ॐ श्री परमात्मने नमः
सो. सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल । कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड ॥ १२०(ख) ॥
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब । सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ ॥ १२०(ग) ॥
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित । मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु ॥ १२०(घ ॥
सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए । बिपुल बिसद निगमागम गाए ॥ हरि अवतार हेतु जेहि होई । इदमित्थं कहि जाइ न सोई ॥
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी । मत हमार अस सुनहि सयानी ॥ तदपि संत मुनि बेद पुराना । जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना ॥
तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही । समुझि परइ जस कारन मोही ॥ जब जब होइ धरम कै हानी । बाढहिं असुर अधम अभिमानी ॥
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी । सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी ॥ तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा । हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा ॥
दो. असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु । जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु ॥ १२१ ॥
सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं । कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं ॥ राम जनम के हेतु अनेका । परम बिचित्र एक तें एका ॥
जनम एक दुइ कहउँ बखानी । सावधान सुनु सुमति भवानी ॥ द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ । जय अरु बिजय जान सब कोऊ ॥
बिप्र श्राप तें दूनउ भाई । तामस असुर देह तिन्ह पाई ॥ कनककसिपु अरु हाटक लोचन । जगत बिदित सुरपति मद मोचन ॥
बिजई समर बीर बिख्याता । धरि बराह बपु एक निपाता ॥ होइ नरहरि दूसर पुनि मारा । जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा ॥
दो. भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान । कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान ॥ १२२ ।
मुकुत न भए हते भगवाना । तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना ॥ एक बार तिन्ह के हित लागी । धरेउ सरीर भगत अनुरागी ॥
कस्यप अदिति तहाँ पितु माता । दसरथ कौसल्या बिख्याता ॥ एक कलप एहि बिधि अवतारा । चरित्र पवित्र किए संसारा ॥
एक कलप सुर देखि दुखारे । समर जलंधर सन सब हारे ॥ संभु कीन्ह संग्राम अपारा । दनुज महाबल मरइ न मारा ॥
परम सती असुराधिप नारी । तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी ॥
दो. छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह ॥ जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह ॥ १२३ ॥
तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना । कौतुकनिधि कृपाल भगवाना ॥ तहाँ जलंधर रावन भयऊ । रन हति राम परम पद दयऊ ॥
एक जनम कर कारन एहा । जेहि लागि राम धरी नरदेहा ॥ प्रति अवतार कथा प्रभु केरी । सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी ॥
नारद श्राप दीन्ह एक बारा । कलप एक तेहि लगि अवतारा ॥ गिरिजा चकित भई सुनि बानी । नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि ॥
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा । का अपराध रमापति कीन्हा ॥ यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी । मुनि मन मोह आचरज भारी ॥
दो. बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ । जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ ॥ १२४(क) ॥
सो. कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु । भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद ॥ १२४(ख) ॥
हिमगिरि गुहा एक अति पावनि । बह समीप सुरसरी सुहावनि ॥ आश्रम परम पुनीत सुहावा । देखि देवरिषि मन अति भावा ॥
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा । भयउ रमापति पद अनुरागा ॥ सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी । सहज बिमल मन लागि समाधी ॥
मुनि गति देखि सुरेस डेराना । कामहि बोलि कीन्ह समाना ॥ सहित सहाय जाहु मम हेतू । चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू ॥
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा । चहत देवरिषि मम पुर बासा ॥ जे कामी लोलुप जग माहीं । कुटिल काक इव सबहि डेराहीं ॥
दो. सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज । छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज ॥ १२५ ॥
तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ । निज मायाँ बसंत निरमयऊ ॥ कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा । कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा ॥
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी । काम कृसानु बढ़ावनिहारी ॥ रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना ॥
करहिं गान बहु तान तरंगा । बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा ॥ देखि सहाय मदन हरषाना । कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना ॥
काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी । निज भयँ डरेउ मनोभव पापी ॥ सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु । बड़ रखवार रमापति जासू ॥
दो. सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन । गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन ॥ १२६ ॥
भयउ न नारद मन कछु रोषा । कहि प्रिय बचन काम परितोषा ॥ नाइ चरन सिरु आयसु पाई । गयउ मदन तब सहित सहाई ॥
मुनि सुसीलता आपनि करनी । सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी ॥ सुनि सब कें मन अचरजु आवा । मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा ॥
तब नारद गवने सिव पाहीं । जिता काम अहमिति मन माहीं ॥ मार चरित संकरहिं सुनाए । अतिप्रिय जानि महेस सिखाए ॥
बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं । जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं ॥ तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ । चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ ॥
दो. संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान । भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान ॥ १२७ ॥
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई । करै अन्यथा अस नहिं कोई ॥ संभु बचन मुनि मन नहिं भाए । तब बिरंचि के लोक सिधाए ॥
एक बार करतल बर बीना । गावत हरि गुन गान प्रबीना ॥ छीरसिंधु गवने मुनिनाथा । जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा ॥
हरषि मिले उठि रमानिकेता । बैठे आसन रिषिहि समेता ॥ बोले बिहसि चराचर राया । बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया ॥
काम चरित नारद सब भाषे । जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे ॥ अति प्रचंड रघुपति कै माया । जेहि न मोह अस को जग जाया ॥
दो. रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान । तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान ॥ १२८ ॥
सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें । ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके ॥ ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा । तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा ॥
नारद कहेउ सहित अभिमाना । कृपा तुम्हारि सकल भगवाना ॥ करुनानिधि मन दीख बिचारी । उर अंकुरेउ गरब तरु भारी ॥
बेगि सो मै डारिहउँ उखारी । पन हमार सेवक हितकारी ॥ मुनि कर हित मम कौतुक होई । अवसि उपाय करबि मै सोई ॥
तब नारद हरि पद सिर नाई । चले हृदयँ अहमिति अधिकाई ॥ श्रीपति निज माया तब प्रेरी । सुनहु कठिन करनी तेहि केरी ॥
दो. बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार । श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार ॥ १२९ ॥
बसहिं नगर सुंदर नर नारी । जनु बहु मनसिज रति तनुधारी ॥ तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा । अगनित हय गय सेन समाजा ॥
सत सुरेस सम बिभव बिलासा । रूप तेज बल नीति निवासा ॥ बिस्वमोहनी तासु कुमारी । श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी ॥
सोइ हरिमाया सब गुन खानी । सोभा तासु कि जाइ बखानी ॥ करइ स्वयंबर सो नृपबाला । आए तहँ अगनित महिपाला ॥
मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ । पुरबासिंह सब पूछत भयऊ ॥ सुनि सब चरित भूपगृहँ आए । करि पूजा नृप मुनि बैठाए ॥
दो. आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि । कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि ॥ १३० ॥
देखि रूप मुनि बिरति बिसारी । बड़ी बार लगि रहे निहारी ॥ लच्छन तासु बिलोकि भुलाने । हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने ॥
जो एहि बरइ अमर सोइ होई । समरभूमि तेहि जीत न कोई ॥ सेवहिं सकल चराचर ताही । बरइ सीलनिधि कन्या जाही ॥
लच्छन सब बिचारि उर राखे । कछुक बनाइ भूप सन भाषे ॥ सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं । नारद चले सोच मन माहीं ॥
करौं जाइ सोइ जतन बिचारी । जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी ॥ जप तप कछु न होइ तेहि काला । हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला ॥
दो. एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल । जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल ॥ १३१ ॥
हरि सन मागौं सुंदरताई । होइहि जात गहरु अति भाई ॥ मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ । एहि अवसर सहाय सोइ होऊ ॥
बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला । प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला ॥ प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने । होइहि काजु हिएँ हरषाने ॥
अति आरति कहि कथा सुनाई । करहु कृपा करि होहु सहाई ॥ आपन रूप देहु प्रभु मोही । आन भाँति नहिं पावौं ओही ॥
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा । करहु सो बेगि दास मैं तोरा ॥ निज माया बल देखि बिसाला । हियँ हँसि बोले दीनदयाला ॥
दो. जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार । सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार ॥ १३२ ॥
कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी । बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी ॥ एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ । कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ ॥
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा । समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा ॥ गवने तुरत तहाँ रिषिराई । जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई ॥
निज निज आसन बैठे राजा । बहु बनाव करि सहित समाजा ॥ मुनि मन हरष रूप अति मोरें । मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें ॥
मुनि हित कारन कृपानिधाना । दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना ॥ सो चरित्र लखि काहुँ न पावा । नारद जानि सबहिं सिर नावा ॥
दो. रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ । बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ ॥ १३३ ॥
जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई । हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई ॥ तहँ बैठ महेस गन दोऊ । बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ ॥
करहिं कूटि नारदहि सुनाई । नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई ॥ रीझहि राजकुअँरि छबि देखी । इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी ॥
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ । हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ ॥ जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी । समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी ॥
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा । सो सरूप नृपकन्याँ देखा ॥ मर्कट बदन भयंकर देही । देखत हृदयँ क्रोध भा तेही ॥
दो. सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल । देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल ॥ १३४ ॥
जेहि दिसि बैठे नारद फूली । सो दिसि देहि न बिलोकी भूली ॥ पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं । देखि दसा हर गन मुसकाहीं ॥
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला । कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला ॥ दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा । नृपसमाज सब भयउ निरासा ॥
मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी । मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी ॥ तब हर गन बोले मुसुकाई । निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई ॥
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी । बदन दीख मुनि बारि निहारी ॥ बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा । तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा ॥
दो. होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ । हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ ॥ १३५ ॥
पुनि जल दीख रूप निज पावा । तदपि हृदयँ संतोष न आवा ॥ फरकत अधर कोप मन माहीं । सपदी चले कमलापति पाहीं ॥
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई । जगत मोर उपहास कराई ॥ बीचहिं पंथ मिले दनुजारी । संग रमा सोइ राजकुमारी ॥
बोले मधुर बचन सुरसाईं । मुनि कहँ चले बिकल की नाईं ॥ सुनत बचन उपजा अति क्रोधा । माया बस न रहा मन बोधा ॥
पर संपदा सकहु नहिं देखी । तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी ॥ मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु । सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु ॥
दो. असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु । स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु ॥ १३६ ॥
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई । भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई ॥ भलेहि मंद मंदेहि भल करहू । बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू ॥
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू । अति असंक मन सदा उछाहू ॥ करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा । अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा ॥
भले भवन अब बायन दीन्हा । पावहुगे फल आपन कीन्हा ॥ बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा । सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा ॥
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी । करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी ॥ मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी । नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी ॥
दो. श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि । निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि ॥ १३७ ॥
जब हरि माया दूरि निवारी । नहिं तहँ रमा न राजकुमारी ॥ तब मुनि अति सभीत हरि चरना । गहे पाहि प्रनतारति हरना ॥
मृषा होउ मम श्राप कृपाला । मम इच्छा कह दीनदयाला ॥ मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे । कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे ॥
जपहु जाइ संकर सत नामा । होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा ॥ कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें । असि परतीति तजहु जनि भोरें ॥
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी । सो न पाव मुनि भगति हमारी ॥ अस उर धरि महि बिचरहु जाई । अब न तुम्हहि माया निअराई ॥
दो. बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान ॥ सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान ॥ १३८ ॥
हर गन मुनिहि जात पथ देखी । बिगतमोह मन हरष बिसेषी ॥ अति सभीत नारद पहिं आए । गहि पद आरत बचन सुनाए ॥
हर गन हम न बिप्र मुनिराया । बड़ अपराध कीन्ह फल पाया ॥ श्राप अनुग्रह करहु कृपाला । बोले नारद दीनदयाला ॥
निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ । बैभव बिपुल तेज बल होऊ ॥ भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ । धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ ।
समर मरन हरि हाथ तुम्हारा । होइहहु मुकुत न पुनि संसारा ॥ चले जुगल मुनि पद सिर नाई । भए निसाचर कालहि पाई ॥
दो. एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार । सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार ॥ १३९ ॥
एहि बिधि जनम करम हरि केरे । सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे ॥ कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं । चारु चरित नानाबिधि करहीं ॥
तब तब कथा मुनीसन्ह गाई । परम पुनीत प्रबंध बनाई ॥ बिबिध प्रसंग अनूप बखाने । करहिं न सुनि आचरजु सयाने ॥
हरि अनंत हरिकथा अनंता । कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता ॥ रामचंद्र के चरित सुहाए । कलप कोटि लगि जाहिं न गाए ॥
यह प्रसंग मैं कहा भवानी । हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी ॥ प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी ॥ सेवत सुलभ सकल दुख हारी ॥
सो. सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल ॥ अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि ॥ १४० ॥
अपर हेतु सुनु सैलकुमारी । कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी ॥ जेहि कारन अज अगुन अरूपा । ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा ॥
जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा । बंधु समेत धरें मुनिबेषा ॥ जासु चरित अवलोकि भवानी । सती सरीर रहिहु बौरानी ॥
अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी । तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी ॥ लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा । सो सब कहिहउँ मति अनुसारा ॥
भरद्वाज सुनि संकर बानी । सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी ॥ लगे बहुरि बरने बृषकेतू । सो अवतार भयउ जेहि हेतू ॥
दो. सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई ॥ राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ ॥ १४१ ॥
स्वायंभू मनु अरु सतरूपा । जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा ॥ दंपति धरम आचरन नीका । अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका ॥
नृप उत्तानपाद सुत तासू । ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू ॥ लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही । बेद पुरान प्रसंसहि जाही ॥
देवहूति पुनि तासु कुमारी । जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी ॥ आदिदेव प्रभु दीनदयाला । जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला ॥
सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना । तत्त्व बिचार निपुन भगवाना ॥ तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला । प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला ॥
सो. होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन । हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु ॥ १४२ ॥
बरबस राज सुतहि तब दीन्हा । नारि समेत गवन बन कीन्हा ॥ तीरथ बर नैमिष बिख्याता । अति पुनीत साधक सिधि दाता ॥
बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा । तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा ॥ पंथ जात सोहहिं मतिधीरा । ग्यान भगति जनु धरें सरीरा ॥
पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा । हरषि नहाने निरमल नीरा ॥ आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी । धरम धुरंधर नृपरिषि जानी ॥
जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए । मुनिन्ह सकल सादर करवाए ॥ कृस सरीर मुनिपट परिधाना । सत समाज नित सुनहिं पुराना ।
दो. द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग । बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग ॥ १४३ ॥
करहिं अहार साक फल कंदा । सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा ॥ पुनि हरि हेतु करन तप लागे । बारि अधार मूल फल त्यागे ॥
उर अभिलाष निंरंतर होई । देखा नयन परम प्रभु सोई ॥ अगुन अखंड अनंत अनादी । जेहि चिंतहिं परमारथबादी ॥
नेति नेति जेहि बेद निरूपा । निजानंद निरुपाधि अनूपा ॥ संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना । उपजहिं जासु अंस तें नाना ॥
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई । भगत हेतु लीलातनु गहई ॥ जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा । तौ हमार पूजहि अभिलाषा ॥
दो. एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार । संबत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार ॥ १४४ ॥
बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ । ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥ बिधि हरि तप देखि अपारा । मनु समीप आए बहु बारा ॥
मागहु बर बहु भाँति लोभाए । परम धीर नहिं चलहिं चलाए ॥ अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा । तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा ॥
प्रभु सर्बग्य दास निज जानी । गति अनन्य तापस नृप रानी ॥ मागु मागु बरु भै नभ बानी । परम गभीर कृपामृत सानी ॥
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई । श्रबन रंध्र होइ उर जब आई ॥ ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए । मानहुँ अबहिं भवन ते आए ॥
दो. श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात । बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात ॥ १४५ ॥
सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु । बिधि हरि हर बंदित पद रेनू ॥ सेवत सुलभ सकल सुख दायक । प्रनतपाल सचराचर नायक ॥
जौं अनाथ हित हम पर नेहू । तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू ॥ जो सरूप बस सिव मन माहीं । जेहि कारन मुनि जतन कराहीं ॥
जो भुसुंडि मन मानस हंसा । सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा ॥ देखहिं हम सो रूप भरि लोचन । कृपा करहु प्रनतारति मोचन ॥
दंपति बचन परम प्रिय लागे । मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे ॥ भगत बछल प्रभु कृपानिधाना । बिस्वबास प्रगटे भगवाना ॥
दो. नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम । लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥ १४६ ॥
सरद मयंक बदन छबि सींवा । चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा ॥ अधर अरुन रद सुंदर नासा । बिधु कर निकर बिनिंदक हासा ॥
नव अबुंज अंबक छबि नीकी । चितवनि ललित भावँती जी की ॥ भुकुटि मनोज चाप छबि हारी । तिलक ललाट पटल दुतिकारी ॥
कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा । कुटिल केस जनु मधुप समाजा ॥ उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला । पदिक हार भूषन मनिजाला ॥
केहरि कंधर चारु जनेउ । बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ ॥ करि कर सरि सुभग भुजदंडा । कटि निषंग कर सर कोदंडा ॥
दो. तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि ॥ नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि ॥ १४७ ॥
पद राजीव बरनि नहि जाहीं । मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं ॥ बाम भाग सोभति अनुकूला । आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला ॥
जासु अंस उपजहिं गुनखानी । अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ॥ भृकुटि बिलास जासु जग होई । राम बाम दिसि सीता सोई ॥
छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी । एकटक रहे नयन पट रोकी ॥ चितवहिं सादर रूप अनूपा । तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा ॥
हरष बिबस तन दसा भुलानी । परे दंड इव गहि पद पानी ॥ सिर परसे प्रभु निज कर कंजा । तुरत उठाए करुनापुंजा ॥
दो. बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि । मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि ॥ १४८ ॥
सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी । धरि धीरजु बोली मृदु बानी ॥ नाथ देखि पद कमल तुम्हारे । अब पूरे सब काम हमारे ॥
एक लालसा बड़ि उर माही । सुगम अगम कहि जात सो नाहीं ॥ तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं । अगम लाग मोहि निज कृपनाईं ॥
जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई । बहु संपति मागत सकुचाई ॥ तासु प्रभा जान नहिं सोई । तथा हृदयँ मम संसय होई ॥
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी । पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी ॥ सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि । मोरें नहिं अदेय कछु तोही ॥
दो. दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ ॥ चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ ॥ १४९ ॥
देखि प्रीति सुनि बचन अमोले । एवमस्तु करुनानिधि बोले ॥ आपु सरिस खोजौं कहँ जाई । नृप तव तनय होब मैं आई ॥
सतरूपहि बिलोकि कर जोरें । देबि मागु बरु जो रुचि तोरे ॥ जो बरु नाथ चतुर नृप मागा । सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा ॥
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई । जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई ॥ तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी । ब्रह्म सकल उर अंतरजामी ॥
अस समुझत मन संसय होई । कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई ॥ जे निज भगत नाथ तव अहहीं । जो सुख पावहिं जो गति लहहीं ॥
दो. सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु ॥ सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु ॥ १५० ॥
सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना । कृपासिंधु बोले मृदु बचना ॥ जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं । मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं ॥
मातु बिबेक अलोकिक तोरें । कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें । बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी । अवर एक बिनति प्रभु मोरी ॥
सुत बिषइक तव पद रति होऊ । मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ ॥ मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना । मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना ॥
अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ । एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ ॥ अब तुम्ह मम अनुसासन मानी । बसहु जाइ सुरपति रजधानी ॥
सो. तहँ करि भोग बिसाल तात गउँ कछु काल पुनि । होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत ॥ १५१ ॥
इच्छामय नरबेष सँवारें । होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे ॥ अंसन्ह सहित देह धरि ताता । करिहउँ चरित भगत सुखदाता ॥
जे सुनि सादर नर बड़भागी । भव तरिहहिं ममता मद त्यागी ॥ आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया । सोउ अवतरिहि मोरि यह माया ॥
पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा । सत्य सत्य पन सत्य हमारा ॥ पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना । अंतरधान भए भगवाना ॥
दंपति उर धरि भगत कृपाला । तेहिं आश्रम निवसे कछु काला ॥ समय पाइ तनु तजि अनयासा । जाइ कीन्ह अमरावति बासा ॥
दो. यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु । भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु ॥ १५२ ॥
Masaparayana 5 Ends
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