ॐ श्री परमात्मने नमः
बाढ़े खल बहु चोर जुआरा । जे लंपट परधन परदारा ॥ मानहिं मातु पिता नहिं देवा । साधुन्ह सन करवावहिं सेवा ॥
जिन्ह के यह आचरन भवानी । ते जानेहु निसिचर सब प्रानी ॥ अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी । परम सभीत धरा अकुलानी ॥
गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही । जस मोहि गरुअ एक परद्रोही ॥ सकल धर्म देखइ बिपरीता । कहि न सकइ रावन भय भीता ॥
धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी । गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी ॥ निज संताप सुनाएसि रोई । काहू तें कछु काज न होई ॥
छं. सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका । सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका ॥ ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई । जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई ॥
सो. धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु । जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति ॥ १८४ ॥
बैठे सुर सब करहिं बिचारा । कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा ॥ पुर बैकुंठ जान कह कोई । कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई ॥
जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति । प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती ॥ तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ । अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ ॥
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना । प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना ॥ देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं । कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ॥
अग जगमय सब रहित बिरागी । प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी ॥ मोर बचन सब के मन माना । साधु साधु करि ब्रह्म बखाना ॥
दो. सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर । अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर ॥ १८५ ॥
छं. जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता । गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता ॥ पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई । जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई ॥
जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा । अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा ॥ जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा । निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा ॥
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा । सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा ॥ जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा । मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा ॥
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना । जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना ॥ भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा । मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा ॥
दो. जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह । गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह ॥ १८६ ॥
जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा । तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा ॥ अंसन्ह सहित मनुज अवतारा । लेहउँ दिनकर बंस उदारा ॥
कस्यप अदिति महातप कीन्हा । तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा ॥ ते दसरथ कौसल्या रूपा । कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा ॥
तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई । रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई ॥ नारद बचन सत्य सब करिहउँ । परम सक्ति समेत अवतरिहउँ ॥
हरिहउँ सकल भूमि गरुआई । निर्भय होहु देव समुदाई ॥ गगन ब्रह्मबानी सुनी काना । तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना ॥
तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा । अभय भई भरोस जियँ आवा ॥
दो. निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ । बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ ॥ १८७ ॥
गए देव सब निज निज धामा । भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा । जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा । हरषे देव बिलंब न कीन्हा ॥
बनचर देह धरि छिति माहीं । अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं ॥ गिरि तरु नख आयुध सब बीरा । हरि मारग चितवहिं मतिधीरा ॥
गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी । रहे निज निज अनीक रचि रूरी ॥ यह सब रुचिर चरित मैं भाषा । अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा ॥
अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ । बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ ॥ धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी । हृदयँ भगति मति सारँगपानी ॥
दो. कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत । पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत ॥ १८८ ॥
एक बार भूपति मन माहीं । भै गलानि मोरें सुत नाहीं ॥ गुर गृह गयउ तुरत महिपाला । चरन लागि करि बिनय बिसाला ॥
निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ । कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ ॥ धरहु धीर होइहहिं सुत चारी । त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी ॥
सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा । पुत्रकाम सुभ जग्य करावा ॥ भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें । प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें ॥
जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा । सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा ॥ यह हबि बाँटि देहु नृप जाई । जथा जोग जेहि भाग बनाई ॥
दो. तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ ॥ परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ ॥ १८९ ॥
तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं । कौसल्यादि तहाँ चलि आई ॥ अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा । उभय भाग आधे कर कीन्हा ॥
कैकेई कहँ नृप सो दयऊ । रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ ॥ कौसल्या कैकेई हाथ धरि । दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि ॥
एहि बिधि गर्भसहित सब नारी । भईं हृदयँ हरषित सुख भारी ॥ जा दिन तें हरि गर्भहिं आए । सकल लोक सुख संपति छाए ॥
मंदिर महँ सब राजहिं रानी । सोभा सील तेज की खानीं ॥ सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ । जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ ॥
दो. जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल । चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल ॥ १९० ॥
नौमी तिथि मधु मास पुनीता । सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता ॥ मध्यदिवस अति सीत न घामा । पावन काल लोक बिश्रामा ॥
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ । हरषित सुर संतन मन चाऊ ॥ बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा । स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा ॥
सो अवसर बिरंचि जब जाना । चले सकल सुर साजि बिमाना ॥ गगन बिमल सकुल सुर जूथा । गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा ॥
बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी । गहगहि गगन दुंदुभी बाजी ॥ अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा । बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा ॥
दो. सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम । जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम ॥ १९१ ॥
छं. भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी । हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ॥ लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी । भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी ॥
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता । माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ॥ करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता । सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता ॥
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै । मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै ॥ उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै । कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥
माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा । कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ॥ सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा । यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ॥
दो. बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार । निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ॥ १९२ ॥
सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी । संभ्रम चलि आई सब रानी ॥ हरषित जहँ तहँ धाईं दासी । आनँद मगन सकल पुरबासी ॥
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना । मानहुँ ब्रह्मानंद समाना ॥ परम प्रेम मन पुलक सरीरा । चाहत उठत करत मति धीरा ॥
जाकर नाम सुनत सुभ होई । मोरें गृह आवा प्रभु सोई ॥ परमानंद पूरि मन राजा । कहा बोलाइ बजावहु बाजा ॥
गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा । आए द्विजन सहित नृपद्वारा ॥ अनुपम बालक देखेन्हि जाई । रूप रासि गुन कहि न सिराई ॥
दो. नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह । हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह ॥ १९३ ॥
ध्वज पताक तोरन पुर छावा । कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा ॥ सुमनबृष्टि अकास तें होई । ब्रह्मानंद मगन सब लोई ॥
बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाई । सहज संगार किएँ उठि धाई ॥ कनक कलस मंगल धरि थारा । गावत पैठहिं भूप दुआरा ॥
करि आरति नेवछावरि करहीं । बार बार सिसु चरनन्हि परहीं ॥ मागध सूत बंदिगन गायक । पावन गुन गावहिं रघुनायक ॥
सर्बस दान दीन्ह सब काहू । जेहिं पावा राखा नहिं ताहू ॥ मृगमद चंदन कुंकुम कीचा । मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा ॥
दो. गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद । हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद ॥ १९४ ॥
कैकयसुता सुमित्रा दोऊ । सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ ॥ वह सुख संपति समय समाजा । कहि न सकइ सारद अहिराजा ॥
अवधपुरी सोहइ एहि भाँती । प्रभुहि मिलन आई जनु राती ॥ देखि भानू जनु मन सकुचानी । तदपि बनी संध्या अनुमानी ॥
अगर धूप बहु जनु अँधिआरी । उड़इ अभीर मनहुँ अरुनारी ॥ मंदिर मनि समूह जनु तारा । नृप गृह कलस सो इंदु उदारा ॥
भवन बेदधुनि अति मृदु बानी । जनु खग मूखर समयँ जनु सानी ॥ कौतुक देखि पतंग भुलाना । एक मास तेइँ जात न जाना ॥
दो. मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ । रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ ॥ १९५ ॥
यह रहस्य काहू नहिं जाना । दिन मनि चले करत गुनगाना ॥ देखि महोत्सव सुर मुनि नागा । चले भवन बरनत निज भागा ॥
औरउ एक कहउँ निज चोरी । सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी ॥ काक भुसुंडि संग हम दोऊ । मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ ॥
परमानंद प्रेमसुख फूले । बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले ॥ यह सुभ चरित जान पै सोई । कृपा राम कै जापर होई ॥
तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा । दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा ॥ गज रथ तुरग हेम गो हीरा । दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा ॥
दो. मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहि असीस । सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस ॥ १९६ ॥
कछुक दिवस बीते एहि भाँती । जात न जानिअ दिन अरु राती ॥ नामकरन कर अवसरु जानी । भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी ॥
करि पूजा भूपति अस भाषा । धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा ॥ इन्ह के नाम अनेक अनूपा । मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा ॥
जो आनंद सिंधु सुखरासी । सीकर तें त्रैलोक सुपासी ॥ सो सुख धाम राम अस नामा । अखिल लोक दायक बिश्रामा ॥
बिस्व भरन पोषन कर जोई । ताकर नाम भरत अस होई ॥ जाके सुमिरन तें रिपु नासा । नाम सत्रुहन बेद प्रकासा ॥
दो. लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार । गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार ॥ १९७ ॥
धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी । बेद तत्त्व नृप तव सुत चारी ॥ मुनि धन जन सरबस सिव प्राना । बाल केलि तेहिं सुख माना ॥
बारेहि ते निज हित पति जानी । लछिमन राम चरन रति मानी ॥ भरत सत्रुहन दूनउ भाई । प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई ॥
स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी । निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी ॥ चारिउ सील रूप गुन धामा । तदपि अधिक सुखसागर रामा ॥
हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा । सूचत किरन मनोहर हासा ॥ कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना । मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना ॥
दो. ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद । सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद ॥ १९८ ॥
काम कोटि छबि स्याम सरीरा । नील कंज बारिद गंभीरा ॥ अरुन चरन पकंज नख जोती । कमल दलन्हि बैठे जनु मोती ॥
रेख कुलिस धवज अंकुर सोहे । नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे ॥ कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा । नाभि गभीर जान जेहि देखा ॥
भुज बिसाल भूषन जुत भूरी । हियँ हरि नख अति सोभा रूरी ॥ उर मनिहार पदिक की सोभा । बिप्र चरन देखत मन लोभा ॥
कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई । आनन अमित मदन छबि छाई ॥ दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे । नासा तिलक को बरनै पारे ॥
सुंदर श्रवन सुचारु कपोला । अति प्रिय मधुर तोतरे बोला ॥ चिक्कन कच कुंचित गभुआरे । बहु प्रकार रचि मातु सँवारे ॥
पीत झगुलिआ तनु पहिराई । जानु पानि बिचरनि मोहि भाई ॥ रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा । सो जानइ सपनेहुँ जेहि देखा ॥
दो. सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत । दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत ॥ १९९ ॥
एहि बिधि राम जगत पितु माता । कोसलपुर बासिंह सुखदाता ॥ जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी । तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी ॥
रघुपति बिमुख जतन कर कोरी । कवन सकइ भव बंधन छोरी ॥ जीव चराचर बस कै राखे । सो माया प्रभु सों भय भाखे ॥
भृकुटि बिलास नचावइ ताही । अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही ॥ मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई । भजत कृपा करिहहिं रघुराई ॥
एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा । सकल नगरबासिंह सुख दीन्हा ॥ लै उछंग कबहुँक हलरावै । कबहुँ पालनें घालि झुलावै ॥
दो. प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान । सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान ॥ २०० ॥
एक बार जननीं अन्हवाए । करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए ॥ निज कुल इष्टदेव भगवाना । पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना ॥
करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा । आपु गई जहँ पाक बनावा ॥ बहुरि मातु तहवाँ चलि आई । भोजन करत देख सुत जाई ॥
गै जननी सिसु पहिं भयभीता । देखा बाल तहाँ पुनि सूता ॥ बहुरि आइ देखा सुत सोई । हृदयँ कंप मन धीर न होई ॥
इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा । मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा ॥ देखि राम जननी अकुलानी । प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी ॥
दो. देखरावा मातहि निज अदभुत रुप अखंड । रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड ॥ २०१ ॥
अगनित रबि ससि सिव चतुरानन । बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन ॥ काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ । सोउ देखा जो सुना न काऊ ॥
देखी माया सब बिधि गाढ़ी । अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी ॥ देखा जीव नचावइ जाही । देखी भगति जो छोरइ ताही ॥
तन पुलकित मुख बचन न आवा । नयन मूदि चरननि सिरु नावा ॥ बिसमयवंत देखि महतारी । भए बहुरि सिसुरूप खरारी ॥
अस्तुति करि न जाइ भय माना । जगत पिता मैं सुत करि जाना ॥ हरि जननि बहुबिधि समुझाई । यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई ॥
दो. बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि ॥ अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि ॥ २०२ ॥
बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा । अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा ॥ कछुक काल बीतें सब भाई । बड़े भए परिजन सुखदाई ॥
चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई । बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई ॥ परम मनोहर चरित अपारा । करत फिरत चारिउ सुकुमारा ॥
मन क्रम बचन अगोचर जोई । दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई ॥ भोजन करत बोल जब राजा । नहिं आवत तजि बाल समाजा ॥
कौसल्या जब बोलन जाई । ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई ॥ निगम नेति सिव अंत न पावा । ताहि धरै जननी हठि धावा ॥
धूरस धूरि भरें तनु आए । भूपति बिहसि गोद बैठाए ॥
दो. भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ । भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ ॥ २०३ ॥
बालचरित अति सरल सुहाए । सारद सेष संभु श्रुति गाए ॥ जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता । ते जन बंचित किए बिधाता ॥
भए कुमार जबहिं सब भ्राता । दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता ॥ गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई । अलप काल बिद्या सब आई ॥
जाकी सहज स्वास श्रुति चारी । सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी ॥ बिद्या बिनय निपुन गुन सीला । खेलहिं खेल सकल नृपलीला ॥
करतल बान धनुष अति सोहा । देखत रूप चराचर मोहा ॥ जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई । थकित होहिं सब लोग लुगाई ॥
दो. कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल । प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल ॥ २०४ ॥
बंधु सखा संग लेहिं बोलाई । बन मृगया नित खेलहिं जाई ॥ पावन मृग मारहिं जियँ जानी । दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी ॥
जे मृग राम बान के मारे । ते तनु तजि सुरलोक सिधारे ॥ अनुज सखा सँग भोजन करहीं । मातु पिता अग्या अनुसरहीं ॥
जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा । करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा ॥ बेद पुरान सुनहिं मन लाई । आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई ॥
प्रातकाल उठि कै रघुनाथा । मातु पिता गुरु नावहिं माथा ॥ आयसु मागि करहिं पुर काजा । देखि चरित हरषइ मन राजा ॥
दो. ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप । भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप ॥ २०५ ॥
यह सब चरित कहा मैं गाई । आगिलि कथा सुनहु मन लाई ॥ बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी । बसहि बिपिन सुभ आश्रम जानी ॥
जहँ जप जग्य मुनि करही । अति मारीच सुबाहुहि डरहीं ॥ देखत जग्य निसाचर धावहि । करहि उपद्रव मुनि दुख पावहिं ॥
गाधितनय मन चिंता ब्यापी । हरि बिनु मरहि न निसिचर पापी ॥ तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा । प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा ॥
एहुँ मिस देखौं पद जाई । करि बिनती आनौ दोउ भाई ॥ ग्यान बिराग सकल गुन अयना । सो प्रभु मै देखब भरि नयना ॥
दो. बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार । करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार ॥ २०६ ॥
मुनि आगमन सुना जब राजा । मिलन गयऊ लै बिप्र समाजा ॥ करि दंडवत मुनिहि सनमानी । निज आसन बैठारेन्हि आनी ॥
चरन पखारि कीन्हि अति पूजा । मो सम आजु धन्य नहिं दूजा ॥ बिबिध भाँति भोजन करवावा । मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा ॥
पुनि चरननि मेले सुत चारी । राम देखि मुनि देह बिसारी ॥ भए मगन देखत मुख सोभा । जनु चकोर पूरन ससि लोभा ॥
तब मन हरषि बचन कह राऊ । मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ ॥ केहि कारन आगमन तुम्हारा । कहहु सो करत न लावउँ बारा ॥
असुर समूह सतावहिं मोही । मै जाचन आयउँ नृप तोही ॥ अनुज समेत देहु रघुनाथा । निसिचर बध मैं होब सनाथा ॥
दो. देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान । धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान ॥ २०७ ॥
सुनि राजा अति अप्रिय बानी । हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी ॥ चौथेंपन पायउँ सुत चारी । बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी ॥
मागहु भूमि धेनु धन कोसा । सर्बस देउँ आजु सहरोसा ॥ देह प्रान तें प्रिय कछु नाही । सोउ मुनि देउँ निमिष एक माही ॥
सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं । राम देत नहिं बनइ गोसाई ॥ कहँ निसिचर अति घोर कठोरा । कहँ सुंदर सुत परम किसोरा ॥
सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी । हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी ॥ तब बसिष्ट बहु निधि समुझावा । नृप संदेह नास कहँ पावा ॥
अति आदर दोउ तनय बोलाए । हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए ॥ मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ । तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ ॥
दो. सौंपे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस । जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस ॥ २०८(क) ॥
सो. पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन ॥ कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन ॥ २०८(ख)
अरुन नयन उर बाहु बिसाला । नील जलज तनु स्याम तमाला ॥ कटि पट पीत कसें बर भाथा । रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा ॥
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई । बिस्बामित्र महानिधि पाई ॥ प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना । मोहि निति पिता तजेहु भगवाना ॥
चले जात मुनि दीन्हि दिखाई । सुनि ताड़का क्रोध करि धाई ॥ एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा । दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा ॥
तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही । बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही ॥ जाते लाग न छुधा पिपासा । अतुलित बल तनु तेज प्रकासा ॥
दो. आयुष सब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि । कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि ॥ २०९ ॥
प्रात कहा मुनि सन रघुराई । निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई ॥ होम करन लागे मुनि झारी । आपु रहे मख कीं रखवारी ॥
सुनि मारीच निसाचर क्रोही । लै सहाय धावा मुनिद्रोही ॥ बिनु फर बान राम तेहि मारा । सत जोजन गा सागर पारा ॥
पावक सर सुबाहु पुनि मारा । अनुज निसाचर कटकु सँघारा ॥ मारि असुर द्विज निर्मयकारी । अस्तुति करहिं देव मुनि झारी ॥
तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया । रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया ॥ भगति हेतु बहु कथा पुराना । कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना ॥
तब मुनि सादर कहा बुझाई । चरित एक प्रभु देखिअ जाई ॥ धनुषजग्य मुनि रघुकुल नाथा । हरषि चले मुनिबर के साथा ॥
आश्रम एक दीख मग माहीं । खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं ॥ पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी । सकल कथा मुनि कहा बिसेषी ॥
दो. गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर । चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर ॥ २१० ॥
छं. परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही । देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही ॥ अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही । अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही ॥
धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई । अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई ॥ मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई । राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई ॥
मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना । देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना ॥ बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना । पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना ॥
जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी । सोइ पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी ॥ एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी । जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी ॥
दो. अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल । तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल ॥ २११ ॥
Masaparayana 7 Ends
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