Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      बाढ़े खल बहु चोर जुआरा ।  जे लंपट परधन परदारा ॥ मानहिं मातु पिता नहिं देवा ।  साधुन्ह सन करवावहिं सेवा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      जिन्ह के यह आचरन भवानी ।  ते जानेहु निसिचर सब प्रानी ॥ अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी ।  परम सभीत धरा अकुलानी ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही ।  जस मोहि गरुअ एक परद्रोही ॥ सकल धर्म देखइ बिपरीता ।  कहि न सकइ रावन भय भीता ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी ।  गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी ॥ निज संताप सुनाएसि रोई ।  काहू तें कछु काज न होई ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chanda / छन्द
            
            
                
                  
                    
                       छं.  सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका ।   सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका ॥ ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई ।   जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Sortha/ सोरठा
            
            
                
                  
                    
                       सो.  धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु ।   जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति ॥ १८४ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      बैठे सुर सब करहिं बिचारा ।  कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा ॥ पुर बैकुंठ जान कह कोई ।  कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति ।  प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती ॥ तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ ।  अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      हरि ब्यापक सर्बत्र समाना ।  प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना ॥ देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं ।  कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      अग जगमय सब रहित बिरागी ।  प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी ॥ मोर बचन सब के मन माना ।  साधु साधु करि ब्रह्म बखाना ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर ।   अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर ॥ १८५ ॥  
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Chanda / छन्द
            
            
                
                  
                    
                       छं.  जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता ।   गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता ॥       पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई ।   जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                            जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा ।   अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा ॥       जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा ।   निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                            जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा ।   सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा ॥       जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा ।   मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                            सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना ।   जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना ॥       भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा ।   मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह ।   गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह ॥ १८६ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा ।  तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा ॥ अंसन्ह सहित मनुज अवतारा ।  लेहउँ दिनकर बंस उदारा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      कस्यप अदिति महातप कीन्हा ।  तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा ॥ ते दसरथ कौसल्या रूपा ।  कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई ।  रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई ॥ नारद बचन सत्य सब करिहउँ ।  परम सक्ति समेत अवतरिहउँ ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      हरिहउँ सकल भूमि गरुआई ।  निर्भय होहु देव समुदाई ॥ गगन ब्रह्मबानी सुनी काना ।  तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा ।  अभय भई भरोस जियँ आवा ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ ।   बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ ॥ १८७ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      गए देव सब निज निज धामा ।  भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा  । जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा ।  हरषे देव बिलंब न कीन्हा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      बनचर देह धरि छिति माहीं ।  अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं ॥ गिरि तरु नख आयुध सब बीरा ।  हरि मारग चितवहिं मतिधीरा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी ।  रहे निज निज अनीक रचि रूरी ॥ यह सब रुचिर चरित मैं भाषा ।  अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ ।  बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ ॥ धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी ।  हृदयँ भगति मति सारँगपानी ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत ।   पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत ॥ १८८ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      एक बार भूपति मन माहीं ।  भै गलानि मोरें सुत नाहीं ॥ गुर गृह गयउ तुरत महिपाला ।  चरन लागि करि बिनय बिसाला ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ ।  कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ ॥ धरहु धीर होइहहिं सुत चारी ।  त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा ।  पुत्रकाम सुभ जग्य करावा ॥ भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें ।  प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा ।  सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा ॥ यह हबि बाँटि देहु नृप जाई ।  जथा जोग जेहि भाग बनाई ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ ॥ परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ ॥ १८९ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं ।  कौसल्यादि तहाँ चलि आई ॥ अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा ।  उभय भाग आधे कर कीन्हा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      कैकेई कहँ नृप सो दयऊ ।  रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ ॥ कौसल्या कैकेई हाथ धरि ।  दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      एहि बिधि गर्भसहित सब नारी ।  भईं हृदयँ हरषित सुख भारी ॥ जा दिन तें हरि गर्भहिं आए ।  सकल लोक सुख संपति छाए ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      मंदिर महँ सब राजहिं रानी ।  सोभा सील तेज की खानीं ॥ सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ ।  जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल ।   चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल ॥ १९० ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      नौमी तिथि मधु मास पुनीता ।  सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता ॥ मध्यदिवस अति सीत न घामा ।  पावन काल लोक बिश्रामा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      सीतल मंद सुरभि बह बाऊ ।  हरषित सुर संतन मन चाऊ ॥ बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा ।  स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      सो अवसर बिरंचि जब जाना ।  चले सकल सुर साजि बिमाना ॥ गगन बिमल सकुल सुर जूथा ।  गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी ।  गहगहि गगन दुंदुभी बाजी ॥ अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा ।  बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम ।   जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम ॥ १९१ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Chanda / छन्द
            
            
                
                  
                    
                       छं.  भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी ।   हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ॥       लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी ।   भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                            कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता ।   माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ॥       करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता ।   सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                            ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै ।   मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै ॥       उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै ।   कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                            माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा ।   कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ॥       सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा ।   यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                        दो.  बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार ।   निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ॥ १९२ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी ।  संभ्रम चलि आई सब रानी ॥ हरषित जहँ तहँ धाईं दासी ।  आनँद मगन सकल पुरबासी ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना ।  मानहुँ ब्रह्मानंद समाना ॥ परम प्रेम मन पुलक सरीरा ।  चाहत उठत करत मति धीरा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      जाकर नाम सुनत सुभ होई ।  मोरें गृह आवा प्रभु सोई ॥ परमानंद पूरि मन राजा ।  कहा बोलाइ बजावहु बाजा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा ।  आए द्विजन सहित नृपद्वारा ॥ अनुपम बालक देखेन्हि जाई ।  रूप रासि गुन कहि न सिराई ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह ।   हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह ॥ १९३ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      ध्वज पताक तोरन पुर छावा ।  कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा ॥ सुमनबृष्टि अकास तें होई ।  ब्रह्मानंद मगन सब लोई ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाई ।  सहज संगार किएँ उठि धाई ॥  कनक कलस मंगल धरि थारा ।  गावत पैठहिं भूप दुआरा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      करि आरति नेवछावरि करहीं ।  बार बार सिसु चरनन्हि परहीं ॥ मागध सूत बंदिगन गायक ।  पावन गुन गावहिं रघुनायक ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      सर्बस दान दीन्ह सब काहू ।  जेहिं पावा राखा नहिं ताहू ॥ मृगमद चंदन कुंकुम कीचा ।  मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद ।   हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद ॥ १९४ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      कैकयसुता सुमित्रा दोऊ ।  सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ ॥ वह सुख संपति समय समाजा ।  कहि न सकइ सारद अहिराजा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      अवधपुरी सोहइ एहि भाँती ।  प्रभुहि मिलन आई जनु राती ॥ देखि भानू जनु मन सकुचानी ।  तदपि बनी संध्या अनुमानी ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      अगर धूप बहु जनु अँधिआरी ।  उड़इ अभीर मनहुँ अरुनारी ॥ मंदिर मनि समूह जनु तारा ।  नृप गृह कलस सो इंदु उदारा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      भवन बेदधुनि अति मृदु बानी ।  जनु खग मूखर समयँ जनु सानी ॥ कौतुक देखि पतंग भुलाना ।  एक मास तेइँ जात न जाना ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ ।    रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ ॥ १९५ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      यह रहस्य काहू नहिं जाना ।  दिन मनि चले करत गुनगाना ॥ देखि महोत्सव सुर मुनि नागा ।  चले भवन बरनत निज भागा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      औरउ एक कहउँ निज चोरी ।  सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी ॥ काक भुसुंडि संग हम दोऊ ।  मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      परमानंद प्रेमसुख फूले ।  बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले ॥ यह सुभ चरित जान पै सोई ।  कृपा राम कै जापर होई ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा ।  दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा ॥ गज रथ तुरग हेम गो हीरा ।  दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहि असीस ।   सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस ॥ १९६ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      कछुक दिवस बीते एहि भाँती ।  जात न जानिअ दिन अरु राती ॥ नामकरन कर अवसरु जानी ।  भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      करि पूजा भूपति अस भाषा ।  धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा ॥ इन्ह के नाम अनेक अनूपा ।  मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      जो आनंद सिंधु सुखरासी ।  सीकर तें त्रैलोक सुपासी ॥ सो सुख धाम राम अस नामा ।  अखिल लोक दायक बिश्रामा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      बिस्व भरन पोषन कर जोई ।  ताकर नाम भरत अस होई ॥ जाके सुमिरन तें रिपु नासा ।  नाम सत्रुहन बेद प्रकासा ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार ।   गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार ॥ १९७ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी ।  बेद तत्त्व नृप तव सुत चारी ॥ मुनि धन जन सरबस सिव प्राना ।  बाल केलि तेहिं सुख माना ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      बारेहि ते निज हित पति जानी ।  लछिमन राम चरन रति मानी ॥ भरत सत्रुहन दूनउ भाई ।  प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी ।  निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी ॥ चारिउ सील रूप गुन धामा ।  तदपि अधिक सुखसागर रामा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा ।  सूचत किरन मनोहर हासा ॥ कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना ।  मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद ।   सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद ॥ १९८ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      काम कोटि छबि स्याम सरीरा ।  नील कंज बारिद गंभीरा ॥ अरुन चरन पकंज नख जोती ।  कमल दलन्हि बैठे जनु मोती ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      रेख कुलिस धवज अंकुर सोहे ।  नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे ॥ कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा ।  नाभि गभीर जान जेहि देखा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      भुज बिसाल भूषन जुत भूरी ।  हियँ हरि नख अति सोभा रूरी ॥ उर मनिहार पदिक की सोभा ।  बिप्र चरन देखत मन लोभा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई ।  आनन अमित मदन छबि छाई ॥ दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे ।  नासा तिलक को बरनै पारे ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      सुंदर श्रवन सुचारु कपोला ।  अति प्रिय मधुर तोतरे बोला ॥ चिक्कन कच कुंचित गभुआरे ।  बहु प्रकार रचि मातु सँवारे ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      पीत झगुलिआ तनु पहिराई ।  जानु पानि बिचरनि मोहि भाई ॥ रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा ।  सो जानइ सपनेहुँ जेहि देखा ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत ।   दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत ॥ १९९ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      एहि बिधि राम जगत पितु माता ।  कोसलपुर बासिंह सुखदाता ॥ जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी ।  तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      रघुपति बिमुख जतन कर कोरी ।  कवन सकइ भव बंधन छोरी ॥ जीव चराचर बस कै राखे ।  सो माया प्रभु सों भय भाखे ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      भृकुटि बिलास नचावइ ताही ।  अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही ॥ मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई ।  भजत कृपा करिहहिं रघुराई ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा ।  सकल नगरबासिंह सुख दीन्हा ॥ लै उछंग कबहुँक हलरावै ।  कबहुँ पालनें घालि झुलावै ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान ।   सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान ॥ २०० ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      एक बार जननीं अन्हवाए ।  करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए ॥ निज कुल इष्टदेव भगवाना ।  पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा ।  आपु गई जहँ पाक बनावा ॥ बहुरि मातु तहवाँ चलि आई ।  भोजन करत देख सुत जाई ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      गै जननी सिसु पहिं भयभीता ।  देखा बाल तहाँ पुनि सूता ॥ बहुरि आइ देखा सुत सोई ।  हृदयँ कंप मन धीर न होई ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा ।  मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा ॥ देखि राम जननी अकुलानी ।  प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  देखरावा मातहि निज अदभुत रुप अखंड ।    रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड ॥ २०१ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      अगनित रबि ससि सिव चतुरानन ।  बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन ॥ काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ ।  सोउ देखा जो सुना न काऊ ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      देखी माया सब बिधि गाढ़ी ।  अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी ॥ देखा जीव नचावइ जाही ।  देखी भगति जो छोरइ ताही ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      तन पुलकित मुख बचन न आवा ।  नयन मूदि चरननि सिरु नावा ॥ बिसमयवंत देखि महतारी ।  भए बहुरि सिसुरूप खरारी ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      अस्तुति करि न जाइ भय माना ।  जगत पिता मैं सुत करि जाना ॥ हरि जननि बहुबिधि समुझाई ।  यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि ॥ अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि ॥ २०२ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा ।  अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा ॥ कछुक काल बीतें सब भाई ।  बड़े भए परिजन सुखदाई ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई ।  बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई ॥ परम मनोहर चरित अपारा ।  करत फिरत चारिउ सुकुमारा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      मन क्रम बचन अगोचर जोई ।  दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई ॥ भोजन करत बोल जब राजा ।  नहिं आवत तजि बाल समाजा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      कौसल्या जब बोलन जाई ।  ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई ॥ निगम नेति सिव अंत न पावा ।  ताहि धरै जननी हठि धावा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      धूरस धूरि भरें तनु आए ।  भूपति बिहसि गोद बैठाए ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ ।   भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ ॥ २०३ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      बालचरित अति सरल सुहाए ।  सारद सेष संभु श्रुति गाए ॥ जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता ।  ते जन बंचित किए बिधाता ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      भए कुमार जबहिं सब भ्राता ।  दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता ॥ गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई ।  अलप काल बिद्या सब आई ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      जाकी सहज स्वास श्रुति चारी ।  सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी ॥ बिद्या बिनय निपुन गुन सीला ।  खेलहिं खेल सकल नृपलीला ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      करतल बान धनुष अति सोहा ।  देखत रूप चराचर मोहा ॥ जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई ।  थकित होहिं सब लोग लुगाई ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.   कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल ।   प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल ॥ २०४ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      बंधु सखा संग लेहिं बोलाई ।  बन मृगया नित खेलहिं जाई ॥ पावन मृग मारहिं जियँ जानी ।  दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      जे मृग राम बान के मारे ।  ते तनु तजि सुरलोक सिधारे ॥ अनुज सखा सँग भोजन करहीं ।  मातु पिता अग्या अनुसरहीं ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा ।  करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा ॥ बेद पुरान सुनहिं मन लाई ।  आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      प्रातकाल उठि कै रघुनाथा ।  मातु पिता गुरु नावहिं माथा ॥ आयसु मागि करहिं पुर काजा ।  देखि चरित हरषइ मन राजा ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप ।   भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप ॥ २०५ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      यह सब चरित कहा मैं गाई ।  आगिलि कथा सुनहु मन लाई ॥ बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी ।  बसहि बिपिन सुभ आश्रम जानी ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      जहँ जप जग्य मुनि करही ।  अति मारीच सुबाहुहि डरहीं ॥ देखत जग्य निसाचर धावहि ।  करहि उपद्रव मुनि दुख पावहिं ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      गाधितनय मन चिंता ब्यापी ।  हरि बिनु मरहि न निसिचर पापी ॥ तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा ।  प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      एहुँ मिस देखौं पद जाई ।  करि बिनती आनौ दोउ भाई ॥ ग्यान बिराग सकल गुन अयना ।  सो प्रभु मै देखब भरि नयना ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार ।   करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार ॥ २०६ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      मुनि आगमन सुना जब राजा ।  मिलन गयऊ लै बिप्र समाजा ॥ करि दंडवत मुनिहि सनमानी ।  निज आसन बैठारेन्हि आनी ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      चरन पखारि कीन्हि अति पूजा ।  मो सम आजु धन्य नहिं दूजा ॥ बिबिध भाँति भोजन करवावा ।  मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      पुनि चरननि मेले सुत चारी ।  राम देखि मुनि देह बिसारी ॥ भए मगन देखत मुख सोभा ।  जनु चकोर पूरन ससि लोभा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      तब मन हरषि बचन कह राऊ ।  मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ ॥ केहि कारन आगमन तुम्हारा ।  कहहु सो करत न लावउँ बारा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      असुर समूह सतावहिं मोही ।  मै जाचन आयउँ नृप तोही ॥ अनुज समेत देहु रघुनाथा ।  निसिचर बध मैं होब सनाथा ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान ।   धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान ॥ २०७ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      सुनि राजा अति अप्रिय बानी ।  हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी ॥ चौथेंपन पायउँ सुत चारी ।  बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      मागहु भूमि धेनु धन कोसा ।  सर्बस देउँ आजु सहरोसा ॥ देह प्रान तें प्रिय कछु नाही ।  सोउ मुनि देउँ निमिष एक माही ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं ।  राम देत नहिं बनइ गोसाई ॥ कहँ निसिचर अति घोर कठोरा ।  कहँ सुंदर सुत परम किसोरा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी ।  हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी ॥ तब बसिष्ट बहु निधि समुझावा ।  नृप संदेह नास कहँ पावा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      अति आदर दोउ तनय बोलाए ।  हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए ॥ मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ ।  तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  सौंपे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस ।   जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस ॥ २०८(क) ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Sortha/ सोरठा
            
            
                
                  
                    
                       सो.  पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन ॥ कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन ॥ २०८(ख)
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      अरुन नयन उर बाहु बिसाला ।  नील जलज तनु स्याम तमाला ॥ कटि पट पीत कसें बर भाथा ।  रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      स्याम गौर सुंदर दोउ भाई ।  बिस्बामित्र महानिधि पाई ॥ प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना ।  मोहि निति पिता तजेहु भगवाना ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      चले जात मुनि दीन्हि दिखाई ।  सुनि ताड़का क्रोध करि धाई ॥ एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा ।  दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही ।  बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही ॥ जाते लाग न छुधा पिपासा ।  अतुलित बल तनु तेज प्रकासा ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  आयुष सब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि ।   कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि ॥ २०९ ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
            
              Chaupai / चोपाई
            
            
                
                  
                    
                      प्रात कहा मुनि सन रघुराई ।  निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई ॥ होम करन लागे मुनि झारी ।  आपु रहे मख कीं रखवारी ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      सुनि मारीच निसाचर क्रोही ।  लै सहाय धावा मुनिद्रोही ॥ बिनु फर बान राम तेहि मारा ।  सत जोजन गा सागर पारा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      पावक सर सुबाहु पुनि मारा ।  अनुज निसाचर कटकु सँघारा ॥ मारि असुर द्विज निर्मयकारी ।  अस्तुति करहिं देव मुनि झारी ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया ।  रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया ॥ भगति हेतु बहु कथा पुराना ।  कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      तब मुनि सादर कहा बुझाई ।  चरित एक प्रभु देखिअ जाई ॥ धनुषजग्य मुनि रघुकुल नाथा ।  हरषि चले मुनिबर के साथा ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                      आश्रम एक दीख मग माहीं ।  खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं ॥ पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी ।  सकल कथा मुनि कहा बिसेषी ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                       दो.  गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर ।   चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर ॥ २१० ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Chanda / छन्द
            
            
                
                  
                    
                       छं.  परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही ।   देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही ॥       अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही ।   अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                            धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई ।   अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई ॥       मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई ।   राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                            मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना ।   देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना ॥       बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना ।   पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना ॥ 
                    
                    
                  
                
                  
                    
                            जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी ।   सोइ पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी ॥       एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी ।   जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी ॥ 
                    
                    
                  
                
             
            
         
        
        
            
            
            
            
              Doha / दोहा
            
            
                
                  
                    
                        दो.  अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल ।   तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल ॥ २११ ॥