Ram Charita Manas

Masaparayan 29

ॐ श्री परमात्मने नमः

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संस्कृत्म
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Doha / दोहा

सिव बिरंचि कहुँ मोहइ को है बपुरा आन । अस जियँ जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान ॥ ६२(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुंडा। मति अकुंठ हरि भगति अखंडा ॥ देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ। माया मोह सोच सब गयऊ ॥

करि तड़ाग मज्जन जलपाना। बट तर गयउ हृदयँ हरषाना ॥ बृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए। सुनै राम के चरित सुहाए ॥

कथा अरंभ करै सोइ चाहा। तेही समय गयउ खगनाहा ॥ आवत देखि सकल खगराजा। हरषेउ बायस सहित समाजा ॥

अति आदर खगपति कर कीन्हा। स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा ॥ करि पूजा समेत अनुरागा। मधुर बचन तब बोलेउ कागा ॥

Doha / दोहा

दो. नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज । आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहि काज ॥ ६३(क) ॥

Chaupai / चोपाई

सदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस । जेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस ॥ ६३(ख) ॥

सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ ॥ देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम ॥

अब श्रीराम कथा अति पावनि। सदा सुखद दुख पुंज नसावनि ॥ सादर तात सुनावहु मोही। बार बार बिनवउँ प्रभु तोही ॥

सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता। सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता ॥ भयउ तासु मन परम उछाहा। लाग कहै रघुपति गुन गाहा ॥

प्रथमहिं अति अनुराग भवानी। रामचरित सर कहेसि बखानी ॥ पुनि नारद कर मोह अपारा। कहेसि बहुरि रावन अवतारा ॥

प्रभु अवतार कथा पुनि गाई। तब सिसु चरित कहेसि मन लाई ॥

Doha / दोहा

दो. बालचरित कहिं बिबिध बिधि मन महँ परम उछाह । रिषि आगवन कहेसि पुनि श्री रघुबीर बिबाह ॥ ६४ ॥

Chaupai / चोपाई

बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा। पुनि नृप बचन राज रस भंगा ॥ पुरबासिंह कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन संबादा ॥

बिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा ॥ बालमीक प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना ॥

सचिवागवन नगर नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना ॥ करि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी ॥

पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए ॥ भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी ॥

Doha / दोहा

दो. कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग ॥ बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभु अगस्ति सतसंग ॥ ६५ ॥

Chaupai / चोपाई

कहि दंडक बन पावनताई। गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई ॥ पुनि प्रभु पंचवटीं कृत बासा। भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा ॥

पुनि लछिमन उपदेस अनूपा। सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा ॥ खर दूषन बध बहुरि बखाना। जिमि सब मरमु दसानन जाना ॥

दसकंधर मारीच बतकहीं। जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही ॥ पुनि माया सीता कर हरना। श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना ॥

पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही। बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही ॥ बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा। जेहि बिधि गए सरोबर तीरा ॥

Doha / दोहा

दो. प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग । पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग ॥ ६६((क) ॥

कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास । बरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास ॥ ६६(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए। सीता खोज सकल दिसि धाए ॥ बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँती। कपिन्ह बहोरि मिला संपाती ॥

सुनि सब कथा समीरकुमारा। नाघत भयउ पयोधि अपारा ॥ लंकाँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा। पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा ॥

बन उजारि रावनहि प्रबोधी। पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी ॥ आए कपि सब जहँ रघुराई। बैदेही कि कुसल सुनाई ॥

सेन समेति जथा रघुबीरा। उतरे जाइ बारिनिधि तीरा ॥ मिला बिभीषन जेहि बिधि आई। सागर निग्रह कथा सुनाई ॥

Doha / दोहा

दो. सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार । गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार ॥ ६७(क) ॥

निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार । कुंभकरन घननाद कर बल पौरुष संघार ॥ ६७(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

निसिचर निकर मरन बिधि नाना। रघुपति रावन समर बखाना ॥ रावन बध मंदोदरि सोका। राज बिभीषण देव असोका ॥

सीता रघुपति मिलन बहोरी। सुरन्ह कीन्ह अस्तुति कर जोरी ॥ पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता। अवध चले प्रभु कृपा निकेता ॥

जेहि बिधि राम नगर निज आए। बायस बिसद चरित सब गाए ॥ कहेसि बहोरि राम अभिषैका। पुर बरनत नृपनीति अनेका ॥

कथा समस्त भुसुंड बखानी। जो मैं तुम्ह सन कही भवानी ॥ सुनि सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा ॥

Sortha / सोरठा

सो. गयउ मोर संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित । भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक ॥ ६८(क) ॥

Chaupai / चोपाई

मोहि भयउ अति मोह प्रभु बंधन रन महुँ निरखि । चिदानंद संदोह राम बिकल कारन कवन। ६८(ख) ॥

देखि चरित अति नर अनुसारी। भयउ हृदयँ मम संसय भारी ॥ सोइ भ्रम अब हित करि मैं माना। कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना ॥

जो अति आतप ब्याकुल होई। तरु छाया सुख जानइ सोई ॥ जौं नहिं होत मोह अति मोही। मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही ॥

सुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई। अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई ॥ निगमागम पुरान मत एहा। कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा ॥

संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही ॥ राम कृपाँ तव दरसन भयऊ। तव प्रसाद सब संसय गयऊ ॥

Doha / दोहा

दो. सुनि बिहंगपति बानी सहित बिनय अनुराग । पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग ॥ ६९(क) ॥

श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास । पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास ॥ ६९(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

बोलेउ काकभसुंड बहोरी। नभग नाथ पर प्रीति न थोरी ॥ सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे ॥

तुम्हहि न संसय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्ह तुम्ह दाया ॥ पठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही ॥

तुम्ह निज मोह कही खग साईं। सो नहिं कछु आचरज गोसाईं ॥ नारद भव बिरंचि सनकादी। जे मुनिनायक आतमबादी ॥

मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही ॥ तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा ॥

Doha / दोहा

दो. ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार । केहि कै लौभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार ॥ ७०(क) ॥

श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि । मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि ॥ ७०(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

गुन कृत सन्यपात नहिं केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही ॥ जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा ॥

मच्छर काहि कलंक न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा ॥ चिंता साँपिनि को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया ॥

कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा ॥ सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी ॥

यह सब माया कर परिवारा। प्रबल अमिति को बरनै पारा ॥ सिव चतुरानन जाहि डेराहीं। अपर जीव केहि लेखे माहीं ॥

Doha / दोहा

दो. ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड ॥ सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड ॥ ७१(क) ॥

सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि । छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोऽपि ॥ ७१(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

जो माया सब जगहि नचावा। जासु चरित लखि काहुँ न पावा ॥ सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा ॥

सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज बिग्यान रूपो बल धामा ॥ ब्यापक ब्याप्य अखंड अनंता। अखिल अमोघसक्ति भगवंता ॥

अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सबदरसी अनवद्य अजीता ॥ निर्मम निराकार निरमोहा। नित्य निरंजन सुख संदोहा ॥

प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ॥ इहाँ मोह कर कारन नाहीं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ॥

Doha / दोहा

दो. भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप । किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप ॥ ७२(क) ॥

जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ । सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ ॥ ७२(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

असि रघुपति लीला उरगारी। दनुज बिमोहनि जन सुखकारी ॥ जे मति मलिन बिषयबस कामी। प्रभु मोह धरहिं इमि स्वामी ॥

नयन दोष जा कहँ जब होई। पीत बरन ससि कहुँ कह सोई ॥ जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा। सो कह पच्छिम उयउ दिनेसा ॥

नौकारूढ़ चलत जग देखा। अचल मोह बस आपुहि लेखा ॥ बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादीं। कहहिं परस्पर मिथ्याबादी ॥

हरि बिषइक अस मोह बिहंगा। सपनेहुँ नहिं अग्यान प्रसंगा ॥ मायाबस मतिमंद अभागी। हृदयँ जमनिका बहुबिधि लागी ॥

ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अग्यान राम पर धरहीं ॥

Doha / दोहा

दो. काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप । ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप ॥ ७३(क) ॥

निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ । सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ ॥ ७३(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई। कहउँ जथामति कथा सुहाई ॥ जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही ॥

राम कृपा भाजन तुम्ह ताता। हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता ॥ ताते नहिं कछु तुम्हहिं दुरावउँ। परम रहस्य मनोहर गावउँ ॥

सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ ॥ संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना ॥

ताते करहिं कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति भूरी ॥ जिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाई। मातु चिराव कठिन की नाईं ॥

Doha / दोहा

दो. जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर । ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर ॥ ७४(क) ॥

तिमि रघुपति निज दासकर हरहिं मान हित लागि । तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि ॥ ७४(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

राम कृपा आपनि जड़ताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई ॥ जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लील बहु करहीं ॥

तब तब अवधपुरी मैं ज़ाऊँ। बालचरित बिलोकि हरषाऊँ ॥ जन्म महोत्सव देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई ॥

इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा ॥ निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी ॥

लघु बायस बपु धरि हरि संगा। देखउँ बालचरित बहुरंगा ॥

Doha / दोहा

दो. लरिकाईं जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ संग उड़ाउँ । जूठनि परइ अजिर महँ सो उठाइ करि खाउँ ॥ ७५(क) ॥

Chaupai / चोपाई

एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर । सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर ॥ ७५(ख) ॥

कहइ भसुंड सुनहु खगनायक। रामचरित सेवक सुखदायक ॥ नृपमंदिर सुंदर सब भाँती। खचित कनक मनि नाना जाती ॥

बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई। जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई ॥ बालबिनोद करत रघुराई। बिचरत अजिर जननि सुखदाई ॥

मरकत मृदुल कलेवर स्यामा। अंग अंग प्रति छबि बहु कामा ॥ नव राजीव अरुन मृदु चरना। पदज रुचिर नख ससि दुति हरना ॥

ललित अंक कुलिसादिक चारी। नूपुर चारू मधुर रवकारी ॥ चारु पुरट मनि रचित बनाई। कटि किंकिन कल मुखर सुहाई ॥

Doha / दोहा

दो. रेखा त्रय सुन्दर उदर नाभी रुचिर गँभीर । उर आयत भ्राजत बिबिध बाल बिभूषन चीर ॥ ७६ ॥

Chaupai / चोपाई

अरुन पानि नख करज मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर ॥ कंध बाल केहरि दर ग्रीवा। चारु चिबुक आनन छबि सींवा ॥

कलबल बचन अधर अरुनारे। दुइ दुइ दसन बिसद बर बारे ॥ ललित कपोल मनोहर नासा। सकल सुखद ससि कर सम हासा ॥

नील कंज लोचन भव मोचन। भ्राजत भाल तिलक गोरोचन ॥ बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए। कुंचित कच मेचक छबि छाए ॥

पीत झीनि झगुली तन सोही। किलकनि चितवनि भावति मोही ॥ रूप रासि नृप अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी ॥

मोहि सन करहीं बिबिध बिधि क्रीड़ा। बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा ॥ किलकत मोहि धरन जब धावहिं। चलउँ भागि तब पूप देखावहिं ॥

Doha / दोहा

दो. आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं । जाउँ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं ॥ ७७(क) ॥

प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह । कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह ॥ ७७(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

एतना मन आनत खगराया। रघुपति प्रेरित ब्यापी माया ॥ सो माया न दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृत नाहीं ॥

नाथ इहाँ कछु कारन आना। सुनहु सो सावधान हरिजाना ॥ ग्यान अखंड एक सीताबर। माया बस्य जीव सचराचर ॥

जौं सब कें रह ग्यान एकरस। ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस ॥ माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुनखानी ॥

परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता ॥ मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया ॥

Doha / दोहा

दो. रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान । ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान ॥ ७८(क) ॥

राकापति षोड़स उअहिं तारागन समुदाइ ॥ सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ ॥ ७८(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा ॥ हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या ॥

ताते नास न होइ दास कर। भेद भगति भाढ़इ बिहंगबर ॥ भ्रम ते चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा ॥

तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ ॥ जानु पानि धाए मोहि धरना। स्यामल गात अरुन कर चरना ॥

तब मैं भागि चलेउँ उरगामी। राम गहन कहँ भुजा पसारी ॥ जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा। तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा ॥

Doha / दोहा

दो. ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात । जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात ॥ ७९(क) ॥

सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि । गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि ॥ ७९(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

मूदेउँ नयन त्रसित जब भयउँ। पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ ॥ मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं। बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं ॥

उदर माझ सुनु अंडज राया। देखेउँ बहु ब्रह्मांड निकाया ॥ अति बिचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका ॥

कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा। अगनित उडगन रबि रजनीसा ॥ अगनित लोकपाल जम काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला ॥

सागर सरि सर बिपिन अपारा। नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा ॥ सुर मुनि सिद्ध नाग नर किंनर। चारि प्रकार जीव सचराचर ॥

Doha / दोहा

दो. जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ । सो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ ॥ ८०(क) ॥

एक एक ब्रह्मांड महुँ रहउँ बरष सत एक । एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक ॥ ८०(ख) ॥

एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक ॥ ८०(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता। भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता ॥ नर गंधर्ब भूत बेताला। किंनर निसिचर पसु खग ब्याला ॥

देव दनुज गन नाना जाती। सकल जीव तहँ आनहि भाँती ॥ महि सरि सागर सर गिरि नाना। सब प्रपंच तहँ आनइ आना ॥

अंडकोस प्रति प्रति निज रुपा। देखेउँ जिनस अनेक अनूपा ॥ अवधपुरी प्रति भुवन निनारी। सरजू भिन्न भिन्न नर नारी ॥

दसरथ कौसल्या सुनु ताता। बिबिध रूप भरतादिक भ्राता ॥ प्रति ब्रह्मांड राम अवतारा। देखउँ बालबिनोद अपारा ॥

Doha / दोहा

दो. भिन्न भिन्न मै दीख सबु अति बिचित्र हरिजान । अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन ॥ ८१(क) ॥

सोइ सिसुपन सोइ सोभा सोइ कृपाल रघुबीर । भुवन भुवन देखत फिरउँ प्रेरित मोह समीर ॥ ८१(ख)

Chaupai / चोपाई

भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका। बीते मनहुँ कल्प सत एका ॥ फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ। तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ ॥

निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ। निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ ॥ देखउँ जन्म महोत्सव जाई। जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई ॥

राम उदर देखेउँ जग नाना। देखत बनइ न जाइ बखाना ॥ तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना। माया पति कृपाल भगवाना ॥

करउँ बिचार बहोरि बहोरी। मोह कलिल ब्यापित मति मोरी ॥ उभय घरी महँ मैं सब देखा। भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा ॥

Doha / दोहा

दो. देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर । बिहँसतहीं मुख बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर ॥ ८२(क) ॥

Chaupai / चोपाई

सोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम । कोटि भाँति समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम ॥ ८२(ख) ॥

देखि चरित यह सो प्रभुताई। समुझत देह दसा बिसराई ॥ धरनि परेउँ मुख आव न बाता। त्राहि त्राहि आरत जन त्राता ॥

प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी। निज माया प्रभुता तब रोकी ॥ कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ। दीनदयाल सकल दुख हरेऊ ॥

कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा। सेवक सुखद कृपा संदोहा ॥ प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी। मन महँ होइ हरष अति भारी ॥

भगत बछलता प्रभु कै देखी। उपजी मम उर प्रीति बिसेषी ॥ सजल नयन पुलकित कर जोरी। कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी ॥

Doha / दोहा

दो. सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास । बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास ॥ ८३(क) ॥

Chaupai / चोपाई

काकभसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि । अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि ॥ ८३(ख) ॥

ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना। मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना ॥ आजु देउँ सब संसय नाहीं। मागु जो तोहि भाव मन माहीं ॥

सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ। मन अनुमान करन तब लागेऊँ ॥ प्रभु कह देन सकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही ॥

भगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिंजन जैसे ॥ भजन हीन सुख कवने काजा। अस बिचारि बोलेउँ खगराजा ॥

जौं प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू। मो पर करहु कृपा अरु नेहू ॥ मन भावत बर मागउँ स्वामी। तुम्ह उदार उर अंतरजामी ॥

Doha / दोहा

दो. अबिरल भगति बिसुध्द तव श्रुति पुरान जो गाव । जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव ॥ ८४(क) ॥

Chaupai / चोपाई

भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपा सिंधु सुख धाम । सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम ॥ ८४(ख) ॥

एवमस्तु कहि रघुकुलनायक। बोले बचन परम सुखदायक ॥ सुनु बायस तैं सहज सयाना। काहे न मागसि अस बरदाना ॥

सब सुख खानि भगति तैं मागी। नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी ॥ जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं। जे जप जोग अनल तन दहहीं ॥

रीझेउँ देखि तोरि चतुराई। मागेहु भगति मोहि अति भाई ॥ सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें। सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें ॥

भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा ॥ जानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा ॥

Doha / दोहा

दों.माया संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि । जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि ॥ ८५(क) ॥

मोहि भगत प्रिय संतत अस बिचारि सुनु काग । कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग ॥ ८५(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

अब सुनु परम बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी ॥ निज सिद्धांत सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही ॥

मम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा ॥ सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए ॥

तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी ॥ तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी ॥

तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा ॥ पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं ॥

भगति हीन बिरंचि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई ॥ भगतिवंत अति नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी ॥

Doha / दोहा

दो. सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग । श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग ॥ ८६ ॥

Chaupai / चोपाई

एक पिता के बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन सील अचारा ॥ कोउ पंडिंत कोउ तापस ग्याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता ॥

कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम होई ॥ कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा। सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा ॥

सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना। जद्यपि सो सब भाँति अयाना ॥ एहि बिधि जीव चराचर जेते। त्रिजग देव नर असुर समेते ॥

अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया ॥ तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया। भजै मोहि मन बच अरू काया ॥

Doha / दोहा

दो. पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ । सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ ॥ ८७(क) ॥

Sortha / सोरठा

सो. सत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय । अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब ॥ ८७(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

कबहूँ काल न ब्यापिहि तोही। सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही ॥ प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ। तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ ॥

सो सुख जानइ मन अरु काना। नहिं रसना पहिं जाइ बखाना ॥ प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना। कहि किमि सकहिं तिन्हहि नहिं बयना ॥

बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई। लगे करन सिसु कौतुक तेई ॥ सजल नयन कछु मुख करि रूखा। चितइ मातु लागी अति भूखा ॥

देखि मातु आतुर उठि धाई। कहि मृदु बचन लिए उर लाई ॥ गोद राखि कराव पय पाना। रघुपति चरित ललित कर गाना ॥

Sortha / सोरठा

सो. जेहि सुख लागि पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद । अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ संतत मगन ॥ ८८(क) ॥

सोइ सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ । ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति ॥ ८८(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला। देखेउँ बालबिनोद रसाला ॥ राम प्रसाद भगति बर पायउँ। प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ ॥

तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया ॥ यह सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा ॥

निज अनुभव अब कहउँ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा ॥ राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई ॥

जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ॥ प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई ॥

Sortha / सोरठा

सो. बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु । गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु ॥ ८९(क) ॥

कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु । चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ ॥ ८९(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ॥ राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा ॥

बिनु बिग्यान कि समता आवइ। कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ ॥ श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गंध कि पावइ कोई ॥

बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा। जल बिनु रस कि होइ संसारा ॥ सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई ॥

निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा ॥ कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा ॥

Doha / दोहा

दो. बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु । राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु ॥ ९०(क) ॥

Sortha / सोरठा

सो. अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल । भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद ॥ ९०(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

निज मति सरिस नाथ मैं गाई। प्रभु प्रताप महिमा खगराई ॥ कहेउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी। यह सब मैं निज नयनन्हि देखी ॥

महिमा नाम रूप गुन गाथा। सकल अमित अनंत रघुनाथा ॥ निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं। निगम सेष सिव पार न पावहिं ॥

तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता। नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता ॥ तिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा ॥

रामु काम सत कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन ॥ सक्र कोटि सत सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा ॥

Doha / दोहा

दो. मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास । ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास ॥ ९१(क) ॥

काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत । धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत ॥ ९१(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला ॥ तीरथ अमित कोटि सम पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन ॥

हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा। सिंधु कोटि सत सम गंभीरा ॥ कामधेनु सत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना ॥

सारद कोटि अमित चतुराई। बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई ॥ बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता। रुद्र कोटि सत सम संहर्ता ॥

धनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना ॥ भार धरन सत कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा ॥

Chanda / छन्द

छं. निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै । जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै ॥

एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनिस हरिहि बखानहीं । प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं ॥

Doha / दोहा

दो. रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ । संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ ॥ ९२(क) ॥

Sortha / सोरठा

सो. भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन । तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन ॥ ९२(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए। हरषित खगपति पंख फुलाए ॥ नयन नीर मन अति हरषाना। श्रीरघुपति प्रताप उर आना ॥

पाछिल मोह समुझि पछिताना। ब्रह्म अनादि मनुज करि माना ॥ पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा। जानि राम सम प्रेम बढ़ावा ॥

गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई ॥ संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता ॥

तव सरूप गारुड़ि रघुनायक। मोहि जिआयउ जन सुखदायक ॥ तव प्रसाद मम मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना ॥

Doha / दोहा

दो. ताहि प्रसंसि बिबिध बिधि सीस नाइ कर जोरि । बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि ॥ ९३(क) ॥

प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि । कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि ॥ ९३(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

तुम्ह सर्बग्य तन्य तम पारा। सुमति सुसील सरल आचारा ॥ ग्यान बिरति बिग्यान निवासा। रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा ॥

कारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई ॥ राम चरित सर सुंदर स्वामी। पायहु कहाँ कहहु नभगामी ॥

नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं। महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं ॥ मुधा बचन नहिं ईस्वर कहई। सोउ मोरें मन संसय अहई ॥

अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा ॥ अंड कटाह अमित लय कारी। कालु सदा दुरतिक्रम भारी ॥

Sortha / सोरठा

सो. तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन । मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल ॥ ९४(क) ॥

Doha / दोहा

दो. प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग । कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग ॥ ९४(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा। बोलेउ उमा परम अनुरागा ॥ धन्य धन्य तव मति उरगारी। प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी ॥

सुनि तव प्रस्न सप्रेम सुहाई। बहुत जनम कै सुधि मोहि आई ॥ सब निज कथा कहउँ मैं गाई। तात सुनहु सादर मन लाई ॥

जप तप मख सम दम ब्रत दाना। बिरति बिबेक जोग बिग्याना ॥ सब कर फल रघुपति पद प्रेमा। तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा ॥

एहि तन राम भगति मैं पाई। ताते मोहि ममता अधिकाई ॥ जेहि तें कछु निज स्वारथ होई। तेहि पर ममता कर सब कोई ॥

Sortha / सोरठा

सो. पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं । अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित ॥ ९५(क) ॥

पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर । कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम ॥ ९५(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा। मन क्रम बचन राम पद नेहा ॥

सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा। जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा ॥ राम बिमुख लहि बिधि सम देही। कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही ॥

राम भगति एहिं तन उर जामी। ताते मोहि परम प्रिय स्वामी ॥ तजउँ न तन निज इच्छा मरना। तन बिनु बेद भजन नहिं बरना ॥

प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा। राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा ॥ नाना जनम कर्म पुनि नाना। किए जोग जप तप मख दाना ॥

कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीं। मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं ॥ देखेउँ करि सब करम गोसाई। सुखी न भयउँ अबहिं की नाई ॥

सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी। सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी ॥

Doha / दोहा

दो. प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस । सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस ॥ ९६(क) ॥

पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल ॥ नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल ॥ ९६(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

तेहि कलिजुग कोसलपुर जाई। जन्मत भयउँ सूद्र तनु पाई ॥ सिव सेवक मन क्रम अरु बानी। आन देव निंदक अभिमानी ॥

धन मद मत्त परम बाचाला। उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला ॥ जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी। तदपि न कछु महिमा तब जानी ॥

अब जाना मैं अवध प्रभावा। निगमागम पुरान अस गावा ॥ कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई। राम परायन सो परि होई ॥

अवध प्रभाव जान तब प्रानी। जब उर बसहिं रामु धनुपानी ॥ सो कलिकाल कठिन उरगारी। पाप परायन सब नर नारी ॥

Doha / दोहा

दो. कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ । दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ ॥ ९७(क) ॥

भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म । सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म ॥ ९७(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी ॥ द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन ॥

मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा ॥ मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहुँ संत कहइ सब कोई ॥

सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी ॥ जौ कह झूँठ मसखरी जाना। कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना ॥

निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी ॥ जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला ॥

Doha / दोहा

दो. असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं । तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं ॥ ९८(क) ॥

Sortha / सोरठा

सो. जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ । मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ ॥ ९८(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

नारि बिबस नर सकल गोसाई। नाचहिं नट मर्कट की नाई ॥ सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना ॥

सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी ॥ गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी ॥

सौभागिनीं बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिंगार नबीना ॥ गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा ॥

हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई ॥ मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं ॥

Doha / दोहा

दो. ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात । कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात ॥ ९९(क) ॥

बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि । जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि ॥ ९९(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

पर त्रिय लंपट कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने ॥ तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखा में चरित्र कलिजुग कर ॥

आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं ॥ कल्प कल्प भरि एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका ॥

जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा ॥ नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासी ॥

ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं ॥ बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी ॥

सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना ॥ सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा ॥

Doha / दोहा

दो. भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग । करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग ॥ १००(क) ॥

श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक । तेहि न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक ॥ १००(ख) ॥

Chanda / छन्द

छं. बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती ॥ तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही ॥

कुलवंति निकारहिं नारि सती। गृह आनिहिं चेरी निबेरि गती ॥ सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं ॥

ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपरूप कुटुंब भए तब तें ॥ नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं ॥

धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी ॥ नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो।

कबि बृंद उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोऽपि गुनी ॥ कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै ॥

Doha / दोहा

दो. सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड । मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड ॥ १०१(क) ॥

तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत मख दान । देव न बरषहिं धरनीं बए न जामहिं धान ॥ १०१(ख) ॥

Chanda / छन्द

छं. अबला कच भूषन भूरि छुधा। धनहीन दुखी ममता बहुधा ॥ सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता ॥ १ ॥

नर पीड़ित रोग न भोग कहीं। अभिमान बिरोध अकारनहीं ॥ लघु जीवन संबतु पंच दसा। कलपांत न नास गुमानु असा ॥ २ ॥

कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा । नहिं तोष बिचार न सीतलता। सब जाति कुजाति भए मगता ॥ ३ ॥

इरिषा परुषाच्छर लोलुपता। भरि पूरि रही समता बिगता ॥ सब लोग बियोग बिसोक हुए। बरनाश्रम धर्म अचार गए ॥ ४ ॥

दम दान दया नहिं जानपनी। जड़ता परबंचनताति घनी ॥ तनु पोषक नारि नरा सगरे। परनिंदक जे जग मो बगरे ॥ ५ ॥

Doha / दोहा

दो. सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार । गुनउँ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार ॥ १०२(क) ॥

कृतजुग त्रेता द्वापर पूजा मख अरु जोग । जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग ॥ १०२(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी ॥ त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं ॥

द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा ॥ कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा ॥

कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना ॥ सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि ॥

सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं ॥ कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा ॥

Doha / दोहा

दो. कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास । गाइ राम गुन गन बिमलँ भव तर बिनहिं प्रयास ॥ १०३(क) ॥

प्रगट चारि पद धर्म के कलिल महुँ एक प्रधान । जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान ॥ १०३(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

नित जुग धर्म होहिं सब केरे। हृदयँ राम माया के प्रेरे ॥ सुद्ध सत्व समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना ॥

सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा। सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा ॥ बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस ॥

तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा ॥ बुध जुग धर्म जानि मन माहीं। तजि अधर्म रति धर्म कराहीं ॥

काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही ॥ नट कृत बिकट कपट खगराया। नट सेवकहि न ब्यापइ माया ॥

Doha / दोहा

दो. हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं । भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं ॥ १०४(क) ॥

तेहि कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस । परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस ॥ १०४(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

गयउँ उजेनी सुनु उरगारी। दीन मलीन दरिद्र दुखारी ॥ गएँ काल कछु संपति पाई। तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई ॥

बिप्र एक बैदिक सिव पूजा। करइ सदा तेहि काजु न दूजा ॥ परम साधु परमारथ बिंदक। संभु उपासक नहिं हरि निंदक ॥

तेहि सेवउँ मैं कपट समेता। द्विज दयाल अति नीति निकेता ॥ बाहिज नम्र देखि मोहि साईं। बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाईं ॥

संभु मंत्र मोहि द्विजबर दीन्हा। सुभ उपदेस बिबिध बिधि कीन्हा ॥ जपउँ मंत्र सिव मंदिर जाई। हृदयँ दंभ अहमिति अधिकाई ॥

Doha / दोहा

दो. मैं खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह । हरि जन द्विज देखें जरउँ करउँ बिष्नु कर द्रोह ॥ १०५(क) ॥

Sortha / सोरठा

सो. गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम । मोहि उपजइ अति क्रोध दंभिहि नीति कि भावई ॥ १०५(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

एक बार गुर लीन्ह बोलाई। मोहि नीति बहु भाँति सिखाई ॥ सिव सेवा कर फल सुत सोई। अबिरल भगति राम पद होई ॥

रामहि भजहिं तात सिव धाता। नर पावँर कै केतिक बाता ॥ जासु चरन अज सिव अनुरागी। तातु द्रोहँ सुख चहसि अभागी ॥

हर कहुँ हरि सेवक गुर कहेऊ। सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ ॥ अधम जाति मैं बिद्या पाएँ। भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ ॥

मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती। गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती ॥ अति दयाल गुर स्वल्प न क्रोधा। पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा ॥

जेहि ते नीच बड़ाई पावा। सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा ॥ धूम अनल संभव सुनु भाई। तेहि बुझाव घन पदवी पाई ॥

रज मग परी निरादर रहई। सब कर पद प्रहार नित सहई ॥ मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई। पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई ॥

सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा। बुध नहिं करहिं अधम कर संगा ॥ कबि कोबिद गावहिं असि नीती। खल सन कलह न भल नहिं प्रीती ॥

उदासीन नित रहिअ गोसाईं। खल परिहरिअ स्वान की नाईं ॥ मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई। गुर हित कहइ न मोहि सोहाई ॥

Doha / दोहा

दो. एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम । गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम ॥ १०६(क) ॥

सो दयाल नहिं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस । अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस ॥ १०६(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

मंदिर माझ भई नभ बानी। रे हतभाग्य अग्य अभिमानी ॥ जद्यपि तव गुर कें नहिं क्रोधा। अति कृपाल चित सम्यक बोधा ॥

तदपि साप सठ दैहउँ तोही। नीति बिरोध सोहाइ न मोही ॥ जौं नहिं दंड करौं खल तोरा। भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा ॥

जे सठ गुर सन इरिषा करहीं। रौरव नरक कोटि जुग परहीं ॥ त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा। अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा ॥

बैठ रहेसि अजगर इव पापी। सर्प होहि खल मल मति ब्यापी ॥ महा बिटप कोटर महुँ जाई ॥ रहु अधमाधम अधगति पाई ॥

Doha / दोहा

दो. हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप ॥ कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप ॥ १०७(क) ॥

करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि । बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि ॥ १०७(ख) ॥

Chanda / छन्द

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विंभुं ब्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं।निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरींह। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं ॥

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं ॥ करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं ॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं ॥ स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा ॥

चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं ॥ मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं ॥ त्रयःशूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं ॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनान्ददाता पुरारी ॥ चिदानंदसंदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥

न यावद् उमानाथ पादारविन्दं। भजंतीह लोके परे वा नराणां ॥ न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं ॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं ॥ जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ॥

Shloka / श्लोक्

श्लोक-रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये । ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥ ९ ॥

Doha / दोहा

दो. -सुनि बिनती सर्बग्य सिव देखि ब्रिप्र अनुरागु । पुनि मंदिर नभबानी भइ द्विजबर बर मागु ॥ १०८(क) ॥

जौं प्रसन्न प्रभु मो पर नाथ दीन पर नेहु । निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु ॥ १०८(ख) ॥

तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान । तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपा सिंधु भगवान ॥ १०८(ग) ॥

संकर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल । साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल ॥ १०८(घ) ॥

Chaupai / चोपाई

एहि कर होइ परम कल्याना। सोइ करहु अब कृपानिधाना ॥ बिप्रगिरा सुनि परहित सानी। एवमस्तु इति भइ नभबानी ॥

जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा। मैं पुनि दीन्ह कोप करि सापा ॥ तदपि तुम्हार साधुता देखी। करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी ॥

छमासील जे पर उपकारी। ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी ॥ मोर श्राप द्विज ब्यर्थ न जाइहि। जन्म सहस अवस्य यह पाइहि ॥

जनमत मरत दुसह दुख होई। अहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई ॥ कवनेउँ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना। सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना ॥

रघुपति पुरीं जन्म तब भयऊ। पुनि तैं मम सेवाँ मन दयऊ ॥ पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें। राम भगति उपजिहि उर तोरें ॥

सुनु मम बचन सत्य अब भाई। हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई ॥ अब जनि करहि बिप्र अपमाना। जानेहु संत अनंत समाना ॥

इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला। कालदंड हरि चक्र कराला ॥ जो इन्ह कर मारा नहिं मरई। बिप्रद्रोह पावक सो जरई ॥

अस बिबेक राखेहु मन माहीं। तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥ औरउ एक आसिषा मोरी। अप्रतिहत गति होइहि तोरी ॥

Doha / दोहा

दो. सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि । मोहि प्रबोधि गयउ गृह संभु चरन उर राखि ॥ १०९(क) ॥

प्रेरित काल बिधि गिरि जाइ भयउँ मैं ब्याल । पुनि प्रयास बिनु सो तनु जजेउँ गएँ कछु काल ॥ १०९(ख) ॥

जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि अनायास हरिजान । जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ पुरान ॥ १०९(ग) ॥

सिवँ राखी श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस । एहि बिधि धरेउँ बिबिध तनु ग्यान न गयउ खगेस ॥ १०९(घ) ॥

Chaupai / चोपाई

त्रिजग देव नर जोइ तनु धरउँ। तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ ॥ एक सूल मोहि बिसर न काऊ। गुर कर कोमल सील सुभाऊ ॥

चरम देह द्विज कै मैं पाई। सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई ॥ खेलउँ तहूँ बालकन्ह मीला। करउँ सकल रघुनायक लीला ॥

प्रौढ़ भएँ मोहि पिता पढ़ावा। समझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा ॥ मन ते सकल बासना भागी। केवल राम चरन लय लागी ॥

कहु खगेस अस कवन अभागी। खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी ॥ प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई। हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई ॥

भए कालबस जब पितु माता। मैं बन गयउँ भजन जनत्राता ॥ जहँ जहँ बिपिन मुनीस्वर पावउँ। आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ ॥

बूझत तिन्हहि राम गुन गाहा। कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा ॥ सुनत फिरउँ हरि गुन अनुबादा। अब्याहत गति संभु प्रसादा ॥

छूटी त्रिबिध ईषना गाढ़ी। एक लालसा उर अति बाढ़ी ॥ राम चरन बारिज जब देखौं। तब निज जन्म सफल करि लेखौं ॥

जेहि पूँछउँ सोइ मुनि अस कहई। ईस्वर सर्ब भूतमय अहई ॥ निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई। सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई ॥

Doha / दोहा

दो. गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग । रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग ॥ ११०(क) ॥

मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन । देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन ॥ ११०(ख) ॥

सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज । मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज ॥ ११०(ग) ॥

तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान । सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान ॥ ११०(घ) ॥

Chaupai / चोपाई

तब मुनिष रघुपति गुन गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा ॥ ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानि। मोहि परम अधिकारी जानी ॥

लागे करन ब्रह्म उपदेसा। अज अद्वेत अगुन हृदयेसा ॥ अकल अनीह अनाम अरुपा। अनुभव गम्य अखंड अनूपा ॥

मन गोतीत अमल अबिनासी। निर्बिकार निरवधि सुख रासी ॥ सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहि बेदा ॥

बिबिध भाँति मोहि मुनि समुझावा। निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा ॥ पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा ॥

राम भगति जल मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना ॥ सोइ उपदेस कहहु करि दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया ॥

भरि लोचन बिलोकि अवधेसा। तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा ॥ मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा। खंडि सगुन मत अगुन निरूपा ॥

तब मैं निर्गुन मत कर दूरी। सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी ॥ उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा। मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा ॥

सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ। उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ ॥ अति संघरषन जौं कर कोई। अनल प्रगट चंदन ते होई ॥

Doha / दोहा

दो. -बारंबार सकोप मुनि करइ निरुपन ग्यान । मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिध अनुमान ॥ १११(क) ॥

क्रोध कि द्वेतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान । मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान ॥ १११(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

कबहुँ कि दुख सब कर हित ताकें। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें ॥ परद्रोही की होहिं निसंका। कामी पुनि कि रहहिं अकलंका ॥

बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें। कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हें ॥ काहू सुमति कि खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी ॥

भव कि परहिं परमात्मा बिंदक। सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिंदक ॥ राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें ॥

पावन जस कि पुन्य बिनु होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई ॥ लाभु कि किछु हरि भगति समाना। जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना ॥

हानि कि जग एहि सम किछु भाई। भजिअ न रामहि नर तनु पाई ॥ अघ कि पिसुनता सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना ॥

एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ। मुनि उपदेस न सादर सुनऊँ ॥ पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा ॥

मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि। उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि ॥ सत्य बचन बिस्वास न करही। बायस इव सबही ते डरही ॥

सठ स्वपच्छ तब हृदयँ बिसाला। सपदि होहि पच्छी चंडाला ॥ लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई। नहिं कछु भय न दीनता आई ॥

Doha / दोहा

दो. तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ । सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ ॥ ११२(क) ॥

उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध ॥ निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥ ११२(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन। उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन ॥ कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी। लीन्हि प्रेम परिच्छा मोरी ॥

मन बच क्रम मोहि निज जन जाना। मुनि मति पुनि फेरी भगवाना ॥ रिषि मम महत सीलता देखी। राम चरन बिस्वास बिसेषी ॥

अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई। सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई ॥ मम परितोष बिबिध बिधि कीन्हा। हरषित राममंत्र तब दीन्हा ॥

बालकरूप राम कर ध्याना। कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना ॥ सुंदर सुखद मिहि अति भावा। सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा ॥

मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा। रामचरितमानस तब भाषा ॥ सादर मोहि यह कथा सुनाई। पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई ॥

रामचरित सर गुप्त सुहावा। संभु प्रसाद तात मैं पावा ॥ तोहि निज भगत राम कर जानी। ताते मैं सब कहेउँ बखानी ॥

राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं। कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह पाहीं ॥ मुनि मोहि बिबिध भाँति समुझावा। मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा ॥

निज कर कमल परसि मम सीसा। हरषित आसिष दीन्ह मुनीसा ॥ राम भगति अबिरल उर तोरें। बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें ॥

Doha / दोहा

दो. -सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान । कामरूप इच्धामरन ग्यान बिराग निधान ॥ ११३(क) ॥

जेंहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत । ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत ॥ ११३(ख) ॥

Chaupai / चोपाई

काल कर्म गुन दोष सुभाऊ। कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिहि काऊ ॥ राम रहस्य ललित बिधि नाना। गुप्त प्रगट इतिहास पुराना ॥

बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ। नित नव नेह राम पद होऊ ॥ जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं ॥

सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा। ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा ॥ एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी। यह मम भगत कर्म मन बानी ॥

सुनि नभगिरा हरष मोहि भयऊ। प्रेम मगन सब संसय गयऊ ॥ करि बिनती मुनि आयसु पाई। पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई ॥

हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ। प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ ॥ इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा। बीते कलप सात अरु बीसा ॥

करउँ सदा रघुपति गुन गाना। सादर सुनहिं बिहंग सुजाना ॥ जब जब अवधपुरीं रघुबीरा। धरहिं भगत हित मनुज सरीरा ॥

तब तब जाइ राम पुर रहऊँ। सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ ॥ पुनि उर राखि राम सिसुरूपा। निज आश्रम आवउँ खगभूपा ॥

कथा सकल मैं तुम्हहि सुनाई। काग देह जेहिं कारन पाई ॥ कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी। राम भगति महिमा अति भारी ॥

Doha / दोहा

दो. ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह । निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह ॥ ११४(क) ॥

Masaparayana 29 Ends

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