ॐ श्री परमात्मने नमः
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप । मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप ॥ ११४(ख) ॥
जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं ॥ ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी ॥
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई ॥ ते सठ महासिंधु बिनु तरनी। पैरि पार चाहहिं जड़ करनी ॥
सुनि भसुंडि के बचन भवानी। बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी ॥ तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीं ॥
सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा। तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा ॥ एक बात प्रभु पूँछउँ तोही। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही ॥
कहहिं संत मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना ॥ सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं। नहिं आदरेहु भगति की नाईं ॥
ग्यानहि भगतिहि अंतर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता ॥ सुनि उरगारि बचन सुख माना। सादर बोलेउ काग सुजाना ॥
भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा ॥ नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर। सावधान सोउ सुनु बिहंगबर ॥
ग्यान बिराग जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना ॥ पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती ॥
दो. -पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर ॥ न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर ॥ ११५(क) ॥
सो. सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि । बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट ॥ ११५(ख) ॥
इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ। बेद पुरान संत मत भाषउँ ॥ मोह न नारि नारि कें रूपा। पन्नगारि यह रीति अनूपा ॥
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ। नारि बर्ग जानइ सब कोऊ ॥ पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी ॥
भगतिहि सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया ॥ राम भगति निरुपम निरुपाधी। बसइ जासु उर सदा अबाधी ॥
तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई ॥ अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी। जाचहीं भगति सकल सुख खानी ॥
दो. यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ । जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ ॥ ११६(क) ॥
औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन । जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन ॥ ११६(ख) ॥
सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी ॥ ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी ॥
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाई ॥ जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥
तब ते जीव भयउ संसारी। छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी ॥ श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई ॥
जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी ॥ अस संजोग ईस जब करई। तबहुँ कदाचित सो निरुअरई ॥
सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई ॥ जप तप ब्रत जम नियम अपारा। जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा ॥
तेइ तृन हरित चरै जब गाई। भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई ॥ नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा ॥
परम धर्ममय पय दुहि भाई। अवटै अनल अकाम बिहाई ॥ तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै। धृति सम जावनु देइ जमावै ॥
मुदिताँ मथैं बिचार मथानी। दम अधार रजु सत्य सुबानी ॥ तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता ॥
दो. जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ । बुद्धि सिरावैं ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ ॥ ११७(क) ॥
तब बिग्यानरूपिनि बुद्धि बिसद घृत पाइ । चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ ॥ ११७(ख) ॥
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि । तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि ॥ ११७(ग) ॥
सो. एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय ॥ जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब ॥ ११७(घ) ॥
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा ॥ आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा ॥
प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तम मिटइ अपारा ॥ तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा। उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा ॥
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई ॥ छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्न अनेक करइ तब माया ॥
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई ॥ कल बल छल करि जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा ॥
होइ बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी ॥ जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी ॥
इंद्रीं द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना ॥ आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देही कपाट उघारी ॥
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई ॥ ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा ॥
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई ॥ बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी ॥
दो. तब फिरि जीव बिबिध बिधि पावइ संसृति क्लेस । हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस ॥ ११८(क) ॥
कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन बिबेक । होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक ॥ ११८(ख) ॥
ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा ॥ जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई ॥
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद ॥ राम भजत सोइ मुकुति गोसाई। अनइच्छित आवइ बरिआई ॥
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई ॥ तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ॥
अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने ॥ भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा ॥
भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी ॥ असि हरिभगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई ॥
दो. सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि ॥ भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि ॥ ११९(क) ॥
जो चेतन कहँ ज़ड़ करइ ज़ड़हि करइ चैतन्य । अस समर्थ रघुनायकहिं भजहिं जीव ते धन्य ॥ ११९(ख) ॥
कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई। सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई ॥ राम भगति चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर ॥
परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती ॥ मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा ॥
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई ॥ खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं ॥
गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई ॥ ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस सब जीव दुखारी ॥
राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें ॥ चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं ॥
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई। राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई ॥ सुगम उपाय पाइबे केरे। नर हतभाग्य देहिं भटमेरे ॥
पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना ॥ मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी ॥
भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी ॥ मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा ॥
राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा ॥ सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई ॥
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा ॥
दो. ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं । कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं ॥ १२०(क) ॥
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि । जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि ॥ १२०(ख) ॥
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ ॥ नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न कहहु बखानी ॥
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा ॥ बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी ॥
संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु ॥ कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला ॥
मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई ॥ तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती ॥
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही ॥ नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी ॥
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर ॥ काँच किरिच बदलें ते लेही। कर ते डारि परस मनि देहीं ॥
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं ॥ पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया ॥
संत सहहिं दुख परहित लागी। परदुख हेतु असंत अभागी ॥ भूर्ज तरू सम संत कृपाला। परहित निति सह बिपति बिसाला ॥
सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई ॥ खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी ॥
पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं ॥ दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू ॥
संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी ॥ परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा ॥
हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्र पाव तन सोई ॥ द्विज निंदक बहु नरक भोगकरि। जग जनमइ बायस सरीर धरि ॥
सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी ॥ होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत ॥
सब के निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं ॥ सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा ॥
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला ॥ काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा ॥
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई ॥ बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना ॥
ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई ॥ पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई ॥
अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ ॥ तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी ॥
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका ॥
दो. एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि । पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि ॥ १२१(क) ॥
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान । भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान ॥ १२१(ख) ॥
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी ॥ मानक रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए ॥
जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी ॥ बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे ॥
राम कृपाँ नासहि सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संयोगा ॥ सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा ॥
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी ॥ एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं ॥
जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई। जब उर बल बिराग अधिकाई ॥ सुमति छुधा बाढ़इ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई ॥
बिमल ग्यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई ॥ सिव अज सुक सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद ॥
सब कर मत खगनायक एहा। करिअ राम पद पंकज नेहा ॥ श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं। रघुपति भगति बिना सुख नाहीं ॥
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बंध्या सुत बरु काहुहि मारा ॥ फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला ॥
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना। बरु जामहिं सस सीस बिषाना ॥ अंधकारु बरु रबिहि नसावै। राम बिमुख न जीव सुख पावै ॥
हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई ॥ दो०=बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
दो. बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल । बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल ॥ १२२(क) ॥
मसकहि करइ बिंरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन । अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन ॥ १२२(ख) ॥
श्लोक- विनिच्श्रितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे । हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते ॥ १२२(ग) ॥
कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा। ब्यास समास स्वमति अनुरुपा ॥ श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी ॥
प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही। मोहि से सठ पर ममता जाही ॥ तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा। नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा ॥
पूछिहुँ राम कथा अति पावनि। सुक सनकादि संभु मन भावनि ॥ सत संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा ॥
देखु गरुड़ निज हृदयँ बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी ॥ सकुनाधम सब भाँति अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन ॥
दो. आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन । निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन ॥ १२३(क) ॥
नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ । चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ ॥ १२३ ॥
सुमिरि राम के गुन गन नाना। पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना ॥ महिमा निगम नेति करि गाई। अतुलित बल प्रताप प्रभुताई ॥
सिव अज पूज्य चरन रघुराई। मो पर कृपा परम मृदुलाई ॥ अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ। केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ ॥
साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी ॥ जोगी सूर सुतापस ग्यानी। धर्म निरत पंडित बिग्यानी ॥
तरहिं न बिनु सीँ मम स्वामी। राम नमामि नमामि नमामी ॥ सरन गएँ मो से अघ रासी। होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी ॥
दो. जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल । सो कृपालु मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल ॥ १२४(क) ॥
सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह । बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत संदेह ॥ १२४(ख) ॥
मै कृत्कृत्य भयउँ तव बानी। सुनि रघुबीर भगति रस सानी ॥ राम चरन नूतन रति भई। माया जनित बिपति सब गई ॥
मोह जलधि बोहित तुम्ह भए। मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए ॥ मो पहिं होइ न प्रति उपकारा। बंदउँ तव पद बारहिं बारा ॥
पूरन काम राम अनुरागी। तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी ॥ संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी ॥
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना ॥ निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता ॥
जीवन जन्म सुफल मम भयऊ। तव प्रसाद संसय सब गयऊ ॥ जानेहु सदा मोहि निज किंकर। पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर ॥
दो. तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर । गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर ॥ १२५(क) ॥
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन । बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान ॥ १२५(ख) ॥
कहेउँ परम पुनीत इतिहासा। सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा ॥ प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा। उपजइ प्रीति राम पद कंजा ॥
मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई ॥ तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई ॥
नाना कर्म धर्म ब्रत दाना। संजम दम जप तप मख नाना ॥ भूत दया द्विज गुर सेवकाई। बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई ॥
जहँ लगि साधन बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी ॥ सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई। राम कृपाँ काहूँ एक पाई ॥
दो. मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास । जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास ॥ १२६ ॥
सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता। सोइ महि मंडित पंडित दाता ॥ धर्म परायन सोइ कुल त्राता। राम चरन जा कर मन राता ॥
नीति निपुन सोइ परम सयाना। श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना ॥ सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा ॥
धन्य देस सो जहँ सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी ॥ धन्य सो भूपु नीति जो करई। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई ॥
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी ॥ धन्य घरी सोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा ॥
दो. सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत । श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत ॥ १२७ ॥
मति अनुरूप कथा मैं भाषी। जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी ॥ तव मन प्रीति देखि अधिकाई। तब मैं रघुपति कथा सुनाई ॥
यह न कहिअ सठही हठसीलहि। जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि ॥ कहिअ न लोभिहि क्रोधहि कामिहि। जो न भजइ सचराचर स्वामिहि ॥
द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ। सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ ॥ राम कथा के तेइ अधिकारी। जिन्ह कें सतसंगति अति प्यारी ॥
गुर पद प्रीति नीति रत जेई। द्विज सेवक अधिकारी तेई ॥ ता कहँ यह बिसेष सुखदाई। जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई ॥
दो. राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान । भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान ॥ १२८ ॥
राम कथा गिरिजा मैं बरनी। कलि मल समनि मनोमल हरनी ॥ संसृति रोग सजीवन मूरी। राम कथा गावहिं श्रुति सूरी ॥
एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना। रघुपति भगति केर पंथाना ॥ अति हरि कृपा जाहि पर होई। पाउँ देइ एहिं मारग सोई ॥
मन कामना सिद्धि नर पावा। जे यह कथा कपट तजि गावा ॥ कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं ॥
सुनि सब कथा हृदयँ अति भाई। गिरिजा बोली गिरा सुहाई ॥ नाथ कृपाँ मम गत संदेहा। राम चरन उपजेउ नव नेहा ॥
दो. मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस । उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस ॥ १२९ ॥
यह सुभ संभु उमा संबादा। सुख संपादन समन बिषादा ॥ भव भंजन गंजन संदेहा। जन रंजन सज्जन प्रिय एहा ॥
राम उपासक जे जग माहीं। एहि सम प्रिय तिन्ह के कछु नाहीं ॥ रघुपति कृपाँ जथामति गावा। मैं यह पावन चरित सुहावा ॥
एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा ॥ रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि ॥
जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना ॥ ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई ॥
छं. पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना । गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना ॥
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे । कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥ १ ॥
रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं । कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं ॥
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै । दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्रीरघुबर हरै ॥ २ ॥
सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो । सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को ॥
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ । पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ ॥ ३ ॥
दो. मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर । अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ॥ १३०(क) ॥
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम । तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ॥ १३०(ख) ॥
श्लोक-यत्पूर्व प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्।
मत्वा तद्रघुनाथमनिरतं स्वान्तस्तमःशान्तये भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम् ॥ १ ॥
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ॥ २ ॥
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने सप्तमः सोपानः समाप्तः।
Masaparayana 30 Ends
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