ॐ श्री परमात्मने नमः
सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ । भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ ॥ कछु न परीछा लीन्हि गोसाई । कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाई ॥
जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई । मोरें मन प्रतीति अति सोई ॥ तब संकर देखेउ धरि ध्याना । सतीं जो कीन्ह चरित सब जाना ॥
बहुरि राममायहि सिरु नावा । प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा ॥ हरि इच्छा भावी बलवाना । हृदयँ बिचारत संभु सुजाना ॥
सतीं कीन्ह सीता कर बेषा । सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा ॥ जौं अब करउँ सती सन प्रीती । मिटइ भगति पथु होइ अनीती ॥
दो. परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु । प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु ॥ ५६ ॥
तब संकर प्रभु पद सिरु नावा । सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा ॥ एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं । सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं ॥
अस बिचारि संकरु मतिधीरा । चले भवन सुमिरत रघुबीरा ॥ चलत गगन भै गिरा सुहाई । जय महेस भलि भगति दृढ़ाई ॥
अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना । रामभगत समरथ भगवाना ॥ सुनि नभगिरा सती उर सोचा । पूछा सिवहि समेत सकोचा ॥
कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला । सत्यधाम प्रभु दीनदयाला ॥ जदपि सतीं पूछा बहु भाँती । तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती ॥
दो. सतीं हृदय अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य । कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य ॥ ५७क ॥
हृदयँ सोचु समुझत निज करनी । चिंता अमित जाइ नहि बरनी ॥ कृपासिंधु सिव परम अगाधा । प्रगट न कहेउ मोर अपराधा ॥
संकर रुख अवलोकि भवानी । प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी ॥ निज अघ समुझि न कछु कहि जाई । तपइ अवाँ इव उर अधिकाई ॥
सतिहि ससोच जानि बृषकेतू । कहीं कथा सुंदर सुख हेतू ॥ बरनत पंथ बिबिध इतिहासा । बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा ॥
तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन । बैठे बट तर करि कमलासन ॥ संकर सहज सरुप संहारा । लागि समाधि अखंड अपारा ॥
दो. सती बसहि कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं । मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं ॥ ५८ ॥
नित नव सोचु सतीं उर भारा । कब जैहउँ दुख सागर पारा ॥ मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना । पुनिपति बचनु मृषा करि जाना ॥
सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा । जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा ॥ अब बिधि अस बूझिअ नहि तोही । संकर बिमुख जिआवसि मोही ॥
कहि न जाई कछु हृदय गलानी । मन महुँ रामाहि सुमिर सयानी ॥ जौ प्रभु दीनदयालु कहावा । आरती हरन बेद जसु गावा ॥
तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी । छूटउ बेगि देह यह मोरी ॥ जौं मोरे सिव चरन सनेहू । मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू ॥
दो. तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ । होइ मरनु जेही बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ ॥ ५९ ॥
सो. जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि । बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि ॥ ५७ख ॥
एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी । अकथनीय दारुन दुखु भारी ॥ बीतें संबत सहस सतासी । तजी समाधि संभु अबिनासी ॥
राम नाम सिव सुमिरन लागे । जानेउ सतीं जगतपति जागे ॥ जाइ संभु पद बंदनु कीन्ही । सनमुख संकर आसनु दीन्हा ॥
लगे कहन हरिकथा रसाला । दच्छ प्रजेस भए तेहि काला ॥ देखा बिधि बिचारि सब लायक । दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक ॥
बड़ अधिकार दच्छ जब पावा । अति अभिमानु हृदयँ तब आवा ॥ नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं । प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ॥
दो. दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग । नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग ॥ ६० ॥
किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा । बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा ॥ बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई । चले सकल सुर जान बनाई ॥
सतीं बिलोके ब्योम बिमाना । जात चले सुंदर बिधि नाना ॥ सुर सुंदरी करहिं कल गाना । सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना ॥
पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी । पिता जग्य सुनि कछु हरषानी ॥ जौं महेसु मोहि आयसु देहीं । कुछ दिन जाइ रहौं मिस एहीं ॥
पति परित्याग हृदय दुखु भारी । कहइ न निज अपराध बिचारी ॥ बोली सती मनोहर बानी । भय संकोच प्रेम रस सानी ॥
दो. पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ । तौ मै जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ ॥ ६१ ॥
कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा । यह अनुचित नहिं नेवत पठावा ॥ दच्छ सकल निज सुता बोलाई । हमरें बयर तुम्हउ बिसराई ॥
ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना । तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना ॥ जौं बिनु बोलें जाहु भवानी । रहइ न सीलु सनेहु न कानी ॥
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा । जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा ॥ तदपि बिरोध मान जहँ कोई । तहाँ गएँ कल्यानु न होई ॥
भाँति अनेक संभु समुझावा । भावी बस न ग्यानु उर आवा ॥ कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ । नहिं भलि बात हमारे भाएँ ॥
दो. कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि । दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि ॥ ६२ ॥
पिता भवन जब गई भवानी । दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी ॥ सादर भलेहिं मिली एक माता । भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता ॥
दच्छ न कछु पूछी कुसलाता । सतिहि बिलोकि जरे सब गाता ॥ सतीं जाइ देखेउ तब जागा । कतहुँ न दीख संभु कर भागा ॥
तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ । प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ ॥ पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा । जस यह भयउ महा परितापा ॥
जद्यपि जग दारुन दुख नाना । सब तें कठिन जाति अवमाना ॥ समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा । बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा ॥
दो. सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध । सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध ॥ ६३ ॥
सुनहु सभासद सकल मुनिंदा । कही सुनी जिन्ह संकर निंदा ॥ सो फलु तुरत लहब सब काहूँ । भली भाँति पछिताब पिताहूँ ॥
संत संभु श्रीपति अपबादा । सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा ॥ काटिअ तासु जीभ जो बसाई । श्रवन मूदि न त चलिअ पराई ॥
जगदातमा महेसु पुरारी । जगत जनक सब के हितकारी ॥ पिता मंदमति निंदत तेही । दच्छ सुक्र संभव यह देही ॥
तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू । उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू ॥ अस कहि जोग अगिनि तनु जारा । भयउ सकल मख हाहाकारा ॥
दो. सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस । जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस ॥ ६४ ॥
समाचार सब संकर पाए । बीरभद्रु करि कोप पठाए ॥ जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा । सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा ॥
भे जगबिदित दच्छ गति सोई । जसि कछु संभु बिमुख कै होई ॥ यह इतिहास सकल जग जानी । ताते मैं संछेप बखानी ॥
सतीं मरत हरि सन बरु मागा । जनम जनम सिव पद अनुरागा ॥ तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई । जनमीं पारबती तनु पाई ॥
जब तें उमा सैल गृह जाईं । सकल सिद्धि संपति तहँ छाई ॥ जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे । उचित बास हिम भूधर दीन्हे ॥
दो. सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति । प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति ॥ ६५ ॥
सरिता सब पुनित जलु बहहीं । खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं ॥ सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा । गिरि पर सकल करहिं अनुरागा ॥
सोह सैल गिरिजा गृह आएँ । जिमि जनु रामभगति के पाएँ ॥ नित नूतन मंगल गृह तासू । ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू ॥
नारद समाचार सब पाए । कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए ॥ सैलराज बड़ आदर कीन्हा । पद पखारि बर आसनु दीन्हा ॥
नारि सहित मुनि पद सिरु नावा । चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा ॥ निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना । सुता बोलि मेली मुनि चरना ॥
दो. त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि ॥ कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि ॥ ६६ ॥
कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी । सुता तुम्हारि सकल गुन खानी ॥ सुंदर सहज सुसील सयानी । नाम उमा अंबिका भवानी ॥
सब लच्छन संपन्न कुमारी । होइहि संतत पियहि पिआरी ॥ सदा अचल एहि कर अहिवाता । एहि तें जसु पैहहिं पितु माता ॥
होइहि पूज्य सकल जग माहीं । एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं ॥ एहि कर नामु सुमिरि संसारा । त्रिय चढ़हहिँ पतिब्रत असिधारा ॥
सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी । सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी ॥ अगुन अमान मातु पितु हीना । उदासीन सब संसय छीना ॥
दो. जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष ॥ अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख ॥ ६७ ॥
सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी । दुख दंपतिहि उमा हरषानी ॥ नारदहुँ यह भेदु न जाना । दसा एक समुझब बिलगाना ॥
सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना । पुलक सरीर भरे जल नैना ॥ होइ न मृषा देवरिषि भाषा । उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा ॥
उपजेउ सिव पद कमल सनेहू । मिलन कठिन मन भा संदेहू ॥ जानि कुअवसरु प्रीति दुराई । सखी उछँग बैठी पुनि जाई ॥
झूठि न होइ देवरिषि बानी । सोचहि दंपति सखीं सयानी ॥ उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ । कहहु नाथ का करिअ उपाऊ ॥
दो. कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार । देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार ॥ ६८ ॥
तदपि एक मैं कहउँ उपाई । होइ करै जौं दैउ सहाई ॥ जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं । मिलहि उमहि तस संसय नाहीं ॥
जे जे बर के दोष बखाने । ते सब सिव पहि मैं अनुमाने ॥ जौं बिबाहु संकर सन होई । दोषउ गुन सम कह सबु कोई ॥
जौं अहि सेज सयन हरि करहीं । बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं ॥ भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं । तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं ॥
सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई । सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई ॥ समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाई । रबि पावक सुरसरि की नाई ॥
दो. जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ि बिबेक अभिमान । परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान ॥ ६९ ॥
सुरसरि जल कृत बारुनि जाना । कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना ॥ सुरसरि मिलें सो पावन जैसें । ईस अनीसहि अंतरु तैसें ॥
संभु सहज समरथ भगवाना । एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना ॥ दुराराध्य पै अहहिं महेसू । आसुतोष पुनि किएँ कलेसू ॥
जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी । भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी ॥ जद्यपि बर अनेक जग माहीं । एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं ॥
बर दायक प्रनतारति भंजन । कृपासिंधु सेवक मन रंजन ॥ इच्छित फल बिनु सिव अवराधे । लहिअ न कोटि जोग जप साधें ॥
दो. अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस । होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस ॥ ७० ॥
कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ । आगिल चरित सुनहु जस भयऊ ॥ पतिहि एकांत पाइ कह मैना । नाथ न मैं समुझे मुनि बैना ॥
जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा । करिअ बिबाहु सुता अनुरुपा ॥ न त कन्या बरु रहउ कुआरी । कंत उमा मम प्रानपिआरी ॥
जौं न मिलहि बरु गिरिजहि जोगू । गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू ॥ सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू । जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू ॥
अस कहि परि चरन धरि सीसा । बोले सहित सनेह गिरीसा ॥ बरु पावक प्रगटै ससि माहीं । नारद बचनु अन्यथा नाहीं ॥
दो. प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान । पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान ॥ ७१ ॥
अब जौ तुम्हहि सुता पर नेहू । तौ अस जाइ सिखावन देहू ॥ करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू । आन उपायँ न मिटहि कलेसू ॥
नारद बचन सगर्भ सहेतू । सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू ॥ अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका । सबहि भाँति संकरु अकलंका ॥
सुनि पति बचन हरषि मन माहीं । गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं ॥ उमहि बिलोकि नयन भरे बारी । सहित सनेह गोद बैठारी ॥
बारहिं बार लेति उर लाई । गदगद कंठ न कछु कहि जाई ॥ जगत मातु सर्बग्य भवानी । मातु सुखद बोलीं मृदु बानी ॥
दो. सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि । सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि ॥ ७२ ॥
करहि जाइ तपु सैलकुमारी । नारद कहा सो सत्य बिचारी ॥ मातु पितहि पुनि यह मत भावा । तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा ॥
तपबल रचइ प्रपंच बिधाता । तपबल बिष्नु सकल जग त्राता ॥ तपबल संभु करहिं संघारा । तपबल सेषु धरइ महिभारा ॥
तप अधार सब सृष्टि भवानी । करहि जाइ तपु अस जियँ जानी ॥ सुनत बचन बिसमित महतारी । सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी ॥
मातु पितुहि बहुबिधि समुझाई । चलीं उमा तप हित हरषाई ॥ प्रिय परिवार पिता अरु माता । भए बिकल मुख आव न बाता ॥
दो. बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ ॥ पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ ॥ ७३ ॥
उर धरि उमा प्रानपति चरना । जाइ बिपिन लागीं तपु करना ॥ अति सुकुमार न तनु तप जोगू । पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू ॥
नित नव चरन उपज अनुरागा । बिसरी देह तपहिं मनु लागा ॥ संबत सहस मूल फल खाए । सागु खाइ सत बरष गवाँए ॥
कछु दिन भोजनु बारि बतासा । किए कठिन कछु दिन उपबासा ॥ बेल पाती महि परइ सुखाई । तीनि सहस संबत सोई खाई ॥
पुनि परिहरे सुखानेउ परना । उमहि नाम तब भयउ अपरना ॥ देखि उमहि तप खीन सरीरा । ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा ॥
दो. भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिजाकुमारि । परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि ॥ ७४ ॥
अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी । भउ अनेक धीर मुनि ग्यानी ॥ अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी । सत्य सदा संतत सुचि जानी ॥
आवै पिता बोलावन जबहीं । हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं ॥ मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा । जानेहु तब प्रमान बागीसा ॥
सुनत गिरा बिधि गगन बखानी । पुलक गात गिरिजा हरषानी ॥ उमा चरित सुंदर मैं गावा । सुनहु संभु कर चरित सुहावा ॥
जब तें सती जाइ तनु त्यागा । तब सें सिव मन भयउ बिरागा ॥ जपहिं सदा रघुनायक नामा । जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा ॥
दो. चिदानन्द सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम । बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम ॥ ७५ ॥
कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना । कतहुँ राम गुन करहिं बखाना ॥ जदपि अकाम तदपि भगवाना । भगत बिरह दुख दुखित सुजाना ॥
एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती । नित नै होइ राम पद प्रीती ॥ नैमु प्रेमु संकर कर देखा । अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा ॥
प्रगटै रामु कृतग्य कृपाला । रूप सील निधि तेज बिसाला ॥ बहु प्रकार संकरहि सराहा । तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा ॥
बहुबिधि राम सिवहि समुझावा । पारबती कर जन्मु सुनावा ॥ अति पुनीत गिरिजा कै करनी । बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी ॥
दो. अब बिनती मम सुनेहु सिव जौं मो पर निज नेहु । जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु ॥ ७६ ॥
कह सिव जदपि उचित अस नाहीं । नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं ॥ सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा । परम धरमु यह नाथ हमारा ॥
मातु पिता गुर प्रभु कै बानी । बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी ॥ तुम्ह सब भाँति परम हितकारी । अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी ॥
प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना । भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना ॥ कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ । अब उर राखेहु जो हम कहेऊ ॥
अंतरधान भए अस भाषी । संकर सोइ मूरति उर राखी ॥ तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए । बोले प्रभु अति बचन सुहाए ॥
दो. पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु । गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु ॥ ७७ ॥
रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी । मूरतिमंत तपस्या जैसी ॥ बोले मुनि सुनु सैलकुमारी । करहु कवन कारन तपु भारी ॥
केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू । हम सन सत्य मरमु किन कहहू ॥ कहत बचत मनु अति सकुचाई । हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई ॥
मनु हठ परा न सुनइ सिखावा । चहत बारि पर भीति उठावा ॥ नारद कहा सत्य सोइ जाना । बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना ॥
देखहु मुनि अबिबेकु हमारा । चाहिअ सदा सिवहि भरतारा ॥
दो. सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तब देह । नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह ॥ ७८ ॥
दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई । तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई ॥ चित्रकेतु कर घरु उन घाला । कनककसिपु कर पुनि अस हाला ॥
नारद सिख जे सुनहिं नर नारी । अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी ॥ मन कपटी तन सज्जन चीन्हा । आपु सरिस सबही चह कीन्हा ॥
तेहि कें बचन मानि बिस्वासा । तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा ॥ निर्गुन निलज कुबेष कपाली । अकुल अगेह दिगंबर ब्याली ॥
कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ । भल भूलिहु ठग के बौराएँ ॥ पंच कहें सिवँ सती बिबाही । पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही ॥
दो. अब सुख सोवत सोचु नहि भीख मागि भव खाहिं । सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं ॥ ७९ ॥
अजहूँ मानहु कहा हमारा । हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा ॥ अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला । गावहिं बेद जासु जस लीला ॥
दूषन रहित सकल गुन रासी । श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी ॥ अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी । सुनत बिहसि कह बचन भवानी ॥
सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा । हठ न छूट छूटै बरु देहा ॥ कनकउ पुनि पषान तें होई । जारेहुँ सहजु न परिहर सोई ॥
नारद बचन न मैं परिहरऊँ । बसउ भवनु उजरउ नहिं डरऊँ ॥ गुर कें बचन प्रतीति न जेही । सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही ॥
दो. महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम । जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम ॥ ८० ॥
जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा । सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा ॥ अब मैं जन्मु संभु हित हारा । को गुन दूषन करै बिचारा ॥
जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी । रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी ॥ तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं । बर कन्या अनेक जग माहीं ॥
जन्म कोटि लगि रगर हमारी । बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी ॥ तजउँ न नारद कर उपदेसू । आपु कहहि सत बार महेसू ॥
मैं पा परउँ कहइ जगदंबा । तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा ॥ देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी । जय जय जगदंबिके भवानी ॥
दो. तुम्ह माया भगवान सिव सकल जगत पितु मातु । नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु ॥ ८१ ॥
जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए । करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए ॥ बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई । कथा उमा कै सकल सुनाई ॥
भए मगन सिव सुनत सनेहा । हरषि सप्तरिषि गवने गेहा ॥ मनु थिर करि तब संभु सुजाना । लगे करन रघुनायक ध्याना ॥
तारकु असुर भयउ तेहि काला । भुज प्रताप बल तेज बिसाला ॥ तेंहि सब लोक लोकपति जीते । भए देव सुख संपति रीते ॥
अजर अमर सो जीति न जाई । हारे सुर करि बिबिध लराई ॥ तब बिरंचि सन जाइ पुकारे । देखे बिधि सब देव दुखारे ॥
दो. सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ । संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ ॥ ८२ ॥
मोर कहा सुनि करहु उपाई । होइहि ईस्वर करिहि सहाई ॥ सतीं जो तजी दच्छ मख देहा । जनमी जाइ हिमाचल गेहा ॥
तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी । सिव समाधि बैठे सबु त्यागी ॥ जदपि अहइ असमंजस भारी । तदपि बात एक सुनहु हमारी ॥
पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं । करै छोभु संकर मन माहीं ॥ तब हम जाइ सिवहि सिर नाई । करवाउब बिबाहु बरिआई ॥
एहि बिधि भलेहि देवहित होई । मर अति नीक कहइ सबु कोई ॥ अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू । प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू ॥
दो. सुरन्ह कहीं निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार । संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार ॥ ८३ ॥
तदपि करब मैं काजु तुम्हारा । श्रुति कह परम धरम उपकारा ॥ पर हित लागि तजइ जो देही । संतत संत प्रसंसहिं तेही ॥
अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई । सुमन धनुष कर सहित सहाई ॥ चलत मार अस हृदयँ बिचारा । सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा ॥
तब आपन प्रभाउ बिस्तारा । निज बस कीन्ह सकल संसारा ॥ कोपेउ जबहि बारिचरकेतू । छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू ॥
ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना । धीरज धरम ग्यान बिग्याना ॥ सदाचार जप जोग बिरागा । सभय बिबेक कटकु सब भागा ॥
छं. भागेउ बिबेक सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे । सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे ॥ होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा । दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोऽपि कर धनु सरु धरा ॥
दो. जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम । ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम ॥ ८४ ॥
सब के हृदयँ मदन अभिलाषा । लता निहारि नवहिं तरु साखा ॥ नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाई । संगम करहिं तलाव तलाई ॥
जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी । को कहि सकइ सचेतन करनी ॥ पसु पच्छी नभ जल थलचारी । भए कामबस समय बिसारी ॥
मदन अंध ब्याकुल सब लोका । निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका ॥ देव दनुज नर किंनर ब्याला । प्रेत पिसाच भूत बेताला ॥
इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी । सदा काम के चेरे जानी ॥ सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी । तेपि कामबस भए बियोगी ॥
छं. भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै । देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे ॥ अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं । दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं ॥
सो. धरी न काहूँ धिर सबके मन मनसिज हरे । जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ ॥ ८५ ॥
उभय घरी अस कौतुक भयऊ । जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ ॥ सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू । भयउ जथाथिति सबु संसारू ॥
भए तुरत सब जीव सुखारे । जिमि मद उतरि गएँ मतवारे ॥ रुद्रहि देखि मदन भय माना । दुराधरष दुर्गम भगवाना ॥
फिरत लाज कछु करि नहिं जाई । मरनु ठानि मन रचेसि उपाई ॥ प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा । कुसुमित नव तरु राजि बिराजा ॥
बन उपबन बापिका तड़ागा । परम सुभग सब दिसा बिभागा ॥ जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा । देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा ॥
छं. जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही । सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही ॥ बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा । कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा ॥
दो. सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत । चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत ॥ ८६ ॥
देखि रसाल बिटप बर साखा । तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा ॥ सुमन चाप निज सर संधाने । अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने ॥
छाड़े बिषम बिसिख उर लागे । छुटि समाधि संभु तब जागे ॥ भयउ ईस मन छोभु बिसेषी । नयन उघारि सकल दिसि देखी ॥
सौरभ पल्लव मदनु बिलोका । भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका ॥ तब सिवँ तीसर नयन उघारा । चितवत कामु भयउ जरि छारा ॥
हाहाकार भयउ जग भारी । डरपे सुर भए असुर सुखारी ॥ समुझि कामसुखु सोचहिं भोगी । भए अकंटक साधक जोगी ॥
छं. जोगि अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई । रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई । अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही । प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही ॥
दो. अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु । बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु ॥ ८७ ॥
जब जदुबंस कृष्न अवतारा । होइहि हरन महा महिभारा ॥ कृष्न तनय होइहि पति तोरा । बचनु अन्यथा होइ न मोरा ॥
रति गवनी सुनि संकर बानी । कथा अपर अब कहउँ बखानी ॥ देवन्ह समाचार सब पाए । ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए ॥
सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता । गए जहाँ सिव कृपानिकेता ॥ पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा । भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा ॥
बोले कृपासिंधु बृषकेतू । कहहु अमर आए केहि हेतू ॥ कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी । तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी ॥
दो. सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु । निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु ॥ ८८ ॥
यह उत्सव देखिअ भरि लोचन । सोइ कछु करहु मदन मद मोचन । कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा । कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा ॥
सासति करि पुनि करहिं पसाऊ । नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ ॥ पारबतीं तपु कीन्ह अपारा । करहु तासु अब अंगीकारा ॥
सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी । ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी ॥ तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं । बरषि सुमन जय जय सुर साई ॥
अवसरु जानि सप्तरिषि आए । तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए ॥ प्रथम गए जहँ रही भवानी । बोले मधुर बचन छल सानी ॥
दो. कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस । अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस ॥ ८९ ॥
Masaparayana 3 Ends
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