग सिद्धि निगमागम गाई ॥ करि बिचार जिँयँ देखहु नीकें। राम रजाइ सीस सबही कें ॥
दो. राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ। समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ ॥ २५४ ॥
सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू। मंगल मोद मूल मग एकू ॥ केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ ॥
सब सादर सुनि मुनिबर बानी। नय परमारथ स्वारथ सानी ॥ उतरु न आव लोग भए भोरे। तब सिरु नाइ भरत कर जोरे ॥
भानुबंस भए भूप घनेरे। अधिक एक तें एक बड़ेरे ॥ जनमु हेतु सब कहँ पितु माता। करम सुभासुभ देइ बिधाता ॥
दलि दुख सजइ सकल कल्याना। अस असीस राउरि जगु जाना ॥ सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी। सकइ को टारि टेक जो टेकी ॥
दो. बूझिअ मोहि उपाउ अब सो सब मोर अभागु। सुनि सनेहमय बचन गुर उर उमगा अनुरागु ॥ २५५ ॥
तात बात फुरि राम कृपाहीं। राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीं ॥ सकुचउँ तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता ॥
तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई। फेरिअहिं लखन सीय रघुराई ॥ सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता। भे प्रमोद परिपूरन गाता ॥
मन प्रसन्न तन तेजु बिराजा। जनु जिय राउ रामु भए राजा ॥ बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी। सम दुख सुख सब रोवहिं रानी ॥
कहहिं भरतु मुनि कहा सो कीन्हे। फलु जग जीवन्ह अभिमत दीन्हे ॥ कानन करउँ जनम भरि बासू। एहिं तें अधिक न मोर सुपासू ॥
दो. अँतरजामी रामु सिय तुम्ह सरबग्य सुजान। जो फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान ॥ २५६ ॥
भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि भए बिदेहू ॥ भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी ॥
गा चह पार जतनु हियँ हेरा। पावति नाव न बोहितु बेरा ॥ औरु करिहि को भरत बड़ाई। सरसी सीपि कि सिंधु समाई ॥
भरतु मुनिहि मन भीतर भाए। सहित समाज राम पहिँ आए ॥ प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु। बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु ॥
बोले मुनिबरु बचन बिचारी। देस काल अवसर अनुहारी ॥ सुनहु राम सरबग्य सुजाना। धरम नीति गुन ग्यान निधाना ॥
दो. सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ। पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ ॥ २५७ ॥
आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जूआरिहि आपन दाऊ ॥ सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ। नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ ॥
सब कर हित रुख राउरि राखेँ। आयसु किएँ मुदित फुर भाषें ॥ प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथेँ मानि करौ सिख सोई ॥
पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईँ। सो सब भाँति घटिहि सेवकाईँ ॥ कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहँ बिचारु न राखा ॥
तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी। भरत भगति बस भइ मति मोरी ॥ मोरेँ जान भरत रुचि राखि। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी ॥
दो. भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि। करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि ॥ २५८ ॥
गुरु अनुराग भरत पर देखी। राम ह्दयँ आनंदु बिसेषी ॥ भरतहि धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी ॥
बोले गुर आयस अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगलमूला ॥ नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई ॥
जे गुर पद अंबुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी ॥ राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू ॥
लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई ॥ भरतु कहहीं सोइ किएँ भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई ॥
दो. तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात। कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात ॥ २५९ ॥
सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई ॥ लखि अपने सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू ॥
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढें। नीरज नयन नेह जल बाढ़ें ॥ कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ ॥ मो पर कृपा सनेह बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी ॥
सिसुपन तेम परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू ॥ मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहुँ खेल जितावहिं मोही ॥
दो. महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन। दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन ॥ २६० ॥
बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा।यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनीं समुझि साधु सुचि को भा ॥
मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली ॥ फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकुता प्रसव कि संबुक काली ॥
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू ॥ बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू ॥
हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा ॥ गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू ॥
दो. साधु सभा गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ। प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ ॥ २६१ ॥
भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी ॥ देखि न जाहि बिकल महतारी। जरहिं दुसह जर पुर नर नारी ॥
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला ॥ सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा ॥
बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ ॥ बहुरि निहार निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू ॥
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई ॥ जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी ॥
दो. तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि। तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि ॥ २६२ ॥
सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरति प्रीति बिनय नय सानी ॥ सोक मगन सब सभाँ खभारू। मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू ॥
कहि अनेक बिधि कथा पुरानी। भरत प्रबोधु कीन्ह मुनि ग्यानी ॥ बोले उचित बचन रघुनंदू। दिनकर कुल कैरव बन चंदू ॥
तात जाँय जियँ करहु गलानी। ईस अधीन जीव गति जानी ॥ तीनि काल तिभुअन मत मोरें। पुन्यसिलोक तात तर तोरे ॥
उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई। जाइ लोकु परलोकु नसाई ॥ दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई। जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई ॥
दो. मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार। लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार ॥ २६३ ॥
कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी ॥ तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहि दुरइ दुराएँ ॥
मुनि गन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं ॥ हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना ॥
तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें। करौं काह असमंजस जीकें ॥ राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी ॥
तासु बचन मेटत मन सोचू। तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू ॥ ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा ॥
दो. मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु। सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु ॥ २६४ ॥
सुर गन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू ॥ बनत उपाउ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं ॥
बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगत भगति बस अहहीं।सुधि करि अंबरीष दुरबासा। भे सुर सुरपति निपट निरासा ॥
सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा। नरहरि किए प्रगट प्रहलादा ॥ लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा ॥
आन उपाउ न देखिअ देवा। मानत रामु सुसेवक सेवा ॥ हियँ सपेम सुमिरहु सब भरतहि। निज गुन सील राम बस करतहि ॥
दो. सुनि सुर मत सुरगुर कहेउ भल तुम्हार बड़ भागु। सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु ॥ २६५ ॥
सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु सय सरिस सुहाई ॥ भरत भगति तुम्हरें मन आई। तजहु सोचु बिधि बात बनाई ॥
देखु देवपति भरत प्रभाऊ। सहज सुभायँ बिबस रघुराऊ ॥ मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहि जानि राम परिछाहीं ॥
सुनो सुरगुर सुर संमत सोचू। अंतरजामी प्रभुहि सकोचू ॥ निज सिर भारु भरत जियँ जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमाना ॥
करि बिचारु मन दीन्ही ठीका। राम रजायस आपन नीका ॥ निज पन तजि राखेउ पनु मोरा। छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा ॥
दो. कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ। करि प्रनामु बोले भरतु जोरि जलज जुग हाथ ॥ २६६ ॥
कहौं कहावौं का अब स्वामी। कृपा अंबुनिधि अंतरजामी ॥ गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला ॥
अपडर डरेउँ न सोच समूलें। रबिहि न दोसु देव दिसि भूलें ॥ मोर अभागु मातु कुटिलाई। बिधि गति बिषम काल कठिनाई ॥
पाउ रोऽपि सब मिलि मोहि घाला। प्रनतपाल पन आपन पाला ॥ यह नइ रीति न राउरि होई। लोकहुँ बेद बिदित नहिं गोई ॥
जगु अनभल भल एकु गोसाईं। कहिअ होइ भल कासु भलाईं ॥ देउ देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ ॥
दो. जाइ निकट पहिचानि तरु छाहँ समनि सब सोच। मागत अभिमत पाव जग राउ रंकु भल पोच ॥ २६७ ॥
लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटेउ छोभु नहिं मन संदेहू ॥ अब करुनाकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई ॥
जो सेवकु साहिबहि सँकोची। निज हित चहइ तासु मति पोची ॥ सेवक हित साहिब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ बिहाई ॥
स्वारथु नाथ फिरें सबही का। किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका ॥ यह स्वारथ परमारथ सारु। सकल सुकृत फल सुगति सिंगारु ॥
देव एक बिनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी ॥ तिलक समाजु साजि सबु आना। करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना ॥
दो. सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ। नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ ॥ २६८ ॥
नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई। बहुरिअ सीय सहित रघुराई ॥ जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई ॥
देवँ दीन्ह सबु मोहि अभारु। मोरें नीति न धरम बिचारु ॥ कहउँ बचन सब स्वारथ हेतू। रहत न आरत कें चित चेतू ॥
उतरु देइ सुनि स्वामि रजाई। सो सेवकु लखि लाज लजाई ॥ अस मैं अवगुन उदधि अगाधू। स्वामि सनेहँ सराहत साधू ॥
अब कृपाल मोहि सो मत भावा। सकुच स्वामि मन जाइँ न पावा ॥ प्रभु पद सपथ कहउँ सति भाऊ। जग मंगल हित एक उपाऊ ॥
दो. प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देब। सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब ॥ २६९ ॥
भरत बचन सुचि सुनि सुर हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे ॥ असमंजस बस अवध नेवासी। प्रमुदित मन तापस बनबासी ॥
चुपहिं रहे रघुनाथ सँकोची। प्रभु गति देखि सभा सब सोची ॥ जनक दूत तेहि अवसर आए। मुनि बसिष्ठँ सुनि बेगि बोलाए ॥
करि प्रनाम तिन्ह रामु निहारे। बेषु देखि भए निपट दुखारे ॥ दूतन्ह मुनिबर बूझी बाता। कहहु बिदेह भूप कुसलाता ॥
सुनि सकुचाइ नाइ महि माथा। बोले चर बर जोरें हाथा ॥ बूझब राउर सादर साईं। कुसल हेतु सो भयउ गोसाईं ॥
दो. नाहि त कोसल नाथ कें साथ कुसल गइ नाथ। मिथिला अवध बिसेष तें जगु सब भयउ अनाथ ॥ २७० ॥
कोसलपति गति सुनि जनकौरा। भे सब लोक सोक बस बौरा ॥ जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू। नामु सत्य अस लाग न केहू ॥
रानि कुचालि सुनत नरपालहि। सूझ न कछु जस मनि बिनु ब्यालहि ॥ भरत राज रघुबर बनबासू। भा मिथिलेसहि हृदयँ हराँसू ॥
नृप बूझे बुध सचिव समाजू। कहहु बिचारि उचित का आजू ॥ समुझि अवध असमंजस दोऊ। चलिअ कि रहिअ न कह कछु कोऊ ॥
नृपहि धीर धरि हृदयँ बिचारी। पठए अवध चतुर चर चारी ॥ बूझि भरत सति भाउ कुभाऊ। आएहु बेगि न होइ लखाऊ ॥
दो. गए अवध चर भरत गति बूझि देखि करतूति। चले चित्रकूटहि भरतु चार चले तेरहूति ॥ २७१ ॥
दूतन्ह आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामति बरनी ॥ सुनि गुर परिजन सचिव महीपति। भे सब सोच सनेहँ बिकल अति ॥
धरि धीरजु करि भरत बड़ाई। लिए सुभट साहनी बोलाई ॥ घर पुर देस राखि रखवारे। हय गय रथ बहु जान सँवारे ॥
दुघरी साधि चले ततकाला। किए बिश्रामु न मग महीपाला ॥ भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा। चले जमुन उतरन सबु लागा ॥
खबरि लेन हम पठए नाथा। तिन्ह कहि अस महि नायउ माथा ॥ साथ किरात छ सातक दीन्हे। मुनिबर तुरत बिदा चर कीन्हे ॥
दो. सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु। रघुनंदनहि सकोचु बड़ सोच बिबस सुरराजु ॥ २७२ ॥
गरइ गलानि कुटिल कैकेई। काहि कहै केहि दूषनु देई ॥ अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी ॥
एहि प्रकार गत बासर सोऊ। प्रात नहान लाग सबु कोऊ ॥ करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनप गौरि तिपुरारि तमारी ॥
रमा रमन पद बंदि बहोरी। बिनवहिं अंजुलि अंचल जोरी ॥ राजा रामु जानकी रानी। आनँद अवधि अवध रजधानी ॥
सुबस बसउ फिरि सहित समाजा। भरतहि रामु करहुँ जुबराजा ॥ एहि सुख सुधाँ सींची सब काहू। देव देहु जग जीवन लाहू ॥
दो. गुर समाज भाइन्ह सहित राम राजु पुर होउ। अछत राम राजा अवध मरिअ माग सबु कोउ ॥ २७३ ॥
सुनि सनेहमय पुरजन बानी। निंदहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी ॥ एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन। रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन ॥
ऊँच नीच मध्यम नर नारी। लहहिं दरसु निज निज अनुहारी ॥ सावधान सबही सनमानहिं। सकल सराहत कृपानिधानहिं ॥
लरिकाइहि ते रघुबर बानी। पालत नीति प्रीति पहिचानी ॥ सील सकोच सिंधु रघुराऊ। सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ ॥
कहत राम गुन गन अनुरागे। सब निज भाग सराहन लागे ॥ हम सम पुन्य पुंज जग थोरे। जिन्हहि रामु जानत करि मोरे ॥
दो. प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि आवत मिथिलेसु। सहित सभा संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु ॥ २७४ ॥
भाइ सचिव गुर पुरजन साथा। आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा ॥ गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनाम रथ त्यागेउ तबहीं ॥
राम दरस लालसा उछाहू। पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू ॥ मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही। बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही ॥
आवत जनकु चले एहि भाँती। सहित समाज प्रेम मति माती ॥ आए निकट देखि अनुरागे। सादर मिलन परसपर लागे ॥
लगे जनक मुनिजन पद बंदन। रिषिन्ह प्रनामु कीन्ह रघुनंदन ॥ भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहि। चले लवाइ समेत समाजहि ॥
दो. आश्रम सागर सांत रस पूरन पावन पाथु। सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु ॥ २७५ ॥
बोरति ग्यान बिराग करारे। बचन ससोक मिलत नद नारे ॥ सोच उसास समीर तंरगा। धीरज तट तरुबर कर भंगा ॥
बिषम बिषाद तोरावति धारा। भय भ्रम भवँर अबर्त अपारा ॥ केवट बुध बिद्या बड़ि नावा। सकहिं न खेइ ऐक नहिं आवा ॥
बनचर कोल किरात बिचारे। थके बिलोकि पथिक हियँ हारे ॥ आश्रम उदधि मिली जब जाई। मनहुँ उठेउ अंबुधि अकुलाई ॥
सोक बिकल दोउ राज समाजा। रहा न ग्यानु न धीरजु लाजा ॥ भूप रूप गुन सील सराही। रोवहिं सोक सिंधु अवगाही ॥
छं. अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा। दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा ॥ सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की। तुलसी न समरथु कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की ॥
सो. किए अमित उपदेस जहँ तहँ लोगन्ह मुनिबरन्ह। धीरजु धरिअ नरेस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन ॥ २७६ ॥
जासु ग्यानु रबि भव निसि नासा। बचन किरन मुनि कमल बिकासा ॥ तेहि कि मोह ममता निअराई। यह सिय राम सनेह बड़ाई ॥
बिषई साधक सिद्ध सयाने। त्रिबिध जीव जग बेद बखाने ॥ राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभाँ बड़ आदर तासू ॥
सोह न राम पेम बिनु ग्यानू। करनधार बिनु जिमि जलजानू ॥ मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए। रामघाट सब लोग नहाए ॥
सकल सोक संकुल नर नारी। सो बासरु बीतेउ बिनु बारी ॥ पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू। प्रिय परिजन कर कौन बिचारू ॥
दो. दोउ समाज निमिराजु रघुराजु नहाने प्रात। बैठे सब बट बिटप तर मन मलीन कृस गात ॥ २७७ ॥
जे महिसुर दसरथ पुर बासी। जे मिथिलापति नगर निवासी ॥ हंस बंस गुर जनक पुरोधा। जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा ॥
लगे कहन उपदेस अनेका। सहित धरम नय बिरति बिबेका ॥ कौसिक कहि कहि कथा पुरानीं। समुझाई सब सभा सुबानीं ॥
तब रघुनाथ कोसिकहि कहेऊ। नाथ कालि जल बिनु सबु रहेऊ ॥ मुनि कह उचित कहत रघुराई। गयउ बीति दिन पहर अढ़ाई ॥
रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू। इहाँ उचित नहिं असन अनाजू ॥ कहा भूप भल सबहि सोहाना। पाइ रजायसु चले नहाना ॥
दो. तेहि अवसर फल फूल दल मूल अनेक प्रकार। लइ आए बनचर बिपुल भरि भरि काँवरि भार ॥ २७८ ॥
कामद मे गिरि राम प्रसादा। अवलोकत अपहरत बिषादा ॥ सर सरिता बन भूमि बिभागा। जनु उमगत आनँद अनुरागा ॥
बेलि बिटप सब सफल सफूला। बोलत खग मृग अलि अनुकूला ॥ तेहि अवसर बन अधिक उछाहू। त्रिबिध समीर सुखद सब काहू ॥
जाइ न बरनि मनोहरताई। जनु महि करति जनक पहुनाई ॥ तब सब लोग नहाइ नहाई। राम जनक मुनि आयसु पाई ॥
देखि देखि तरुबर अनुरागे। जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे ॥ दल फल मूल कंद बिधि नाना। पावन सुंदर सुधा समाना ॥
दो. सादर सब कहँ रामगुर पठए भरि भरि भार। पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करन फरहार ॥ २७९ ॥
एहि बिधि बासर बीते चारी। रामु निरखि नर नारि सुखारी ॥ दुहु समाज असि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं ॥
सीता राम संग बनबासू। कोटि अमरपुर सरिस सुपासू ॥ परिहरि लखन रामु बैदेही। जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही ॥
दाहिन दइउ होइ जब सबही। राम समीप बसिअ बन तबही ॥ मंदाकिनि मज्जनु तिहु काला। राम दरसु मुद मंगल माला ॥
अटनु राम गिरि बन तापस थल। असनु अमिअ सम कंद मूल फल ॥ सुख समेत संबत दुइ साता। पल सम होहिं न जनिअहिं जाता ॥
दो. एहि सुख जोग न लोग सब कहहिं कहाँ अस भागु ॥ सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु ॥ २८० ॥
एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं ॥ सीय मातु तेहि समय पठाईं। दासीं देखि सुअवसरु आईं ॥
सावकास सुनि सब सिय सासू। आयउ जनकराज रनिवासू ॥ कौसल्याँ सादर सनमानी। आसन दिए समय सम आनी ॥
सीलु सनेह सकल दुहु ओरा। द्रवहिं देखि सुनि कुलिस कठोरा ॥ पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन। महि नख लिखन लगीं सब सोचन ॥
सब सिय राम प्रीति कि सि मूरती। जनु करुना बहु बेष बिसूरति ॥ सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी। जो पय फेनु फोर पबि टाँकी ॥
दो. सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल। जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल ॥ २८१ ॥
सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा। बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा ॥ जो सृजि पालइ हरइ बहोरी। बाल केलि सम बिधि मति भोरी ॥
कौसल्या कह दोसु न काहू। करम बिबस दुख सुख छति लाहू ॥ कठिन करम गति जान बिधाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता ॥
ईस रजाइ सीस सबही कें। उतपति थिति लय बिषहु अमी कें ॥ देबि मोह बस सोचिअ बादी। बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी ॥
भूपति जिअब मरब उर आनी। सोचिअ सखि लखि निज हित हानी ॥ सीय मातु कह सत्य सुबानी। सुकृती अवधि अवधपति रानी ॥
दो. लखनु राम सिय जाहुँ बन भल परिनाम न पोचु। गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु ॥ २८२ ॥
ईस प्रसाद असीस तुम्हारी। सुत सुतबधू देवसरि बारी ॥ राम सपथ मैं कीन्ह न काऊ। सो करि कहउँ सखी सति भाऊ ॥
भरत सील गुन बिनय बड़ाई। भायप भगति भरोस भलाई ॥ कहत सारदहु कर मति हीचे। सागर सीप कि जाहिं उलीचे ॥
जानउँ सदा भरत कुलदीपा। बार बार मोहि कहेउ महीपा ॥ कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ। पुरुष परिखिअहिं समयँ सुभाएँ।
अनुचित आजु कहब अस मोरा। सोक सनेहँ सयानप थोरा ॥ सुनि सुरसरि सम पावनि बानी। भईं सनेह बिकल सब रानी ॥
दो. कौसल्या कह धीर धरि सुनहु देबि मिथिलेसि। को बिबेकनिधि बल्लभहि तुम्हहि सकइ उपदेसि ॥ २८३ ॥
रानि राय सन अवसरु पाई। अपनी भाँति कहब समुझाई ॥ रखिअहिं लखनु भरतु गबनहिं बन। जौं यह मत मानै महीप मन ॥
तौ भल जतनु करब सुबिचारी। मोरें सौचु भरत कर भारी ॥ गूढ़ सनेह भरत मन माही। रहें नीक मोहि लागत नाहीं ॥
लखि सुभाउ सुनि सरल सुबानी। सब भइ मगन करुन रस रानी ॥ नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि। सिथिल सनेहँ सिद्ध जोगी मुनि ॥
सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ। तब धरि धीर सुमित्राँ कहेऊ ॥ देबि दंड जुग जामिनि बीती। राम मातु सुनी उठी सप्रीती ॥
दो. बेगि पाउ धारिअ थलहि कह सनेहँ सतिभाय। हमरें तौ अब ईस गति के मिथिलेस सहाय ॥ २८४ ॥
लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनकप्रिया गह पाय पुनीता ॥ देबि उचित असि बिनय तुम्हारी। दसरथ घरिनि राम महतारी ॥
प्रभु अपने नीचहु आदरहीं। अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं ॥ सेवकु राउ करम मन बानी। सदा सहाय महेसु भवानी ॥
रउरे अंग जोगु जग को है। दीप सहाय कि दिनकर सोहै ॥ रामु जाइ बनु करि सुर काजू। अचल अवधपुर करिहहिं राजू ॥
अमर नाग नर राम बाहुबल। सुख बसिहहिं अपनें अपने थल ॥ यह सब जागबलिक कहि राखा। देबि न होइ मुधा मुनि भाषा ॥
दो. अस कहि पग परि पेम अति सिय हित बिनय सुनाइ ॥ सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ ॥ २८५ ॥
प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही ॥ तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी ॥
जनक राम गुर आयसु पाई। चले थलहि सिय देखी आई ॥ लीन्हि लाइ उर जनक जानकी। पाहुन पावन पेम प्रान की ॥
उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू। भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू ॥ सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा। ता पर राम पेम सिसु सोहा ॥
चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु। बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु ॥ मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की ॥
दो. सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि। धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि ॥ २८६ ॥
तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ पेमु परितोषु बिसेषी ॥ पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ ॥
जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी। गवनु कीन्ह बिधि अंड करोरी ॥ गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे। एहिं किए साधु समाज घनेरे ॥
पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी। सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी ॥ पुनि पितु मातु लीन्ह उर लाई। सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई ॥
कहति न सीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं ॥ लखि रुख रानि जनायउ राऊ। हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ ॥
दो. बार बार मिलि भेंट सिय बिदा कीन्ह सनमानि। कही समय सिर भरत गति रानि सुबानि सयानि ॥ २८७ ॥
सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू। सोन सुगंध सुधा ससि सारू ॥ मूदे सजल नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन ॥
सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि। भरत कथा भव बंध बिमोचनि ॥ धरम राजनय ब्रह्मबिचारू। इहाँ जथामति मोर प्रचारू ॥
सो मति मोरि भरत महिमाही। कहै काह छलि छुअति न छाँही ॥ बिधि गनपति अहिपति सिव सारद। कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद ॥
भरत चरित कीरति करतूती। धरम सील गुन बिमल बिभूती ॥ समुझत सुनत सुखद सब काहू। सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू ॥
दो. निरवधि गुन निरुपम पुरुषु भरतु भरत सम जानि। कहिअ सुमेरु कि सेर सम कबिकुल मति सकुचानि ॥ २८८ ॥
अगम सबहि बरनत बरबरनी। जिमि जलहीन मीन गमु धरनी ॥ भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी ॥
बरनि सप्रेम भरत अनुभाऊ। तिय जिय की रुचि लखि कह राऊ ॥ बहुरहिं लखनु भरतु बन जाहीं। सब कर भल सब के मन माहीं ॥
देबि परंतु भरत रघुबर की। प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी ॥ भरतु अवधि सनेह ममता की। जद्यपि रामु सीम समता की ॥
परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे ॥ साधन सिद्ध राम पग नेहू ॥ मोहि लखि परत भरत मत एहू ॥
दो. भोरेहुँ भरत न पेलिहहिं मनसहुँ राम रजाइ। करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ ॥ २८९ ॥
राम भरत गुन गनत सप्रीती। निसि दंपतिहि पलक सम बीती ॥ राज समाज प्रात जुग जागे। न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे ॥
गे नहाइ गुर पहीं रघुराई। बंदि चरन बोले रुख पाई ॥ नाथ भरतु पुरजन महतारी। सोक बिकल बनबास दुखारी ॥
सहित समाज राउ मिथिलेसू। बहुत दिवस भए सहत कलेसू ॥ उचित होइ सोइ कीजिअ नाथा। हित सबही कर रौरें हाथा ॥
अस कहि अति सकुचे रघुराऊ। मुनि पुलके लखि सीलु सुभाऊ ॥ तुम्ह बिनु राम सकल सुख साजा। नरक सरिस दुहु राज समाजा ॥
दो. प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम। तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहिं बिधि बाम ॥ २९० ॥
सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ ॥ जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू। जहँ नहिं राम पेम परधानू ॥
तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं। तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केहीं ॥ राउर आयसु सिर सबही कें। बिदित कृपालहि गति सब नीकें ॥
आपु आश्रमहि धारिअ पाऊ। भयउ सनेह सिथिल मुनिराऊ ॥ करि प्रनाम तब रामु सिधाए। रिषि धरि धीर जनक पहिं आए ॥
राम बचन गुरु नृपहि सुनाए। सील सनेह सुभायँ सुहाए ॥ महाराज अब कीजिअ सोई। सब कर धरम सहित हित होई।
दो. ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल। तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल ॥ २९१ ॥
सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे। लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे ॥ सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं। आए इहाँ कीन्ह भल नाही ॥
रामहि रायँ कहेउ बन जाना। कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना ॥ हम अब बन तें बनहि पठाई। प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई ॥
तापस मुनि महिसुर सुनि देखी। भए प्रेम बस बिकल बिसेषी ॥ समउ समुझि धरि धीरजु राजा। चले भरत पहिं सहित समाजा ॥
भरत आइ आगें भइ लीन्हे। अवसर सरिस सुआसन दीन्हे ॥ तात भरत कह तेरहुति राऊ। तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ ॥
दो. राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु सनेहु ॥ संकट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु ॥ २९२ ॥
सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले भरतु धीर धरि भारी ॥ प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू ॥
कौसिकादि मुनि सचिव समाजू। ग्यान अंबुनिधि आपुनु आजू ॥ सिसु सेवक आयसु अनुगामी। जानि मोहि सिख देइअ स्वामी ॥
एहिं समाज थल बूझब राउर। मौन मलिन मैं बोलब बाउर ॥ छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता। छमब तात लखि बाम बिधाता ॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। सेवाधरमु कठिन जगु जाना ॥ स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू। बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू ॥
दो. राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि। सब कें संमत सर्ब हित करिअ पेमु पहिचानि ॥ २९३ ॥
भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ। सहित समाज सराहत राऊ ॥ सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे ॥
ज्यौ मुख मुकुर मुकुरु निज पानी। गहि न जाइ अस अदभुत बानी ॥ भूप भरत मुनि सहित समाजू। गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू ॥
सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा। मनहुँ मीनगन नव जल जोगा ॥ देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी। निरखि बिदेह सनेह बिसेषी ॥
राम भगतिमय भरतु निहारे। सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे ॥ सब कोउ राम पेममय पेखा। भउ अलेख सोच बस लेखा ॥
दो. रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराज। रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु ॥ २९४ ॥
सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही। देबि देव सरनागत पाही ॥ फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया ॥
बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी। बोली सुर स्वारथ जड़ जानी ॥ मो सन कहहु भरत मति फेरू। लोचन सहस न सूझ सुमेरू ॥
बिधि हरि हर माया बड़ि भारी। सोउ न भरत मति सकइ निहारी ॥ सो मति मोहि कहत करु भोरी। चंदिनि कर कि चंडकर चोरी ॥
भरत हृदयँ सिय राम निवासू। तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू ॥ अस कहि सारद गइ बिधि लोका। बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका ॥
दो. सुर स्वारथी मलीन मन कीन्ह कुमंत्र कुठाटु ॥ रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु ॥ २९५ ॥
करि कुचालि सोचत सुरराजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू ॥ गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा ॥
समय समाज धरम अबिरोधा। बोले तब रघुबंस पुरोधा ॥ जनक भरत संबादु सुनाई। भरत कहाउति कही सुहाई ॥
तात राम जस आयसु देहू। सो सबु करै मोर मत एहू ॥ सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी। बोले सत्य सरल मृदु बानी ॥
बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू। मोर कहब सब भाँति भदेसू ॥ राउर राय रजायसु होई। राउरि सपथ सही सिर सोई ॥
दो. राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत। सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न उतरु देत ॥ २९६ ॥
सभा सकुच बस भरत निहारी। रामबंधु धरि धीरजु भारी ॥ कुसमउ देखि सनेहु सँभारा। बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा ॥
सोक कनकलोचन मति छोनी। हरी बिमल गुन गन जगजोनी ॥ भरत बिबेक बराहँ बिसाला। अनायास उधरी तेहि काला ॥
करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे। रामु राउ गुर साधु निहोरे ॥ छमब आजु अति अनुचित मोरा। कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा ॥
हियँ सुमिरी सारदा सुहाई। मानस तें मुख पंकज आई ॥ बिमल बिबेक धरम नय साली। भरत भारती मंजु मराली ॥
दो. निरखि बिबेक बिलोचनन्हि सिथिल सनेहँ समाजु। करि प्रनामु बोले भरतु सुमिरि सीय रघुराजु ॥ २९७ ॥
प्रभु पितु मातु सुह्रद गुर स्वामी। पूज्य परम हित अतंरजामी ॥ सरल सुसाहिबु सील निधानू। प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू ॥
समरथ सरनागत हितकारी। गुनगाहकु अवगुन अघ हारी ॥ स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाई। मोहि समान मैं साइँ दोहाई ॥
प्रभु पितु बचन मोह बस पेली। आयउँ इहाँ समाजु सकेली ॥ जग भल पोच ऊँच अरु नीचू। अमिअ अमरपद माहुरु मीचू ॥
राम रजाइ मेट मन माहीं। देखा सुना कतहुँ कोउ नाहीं ॥ सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई। प्रभु मानी सनेह सेवकाई ॥
दो. कृपाँ भलाई आपनी नाथ कीन्ह भल मोर। दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहु ओर ॥ २९८ ॥
राउरि रीति सुबानि बड़ाई। जगत बिदित निगमागम गाई ॥ कूर कुटिल खल कुमति कलंकी। नीच निसील निरीस निसंकी ॥
तेउ सुनि सरन सामुहें आए। सकृत प्रनामु किहें अपनाए ॥ देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने ॥
को साहिब सेवकहि नेवाजी। आपु समाज साज सब साजी ॥ निज करतूति न समुझिअ सपनें। सेवक सकुच सोचु उर अपनें ॥
सो गोसाइँ नहि दूसर कोपी। भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी ॥ पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना ॥
दो. यों सुधारि सनमानि जन किए साधु सिरमोर। को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर ॥ २९९ ॥
सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ ॥ तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा ॥
देखेउँ पाय सुमंगल मूला। जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला ॥ बड़ें समाज बिलोकेउँ भागू। बड़ीं चूक साहिब अनुरागू ॥
कृपा अनुग्रह अंगु अघाई। कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई ॥ राखा मोर दुलार गोसाईं। अपनें सील सुभायँ भलाईं ॥
नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई। स्वामि समाज सकोच बिहाई ॥ अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिहि देउ अति आरति जानी ॥
दो. सुह्रद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि। आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि ॥ ३०० ॥
प्रभु पद पदुम पराग दोहाई। सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई ॥ सो करि कहउँ हिए अपने की। रुचि जागत सोवत सपने की ॥
सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई। स्वारथ छल फल चारि बिहाई ॥ अग्या सम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु जन पावै देवा ॥
अस कहि प्रेम बिबस भए भारी। पुलक सरीर बिलोचन बारी ॥ प्रभु पद कमल गहे अकुलाई। समउ सनेहु न सो कहि जाई ॥
कृपासिंधु सनमानि सुबानी। बैठाए समीप गहि पानी ॥ भरत बिनय सुनि देखि सुभाऊ। सिथिल सनेहँ सभा रघुराऊ ॥
छं. रघुराउ सिथिल सनेहँ साधु समाज मुनि मिथिला धनी। मन महुँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी ॥ भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से। तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से ॥
सो. देखि दुखारी दीन दुहु समाज नर नारि सब। मघवा महा मलीन मुए मारि मंगल चहत ॥ ३०१ ॥
कपट कुचालि सीवँ सुरराजू। पर अकाज प्रिय आपन काजू ॥ काक समान पाकरिपु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती ॥
प्रथम कुमत करि कपटु सँकेला। सो उचाटु सब कें सिर मेला ॥ सुरमायाँ सब लोग बिमोहे। राम प्रेम अतिसय न बिछोहे ॥
भय उचाट बस मन थिर नाहीं। छन बन रुचि छन सदन सोहाहीं ॥ दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी। सरित सिंधु संगम जनु बारी ॥
दुचित कतहुँ परितोषु न लहहीं। एक एक सन मरमु न कहहीं ॥ लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू। सरिस स्वान मघवान जुबानू ॥
दो. भरतु जनकु मुनिजन सचिव साधु सचेत बिहाइ। लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ ॥ ३०२ ॥
कृपासिंधु लखि लोग दुखारे। निज सनेहँ सुरपति छल भारे ॥ सभा राउ गुर महिसुर मंत्री। भरत भगति सब कै मति जंत्री ॥
रामहि चितवत चित्र लिखे से। सकुचत बोलत बचन सिखे से ॥ भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई। सुनत सुखद बरनत कठिनाई ॥
जासु बिलोकि भगति लवलेसू। प्रेम मगन मुनिगन मिथिलेसू ॥ महिमा तासु कहै किमि तुलसी। भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी ॥
आपु छोटि महिमा बड़ि जानी। कबिकुल कानि मानि सकुचानी ॥ कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई। मति गति बाल बचन की नाई ॥
दो. भरत बिमल जसु बिमल बिधु सुमति चकोरकुमारि। उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारि ॥ ३०३ ॥
भरत सुभाउ न सुगम निगमहूँ। लघु मति चापलता कबि छमहूँ ॥ कहत सुनत सति भाउ भरत को। सीय राम पद होइ न रत को ॥
सुमिरत भरतहि प्रेमु राम को। जेहि न सुलभ तेहि सरिस बाम को ॥ देखि दयाल दसा सबही की। राम सुजान जानि जन जी की ॥
धरम धुरीन धीर नय नागर। सत्य सनेह सील सुख सागर ॥ देसु काल लखि समउ समाजू। नीति प्रीति पालक रघुराजू ॥
बोले बचन बानि सरबसु से। हित परिनाम सुनत ससि रसु से ॥ तात भरत तुम्ह धरम धुरीना। लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना ॥
दो. करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम्ह तात। गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात ॥ ३०४ ॥
जानहु तात तरनि कुल रीती। सत्यसंध पितु कीरति प्रीती ॥ समउ समाजु लाज गुरुजन की। उदासीन हित अनहित मन की ॥
तुम्हहि बिदित सबही कर करमू। आपन मोर परम हित धरमू ॥ मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा। तदपि कहउँ अवसर अनुसारा ॥
तात तात बिनु बात हमारी। केवल गुरुकुल कृपाँ सँभारी ॥ नतरु प्रजा परिजन परिवारू। हमहि सहित सबु होत खुआरू ॥
जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू। जग केहि कहहु न होइ कलेसू ॥ तस उतपातु तात बिधि कीन्हा। मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा ॥
दो. राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम। गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम ॥ ३०५ ॥
सहित समाज तुम्हार हमारा। घर बन गुर प्रसाद रखवारा ॥ मातु पिता गुर स्वामि निदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू ॥
सो तुम्ह करहु करावहु मोहू। तात तरनिकुल पालक होहू ॥ साधक एक सकल सिधि देनी। कीरति सुगति भूतिमय बेनी ॥
सो बिचारि सहि संकटु भारी। करहु प्रजा परिवारु सुखारी ॥ बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई। तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई ॥
जानि तुम्हहि मृदु कहउँ कठोरा। कुसमयँ तात न अनुचित मोरा ॥ होहिं कुठायँ सुबंधु सुहाए। ओड़िअहिं हाथ असनिहु के घाए ॥
दो. सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ। तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ ॥ ३०६ ॥
सभा सकल सुनि रघुबर बानी। प्रेम पयोधि अमिअ जनु सानी ॥ सिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दसा चुप सारद साधी ॥
भरतहि भयउ परम संतोषू। सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू ॥ मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू। भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू ॥
कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी। बोले पानि पंकरुह जोरी ॥ नाथ भयउ सुखु साथ गए को। लहेउँ लाहु जग जनमु भए को ॥
अब कृपाल जस आयसु होई। करौं सीस धरि सादर सोई ॥ सो अवलंब देव मोहि देई। अवधि पारु पावौं जेहि सेई ॥
दो. देव देव अभिषेक हित गुर अनुसासनु पाइ। आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ ॥ ३०७ ॥
एकु मनोरथु बड़ मन माहीं। सभयँ सकोच जात कहि नाहीं ॥ कहहु तात प्रभु आयसु पाई। बोले बानि सनेह सुहाई ॥
चित्रकूट सुचि थल तीरथ बन। खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन ॥ प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी। आयसु होइ त आवौं देखी ॥
अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू। तात बिगतभय कानन चरहू ॥ मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता। पावन परम सुहावन भ्राता ॥
रिषिनायकु जहँ आयसु देहीं। राखेहु तीरथ जलु थल तेहीं ॥ सुनि प्रभु बचन भरत सुख पावा। मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा ॥
दो. भरत राम संबादु सुनि सकल सुमंगल मूल। सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल ॥ ३०८ ॥
धन्य भरत जय राम गोसाईं। कहत देव हरषत बरिआई। मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू। भरत बचन सुनि भयउ उछाहू ॥
भरत राम गुन ग्राम सनेहू। पुलकि प्रसंसत राउ बिदेहू ॥ सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन। नेमु पेमु अति पावन पावन ॥
मति अनुसार सराहन लागे। सचिव सभासद सब अनुरागे ॥ सुनि सुनि राम भरत संबादू। दुहु समाज हियँ हरषु बिषादू ॥
राम मातु दुखु सुखु सम जानी। कहि गुन राम प्रबोधीं रानी ॥ एक कहहिं रघुबीर बड़ाई। एक सराहत भरत भलाई ॥
दो. अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप। राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप ॥ ३०९ ॥
भरत अत्रि अनुसासन पाई। जल भाजन सब दिए चलाई ॥ सानुज आपु अत्रि मुनि साधू। सहित गए जहँ कूप अगाधू ॥
पावन पाथ पुन्यथल राखा। प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा ॥ तात अनादि सिद्ध थल एहू। लोपेउ काल बिदित नहिं केहू ॥
तब सेवकन्ह सरस थलु देखा। किन्ह सुजल हित कूप बिसेषा ॥ बिधि बस भयउ बिस्व उपकारू। सुगम अगम अति धरम बिचारू ॥
भरतकूप अब कहिहहिं लोगा। अति पावन तीरथ जल जोगा ॥ प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी। होइहहिं बिमल करम मन बानी ॥
दो. कहत कूप महिमा सकल गए जहाँ रघुराउ। अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ ॥ ३१० ॥
कहत धरम इतिहास सप्रीती। भयउ भोरु निसि सो सुख बीती ॥ नित्य निबाहि भरत दोउ भाई। राम अत्रि गुर आयसु पाई ॥
सहित समाज साज सब सादें। चले राम बन अटन पयादें ॥ कोमल चरन चलत बिनु पनहीं। भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं ॥
कुस कंटक काँकरीं कुराईं। कटुक कठोर कुबस्तु दुराईं ॥ महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे। बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे ॥
सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं। बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं ॥ मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी। सेवहिं सकल राम प्रिय जानी ॥
दो. सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहु राम कहत जमुहात। राम प्रान प्रिय भरत कहुँ यह न होइ बड़ि बात ॥ ३११ ॥
एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं। नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं ॥ पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा। खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा ॥
चारु बिचित्र पबित्र बिसेषी। बूझत भरतु दिब्य सब देखी ॥ सुनि मन मुदित कहत रिषिराऊ। हेतु नाम गुन पुन्य प्रभाऊ ॥
कतहुँ निमज्जन कतहुँ प्रनामा। कतहुँ बिलोकत मन अभिरामा ॥ कतहुँ बैठि मुनि आयसु पाई। सुमिरत सीय सहित दोउ भाई ॥
देखि सुभाउ सनेहु सुसेवा। देहिं असीस मुदित बनदेवा ॥ फिरहिं गएँ दिनु पहर अढ़ाई। प्रभु पद कमल बिलोकहिं आई ॥
दो. देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ। कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ ॥ ३१२ ॥
भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू। भरत भूमिसुर तेरहुति राजू ॥ भल दिन आजु जानि मन माहीं। रामु कृपाल कहत सकुचाहीं ॥
गुर नृप भरत सभा अवलोकी। सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी ॥ सील सराहि सभा सब सोची। कहुँ न राम सम स्वामि सँकोची ॥
भरत सुजान राम रुख देखी। उठि सप्रेम धरि धीर बिसेषी ॥ करि दंडवत कहत कर जोरी। राखीं नाथ सकल रुचि मोरी ॥
मोहि लगि सहेउ सबहिं संतापू। बहुत भाँति दुखु पावा आपू ॥ अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई। सेवौं अवध अवधि भरि जाई ॥
दो. जेहिं उपाय पुनि पाय जनु देखै दीनदयाल। सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल ॥ ३१३ ॥
पुरजन परिजन प्रजा गोसाई। सब सुचि सरस सनेहँ सगाई ॥ राउर बदि भल भव दुख दाहू। प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू ॥
स्वामि सुजानु जानि सब ही की। रुचि लालसा रहनि जन जी की ॥ प्रनतपालु पालिहि सब काहू। देउ दुहू दिसि ओर निबाहू ॥
अस मोहि सब बिधि भूरि भरोसो। किएँ बिचारु न सोचु खरो सो ॥ आरति मोर नाथ कर छोहू। दुहुँ मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू ॥
यह बड़ दोषु दूरि करि स्वामी। तजि सकोच सिखइअ अनुगामी ॥ भरत बिनय सुनि सबहिं प्रसंसी। खीर नीर बिबरन गति हंसी ॥
दो. दीनबंधु सुनि बंधु के बचन दीन छलहीन। देस काल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन ॥ ३१४ ॥
तात तुम्हारि मोरि परिजन की। चिंता गुरहि नृपहि घर बन की ॥ माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू। हमहि तुम्हहि सपनेहुँ न कलेसू ॥
मोर तुम्हार परम पुरुषारथु। स्वारथु सुजसु धरमु परमारथु ॥ पितु आयसु पालिहिं दुहु भाई। लोक बेद भल भूप भलाई ॥
गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें। चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें ॥ अस बिचारि सब सोच बिहाई। पालहु अवध अवधि भरि जाई ॥
देसु कोसु परिजन परिवारू। गुर पद रजहिं लाग छरुभारू ॥ तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी। पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी ॥
दो. मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक। पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक ॥ ३१५ ॥
राजधरम सरबसु एतनोई। जिमि मन माहँ मनोरथ गोई ॥ बंधु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती। बिनु अधार मन तोषु न साँती ॥
भरत सील गुर सचिव समाजू। सकुच सनेह बिबस रघुराजू ॥ प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं। सादर भरत सीस धरि लीन्हीं ॥
चरनपीठ करुनानिधान के। जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के ॥ संपुट भरत सनेह रतन के। आखर जुग जुन जीव जतन के ॥
कुल कपाट कर कुसल करम के। बिमल नयन सेवा सुधरम के ॥ भरत मुदित अवलंब लहे तें। अस सुख जस सिय रामु रहे तें ॥
दो. मागेउ बिदा प्रनामु करि राम लिए उर लाइ। लोग उचाटे अमरपति कुटिल कुअवसरु पाइ ॥ ३१६ ॥
सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी। अवधि आस सम जीवनि जी की ॥ नतरु लखन सिय सम बियोगा। हहरि मरत सब लोग कुरोगा ॥
रामकृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी ॥ भेंटत भुज भरि भाइ भरत सो। राम प्रेम रसु कहि न परत सो ॥
तन मन बचन उमग अनुरागा। धीर धुरंधर धीरजु त्यागा ॥ बारिज लोचन मोचत बारी। देखि दसा सुर सभा दुखारी ॥
मुनिगन गुर धुर धीर जनक से। ग्यान अनल मन कसें कनक से ॥ जे बिरंचि निरलेप उपाए। पदुम पत्र जिमि जग जल जाए ॥
दो. तेउ बिलोकि रघुबर भरत प्रीति अनूप अपार। भए मगन मन तन बचन सहित बिराग बिचार ॥ ३१७ ॥
जहाँ जनक गुर मति भोरी। प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खोरी ॥ बरनत रघुबर भरत बियोगू। सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू ॥
सो सकोच रसु अकथ सुबानी। समउ सनेहु सुमिरि सकुचानी ॥ भेंटि भरत रघुबर समुझाए। पुनि रिपुदवनु हरषि हियँ लाए ॥
सेवक सचिव भरत रुख पाई। निज निज काज लगे सब जाई ॥ सुनि दारुन दुखु दुहूँ समाजा। लगे चलन के साजन साजा ॥
प्रभु पद पदुम बंदि दोउ भाई। चले सीस धरि राम रजाई ॥ मुनि तापस बनदेव निहोरी। सब सनमानि बहोरि बहोरी ॥
दो. लखनहि भेंटि प्रनामु करि सिर धरि सिय पद धूरि। चले सप्रेम असीस सुनि सकल सुमंगल मूरि ॥ ३१८ ॥
सानुज राम नृपहि सिर नाई। कीन्हि बहुत बिधि बिनय बड़ाई ॥ देव दया बस बड़ दुखु पायउ। सहित समाज काननहिं आयउ ॥
पुर पगु धारिअ देइ असीसा। कीन्ह धीर धरि गवनु महीसा ॥ मुनि महिदेव साधु सनमाने। बिदा किए हरि हर सम जाने ॥
सासु समीप गए दोउ भाई। फिरे बंदि पग आसिष पाई ॥ कौसिक बामदेव जाबाली। पुरजन परिजन सचिव सुचाली ॥
जथा जोगु करि बिनय प्रनामा। बिदा किए सब सानुज रामा ॥ नारि पुरुष लघु मध्य बड़ेरे। सब सनमानि कृपानिधि फेरे ॥
दो. भरत मातु पद बंदि प्रभु सुचि सनेहँ मिलि भेंटि। बिदा कीन्ह सजि पालकी सकुच सोच सब मेटि ॥ ३१९ ॥
परिजन मातु पितहि मिलि सीता। फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता ॥ करि प्रनामु भेंटी सब सासू। प्रीति कहत कबि हियँ न हुलासू ॥
सुनि सिख अभिमत आसिष पाई। रही सीय दुहु प्रीति समाई ॥ रघुपति पटु पालकीं मगाईं। करि प्रबोधु सब मातु चढ़ाई ॥
बार बार हिलि मिलि दुहु भाई। सम सनेहँ जननी पहुँचाई ॥ साजि बाजि गज बाहन नाना। भरत भूप दल कीन्ह पयाना ॥
हृदयँ रामु सिय लखन समेता। चले जाहिं सब लोग अचेता ॥ बसह बाजि गज पसु हियँ हारें। चले जाहिं परबस मन मारें ॥
दो. गुर गुरतिय पद बंदि प्रभु सीता लखन समेत। फिरे हरष बिसमय सहित आए परन निकेत ॥ ३२० ॥
बिदा कीन्ह सनमानि निषादू। चलेउ हृदयँ बड़ बिरह बिषादू ॥ कोल किरात भिल्ल बनचारी। फेरे फिरे जोहारि जोहारी ॥
प्रभु सिय लखन बैठि बट छाहीं। प्रिय परिजन बियोग बिलखाहीं ॥ भरत सनेह सुभाउ सुबानी। प्रिया अनुज सन कहत बखानी ॥
प्रीति प्रतीति बचन मन करनी। श्रीमुख राम प्रेम बस बरनी ॥ तेहि अवसर खग मृग जल मीना। चित्रकूट चर अचर मलीना ॥
बिबुध बिलोकि दसा रघुबर की। बरषि सुमन कहि गति घर घर की ॥ प्रभु प्रनामु करि दीन्ह भरोसो। चले मुदित मन डर न खरो सो ॥
दो. सानुज सीय समेत प्रभु राजत परन कुटीर। भगति ग्यानु बैराग्य जनु सोहत धरें सरीर ॥ ३२१ ॥
मुनि महिसुर गुर भरत भुआलू। राम बिरहँ सबु साजु बिहालू ॥ प्रभु गुन ग्राम गनत मन माहीं। सब चुपचाप चले मग जाहीं ॥
जमुना उतरि पार सबु भयऊ। सो बासरु बिनु भोजन गयऊ ॥ उतरि देवसरि दूसर बासू। रामसखाँ सब कीन्ह सुपासू ॥
सई उतरि गोमतीं नहाए। चौथें दिवस अवधपुर आए।जनकु रहे पुर बासर चारी। राज काज सब साज सँभारी ॥
सौंपि सचिव गुर भरतहि राजू। तेरहुति चले साजि सबु साजू ॥ नगर नारि नर गुर सिख मानी। बसे सुखेन राम रजधानी ॥
दो. राम दरस लगि लोग सब करत नेम उपबास। तजि तजि भूषन भोग सुख जिअत अवधि कीं आस ॥ ३२२ ॥
सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे। निज निज काज पाइ पाइ सिख ओधे ॥ पुनि सिख दीन्ह बोलि लघु भाई। सौंपी सकल मातु सेवकाई ॥
भूसुर बोलि भरत कर जोरे। करि प्रनाम बय बिनय निहोरे ॥ ऊँच नीच कारजु भल पोचू। आयसु देब न करब सँकोचू ॥
परिजन पुरजन प्रजा बोलाए। समाधानु करि सुबस बसाए ॥ सानुज गे गुर गेहँ बहोरी। करि दंडवत कहत कर जोरी ॥
आयसु होइ त रहौं सनेमा। बोले मुनि तन पुलकि सपेमा ॥ समुझव कहब करब तुम्ह जोई। धरम सारु जग होइहि सोई ॥
दो. सुनि सिख पाइ असीस बड़ि गनक बोलि दिनु साधि। सिंघासन प्रभु पादुका बैठारे निरुपाधि ॥ ३२३ ॥
राम मातु गुर पद सिरु नाई। प्रभु पद पीठ रजायसु पाई ॥ नंदिगावँ करि परन कुटीरा। कीन्ह निवासु धरम धुर धीरा ॥
जटाजूट सिर मुनिपट धारी। महि खनि कुस साँथरी सँवारी ॥ असन बसन बासन ब्रत नेमा। करत कठिन रिषिधरम सप्रेमा ॥
भूषन बसन भोग सुख भूरी। मन तन बचन तजे तिन तूरी ॥ अवध राजु सुर राजु सिहाई। दसरथ धनु सुनि धनदु लजाई ॥
तेहिं पुर बसत भरत बिनु रागा। चंचरीक जिमि चंपक बागा ॥ रमा बिलासु राम अनुरागी। तजत बमन जिमि जन बड़भागी ॥
दो. राम पेम भाजन भरतु बड़े न एहिं करतूति। चातक हंस सराहिअत टेंक बिबेक बिभूति ॥ ३२४ ॥
देह दिनहुँ दिन दूबरि होई। घटइ तेजु बलु मुखछबि सोई ॥ नित नव राम प्रेम पनु पीना। बढ़त धरम दलु मनु न मलीना ॥
जिमि जलु निघटत सरद प्रकासे। बिलसत बेतस बनज बिकासे ॥ सम दम संजम नियम उपासा। नखत भरत हिय बिमल अकासा ॥
ध्रुव बिस्वास अवधि राका सी। स्वामि सुरति सुरबीथि बिकासी ॥ राम पेम बिधु अचल अदोषा। सहित समाज सोह नित चोखा ॥
भरत रहनि समुझनि करतूती। भगति बिरति गुन बिमल बिभूती ॥ बरनत सकल सुकचि सकुचाहीं। सेस गनेस गिरा गमु नाहीं ॥
दो. नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति ॥ मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति ॥ ३२५ ॥
पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू। जीह नामु जप लोचन नीरू ॥ लखन राम सिय कानन बसहीं। भरतु भवन बसि तप तनु कसहीं ॥
दोउ दिसि समुझि कहत सबु लोगू। सब बिधि भरत सराहन जोगू ॥ सुनि ब्रत नेम साधु सकुचाहीं। देखि दसा मुनिराज लजाहीं ॥
परम पुनीत भरत आचरनू। मधुर मंजु मुद मंगल करनू ॥ हरन कठिन कलि कलुष कलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू ॥
पाप पुंज कुंजर मृगराजू। समन सकल संताप समाजू।जन रंजन भंजन भव भारू। राम सनेह सुधाकर सारू ॥
छं. सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को। मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को ॥ दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को। कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि राम सनमुख करत को ॥
सो. भरत चरित करि नेमु तुलसी जो सादर सुनहिं। सीय राम पद पेमु अवसि होइ भव रस बिरति ॥ ३२६ ॥
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने द्वितीयः सोपानः समाप्तः।
द्वितीयः सोपानः समाप्तः।
Masaparayana 21 Ends
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