ॐ श्री परमात्मने नमः
कालरूप खल बन दहन गुनागार घनबोध। सिव बिरंचि जेहि सेवहिं तासों कवन बिरोध ॥ ४८(ख) ॥
परिहरि बयरु देहु बैदेही। भजहु कृपानिधि परम सनेही ॥ ताके बचन बान सम लागे। करिआ मुह करि जाहि अभागे ॥
बूढ़ भएसि न त मरतेउँ तोही। अब जनि नयन देखावसि मोही ॥ तेहि अपने मन अस अनुमाना। बध्यो चहत एहि कृपानिधाना ॥
सो उठि गयउ कहत दुर्बादा। तब सकोप बोलेउ घननादा ॥ कौतुक प्रात देखिअहु मोरा। करिहउँ बहुत कहौं का थोरा ॥
सुनि सुत बचन भरोसा आवा। प्रीति समेत अंक बैठावा ॥ करत बिचार भयउ भिनुसारा। लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा ॥
कोऽपि कपिन्ह दुर्घट गढ़ु घेरा। नगर कोलाहलु भयउ घनेरा ॥ बिबिधायुध धर निसिचर धाए। गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए ॥
छं. ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले। घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले ॥ मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए। गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहिं जहँ सो तहँ निसिचर हए ॥
दो. मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़ु पुनि छेंका आइ। उतर्यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ ॥ ४९ ॥
कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता। धन्वी सकल लोक बिख्याता ॥ कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा। अंगद हनूमंत बल सींवा ॥
कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही। आजु सबहि हठि मारउँ ओही ॥ अस कहि कठिन बान संधाने। अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने ॥
सर समुह सो छाड़ै लागा। जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा ॥ जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर। सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर ॥
जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा। बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा ॥ सो कपि भालु न रन महँ देखा। कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा ॥
दो. दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर। सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर ॥ ५० ॥
देखि पवनसुत कटक बिहाला। क्रोधवंत जनु धायउ काला ॥ महासैल एक तुरत उपारा। अति रिस मेघनाद पर डारा ॥
आवत देखि गयउ नभ सोई। रथ सारथी तुरग सब खोई ॥ बार बार पचार हनुमाना। निकट न आव मरमु सो जाना ॥
रघुपति निकट गयउ घननादा। नाना भाँति करेसि दुर्बादा ॥ अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे। कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे ॥
देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना। करै लाग माया बिधि नाना ॥ जिमि कोउ करै गरुड़ सैं खेला। डरपावै गहि स्वल्प सपेला ॥
दो. जासु प्रबल माया बल सिव बिरंचि बड़ छोट। ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति खोट ॥ ५१ ॥
नभ चढ़ि बरष बिपुल अंगारा। महि ते प्रगट होहिं जलधारा ॥ नाना भाँति पिसाच पिसाची। मारु काटु धुनि बोलहिं नाची ॥
बिष्टा पूय रुधिर कच हाड़ा। बरषइ कबहुँ उपल बहु छाड़ा ॥ बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा। सूझ न आपन हाथ पसारा ॥
कपि अकुलाने माया देखें। सब कर मरन बना एहि लेखें ॥ कौतुक देखि राम मुसुकाने। भए सभीत सकल कपि जाने ॥
एक बान काटी सब माया। जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया ॥ कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके। भए प्रबल रन रहहिं न रोके ॥
दो. आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ। लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ ॥ ५२ ॥
छतज नयन उर बाहु बिसाला। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला ॥ इहाँ दसानन सुभट पठाए। नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए ॥
भूधर नख बिटपायुध धारी। धाए कपि जय राम पुकारी ॥ भिरे सकल जोरिहि सन जोरी। इत उत जय इच्छा नहिं थोरी ॥
मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं। कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं ॥ मारु मारु धरु धरु धरु मारू। सीस तोरि गहि भुजा उपारू ॥
असि रव पूरि रही नव खंडा। धावहिं जहँ तहँ रुंड प्रचंडा ॥ देखहिं कौतुक नभ सुर बृंदा। कबहुँक बिसमय कबहुँ अनंदा ॥
दो. रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़ाइ। जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ ॥ ५३ ॥
घायल बीर बिराजहिं कैसे। कुसुमित किंसुक के तरु जैसे ॥ लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा। भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा ॥
एकहि एक सकइ नहिं जीती। निसिचर छल बल करइ अनीती ॥ क्रोधवंत तब भयउ अनंता। भंजेउ रथ सारथी तुरंता ॥
नाना बिधि प्रहार कर सेषा। राच्छस भयउ प्रान अवसेषा ॥ रावन सुत निज मन अनुमाना। संकठ भयउ हरिहि मम प्राना ॥
बीरघातिनी छाड़िसि साँगी। तेज पुंज लछिमन उर लागी ॥ मुरुछा भई सक्ति के लागें। तब चलि गयउ निकट भय त्यागें ॥
दो. मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ। जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसिआइ ॥ ५४ ॥
सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू। जारइ भुवन चारिदस आसू ॥ सक संग्राम जीति को ताही। सेवहिं सुर नर अग जग जाही ॥
यह कौतूहल जानइ सोई। जा पर कृपा राम कै होई ॥ संध्या भइ फिरि द्वौ बाहनी। लगे सँभारन निज निज अनी ॥
ब्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर ॥ तब लगि लै आयउ हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना ॥
जामवंत कह बैद सुषेना। लंकाँ रहइ को पठई लेना ॥ धरि लघु रूप गयउ हनुमंता। आनेउ भवन समेत तुरंता ॥
दो. राम पदारबिंद सिर नायउ आइ सुषेन। कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन ॥ ५५ ॥
राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभंजन सुत बल भाषी ॥ उहाँ दूत एक मरमु जनावा। रावन कालनेमि गृह आवा ॥
दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना। पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना ॥ देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा। तासु पंथ को रोकन पारा ॥
भजि रघुपति करु हित आपना। छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना ॥ नील कंज तनु सुंदर स्यामा। हृदयँ राखु लोचनाभिरामा ॥
मैं तैं मोर मूढ़ता त्यागू। महा मोह निसि सूतत जागू ॥ काल ब्याल कर भच्छक जोई। सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई ॥
दो. सुनि दसकंठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह बिचार। राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार ॥ ५६ ॥
अस कहि चला रचिसि मग माया। सर मंदिर बर बाग बनाया ॥ मारुतसुत देखा सुभ आश्रम। मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम ॥
राच्छस कपट बेष तहँ सोहा। मायापति दूतहि चह मोहा ॥ जाइ पवनसुत नायउ माथा। लाग सो कहै राम गुन गाथा ॥
होत महा रन रावन रामहिं। जितहहिं राम न संसय या महिं ॥ इहाँ भएँ मैं देखेउँ भाई। ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई ॥
मागा जल तेहिं दीन्ह कमंडल। कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल ॥ सर मज्जन करि आतुर आवहु। दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु ॥
दो. सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान। मारी सो धरि दिव्य तनु चली गगन चढ़ि जान ॥ ५७ ॥
कपि तव दरस भइउँ निष्पापा। मिटा तात मुनिबर कर सापा ॥ मुनि न होइ यह निसिचर घोरा। मानहु सत्य बचन कपि मोरा ॥
अस कहि गई अपछरा जबहीं। निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं ॥ कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू। पाछें हमहि मंत्र तुम्ह देहू ॥
सिर लंगूर लपेटि पछारा। निज तनु प्रगटेसि मरती बारा ॥ राम राम कहि छाड़ेसि प्राना। सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना ॥
देखा सैल न औषध चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा ॥ गहि गिरि निसि नभ धावत भयऊ। अवधपुरी उपर कपि गयऊ ॥
दो. देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि। बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि ॥ ५८ ॥
परेउ मुरुछि महि लागत सायक। सुमिरत राम राम रघुनायक ॥ सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए। कपि समीप अति आतुर आए ॥
बिकल बिलोकि कीस उर लावा। जागत नहिं बहु भाँति जगावा ॥ मुख मलीन मन भए दुखारी। कहत बचन भरि लोचन बारी ॥
जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा। तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा ॥ जौं मोरें मन बच अरु काया। प्रीति राम पद कमल अमाया ॥
तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला। जौं मो पर रघुपति अनुकूला ॥ सुनत बचन उठि बैठ कपीसा। कहि जय जयति कोसलाधीसा ॥
सो. लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल। प्रीति न हृदयँ समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक ॥ ५९ ॥
तात कुसल कहु सुखनिधान की। सहित अनुज अरु मातु जानकी ॥ कपि सब चरित समास बखाने। भए दुखी मन महुँ पछिताने ॥
अहह दैव मैं कत जग जायउँ। प्रभु के एकहु काज न आयउँ ॥ जानि कुअवसरु मन धरि धीरा। पुनि कपि सन बोले बलबीरा ॥
तात गहरु होइहि तोहि जाता। काजु नसाइहि होत प्रभाता ॥ चढ़ु मम सायक सैल समेता। पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता ॥
सुनि कपि मन उपजा अभिमाना। मोरें भार चलिहि किमि बाना ॥ राम प्रभाव बिचारि बहोरी। बंदि चरन कह कपि कर जोरी ॥
दो. तव प्रताप उर राखि प्रभु जेहउँ नाथ तुरंत। अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत ॥ ६०(क) ॥
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार। मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार ॥ ६०(ख) ॥
उहाँ राम लछिमनहिं निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी ॥ अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ ॥
सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ ॥ मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता ॥
सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई ॥ जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू ॥
सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा ॥ अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता ॥
जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना ॥ अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जिआवै मोही ॥
जैहउँ अवध कवन मुहु लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई ॥ बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं ॥
अब अपलोकु सोकु सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा ॥ निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा ॥
सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी ॥ उतरु काह दैहउँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई ॥
बहु बिधि सिचत सोच बिमोचन। स्त्रवत सलिल राजिव दल लोचन ॥ उमा एक अखंड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई ॥
सो. प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर। आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस ॥ ६१ ॥
हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना ॥ तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई ॥
हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता ॥ कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा। जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा ॥
यह बृत्तांत दसानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ ॥ ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा ॥
जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा ॥ कुंभकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई ॥
कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी ॥ तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महामहा जोधा संघारे ॥
दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी ॥ अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा ॥
दो. सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान। जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान ॥ ६२ ॥
भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा ॥ अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना ॥
हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक ॥ अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई ॥
कीन्हेहु प्रभू बिरोध तेहि देवक। सिव बिरंचि सुर जाके सेवक ॥ नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबहा ॥
अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई। लोचन सूफल करौ मैं जाई ॥ स्याम गात सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन ॥
दो. राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक। रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक ॥ ६३ ॥
महिष खाइ करि मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समाना ॥ कुंभकरन दुर्मद रन रंगा। चला दुर्ग तजि सेन न संगा ॥
देखि बिभीषनु आगें आयउ। परेउ चरन निज नाम सुनायउ ॥ अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो। रघुपति भक्त जानि मन भायो ॥
तात लात रावन मोहि मारा। कहत परम हित मंत्र बिचारा ॥ तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ। देखि दीन प्रभु के मन भायउँ ॥
सुनु सुत भयउ कालबस रावन। सो कि मान अब परम सिखावन ॥ धन्य धन्य तैं धन्य बिभीषन। भयहु तात निसिचर कुल भूषन ॥
बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर ॥
दो. बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर। जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर। ६४ ॥
बंधु बचन सुनि चला बिभीषन। आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन ॥ नाथ भूधराकार सरीरा। कुंभकरन आवत रनधीरा ॥
एतना कपिन्ह सुना जब काना। किलकिलाइ धाए बलवाना ॥ लिए उठाइ बिटप अरु भूधर। कटकटाइ डारहिं ता ऊपर ॥
कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा। करहिं भालु कपि एक एक बारा ॥ मुर् यो न मन तनु टर् यो न टार् यो। जिमि गज अर्क फलनि को मार्यो ॥
तब मारुतसुत मुठिका हन्यो। पर् यो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो ॥ पुनि उठि तेहिं मारेउ हनुमंता। घुर्मित भूतल परेउ तुरंता ॥
पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि। जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि ॥ चली बलीमुख सेन पराई। अति भय त्रसित न कोउ समुहाई ॥
दो. अंगदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव। काँख दाबि कपिराज कहुँ चला अमित बल सींव ॥ ६५ ॥
उमा करत रघुपति नरलीला। खेलत गरुड़ जिमि अहिगन मीला ॥ भृकुटि भंग जो कालहि खाई। ताहि कि सोहइ ऐसि लराई ॥
जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं। गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिं ॥ मुरुछा गइ मारुतसुत जागा। सुग्रीवहि तब खोजन लागा ॥
सुग्रीवहु कै मुरुछा बीती। निबुक गयउ तेहि मृतक प्रतीती ॥ काटेसि दसन नासिका काना। गरजि अकास चलउ तेहिं जाना ॥
गहेउ चरन गहि भूमि पछारा। अति लाघवँ उठि पुनि तेहि मारा ॥ पुनि आयसु प्रभु पहिं बलवाना। जयति जयति जय कृपानिधाना ॥
नाक कान काटे जियँ जानी। फिरा क्रोध करि भइ मन ग्लानी ॥ सहज भीम पुनि बिनु श्रुति नासा। देखत कपि दल उपजी त्रासा ॥
दो. जय जय जय रघुबंस मनि धाए कपि दै हूह। एकहि बार तासु पर छाड़ेन्हि गिरि तरु जूह ॥ ६६ ॥
कुंभकरन रन रंग बिरुद्धा। सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा ॥ कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई। जनु टीड़ी गिरि गुहाँ समाई ॥
कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा। कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा ॥ मुख नासा श्रवनन्हि कीं बाटा। निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा ॥
रन मद मत्त निसाचर दर्पा। बिस्व ग्रसिहि जनु एहि बिधि अर्पा ॥ मुरे सुभट सब फिरहिं न फेरे। सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे ॥
कुंभकरन कपि फौज बिडारी। सुनि धाई रजनीचर धारी ॥ देखि राम बिकल कटकाई। रिपु अनीक नाना बिधि आई ॥
दो. सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन। मैं देखउँ खल बल दलहि बोले राजिवनैन ॥ ६७ ॥
कर सारंग साजि कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघुनाथा ॥ प्रथम कीन्ह प्रभु धनुष टँकोरा। रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा ॥
सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा। कालसर्प जनु चले सपच्छा ॥ जहँ तहँ चले बिपुल नाराचा। लगे कटन भट बिकट पिसाचा ॥
कटहिं चरन उर सिर भुजदंडा। बहुतक बीर होहिं सत खंडा ॥ घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं। उठि संभारि सुभट पुनि लरहीं ॥
लागत बान जलद जिमि गाजहीं। बहुतक देखी कठिन सर भाजहिं ॥ रुंड प्रचंड मुंड बिनु धावहिं। धरु धरु मारू मारु धुनि गावहिं ॥
दो. छन महुँ प्रभु के सायकन्हि काटे बिकट पिसाच। पुनि रघुबीर निषंग महुँ प्रबिसे सब नाराच ॥ ६८ ॥
कुंभकरन मन दीख बिचारी। हति धन माझ निसाचर धारी ॥ भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा। कियो मृगनायक नाद गँभीरा ॥
कोऽपि महीधर लेइ उपारी। डारइ जहँ मर्कट भट भारी ॥ आवत देखि सैल प्रभू भारे। सरन्हि काटि रज सम करि डारे ॥ ।
पुनि धनु तानि कोऽपि रघुनायक। छाँड़े अति कराल बहु सायक ॥ तनु महुँ प्रबिसि निसरि सर जाहीं। जिमि दामिनि घन माझ समाहीं ॥
सोनित स्त्रवत सोह तन कारे। जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे ॥ बिकल बिलोकि भालु कपि धाए। बिहँसा जबहिं निकट कपि आए ॥
दो. महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस। महि पटकइ गजराज इव सपथ करइ दससीस ॥ ६९ ॥
भागे भालु बलीमुख जूथा। बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा ॥ चले भागि कपि भालु भवानी। बिकल पुकारत आरत बानी ॥
यह निसिचर दुकाल सम अहई। कपिकुल देस परन अब चहई ॥ कृपा बारिधर राम खरारी। पाहि पाहि प्रनतारति हारी ॥
सकरुन बचन सुनत भगवाना। चले सुधारि सरासन बाना ॥ राम सेन निज पाछैं घाली। चले सकोप महा बलसाली ॥
खैंचि धनुष सर सत संधाने। छूटे तीर सरीर समाने ॥ लागत सर धावा रिस भरा। कुधर डगमगत डोलति धरा ॥
लीन्ह एक तेहिं सैल उपाटी। रघुकुल तिलक भुजा सोइ काटी ॥ धावा बाम बाहु गिरि धारी। प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी ॥
काटें भुजा सोह खल कैसा। पच्छहीन मंदर गिरि जैसा ॥ उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका। ग्रसन चहत मानहुँ त्रेलोका ॥
दो. करि चिक्कार घोर अति धावा बदनु पसारि। गगन सिद्ध सुर त्रासित हा हा हेति पुकारि ॥ ७० ॥
सभय देव करुनानिधि जान्यो। श्रवन प्रजंत सरासनु तान्यो ॥ बिसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ। तदपि महाबल भूमि न परेऊ ॥
सरन्हि भरा मुख सन्मुख धावा। काल त्रोन सजीव जनु आवा ॥ तब प्रभु कोऽपि तीब्र सर लीन्हा। धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा ॥
सो सिर परेउ दसानन आगें। बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें ॥ धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खंडा ॥
परे भूमि जिमि नभ तें भूधर। हेठ दाबि कपि भालु निसाचर ॥ तासु तेज प्रभु बदन समाना। सुर मुनि सबहिं अचंभव माना ॥
सुर दुंदुभीं बजावहिं हरषहिं। अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं ॥ करि बिनती सुर सकल सिधाए। तेही समय देवरिषि आए ॥
गगनोपरि हरि गुन गन गाए। रुचिर बीररस प्रभु मन भाए ॥ बेगि हतहु खल कहि मुनि गए। राम समर महि सोभत भए ॥
छं. संग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी। श्रम बिंदु मुख राजीव लोचन अरुन तन सोनित कनी ॥ भुज जुगल फेरत सर सरासन भालु कपि चहु दिसि बने। कह दास तुलसी कहि न सक छबि सेष जेहि आनन घने ॥
दो. निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम। गिरिजा ते नर मंदमति जे न भजहिं श्रीराम ॥ ७१ ॥
दिन कें अंत फिरीं दोउ अनी। समर भई सुभटन्ह श्रम घनी ॥ राम कृपाँ कपि दल बल बाढ़ा। जिमि तृन पाइ लाग अति डाढ़ा ॥
छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती। निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती ॥ बहु बिलाप दसकंधर करई। बंधु सीस पुनि पुनि उर धरई ॥
रोवहिं नारि हृदय हति पानी। तासु तेज बल बिपुल बखानी ॥ मेघनाद तेहि अवसर आयउ। कहि बहु कथा पिता समुझायउ ॥
देखेहु कालि मोरि मनुसाई। अबहिं बहुत का करौं बड़ाई ॥ इष्टदेव सैं बल रथ पायउँ। सो बल तात न तोहि देखायउँ ॥
एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना। चहुँ दुआर लागे कपि नाना ॥ इत कपि भालु काल सम बीरा। उत रजनीचर अति रनधीरा ॥
लरहिं सुभट निज निज जय हेतू। बरनि न जाइ समर खगकेतू ॥
दो. मेघनाद मायामय रथ चढ़ि गयउ अकास ॥ गर्जेउ अट्टहास करि भइ कपि कटकहि त्रास ॥ ७२ ॥
सक्ति सूल तरवारि कृपाना। अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना ॥ डारह परसु परिघ पाषाना। लागेउ बृष्टि करै बहु बाना ॥
दस दिसि रहे बान नभ छाई। मानहुँ मघा मेघ झरि लाई ॥ धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना। जो मारइ तेहि कोउ न जाना ॥
गहि गिरि तरु अकास कपि धावहिं। देखहि तेहि न दुखित फिरि आवहिं ॥ अवघट घाट बाट गिरि कंदर। माया बल कीन्हेसि सर पंजर ॥
जाहिं कहाँ ब्याकुल भए बंदर। सुरपति बंदि परे जनु मंदर ॥ मारुतसुत अंगद नल नीला। कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला ॥
पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन। सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन ॥ पुनि रघुपति सैं जूझे लागा। सर छाँड़इ होइ लागहिं नागा ॥
ब्याल पास बस भए खरारी। स्वबस अनंत एक अबिकारी ॥ नट इव कपट चरित कर नाना। सदा स्वतंत्र एक भगवाना ॥
रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो। नागपास देवन्ह भय पायो ॥
दो. गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास। सो कि बंध तर आवइ ब्यापक बिस्व निवास ॥ ७३ ॥
चरित राम के सगुन भवानी। तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी ॥ अस बिचारि जे तग्य बिरागी। रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी ॥
ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा। पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा ॥ जामवंत कह खल रहु ठाढ़ा। सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढ़ा ॥
बूढ़ जानि सठ छाँड़ेउँ तोही। लागेसि अधम पचारै मोही ॥ अस कहि तरल त्रिसूल चलायो। जामवंत कर गहि सोइ धायो ॥
मारिसि मेघनाद कै छाती। परा भूमि घुर्मित सुरघाती ॥ पुनि रिसान गहि चरन फिरायौ। महि पछारि निज बल देखरायो ॥
बर प्रसाद सो मरइ न मारा। तब गहि पद लंका पर डारा ॥ इहाँ देवरिषि गरुड़ पठायो। राम समीप सपदि सो आयो ॥
दो. खगपति सब धरि खाए माया नाग बरूथ। माया बिगत भए सब हरषे बानर जूथ। ७४(क) ॥
गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ। चले तमीचर बिकलतर गढ़ पर चढ़े पराइ ॥ ७४(ख) ॥
मेघनाद के मुरछा जागी। पितहि बिलोकि लाज अति लागी ॥ तुरत गयउ गिरिबर कंदरा। करौं अजय मख अस मन धरा ॥
इहाँ बिभीषन मंत्र बिचारा। सुनहु नाथ बल अतुल उदारा ॥ मेघनाद मख करइ अपावन। खल मायावी देव सतावन ॥
जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि। नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि ॥ सुनि रघुपति अतिसय सुख माना। बोले अंगदादि कपि नाना ॥
लछिमन संग जाहु सब भाई। करहु बिधंस जग्य कर जाई ॥ तुम्ह लछिमन मारेहु रन ओही। देखि सभय सुर दुख अति मोही ॥
मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई। जेहिं छीजै निसिचर सुनु भाई ॥ जामवंत सुग्रीव बिभीषन। सेन समेत रहेहु तीनिउ जन ॥
जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन। कटि निषंग कसि साजि सरासन ॥ प्रभु प्रताप उर धरि रनधीरा। बोले घन इव गिरा गँभीरा ॥
जौं तेहि आजु बधें बिनु आवौं। तौ रघुपति सेवक न कहावौं ॥ जौं सत संकर करहिं सहाई। तदपि हतउँ रघुबीर दोहाई ॥
दो. रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरंत अनंत। अंगद नील मयंद नल संग सुभट हनुमंत ॥ ७५ ॥
जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा। आहुति देत रुधिर अरु भैंसा ॥ कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा। जब न उठइ तब करहिं प्रसंसा ॥
तदपि न उठइ धरेन्हि कच जाई। लातन्हि हति हति चले पराई ॥ लै त्रिसुल धावा कपि भागे। आए जहँ रामानुज आगे ॥
आवा परम क्रोध कर मारा। गर्ज घोर रव बारहिं बारा ॥ कोऽपि मरुतसुत अंगद धाए। हति त्रिसूल उर धरनि गिराए ॥
प्रभु कहँ छाँड़ेसि सूल प्रचंडा। सर हति कृत अनंत जुग खंडा ॥ उठि बहोरि मारुति जुबराजा। हतहिं कोऽपि तेहि घाउ न बाजा ॥
फिरे बीर रिपु मरइ न मारा। तब धावा करि घोर चिकारा ॥ आवत देखि क्रुद्ध जनु काला। लछिमन छाड़े बिसिख कराला ॥
देखेसि आवत पबि सम बाना। तुरत भयउ खल अंतरधाना ॥ बिबिध बेष धरि करइ लराई। कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई ॥
देखि अजय रिपु डरपे कीसा। परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा ॥ लछिमन मन अस मंत्र दृढ़ावा। एहि पापिहि मैं बहुत खेलावा ॥
सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा। सर संधान कीन्ह करि दापा ॥ छाड़ा बान माझ उर लागा। मरती बार कपटु सब त्यागा ॥
दो. रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़ेसि प्रान। धन्य धन्य तव जननी कह अंगद हनुमान ॥ ७६ ॥
बिनु प्रयास हनुमान उठायो। लंका द्वार राखि पुनि आयो ॥ तासु मरन सुनि सुर गंधर्बा । चढ़ि बिमान आए नभ सर्बा ।।
बरषि सुमन दुंदुभीं बजावहिं। श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिं ॥ जय अनंत जय जगदाधारा। तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा ॥
अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए। लछिमन कृपासिन्धु पहिं आए ॥ सुत बध सुना दसानन जबहीं। मुरुछित भयउ परेउ महि तबहीं ॥
मंदोदरी रुदन कर भारी। उर ताड़न बहु भाँति पुकारी ॥ नगर लोग सब ब्याकुल सोचा। सकल कहहिं दसकंधर पोचा ॥
दो. तब दसकंठ बिबिध बिधि समुझाईं सब नारि। नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि ॥ ७७ ॥
तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन। आपुन मंद कथा सुभ पावन ॥ पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥
निसा सिरानि भयउ भिनुसारा। लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा ॥ सुभट बोलाइ दसानन बोला। रन सन्मुख जा कर मन डोला ॥
सो अबहीं बरु जाउ पराई। संजुग बिमुख भएँ न भलाई ॥ निज भुज बल मैं बयरु बढ़ावा। देहउँ उतरु जो रिपु चढ़ि आवा ॥
अस कहि मरुत बेग रथ साजा। बाजे सकल जुझाऊ बाजा ॥ चले बीर सब अतुलित बली। जनु कज्जल कै आँधी चली ॥
असगुन अमित होहिं तेहि काला। गनइ न भुजबल गर्ब बिसाला ॥
छं. अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्त्रवहिं आयुध हाथ ते। भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते ॥ गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने। जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने ॥
दो. ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम। भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम ॥ ७८ ॥
चलेउ निसाचर कटकु अपारा। चतुरंगिनी अनी बहु धारा ॥ बिबिध भाँति बाहन रथ जाना। बिपुल बरन पताक ध्वज नाना ॥
चले मत्त गज जूथ घनेरे। प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे ॥ बरन बरद बिरदैत निकाया। समर सूर जानहिं बहु माया ॥
अति बिचित्र बाहिनी बिराजी। बीर बसंत सेन जनु साजी ॥ चलत कटक दिगसिधुंर डगहीं। छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं ॥
उठी रेनु रबि गयउ छपाई। मरुत थकित बसुधा अकुलाई ॥ पनव निसान घोर रव बाजहिं। प्रलय समय के घन जनु गाजहिं ॥
भेरि नफीरि बाज सहनाई। मारू राग सुभट सुखदाई ॥ केहरि नाद बीर सब करहीं। निज निज बल पौरुष उच्चरहीं ॥
कहइ दसानन सुनहु सुभट्टा। मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा ॥ हौं मारिहउँ भूप द्वौ भाई। अस कहि सन्मुख फौज रेंगाई ॥
यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई। धाए करि रघुबीर दोहाई ॥
छं. धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते। मानहुँ सपच्छ उड़ाहिं भूधर बृंद नाना बान ते ॥ नख दसन सैल महाद्रुमायुध सबल संक न मानहीं। जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीं ॥
दो. दुहु दिसि जय जयकार करि निज निज जोरी जानि। भिरे बीर इत रामहि उत रावनहि बखानि ॥ ७९ ॥
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा ॥ अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा ॥
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना ॥ सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना ॥
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका ॥ बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे ॥
ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना ॥ दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड़ा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा ॥
अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना ॥ कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा ॥
सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें ॥
दो. महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर। जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर ॥ ८०(क) ॥
सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कंज। एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुंज ॥ ८०(ख) ॥
उत पचार दसकंधर इत अंगद हनुमान। लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन ॥ ८०(ग) ॥
सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढ़े बिमाना ॥ हमहू उमा रहे तेहि संगा। देखत राम चरित रन रंगा ॥
सुभट समर रस दुहु दिसि माते। कपि जयसील राम बल ताते ॥ एक एक सन भिरहिं पचारहिं। एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं ॥
मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं। सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं ॥ उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं। गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं ॥
निसिचर भट महि गाड़हि भालू। ऊपर ढारि देहिं बहु बालू ॥ बीर बलिमुख जुद्ध बिरुद्धे। देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे ॥
छं. क्रुद्धे कृतांत समान कपि तन स्त्रवत सोनित राजहीं। मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवंत घन जिमि गाजहीं ॥ मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं। चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीं ॥ धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं। प्रहलादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अंगन खेलहीं ॥ धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही। जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही ॥
दो. निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप। रथ चढ़ि चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करि दाप ॥ ८१ ॥
धायउ परम क्रुद्ध दसकंधर। सन्मुख चले हूह दै बंदर ॥ गहि कर पादप उपल पहारा। डारेन्हि ता पर एकहिं बारा ॥
लागहिं सैल बज्र तन तासू। खंड खंड होइ फूटहिं आसू ॥ चला न अचल रहा रथ रोपी। रन दुर्मद रावन अति कोपी ॥
इत उत झपटि दपटि कपि जोधा। मर्दै लाग भयउ अति क्रोधा ॥ चले पराइ भालु कपि नाना। त्राहि त्राहि अंगद हनुमाना ॥
पाहि पाहि रघुबीर गोसाई। यह खल खाइ काल की नाई ॥ तेहि देखे कपि सकल पराने। दसहुँ चाप सायक संधाने ॥
छं. संधानि धनु सर निकर छाड़ेसि उरग जिमि उड़ि लागहीं। रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदसि कहँ कपि भागहीं ॥ भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे। रघुबीर करुना सिंधु आरत बंधु जन रच्छक हरे ॥
दो. निज दल बिकल देखि कटि कसि निषंग धनु हाथ। लछिमन चले क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ ॥ ८२ ॥
रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू ॥ खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुड़ावउँ छाती ॥
अस कहि छाड़ेसि बान प्रचंडा। लछिमन किए सकल सत खंडा ॥ कोटिन्ह आयुध रावन डारे। तिल प्रवान करि काटि निवारे ॥
पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा। स्यंदनु भंजि सारथी मारा ॥ सत सत सर मारे दस भाला। गिरि सृंगन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला ॥
पुनि सत सर मारा उर माहीं। परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं ॥ उठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी। छाड़िसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी ॥
छं. सो ब्रह्म दत्त प्रचंड सक्ति अनंत उर लागी सही। पर्यो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही ॥ ब्रह्मांड भवन बिराज जाकें एक सिर जिमि रज कनी। तेहि चह उठावन मूढ़ रावन जान नहिं त्रिभुअन धनी ॥
दो. देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर। आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर ॥ ८३ ॥
जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा ॥ मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा ॥
मुरुछा गै बहोरि सो जागा। कपि बल बिपुल सराहन लागा ॥ धिग धिग मम पौरुष धिग मोही। जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही ॥
अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो। देखि दसानन बिसमय पायो ॥ कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता। तुम्ह कृतांत भच्छक सुर त्राता ॥
सुनत बचन उठि बैठ कृपाला। गई गगन सो सकति कराला ॥ पुनि कोदंड बान गहि धाए। रिपु सन्मुख अति आतुर आए ॥
छं. आतुर बहोरि बिभंजि स्यंदन सूत हति ब्याकुल कियो। गिर् यो धरनि दसकंधर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो ॥ सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लंका लै गयो। रघुबीर बंधु प्रताप पुंज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो ॥
दो. उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य। राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य ॥ ८४ ॥
इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई ॥ नाथ करइ रावन एक जागा। सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा ॥
पठवहु नाथ बेगि भट बंदर। करहिं बिधंस आव दसकंधर ॥ प्रात होत प्रभु सुभट पठाए। हनुमदादि अंगद सब धाए ॥
कौतुक कूदि चढ़े कपि लंका। पैठे रावन भवन असंका ॥ जग्य करत जबहीं सो देखा। सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा ॥
रन ते निलज भाजि गृह आवा। इहाँ आइ बक ध्यान लगावा ॥ अस कहि अंगद मारा लाता। चितव न सठ स्वारथ मन राता ॥
छं. नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं। धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं ॥ तब उठेउ क्रुद्ध कृतांत सम गहि चरन बानर डारई। एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई ॥
दो. जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास। चलेउ निसाचर क्रुर्द्ध होइ त्यागि जिवन कै आस ॥ ८५ ॥
चलत होहिं अति असुभ भयंकर। बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर ॥ भयउ कालबस काहु न माना। कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना ॥
चली तमीचर अनी अपारा। बहु गज रथ पदाति असवारा ॥ प्रभु सन्मुख धाए खल कैंसें। सलभ समूह अनल कहँ जैंसें ॥
इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही। दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही ॥ अब जनि राम खेलावहु एही। अतिसय दुखित होति बैदेही ॥
देव बचन सुनि प्रभु मुसकाना। उठि रघुबीर सुधारे बाना।जटा जूट दृढ़ बाँधै माथे। सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे ॥
अरुन नयन बारिद तनु स्यामा। अखिल लोक लोचनाभिरामा ॥ कटितट परिकर कस्यो निषंगा। कर कोदंड कठिन सारंगा ॥
छं. सारंग कर सुंदर निषंग सिलीमुखाकर कटि कस्यो। भुजदंड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो ॥ कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे। ब्रह्मांड दिग्गज कमठ अहि महि सिंधु भूधर डगमगे ॥
दो. सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार। जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार ॥ ८६ ॥
एहीं बीच निसाचर अनी। कसमसात आई अति घनी।देखि चले सन्मुख कपि भट्टा। प्रलयकाल के जनु घन घट्टा ॥
बहु कृपान तरवारि चमंकहिं। जनु दहँ दिसि दामिनीं दमंकहिं ॥ गज रथ तुरग चिकार कठोरा। गर्जहिं मनहुँ बलाहक घोरा ॥
कपि लंगूर बिपुल नभ छाए। मनहुँ इंद्रधनु उए सुहाए ॥ उठइ धूरि मानहुँ जलधारा। बान बुंद भै बृष्टि अपारा ॥
दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा। बज्रपात जनु बारहिं बारा ॥ रघुपति कोऽपि बान झरि लाई। घायल भै निसिचर समुदाई ॥
लागत बान बीर चिक्करहीं। घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीं ॥ स्त्रवहिं सैल जनु निर्झर भारी। सोनित सरि कादर भयकारी ॥
छं. कादर भयंकर रुधिर सरिता चली परम अपावनी। दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी ॥ जल जंतुगज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने। सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरंग चर्म कमठ घने ॥
दो. बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन। कादर देखि डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन ॥ ८७ ॥
मज्जहि भूत पिसाच बेताला। प्रमथ महा झोटिंग कराला ॥ काक कंक लै भुजा उड़ाहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीं ॥
एक कहहिं ऐसिउ सौंघाई। सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई ॥ कहँरत भट घायल तट गिरे। जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे ॥
खैंचहिं गीध आँत तट भए। जनु बंसी खेलत चित दए ॥ बहु भट बहहिं चढ़े खग जाहीं। जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं ॥
जोगिनि भरि भरि खप्पर संचहिं। भूत पिसाच बधू नभ नंचहिं ॥ भट कपाल करताल बजावहिं। चामुंडा नाना बिधि गावहिं ॥
जंबुक निकर कटक्कट कट्टहिं। खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिं ॥ कोटिन्ह रुंड मुंड बिनु डोल्लहिं। सीस परे महि जय जय बोल्लहिं ॥
छं. बोल्लहिं जो जय जय मुंड रुंड प्रचंड सिर बिनु धावहीं। खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं ॥ बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए। संग्राम अंगन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हए ॥
दो. रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर संघार। मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार ॥ ८८ ॥
देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा। उपजा उर अति छोभ बिसेषा ॥ सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा ॥
तेज पुंज रथ दिब्य अनूपा। हरषि चढ़े कोसलपुर भूपा ॥ चंचल तुरग मनोहर चारी। अजर अमर मन सम गतिकारी ॥
रथारूढ़ रघुनाथहि देखी। धाए कपि बलु पाइ बिसेषी ॥ सही न जाइ कपिन्ह कै मारी। तब रावन माया बिस्तारी ॥
सो माया रघुबीरहि बाँची। लछिमन कपिन्ह सो मानी साँची ॥ देखी कपिन्ह निसाचर अनी। अनुज सहित बहु कोसलधनी ॥
छं. बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे। जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे ॥ निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसल धनी। माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी ॥
दो. बहुरि राम सब तन चितइ बोले बचन गँभीर। द्वंदजुद्ध देखहु सकल श्रमित भए अति बीर ॥ ८९ ॥
अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पंकज सिरु नावा ॥ तब लंकेस क्रोध उर छावा। गर्जत तर्जत सन्मुख धावा ॥
जीतेहु जे भट संजुग माहीं। सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीं ॥ रावन नाम जगत जस जाना। लोकप जाकें बंदीखाना ॥
खर दूषन बिराध तुम्ह मारा। बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा ॥ निसिचर निकर सुभट संघारेहु। कुंभकरन घननादहि मारेहु ॥
आजु बयरु सबु लेउँ निबाही। जौं रन भूप भाजि नहिं जाहीं ॥ आजु करउँ खलु काल हवाले। परेहु कठिन रावन के पाले ॥
सुनि दुर्बचन कालबस जाना। बिहँसि बचन कह कृपानिधाना ॥ सत्य सत्य सब तव प्रभुताई। जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई ॥
छं. जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा। संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा ॥ एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं। एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं ॥
दो. राम बचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान। बयरु करत नहिं तब डरे अब लागे प्रिय प्रान ॥ ९० ॥
कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकंधर। कुलिस समान लाग छाँड़ै सर ॥ नानाकार सिलीमुख धाए। दिसि अरु बिदिस गगन महि छाए ॥
पावक सर छाँड़ेउ रघुबीरा। छन महुँ जरे निसाचर तीरा ॥ छाड़िसि तीब्र सक्ति खिसिआई। बान संग प्रभु फेरि चलाई ॥
कोटिक चक्र त्रिसूल पबारै। बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै ॥ निफल होहिं रावन सर कैसें। खल के सकल मनोरथ जैसें ॥
तब सत बान सारथी मारेसि। परेउ भूमि जय राम पुकारेसि ॥ राम कृपा करि सूत उठावा। तब प्रभु परम क्रोध कहुँ पावा ॥
छं. भए क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे। कोदंड धुनि अति चंड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे ॥ मँदोदरी उर कंप कंपति कमठ भू भूधर त्रसे। चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे ॥
दो. तानेउ चाप श्रवन लगि छाँड़े बिसिख कराल। राम मारगन गन चले लहलहात जनु ब्याल ॥ ९१ ॥
चले बान सपच्छ जनु उरगा। प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा ॥ रथ बिभंजि हति केतु पताका। गर्जा अति अंतर बल थाका ॥
तुरत आन रथ चढ़ि खिसिआना। अस्त्र सस्त्र छाँड़ेसि बिधि नाना ॥ बिफल होहिं सब उद्यम ताके। जिमि परद्रोह निरत मनसा के ॥
तब रावन दस सूल चलावा। बाजि चारि महि मारि गिरावा ॥ तुरग उठाइ कोऽपि रघुनायक। खैंचि सरासन छाँड़े सायक ॥
रावन सिर सरोज बनचारी। चलि रघुबीर सिलीमुख धारी ॥ दस दस बान भाल दस मारे। निसरि गए चले रुधिर पनारे ॥
स्त्रवत रुधिर धायउ बलवाना। प्रभु पुनि कृत धनु सर संधाना ॥ तीस तीर रघुबीर पबारे। भुजन्हि समेत सीस महि पारे ॥
काटतहीं पुनि भए नबीने। राम बहोरि भुजा सिर छीने ॥ प्रभु बहु बार बाहु सिर हए। कटत झटिति पुनि नूतन भए ॥
पुनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा। अति कौतुकी कोसलाधीसा ॥ रहे छाइ नभ सिर अरु बाहू। मानहुँ अमित केतु अरु राहू ॥
छं. जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्त्रवत सोनित धावहीं। रघुबीर तीर प्रचंड लागहिं भूमि गिरन न पावहीं ॥ एक एक सर सिर निकर छेदे नभ उड़त इमि सोहहीं। जनु कोऽपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुंतुद पोहहीं ॥
दो. जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि तिमि होहिं अपार। सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार ॥ ९२ ॥
दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढ़ी। बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी ॥ गर्जेउ मूढ़ महा अभिमानी। धायउ दसहु सरासन तानी ॥
समर भूमि दसकंधर कोप्यो। बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो ॥ दंड एक रथ देखि न परेऊ। जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ ॥
हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा। तब प्रभु कोऽपि कारमुक लीन्हा ॥ सर निवारि रिपु के सिर काटे। ते दिसि बिदिस गगन महि पाटे ॥
काटे सिर नभ मारग धावहिं। जय जय धुनि करि भय उपजावहिं ॥ कहँ लछिमन सुग्रीव कपीसा। कहँ रघुबीर कोसलाधीसा ॥
छं. कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले। संधानि धनु रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले ॥ सिर मालिका कर कालिका गहि बृंद बृंदन्हि बहु मिलीं। करि रुधिर सरि मज्जनु मनहुँ संग्राम बट पूजन चलीं ॥
दो. पुनि दसकंठ क्रुद्ध होइ छाँड़ी सक्ति प्रचंड। चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दंड ॥ ९३ ॥
आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भंजन पन मोरा ॥ तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला ॥
लागि सक्ति मुरुछा कछु भई। प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई ॥ देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो। गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो ॥
रे कुभाग्य सठ मंद कुबुद्धे। तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे ॥ सादर सिव कहुँ सीस चढ़ाए। एक एक के कोटिन्ह पाए ॥
तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो। अब तव कालु सीस पर नाच्यो ॥ राम बिमुख सठ चहसि संपदा। अस कहि हनेसि माझ उर गदा ॥
छं. उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर् यो। दस बदन सोनित स्त्रवत पुनि संभारि धायो रिस भर् यो ॥ द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै। रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै ॥
दो. उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ। सो अब भिरत काल ज्यों श्रीरघुबीर प्रभाउ ॥ ९४ ॥
देखा श्रमित बिभीषनु भारी। धायउ हनूमान गिरि धारी ॥ रथ तुरंग सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेसि लाता ॥
ठाढ़ रहा अति कंपित गाता। गयउ बिभीषनु जहँ जनत्राता ॥ पुनि रावन कपि हतेउ पचारी। चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी ॥
गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना ॥ लरत अकास जुगल सम जोधा। एकहि एकु हनत करि क्रोधा ॥
सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं। कज्जल गिरि सुमेरु जनु लरहीं ॥ बुधि बल निसिचर परइ न पार् यो। तब मारुत सुत प्रभु संभार् यो ॥
छं. संभारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो। महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यो ॥ हनुमंत संकट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले। रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचंड भुज बल दलमले ॥
दो. तब रघुबीर पचारे धाए कीस प्रचंड। कपि बल प्रबल देखि तेहिं कीन्ह प्रगट पाषंड ॥ ९५ ॥
अंतरधान भयउ छन एका। पुनि प्रगटे खल रूप अनेका ॥ रघुपति कटक भालु कपि जेते। जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते ॥
देखे कपिन्ह अमित दससीसा। जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा ॥ भागे बानर धरहिं न धीरा। त्राहि त्राहि लछिमन रघुबीरा ॥
दहँ दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन। गर्जहिं घोर कठोर भयावन ॥ डरे सकल सुर चले पराई। जय कै आस तजहु अब भाई ॥
सब सुर जिते एक दसकंधर। अब बहु भए तकहु गिरि कंदर ॥ रहे बिरंचि संभु मुनि ग्यानी। जिन्ह जिन्ह प्रभु महिमा कछु जानी ॥
छं. जाना प्रताप ते रहे निर्भय कपिन्ह रिपु माने फुरे। चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपाल पाहि भयातुरे ॥ हनुमंत अंगद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे। मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह कपट भू भट अंकुरे ॥
दो. सुर बानर देखे बिकल हँस्यो कोसलाधीस। सजि सारंग एक सर हते सकल दससीस ॥ ९६ ॥
प्रभु छन महुँ माया सब काटी। जिमि रबि उएँ जाहिं तम फाटी ॥ रावनु एकु देखि सुर हरषे। फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे ॥
भुज उठाइ रघुपति कपि फेरे। फिरे एक एकन्ह तब टेरे ॥ प्रभु बलु पाइ भालु कपि धाए। तरल तमकि संजुग महि आए ॥
अस्तुति करत देवतन्हि देखें। भयउँ एक मैं इन्ह के लेखें ॥ सठहु सदा तुम्ह मोर मरायल। अस कहि कोऽपि गगन पर धायल ॥
हाहाकार करत सुर भागे। खलहु जाहु कहँ मोरें आगे ॥ देखि बिकल सुर अंगद धायो। कूदि चरन गहि भूमि गिरायो ॥
छं. गहि भूमि पार् यो लात मार् यो बालिसुत प्रभु पहिं गयो। संभारि उठि दसकंठ घोर कठोर रव गर्जत भयो ॥ करि दाप चाप चढ़ाइ दस संधानि सर बहु बरषई। किए सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषई ॥
दो. तब रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप। काटे बहुत बढ़े पुनि जिमि तीरथ कर पाप। ९७ ॥
सिर भुज बाढ़ि देखि रिपु केरी। भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी ॥ मरत न मूढ़ कटेउ भुज सीसा। धाए कोऽपि भालु भट कीसा ॥
बालितनय मारुति नल नीला। बानरराज दुबिद बलसीला ॥ बिटप महीधर करहिं प्रहारा। सोइ गिरि तरु गहि कपिन्ह सो मारा ॥
एक नखन्हि रिपु बपुष बिदारी। भागि चलहिं एक लातन्ह मारी ॥ तब नल नील सिरन्हि चढ़ि गयऊ। नखन्हि लिलार बिदारत भयऊ ॥
रुधिर देखि बिषाद उर भारी। तिन्हहि धरन कहुँ भुजा पसारी ॥ गहे न जाहिं करन्हि पर फिरहीं। जनु जुग मधुप कमल बन चरहीं ॥
कोऽपि कूदि द्वौ धरेसि बहोरी। महि पटकत भजे भुजा मरोरी ॥ पुनि सकोप दस धनु कर लीन्हे। सरन्हि मारि घायल कपि कीन्हे ॥
हनुमदादि मुरुछित करि बंदर। पाइ प्रदोष हरष दसकंधर ॥ मुरुछित देखि सकल कपि बीरा। जामवंत धायउ रनधीरा ॥
संग भालु भूधर तरु धारी। मारन लगे पचारि पचारी ॥ भयउ क्रुद्ध रावन बलवाना। गहि पद महि पटकइ भट नाना ॥
देखि भालुपति निज दल घाता। कोऽपि माझ उर मारेसि लाता ॥
छं. उर लात घात प्रचंड लागत बिकल रथ ते महि परा। गहि भालु बीसहुँ कर मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मधुकरा ॥ मुरुछित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयौ। निसि जानि स्यंदन घालि तेहि तब सूत जतनु करत भयो ॥
दो. मुरुछा बिगत भालु कपि सब आए प्रभु पास। निसिचर सकल रावनहि घेरि रहे अति त्रास ॥ ९८ ॥
Masaparayana 26 Ends
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