ॐ श्री परमात्मने नमः
श्री रामचरितमानस षष्ठ सोपान ।
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम् । मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम् ॥ १ ॥
शंखेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं कालव्यालकरालभूषणधरं गंगाशशांकप्रियम्। काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम् ॥ २ ॥
यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्। खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे ॥ ३ ॥
दो. लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चंड। भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदंड ॥
सो. सिंधु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ। अब बिलंबु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु ॥
सुनहु भानुकुल केतु जामवंत कर जोरि कह। नाथ नाम तव सेतु नर चढ़ि भव सागर तरिहिं ॥
यह लघु जलधि तरत कति बारा। अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा ॥ प्रभु प्रताप बड़वानल भारी। सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी ॥
तब रिपु नारी रुदन जल धारा। भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा ॥ सुनि अति उकुति पवनसुत केरी। हरषे कपि रघुपति तन हेरी ॥
जामवंत बोले दोउ भाई। नल नीलहि सब कथा सुनाई ॥ राम प्रताप सुमिरि मन माहीं। करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं ॥
बोलि लिए कपि निकर बहोरी। सकल सुनहु बिनती कछु मोरी ॥ राम चरन पंकज उर धरहू। कौतुक एक भालु कपि करहू ॥
धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा ॥ सुनि कपि भालु चले करि हूहा। जय रघुबीर प्रताप समूहा ॥
दो. अति उतंग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ। आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ ॥ १ ॥
सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कंदुक इव नल नील ते लेहीं ॥ देखि सेतु अति सुंदर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना ॥
परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी ॥ करिहउँ इहाँ संभु थापना। मोरे हृदयँ परम कलपना ॥
सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिबर सकल बोलि लै आए ॥ लिंग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा ॥
सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा ॥ संकर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी ॥
दो. संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास। ते नर करहि कलप भरि धोर नरक महुँ बास ॥ २ ॥
जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं ॥ जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि ॥
होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति मोरि तेहि संकर देइहि ॥ मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही ॥
राम बचन सब के जिय भाए। मुनिबर निज निज आश्रम आए ॥ गिरिजा रघुपति कै यह रीती। संतत करहिं प्रनत पर प्रीती ॥
बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर ॥ बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई। भए उपल बोहित सम तेई ॥
महिमा यह न जलधि कइ बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी ॥
दो. श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान। ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन ॥ ३ ॥
बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा। देखि कृपानिधि के मन भावा ॥ चली सेन कछु बरनि न जाई। गर्जहिं मर्कट भट समुदाई ॥
सेतुबंध ढिग चढ़ि रघुराई। चितव कृपाल सिंधु बहुताई ॥ देखन कहुँ प्रभु करुना कंदा। प्रगट भए सब जलचर बृंदा ॥
मकर नक्र नाना झष ब्याला। सत जोजन तन परम बिसाला ॥ अइसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं। एकन्ह कें डर तेपि डेराहीं ॥
प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे। मन हरषित सब भए सुखारे ॥ तिन्ह की ओट न देखिअ बारी। मगन भए हरि रूप निहारी ॥
चला कटकु प्रभु आयसु पाई। को कहि सक कपि दल बिपुलाई ॥
दो. सेतुबंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं। अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़ि चढ़ि पारहि जाहिं ॥ ४ ॥
अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई। बिहँसि चले कृपाल रघुराई ॥ सेन सहित उतरे रघुबीरा। कहि न जाइ कपि जूथप भीरा ॥
सिंधु पार प्रभु डेरा कीन्हा। सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा ॥ खाहु जाइ फल मूल सुहाए। सुनत भालु कपि जहँ तहँ धाए ॥
सब तरु फरे राम हित लागी। रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी ॥ खाहिं मधुर फल बटप हलावहिं। लंका सन्मुख सिखर चलावहिं ॥
जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं। घेरि सकल बहु नाच नचावहिं ॥ दसनन्हि काटि नासिका काना। कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना ॥
जिन्ह कर नासा कान निपाता। तिन्ह रावनहि कही सब बाता ॥ सुनत श्रवन बारिधि बंधाना। दस मुख बोलि उठा अकुलाना ॥
दो. बांध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस। सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस ॥ ५ ॥
निज बिकलता बिचारि बहोरी। बिहँसि गयउ ग्रह करि भय भोरी ॥ मंदोदरीं सुन्यो प्रभु आयो। कौतुकहीं पाथोधि बँधायो ॥
कर गहि पतिहि भवन निज आनी। बोली परम मनोहर बानी ॥ चरन नाइ सिरु अंचलु रोपा। सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा ॥
नाथ बयरु कीजे ताही सों। बुधि बल सकिअ जीति जाही सों ॥ तुम्हहि रघुपतिहि अंतर कैसा। खलु खद्योत दिनकरहि जैसा ॥
अतिबल मधु कैटभ जेहिं मारे। महाबीर दितिसुत संघारे ॥ जेहिं बलि बाँधि सहजभुज मारा। सोइ अवतरेउ हरन महि भारा ॥
तासु बिरोध न कीजिअ नाथा। काल करम जिव जाकें हाथा ॥
दो. रामहि सौपि जानकी नाइ कमल पद माथ। सुत कहुँ राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ ॥ ६ ॥
नाथ दीनदयाल रघुराई। बाघउ सनमुख गएँ न खाई ॥ चाहिअ करन सो सब करि बीते। तुम्ह सुर असुर चराचर जीते ॥
संत कहहिं असि नीति दसानन। चौथेंपन जाइहि नृप कानन ॥ तासु भजन कीजिअ तहँ भर्ता। जो कर्ता पालक संहर्ता ॥
सोइ रघुवीर प्रनत अनुरागी। भजहु नाथ ममता सब त्यागी ॥ मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी। भूप राजु तजि होहिं बिरागी ॥
सोइ कोसलधीस रघुराया। आयउ करन तोहि पर दाया ॥ जौं पिय मानहु मोर सिखावन। सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन ॥
दो. अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कंपित गात। नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात ॥ ७ ॥
तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई ॥ सुनु तै प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना ॥
बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला ॥ देव दनुज नर सब बस मोरें। कवन हेतु उपजा भय तोरें ॥
नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई। सभाँ बहोरि बैठ सो जाई ॥ मंदोदरीं हृदयँ अस जाना। काल बस्य उपजा अभिमाना ॥
सभाँ आइ मंत्रिन्ह तेंहि बूझा। करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा ॥ कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा। बार बार प्रभु पूछहु काहा ॥
कहहु कवन भय करिअ बिचारा। नर कपि भालु अहार हमारा ॥
दो. सब के बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि। निति बिरोध न करिअ प्रभु मत्रिंन्ह मति अति थोरि ॥ ८ ॥
कहहिं सचिव सठ ठकुरसोहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँती ॥ बारिधि नाघि एक कपि आवा। तासु चरित मन महुँ सबु गावा ॥
छुधा न रही तुम्हहि तब काहू। जारत नगरु कस न धरि खाहू ॥ सुनत नीक आगें दुख पावा। सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा ॥
जेहिं बारीस बँधायउ हेला। उतरेउ सेन समेत सुबेला ॥ सो भनु मनुज खाब हम भाई। बचन कहहिं सब गाल फुलाई ॥
तात बचन मम सुनु अति आदर। जनि मन गुनहु मोहि करि कादर ॥ प्रिय बानी जे सुनहिं जे कहहीं। ऐसे नर निकाय जग अहहीं ॥
बचन परम हित सुनत कठोरे। सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे ॥ प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीती। सीता देइ करहु पुनि प्रीती ॥
दो. नारि पाइ फिरि जाहिं जौं तौ न बढ़ाइअ रारि। नाहिं त सन्मुख समर महि तात करिअ हठि मारि ॥ ९ ॥
यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा। उभय प्रकार सुजसु जग तोरा ॥ सुत सन कह दसकंठ रिसाई। असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई ॥
अबहीं ते उर संसय होई। बेनुमूल सुत भयहु घमोई ॥ सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा। चला भवन कहि बचन कठोरा ॥
हित मत तोहि न लागत कैसें। काल बिबस कहुँ भेषज जैसें ॥ संध्या समय जानि दससीसा। भवन चलेउ निरखत भुज बीसा ॥
लंका सिखर उपर आगारा। अति बिचित्र तहँ होइ अखारा ॥ बैठ जाइ तेही मंदिर रावन। लागे किंनर गुन गन गावन ॥
बाजहिं ताल पखाउज बीना। नृत्य करहिं अपछरा प्रबीना ॥
दो. सुनासीर सत सरिस सो संतत करइ बिलास। परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास ॥ १० ॥
सिखर एक उतंग अति देखी। परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी ॥ तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए ॥
ता पर रूचिर मृदुल मृगछाला। तेहीं आसान आसीन कृपाला ॥ प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा। बाम दहिन दिसि चाप निषंगा ॥
दुहुँ कर कमल सुधारत बाना। कह लंकेस मंत्र लगि काना ॥ बड़भागी अंगद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना ॥
प्रभु पाछें लछिमन बीरासन। कटि निषंग कर बान सरासन ॥
दो. एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन। धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन ॥ ११(क) ॥
पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मंयक। कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असंक ॥ ११(ख) ॥
पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी। परम प्रताप तेज बल रासी ॥ मत्त नाग तम कुंभ बिदारी। ससि केसरी गगन बन चारी ॥
बिथुरे नभ मुकुताहल तारा। निसि सुंदरी केर सिंगारा ॥ कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई। कहहु काह निज निज मति भाई ॥
कह सुग़ीव सुनहु रघुराई। ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई ॥ मारेउ राहु ससिहि कह कोई। उर महँ परी स्यामता सोई ॥
कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा। सार भाग ससि कर हरि लीन्हा ॥ छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं। तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं ॥
प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा। अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा ॥ बिष संजुत कर निकर पसारी। जारत बिरहवंत नर नारी ॥
दो. कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हारा प्रिय दास। तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास ॥ १२(क) ॥
पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान। दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान ॥ १२(ख) ॥
देखु बिभीषन दच्छिन आसा। घन घंमड दामिनि बिलासा ॥ मधुर मधुर गरजइ घन घोरा। होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा ॥
कहत बिभीषन सुनहु कृपाला। होइ न तड़ित न बारिद माला ॥ लंका सिखर उपर आगारा। तहँ दसकंघर देख अखारा ॥
छत्र मेघडंबर सिर धारी। सोइ जनु जलद घटा अति कारी ॥ मंदोदरी श्रवन ताटंका। सोइ प्रभु जनु दामिनी दमंका ॥
बाजहिं ताल मृदंग अनूपा। सोइ रव मधुर सुनहु सुरभूपा ॥ प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना। चाप चढ़ाइ बान संधाना ॥
दो. छत्र मुकुट ताटंक तब हते एकहीं बान। सबकें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान ॥ १३(क) ॥
अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आइ निषंग। रावन सभा ससंक सब देखि महा रसभंग ॥ १३(ख) ॥
कंप न भूमि न मरुत बिसेषा। अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा ॥ सोचहिं सब निज हृदय मझारी। असगुन भयउ भयंकर भारी ॥
दसमुख देखि सभा भय पाई। बिहसि बचन कह जुगुति बनाई ॥ सिरउ गिरे संतत सुभ जाही। मुकुट परे कस असगुन ताही ॥
सयन करहु निज निज गृह जाई। गवने भवन सकल सिर नाई ॥ मंदोदरी सोच उर बसेऊ। जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ ॥
सजल नयन कह जुग कर जोरी। सुनहु प्रानपति बिनती मोरी ॥ कंत राम बिरोध परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ मन धरहू ॥
दो. बिस्वरुप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु। लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु ॥ १४ ॥
पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा ॥ भृकुटि बिलास भयंकर काला। नयन दिवाकर कच घन माला ॥
जासु घ्रान अस्विनीकुमारा। निसि अरु दिवस निमेष अपारा ॥ श्रवन दिसा दस बेद बखानी। मारुत स्वास निगम निज बानी ॥
अधर लोभ जम दसन कराला। माया हास बाहु दिगपाला ॥ आनन अनल अंबुपति जीहा। उतपति पालन प्रलय समीहा ॥
रोम राजि अष्टादस भारा। अस्थि सैल सरिता नस जारा ॥ उदर उदधि अधगो जातना। जगमय प्रभु का बहु कलपना ॥
दो. अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान। मनुज बास सचराचर रुप राम भगवान ॥ १५ क ॥
अस बिचारि सुनु प्रानपति प्रभु सन बयरु बिहाइ। प्रीति करहु रघुबीर पद मम अहिवात न जाइ ॥ १५ ख ॥
बिहँसा नारि बचन सुनि काना। अहो मोह महिमा बलवाना ॥ नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं ॥
साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया ॥ रिपु कर रुप सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा ॥
सो सब प्रिया सहज बस मोरें। समुझि परा प्रसाद अब तोरें ॥ जानिउँ प्रिया तोरि चतुराई। एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई ॥
तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि ॥ मंदोदरि मन महुँ अस ठयऊ। पियहि काल बस मतिभ्रम भयऊ ॥
दो. एहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध। सहज असंक लंकपति सभाँ गयउ मद अंध ॥ १६(क) ॥
सो. फूलह फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद। मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम ॥ १६(ख) ॥
इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई ॥ कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवंत कह पद सिरु नाई ॥
सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी ॥ मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालिकुमारा ॥
नीक मंत्र सब के मन माना। अंगद सन कह कृपानिधाना ॥ बालितनय बुधि बल गुन धामा। लंका जाहु तात मम कामा ॥
बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ। परम चतुर मैं जानत अहऊँ ॥ काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई ॥
सो. प्रभु अग्या धरि सीस चरन बंदि अंगद उठेउ। सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा पर करहु ॥ १७(क) ॥
स्वयं सिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ। अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ ॥ १७(ख) ॥
बंदि चरन उर धरि प्रभुताई। अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई ॥ प्रभु प्रताप उर सहज असंका। रन बाँकुरा बालिसुत बंका ॥
पुर पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भैंटा ॥ बातहिं बात करष बढ़ि आई। जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई ॥
तेहि अंगद कहुँ लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई ॥ निसिचर निकर देखि भट भारी। जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी ॥
एक एक सन मरमु न कहहीं। समुझि तासु बध चुप करि रहहीं ॥ भयउ कोलाहल नगर मझारी। आवा कपि लंका जेहीं जारी ॥
अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा ॥ बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई ॥
दो. गयउ सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कंज। सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुंज ॥ १८ ॥
तुरत निसाचर एक पठावा। समाचार रावनहि जनावा ॥ सुनत बिहँसि बोला दससीसा। आनहु बोलि कहाँ कर कीसा ॥
आयसु पाइ दूत बहु धाए। कपिकुंजरहि बोलि लै आए ॥ अंगद दीख दसानन बैंसें। सहित प्रान कज्जलगिरि जैसें ॥
भुजा बिटप सिर सृंग समाना। रोमावली लता जनु नाना ॥ मुख नासिका नयन अरु काना। गिरि कंदरा खोह अनुमाना ॥
गयउ सभाँ मन नेकु न मुरा। बालितनय अतिबल बाँकुरा ॥ उठे सभासद कपि कहुँ देखी। रावन उर भा क्रौध बिसेषी ॥
दो. जथा मत्त गज जूथ महुँ पंचानन चलि जाइ। राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ ॥ १९ ॥
कह दसकंठ कवन तैं बंदर। मैं रघुबीर दूत दसकंधर ॥ मम जनकहि तोहि रही मिताई। तव हित कारन आयउँ भाई ॥
उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती। सिव बिरंचि पूजेहु बहु भाँती ॥ बर पायहु कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा ॥
नृप अभिमान मोह बस किंबा। हरि आनिहु सीता जगदंबा ॥ अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा। सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा ॥
दसन गहहु तृन कंठ कुठारी। परिजन सहित संग निज नारी ॥ सादर जनकसुता करि आगें। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें ॥
दो. प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि। आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करैगो तोहि ॥ २० ॥
रे कपिपोत बोलु संभारी। मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी ॥ कहु निज नाम जनक कर भाई। केहि नातें मानिऐ मिताई ॥
अंगद नाम बालि कर बेटा। तासों कबहुँ भई ही भेटा ॥ अंगद बचन सुनत सकुचाना। रहा बालि बानर मैं जाना ॥
अंगद तहीं बालि कर बालक। उपजेहु बंस अनल कुल घालक ॥ गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु। निज मुख तापस दूत कहायहु ॥
अब कहु कुसल बालि कहँ अहई। बिहँसि बचन तब अंगद कहई ॥ दिन दस गएँ बालि पहिं जाई। बूझेहु कुसल सखा उर लाई ॥
राम बिरोध कुसल जसि होई। सो सब तोहि सुनाइहि सोई ॥ सुनु सठ भेद होइ मन ताकें। श्रीरघुबीर हृदय नहिं जाकें ॥
दो. हम कुल घालक सत्य तुम्ह कुल पालक दससीस। अंधउ बधिर न अस कहहिं नयन कान तव बीस ॥ २१।
सिव बिरंचि सुर मुनि समुदाई। चाहत जासु चरन सेवकाई ॥ तासु दूत होइ हम कुल बोरा। अइसिहुँ मति उर बिहर न तोरा ॥
सुनि कठोर बानी कपि केरी। कहत दसानन नयन तरेरी ॥ खल तव कठिन बचन सब सहऊँ। नीति धर्म मैं जानत अहऊँ ॥
कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी ॥ देखी नयन दूत रखवारी। बूड़ि न मरहु धर्म ब्रतधारी ॥
कान नाक बिनु भगिनि निहारी। छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी ॥ धर्मसीलता तव जग जागी। पावा दरसु हमहुँ बड़भागी ॥
दो. जनि जल्पसि जड़ जंतु कपि सठ बिलोकु मम बाहु। लोकपाल बल बिपुल ससि ग्रसन हेतु सब राहु ॥ २२(क) ॥
पुनि नभ सर मम कर निकर कमलन्हि पर करि बास। सोभत भयउ मराल इव संभु सहित कैलास ॥ २२(ख) ॥
तुम्हरे कटक माझ सुनु अंगद। मो सन भिरिहि कवन जोधा बद ॥ तव प्रभु नारि बिरहँ बलहीना। अनुज तासु दुख दुखी मलीना ॥
तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ। अनुज हमार भीरु अति सोऊ ॥ जामवंत मंत्री अति बूढ़ा। सो कि होइ अब समरारूढ़ा ॥
सिल्पि कर्म जानहिं नल नीला। है कपि एक महा बलसीला ॥ आवा प्रथम नगरु जेंहिं जारा। सुनत बचन कह बालिकुमारा ॥
सत्य बचन कहु निसिचर नाहा। साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा ॥ रावन नगर अल्प कपि दहई। सुनि अस बचन सत्य को कहई ॥
जो अति सुभट सराहेहु रावन। सो सुग्रीव केर लघु धावन ॥ चलइ बहुत सो बीर न होई। पठवा खबरि लेन हम सोई ॥
दो. सत्य नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु पाइ। फिरि न गयउ सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ ॥ २३(क) ॥
सत्य कहहि दसकंठ सब मोहि न सुनि कछु कोह। कोउ न हमारें कटक अस तो सन लरत जो सोह ॥ २३(ख) ॥
प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि। जौं मृगपति बध मेड़ुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि ॥ २३(ग) ॥
जद्यपि लघुता राम कहुँ तोहि बधें बड़ दोष। तदपि कठिन दसकंठ सुनु छत्र जाति कर रोष ॥ २३(घ) ॥
बक्र उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस। प्रतिउत्तर सड़सिन्ह मनहुँ काढ़त भट दससीस ॥ २३(ङ) ॥
हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड़ गुन एक। जो प्रतिपालइ तासु हित करइ उपाय अनेक ॥ २३(छ) ॥
धन्य कीस जो निज प्रभु काजा। जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा ॥ नाचि कूदि करि लोग रिझाई। पति हित करइ धर्म निपुनाई ॥
अंगद स्वामिभक्त तव जाती। प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती ॥ मैं गुन गाहक परम सुजाना। तव कटु रटनि करउँ नहिं काना ॥
कह कपि तव गुन गाहकताई। सत्य पवनसुत मोहि सुनाई ॥ बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा। तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा ॥
सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई। दसकंधर मैं कीन्हि ढिठाई ॥ देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा। तुम्हरें लाज न रोष न माखा ॥
जौं असि मति पितु खाए कीसा। कहि अस बचन हँसा दससीसा ॥ पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही। अबहीं समुझि परा कछु मोही ॥
बालि बिमल जस भाजन जानी। हतउँ न तोहि अधम अभिमानी ॥ कहु रावन रावन जग केते। मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते ॥
बलिहि जितन एक गयउ पताला। राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला ॥ खेलहिं बालक मारहिं जाई। दया लागि बलि दीन्ह छोड़ाई ॥
एक बहोरि सहसभुज देखा। धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा ॥ कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़ावा ॥
दो. एक कहत मोहि सकुच अति रहा बालि की काँख। इन्ह महुँ रावन तैं कवन सत्य बदहि तजि माख ॥ २४ ॥
सुनु सठ सोइ रावन बलसीला। हरगिरि जान जासु भुज लीला ॥ जान उमापति जासु सुराई। पूजेउँ जेहि सिर सुमन चढ़ाई ॥
सिर सरोज निज करन्हि उतारी। पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी ॥ भुज बिक्रम जानहिं दिगपाला। सठ अजहूँ जिन्ह कें उर साला ॥
जानहिं दिग्गज उर कठिनाई। जब जब भिरउँ जाइ बरिआई ॥ जिन्ह के दसन कराल न फूटे। उर लागत मूलक इव टूटे ॥
जासु चलत डोलति इमि धरनी। चढ़त मत्त गज जिमि लघु तरनी ॥ सोइ रावन जग बिदित प्रतापी। सुनेहि न श्रवन अलीक प्रलापी ॥
दो. तेहि रावन कहँ लघु कहसि नर कर करसि बखान। रे कपि बर्बर खर्ब खल अब जाना तव ग्यान ॥ २५ ॥
सुनि अंगद सकोप कह बानी। बोलु सँभारि अधम अभिमानी ॥ सहसबाहु भुज गहन अपारा। दहन अनल सम जासु कुठारा ॥
जासु परसु सागर खर धारा। बूड़े नृप अगनित बहु बारा ॥ तासु गर्ब जेहि देखत भागा। सो नर क्यों दससीस अभागा ॥
राम मनुज कस रे सठ बंगा। धन्वी कामु नदी पुनि गंगा ॥ पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा। अन्न दान अरु रस पीयूषा ॥
बैनतेय खग अहि सहसानन। चिंतामनि पुनि उपल दसानन ॥ सुनु मतिमंद लोक बैकुंठा। लाभ कि रघुपति भगति अकुंठा ॥
दो. सेन सहित तब मान मथि बन उजारि पुर जारि ॥ कस रे सठ हनुमान कपि गयउ जो तव सुत मारि ॥ २६ ॥
सुनु रावन परिहरि चतुराई। भजसि न कृपासिंधु रघुराई ॥ जौ खल भएसि राम कर द्रोही। ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही ॥
मूढ़ बृथा जनि मारसि गाला। राम बयर अस होइहि हाला ॥ तव सिर निकर कपिन्ह के आगें। परिहहिं धरनि राम सर लागें ॥
ते तव सिर कंदुक सम नाना। खेलहहिं भालु कीस चौगाना ॥ जबहिं समर कोपहि रघुनायक। छुटिहहिं अति कराल बहु सायक ॥
तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा। अस बिचारि भजु राम उदारा ॥ सुनत बचन रावन परजरा। जरत महानल जनु घृत परा ॥
दो. कुंभकरन अस बंधु मम सुत प्रसिद्ध सक्रारि। मोर पराक्रम नहिं सुनेहि जितेउँ चराचर झारि ॥ २७ ॥
सठ साखामृग जोरि सहाई। बाँधा सिंधु इहइ प्रभुताई ॥ नाघहिं खग अनेक बारीसा। सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा ॥
मम भुज सागर बल जल पूरा। जहँ बूड़े बहु सुर नर सूरा ॥ बीस पयोधि अगाध अपारा। को अस बीर जो पाइहि पारा ॥
दिगपालन्ह मैं नीर भरावा। भूप सुजस खल मोहि सुनावा ॥ जौं पै समर सुभट तव नाथा। पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा ॥
तौ बसीठ पठवत केहि काजा। रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा ॥ हरगिरि मथन निरखु मम बाहू। पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू ॥
दो. सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस। हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस ॥ २८ ॥
जरत बिलोकेउँ जबहिं कपाला। बिधि के लिखे अंक निज भाला ॥ नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची ॥
सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें। लिखा बिरंचि जरठ मति भोरें ॥ आन बीर बल सठ मम आगें। पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागे ॥
कह अंगद सलज्ज जग माहीं। रावन तोहि समान कोउ नाहीं ॥ लाजवंत तव सहज सुभाऊ। निज मुख निज गुन कहसि न काऊ ॥
सिर अरु सैल कथा चित रही। ताते बार बीस तैं कही ॥ सो भुजबल राखेउ उर घाली। जीतेहु सहसबाहु बलि बाली ॥
सुनु मतिमंद देहि अब पूरा। काटें सीस कि होइअ सूरा ॥ इंद्रजालि कहु कहिअ न बीरा। काटइ निज कर सकल सरीरा ॥
दो. जरहिं पतंग मोह बस भार बहहिं खर बृंद। ते नहिं सूर कहावहिं समुझि देखु मतिमंद ॥ २९ ॥
अब जनि बतबढ़ाव खल करही। सुनु मम बचन मान परिहरही ॥ दसमुख मैं न बसीठीं आयउँ। अस बिचारि रघुबीष पठायउँ ॥
बार बार अस कहइ कृपाला। नहिं गजारि जसु बधें सृकाला ॥ मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे। सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे ॥
नाहिं त करि मुख भंजन तोरा। लै जातेउँ सीतहि बरजोरा ॥ जानेउँ तव बल अधम सुरारी। सूनें हरि आनिहि परनारी ॥
तैं निसिचर पति गर्ब बहूता। मैं रघुपति सेवक कर दूता ॥ जौं न राम अपमानहि डरउँ। तोहि देखत अस कौतुक करऊँ ॥
दो. तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ। तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ ॥ ३० ॥
जौ अस करौं तदपि न बड़ाई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई ॥ कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा। अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा ॥
सदा रोगबस संतत क्रोधी। बिष्नु बिमूख श्रुति संत बिरोधी ॥ तनु पोषक निंदक अघ खानी। जीवन सव सम चौदह प्रानी ॥
अस बिचारि खल बधउँ न तोही। अब जनि रिस उपजावसि मोही ॥ सुनि सकोप कह निसिचर नाथा। अधर दसन दसि मीजत हाथा ॥
रे कपि अधम मरन अब चहसी। छोटे बदन बात बड़ि कहसी ॥ कटु जल्पसि जड़ कपि बल जाकें। बल प्रताप बुधि तेज न ताकें ॥
दो. अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास। सो दुख अरु जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास ॥ ३१(क) ॥
जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि अइसे मनुज अनेक। खाहीं निसाचर दिवस निसि मूढ़ समुझु तजि टेक ॥ ३१(ख) ॥
जब तेहिं कीन्ह राम कै निंदा। क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा ॥ हरि हर निंदा सुनइ जो काना। होइ पाप गोघात समाना ॥
कटकटान कपिकुंजर भारी। दुहु भुजदंड तमकि महि मारी ॥ डोलत धरनि सभासद खसे। चले भाजि भय मारुत ग्रसे ॥
गिरत सँभारि उठा दसकंधर। भूतल परे मुकुट अति सुंदर ॥ कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे। कछु अंगद प्रभु पास पबारे ॥
आवत मुकुट देखि कपि भागे। दिनहीं लूक परन बिधि लागे ॥ की रावन करि कोप चलाए। कुलिस चारि आवत अति धाए ॥
कह प्रभु हँसि जनि हृदयँ डेराहू। लूक न असनि केतु नहिं राहू ॥ ए किरीट दसकंधर केरे। आवत बालितनय के प्रेरे ॥
दो. तरकि पवनसुत कर गहे आनि धरे प्रभु पास। कौतुक देखहिं भालु कपि दिनकर सरिस प्रकास ॥ ३२(क) ॥
उहाँ सकोऽपि दसानन सब सन कहत रिसाइ। धरहु कपिहि धरि मारहु सुनि अंगद मुसुकाइ ॥ ३२(ख) ॥
एहि बिधि बेगि सूभट सब धावहु। खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु ॥ मर्कटहीन करहु महि जाई। जिअत धरहु तापस द्वौ भाई ॥
पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा। गाल बजावत तोहि न लाजा ॥ मरु गर काटि निलज कुलघाती। बल बिलोकि बिहरति नहिं छाती ॥
रे त्रिय चोर कुमारग गामी। खल मल रासि मंदमति कामी ॥ सन्यपात जल्पसि दुर्बादा। भएसि कालबस खल मनुजादा ॥
याको फलु पावहिगो आगें। बानर भालु चपेटन्हि लागें ॥ रामु मनुज बोलत असि बानी। गिरहिं न तव रसना अभिमानी ॥
गिरिहहिं रसना संसय नाहीं। सिरन्हि समेत समर महि माहीं ॥
सो. सो नर क्यों दसकंध बालि बध्यो जेहिं एक सर। बीसहुँ लोचन अंध धिग तव जन्म कुजाति जड़ ॥ ३३(क) ॥
तब सोनित की प्यास तृषित राम सायक निकर। तजउँ तोहि तेहि त्रास कटु जल्पक निसिचर अधम ॥ ३३(ख) ॥
मै तव दसन तोरिबे लायक। आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक ॥ असि रिस होति दसउ मुख तोरौं। लंका गहि समुद्र महँ बोरौं ॥
गूलरि फल समान तव लंका। बसहु मध्य तुम्ह जंतु असंका ॥ मैं बानर फल खात न बारा। आयसु दीन्ह न राम उदारा ॥
जुगति सुनत रावन मुसुकाई। मूढ़ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई ॥ बालि न कबहुँ गाल अस मारा। मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा ॥
साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा। जौं न उपारिउँ तव दस जीहा ॥ समुझि राम प्रताप कपि कोपा। सभा माझ पन करि पद रोपा ॥
जौं मम चरन सकसि सठ टारी। फिरहिं रामु सीता मैं हारी ॥ सुनहु सुभट सब कह दससीसा। पद गहि धरनि पछारहु कीसा ॥
इंद्रजीत आदिक बलवाना। हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना ॥ झपटहिं करि बल बिपुल उपाई। पद न टरइ बैठहिं सिरु नाई ॥
पुनि उठि झपटहीं सुर आराती। टरइ न कीस चरन एहि भाँती ॥ पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी। मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी ॥
दो. कोटिन्ह मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ। झपटहिं टरै न कपि चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ ॥ ३४(क) ॥
भूमि न छाँडत कपि चरन देखत रिपु मद भाग ॥ कोटि बिघ्न ते संत कर मन जिमि नीति न त्याग ॥ ३४(ख) ॥
कपि बल देखि सकल हियँ हारे। उठा आपु कपि कें परचारे ॥ गहत चरन कह बालिकुमारा। मम पद गहें न तोर उबारा ॥
गहसि न राम चरन सठ जाई। सुनत फिरा मन अति सकुचाई ॥ भयउ तेजहत श्री सब गई। मध्य दिवस जिमि ससि सोहई ॥
सिंघासन बैठेउ सिर नाई। मानहुँ संपति सकल गँवाई ॥ जगदातमा प्रानपति रामा। तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा ॥
उमा राम की भृकुटि बिलासा। होइ बिस्व पुनि पावइ नासा ॥ तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई। तासु दूत पन कहु किमि टरई ॥
पुनि कपि कही नीति बिधि नाना। मान न ताहि कालु निअराना ॥ रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो। यह कहि चल्यो बालि नृप जायो ॥
हतौं न खेत खेलाइ खेलाई। तोहि अबहिं का करौं बड़ाई ॥ प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा। सो सुनि रावन भयउ दुखारा ॥
जातुधान अंगद पन देखी। भय ब्याकुल सब भए बिसेषी ॥
दो. रिपु बल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुंज। पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कंज ॥ ३५(क) ॥
साँझ जानि दसकंधर भवन गयउ बिलखाइ। मंदोदरी रावनहि बहुरि कहा समुझाइ ॥ ३५ (ख) ॥
कंत समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही ॥ रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई ॥
पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा। जाके दूत केर यह कामा ॥ कौतुक सिंधु नाघी तव लंका। आयउ कपि केहरी असंका ॥
रखवारे हति बिपिन उजारा। देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा ॥ जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा ॥
अब पति मृषा गाल जनि मारहु। मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु ॥ पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु। अग जग नाथ अतुल बल जानहु ॥
बान प्रताप जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहि नीचा ॥ जनक सभाँ अगनित भूपाला। रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला ॥
भंजि धनुष जानकी बिआही। तब संग्राम जितेहु किन ताही ॥ सुरपति सुत जानइ बल थोरा। राखा जिअत आँखि गहि फोरा ॥
सूपनखा कै गति तुम्ह देखी। तदपि हृदयँ नहिं लाज बिषेषी ॥
दो. बधि बिराध खर दूषनहि लीँलाँ हत्यो कबंध। बालि एक सर मारयो तेहि जानहु दसकंध ॥ ३६ ॥
जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला ॥ कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायउ तव हित हेतू ॥
सभा माझ जेहिं तव बल मथा। करि बरूथ महुँ मृगपति जथा ॥ अंगद हनुमत अनुचर जाके। रन बाँकुरे बीर अति बाँके ॥
तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू। मुधा मान ममता मद बहहू ॥ अहह कंत कृत राम बिरोधा। काल बिबस मन उपज न बोधा ॥
काल दंड गहि काहु न मारा। हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा ॥ निकट काल जेहि आवत साईं। तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं ॥
दो. दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु। कृपासिंधु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु ॥ ३७ ॥
नारि बचन सुनि बिसिख समाना। सभाँ गयउ उठि होत बिहाना ॥ बैठ जाइ सिंघासन फूली। अति अभिमान त्रास सब भूली ॥
इहाँ राम अंगदहि बोलावा। आइ चरन पंकज सिरु नावा ॥ अति आदर सपीप बैठारी। बोले बिहँसि कृपाल खरारी ॥
बालितनय कौतुक अति मोही। तात सत्य कहु पूछउँ तोही ॥ ।रावनु जातुधान कुल टीका। भुज बल अतुल जासु जग लीका ॥
तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए। कहहु तात कवनी बिधि पाए ॥ सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी। मुकुट न होहिं भूप गुन चारी ॥
साम दान अरु दंड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा ॥ नीति धर्म के चरन सुहाए। अस जियँ जानि नाथ पहिं आए ॥
दो. धर्महीन प्रभु पद बिमुख काल बिबस दससीस। तेहि परिहरि गुन आए सुनहु कोसलाधीस ॥ ३८(((क) ॥
परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार। समाचार पुनि सब कहे गढ़ के बालिकुमार ॥ ३८(ख) ॥
रिपु के समाचार जब पाए। राम सचिव सब निकट बोलाए ॥ लंका बाँके चारि दुआरा। केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा ॥
तब कपीस रिच्छेस बिभीषन। सुमिरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन ॥ करि बिचार तिन्ह मंत्र दृढ़ावा। चारि अनी कपि कटकु बनावा ॥
जथाजोग सेनापति कीन्हे। जूथप सकल बोलि तब लीन्हे ॥ प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए। सुनि कपि सिंघनाद करि धाए ॥
हरषित राम चरन सिर नावहिं। गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिं ॥ गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीसा। जय रघुबीर कोसलाधीसा ॥
जानत परम दुर्ग अति लंका। प्रभु प्रताप कपि चले असंका ॥ घटाटोप करि चहुँ दिसि घेरी। मुखहिं निसान बजावहीं भेरी ॥
दो. जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव। गर्जहिं सिघनाद कपि भालु महा बल सीवं ।।
लंकाँ भयउ कोलाहल भारी। सुना दसानन अति अहँकारी ॥ देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई। बिहँसि निसाचर सेन बोलाई ॥
आए कीस काल के प्रेरे। छुधावंत सब निसिचर मेरे ॥ अस कहि अट्टहास सठ कीन्हा। गृह बैठे अहार बिधि दीन्हा ॥
सुभट सकल चारिहुँ दिसि जाहू। धरि धरि भालु कीस सब खाहू ॥ उमा रावनहि अस अभिमाना। जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना ॥
चले निसाचर आयसु मागी। गहि कर भिंडिपाल बर साँगी ॥ तोमर मुग्दर परसु प्रचंडा। सुल कृपान परिघ गिरिखंडा ॥
जिमि अरुनोपल निकर निहारी। धावहिं सठ खग मांस अहारी ॥ चोंच भंग दुख तिन्हहि न सूझा। तिमि धाए मनुजाद अबूझा ॥
दो. नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर। कोट कँगूरन्हि चढ़ि गए कोटि कोटि रनधीर ॥ ४० ॥
कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे। मेरु के सृंगनि जनु घन बैसे ॥ बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ। सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ ॥
बाजहिं भेरि नफीरि अपारा। सुनि कादर उर जाहिं दरारा ॥ देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा। अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा ॥
धावहिं गनहिं न अवघट घाटा। पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा ॥ कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं। दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं ॥
उत रावन इत राम दोहाई। जयति जयति जय परी लराई ॥ निसिचर सिखर समूह ढहावहिं। कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं ॥
छं. धरि कुधर खंड प्रचंड कर्कट भालु गढ़ पर डारहीं। झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं ॥ अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ़ चढ़ि चढ़ि गए। कपि भालु चढ़ि मंदिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भए ॥
दो. एकु एकु निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ। ऊपर आपु हेठ भट गिरहिं धरनि पर आइ ॥ ४१ ॥
राम प्रताप प्रबल कपिजूथा। मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा ॥ चढ़े दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर। जय रघुबीर प्रताप दिवाकर ॥
चले निसाचर निकर पराई। प्रबल पवन जिमि घन समुदाई ॥ हाहाकार भयउ पुर भारी। रोवहिं बालक आतुर नारी ॥
सब मिलि देहिं रावनहि गारी। राज करत एहिं मृत्यु हँकारी ॥ निज दल बिचल सुनी तेहिं काना। फेरि सुभट लंकेस रिसाना ॥
जो रन बिमुख सुना मैं काना। सो मैं हतब कराल कृपाना ॥ सर्बसु खाइ भोग करि नाना। समर भूमि भए बल्लभ प्राना ॥
उग्र बचन सुनि सकल डेराने। चले क्रोध करि सुभट लजाने ॥ सन्मुख मरन बीर कै सोभा। तब तिन्ह तजा प्रान कर लोभा ॥
दो. बहु आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि पचारि। ब्याकुल किए भालु कपि परिघ त्रिसूलन्हि मारी ॥ ४२ ॥
भय आतुर कपि भागन लागे। जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे ॥ कोउ कह कहँ अंगद हनुमंता। कहँ नल नील दुबिद बलवंता ॥
निज दल बिकल सुना हनुमाना। पच्छिम द्वार रहा बलवाना ॥ मेघनाद तहँ करइ लराई। टूट न द्वार परम कठिनाई ॥
पवनतनय मन भा अति क्रोधा। गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा ॥ कूदि लंक गढ़ ऊपर आवा। गहि गिरि मेघनाद कहुँ धावा ॥
भंजेउ रथ सारथी निपाता। ताहि हृदय महुँ मारेसि लाता ॥ दुसरें सूत बिकल तेहि जाना। स्यंदन घालि तुरत गृह आना ॥
दो. अंगद सुना पवनसुत गढ़ पर गयउ अकेल। रन बाँकुरा बालिसुत तरकि चढ़ेउ कपि खेल ॥ ४३ ॥
जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बंदर। राम प्रताप सुमिरि उर अंतर ॥ रावन भवन चढ़े द्वौ धाई। करहि कोसलाधीस दोहाई ॥
कलस सहित गहि भवनु ढहावा। देखि निसाचरपति भय पावा ॥ नारि बृंद कर पीटहिं छाती। अब दुइ कपि आए उतपाती ॥
कपिलीला करि तिन्हहि डेरावहिं। रामचंद्र कर सुजसु सुनावहिं ॥ पुनि कर गहि कंचन के खंभा। कहेन्हि करिअ उतपात अरंभा ॥
गर्जि परे रिपु कटक मझारी। लागे मर्दै भुज बल भारी ॥ काहुहि लात चपेटन्हि केहू। भजहु न रामहि सो फल लेहू ॥
दो. एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुंड। रावन आगें परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुंड ॥ ४४ ॥
महा महा मुखिआ जे पावहिं। ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं ॥ कहइ बिभीषनु तिन्ह के नामा। देहिं राम तिन्हहू निज धामा ॥
खल मनुजाद द्विजामिष भोगी। पावहिं गति जो जाचत जोगी ॥ उमा राम मृदुचित करुनाकर। बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर ॥
देहिं परम गति सो जियँ जानी। अस कृपाल को कहहु भवानी ॥ अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी। नर मतिमंद ते परम अभागी ॥
अंगद अरु हनुमंत प्रबेसा। कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा ॥ लंकाँ द्वौ कपि सोहहिं कैसें। मथहि सिंधु दुइ मंदर जैसें ॥
दो. भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अंत। कूदे जुगल बिगत श्रम आए जहँ भगवंत ॥ ४५ ॥
प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए। देखि सुभट रघुपति मन भाए ॥ राम कृपा करि जुगल निहारे। भए बिगतश्रम परम सुखारे ॥
गए जानि अंगद हनुमाना। फिरे भालु मर्कट भट नाना ॥ जातुधान प्रदोष बल पाई। धाए करि दससीस दोहाई ॥
निसिचर अनी देखि कपि फिरे। जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे ॥ द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी। लरत सुभट नहिं मानहिं हारी ॥
महाबीर निसिचर सब कारे। नाना बरन बलीमुख भारे ॥ सबल जुगल दल समबल जोधा। कौतुक करत लरत करि क्रोधा ॥
प्राबिट सरद पयोद घनेरे। लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे ॥ अनिप अकंपन अरु अतिकाया। बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया ॥
भयउ निमिष महँ अति अँधियारा। बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा ॥
दो. देखि निबिड़ तम दसहुँ दिसि कपिदल भयउ खभार। एकहि एक न देखई जहँ तहँ करहिं पुकार ॥ ४६ ॥
सकल मरमु रघुनायक जाना। लिए बोलि अंगद हनुमाना ॥ समाचार सब कहि समुझाए। सुनत कोऽपि कपिकुंजर धाए ॥
पुनि कृपाल हँसि चाप चढ़ावा। पावक सायक सपदि चलावा ॥ भयउ प्रकास कतहुँ तम नाहीं। ग्यान उदयँ जिमि संसय जाहीं ॥
भालु बलीमुख पाइ प्रकासा। धाए हरष बिगत श्रम त्रासा ॥ हनूमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे ॥
भागत पट पटकहिं धरि धरनी। करहिं भालु कपि अद्भुत करनी ॥ गहि पद डारहिं सागर माहीं। मकर उरग झष धरि धरि खाहीं ॥
दो. कछु मारे कछु घायल कछु गढ़ चढ़े पराइ। गर्जहिं भालु बलीमुख रिपु दल बल बिचलाइ ॥ ४७ ॥
निसा जानि कपि चारिउ अनी। आए जहाँ कोसला धनी ॥ राम कृपा करि चितवा सबही। भए बिगतश्रम बानर तबही ॥
उहाँ दसानन सचिव हँकारे। सब सन कहेसि सुभट जे मारे ॥ आधा कटकु कपिन्ह संघारा। कहहु बेगि का करिअ बिचारा ॥
माल्यवंत अति जरठ निसाचर। रावन मातु पिता मंत्री बर ॥ बोला बचन नीति अति पावन। सुनहु तात कछु मोर सिखावन ॥
जब ते तुम्ह सीता हरि आनी। असगुन होहिं न जाहिं बखानी ॥ बेद पुरान जासु जसु गायो। राम बिमुख काहुँ न सुख पायो ॥
दो. हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान। जेहि मारे सोइ अवतरेउ कृपासिंधु भगवान ॥ ४८(क) ॥
Masaparayana 25 Ends
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