ॐ श्री परमात्मने नमः
चले राम लछिमन मुनि संगा । गए जहाँ जग पावनि गंगा ॥ गाधिसूनु सब कथा सुनाई । जेहि प्रकार सुरसरि महि आई ॥
तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए । बिबिध दान महिदेवन्हि पाए ॥ हरषि चले मुनि बृंद सहाया । बेगि बिदेह नगर निअराया ॥
पुर रम्यता राम जब देखी । हरषे अनुज समेत बिसेषी ॥ बापीं कूप सरित सर नाना । सलिल सुधासम मनि सोपाना ॥
गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा । कूजत कल बहुबरन बिहंगा ॥ बरन बरन बिकसे बन जाता । त्रिबिध समीर सदा सुखदाता ॥
दो. सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास । फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास ॥ २१२ ॥
बनइ न बरनत नगर निकाई । जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई ॥ चारु बजारु बिचित्र अँबारी । मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी ॥
धनिक बनिक बर धनद समाना । बैठ सकल बस्तु लै नाना ॥ चौहट सुंदर गलीं सुहाई । संतत रहहिं सुगंध सिंचाई ॥
मंगलमय मंदिर सब केरें । चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें ॥ पुर नर नारि सुभग सुचि संता । धरमसील ग्यानी गुनवंता ॥
अति अनूप जहँ जनक निवासू । बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू ॥ होत चकित चित कोट बिलोकी । सकल भुवन सोभा जनु रोकी ॥
दो. धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति । सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति ॥ २१३ ॥
सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा । भूप भीर नट मागध भाटा ॥ बनी बिसाल बाजि गज साला । हय गय रथ संकुल सब काला ॥
सूर सचिव सेनप बहुतेरे । नृपगृह सरिस सदन सब केरे ॥ पुर बाहेर सर सारित समीपा । उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा ॥
देखि अनूप एक अँवराई । सब सुपास सब भाँति सुहाई ॥ कौसिक कहेउ मोर मनु माना । इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना ॥
भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता । उतरे तहँ मुनिबृंद समेता ॥ बिस्वामित्र महामुनि आए । समाचार मिथिलापति पाए ॥
दो. संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति । चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति ॥ २१४ ॥
कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा । दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा ॥ बिप्रबृंद सब सादर बंदे । जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे ॥
कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा । बिस्वामित्र नृपहि बैठारा ॥ तेहि अवसर आए दोउ भाई । गए रहे देखन फुलवाई ॥
स्याम गौर मृदु बयस किसोरा । लोचन सुखद बिस्व चित चोरा ॥ उठे सकल जब रघुपति आए । बिस्वामित्र निकट बैठाए ॥
भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता । बारि बिलोचन पुलकित गाता ॥ मूरति मधुर मनोहर देखी । भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी ॥
दो. प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर । बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर ॥ २१५ ॥
कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक । मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक ॥ ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा । उभय बेष धरि की सोइ आवा ॥
सहज बिरागरुप मनु मोरा । थकित होत जिमि चंद चकोरा ॥ ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ । कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ ॥
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा । बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा ॥ कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका । बचन तुम्हार न होइ अलीका ॥
ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी । मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी ॥ रघुकुल मनि दसरथ के जाए । मम हित लागि नरेस पठाए ॥
दो. रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम । मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम ॥ २१६ ॥
मुनि तव चरन देखि कह राऊ । कहि न सकउँ निज पुन्य प्राभाऊ ॥ सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता । आनँदहू के आनँद दाता ॥
इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि । कहि न जाइ मन भाव सुहावनि ॥ सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू । ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू ॥
पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू । पुलक गात उर अधिक उछाहू ॥ म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू । चलेउ लवाइ नगर अवनीसू ॥
सुंदर सदनु सुखद सब काला । तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला ॥ करि पूजा सब बिधि सेवकाई । गयउ राउ गृह बिदा कराई ॥
दो. रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु । बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु ॥ २१७ ॥
लखन हृदयँ लालसा बिसेषी । जाइ जनकपुर आइअ देखी ॥ प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं । प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं ॥
राम अनुज मन की गति जानी । भगत बछलता हिंयँ हुलसानी ॥ परम बिनीत सकुचि मुसुकाई । बोले गुर अनुसासन पाई ॥
नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं । प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं ॥ जौं राउर आयसु मैं पावौं । नगर देखाइ तुरत लै आवौ ॥
सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती । कस न राम तुम्ह राखहु नीती ॥ धरम सेतु पालक तुम्ह ताता । प्रेम बिबस सेवक सुखदाता ॥
दो. जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ । करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ ॥ २१८ ॥
मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता । चले लोक लोचन सुख दाता ॥ बालक बृंदि देखि अति सोभा । लगे संग लोचन मनु लोभा ॥
पीत बसन परिकर कटि भाथा । चारु चाप सर सोहत हाथा ॥ तन अनुहरत सुचंदन खोरी । स्यामल गौर मनोहर जोरी ॥
केहरि कंधर बाहु बिसाला । उर अति रुचिर नागमनि माला ॥ सुभग सोन सरसीरुह लोचन । बदन मयंक तापत्रय मोचन ॥
कानन्हि कनक फूल छबि देहीं । चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं ॥ चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी । तिलक रेखा सोभा जनु चाँकी ॥
दो. रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस । नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस ॥ २१९ ॥
देखन नगरु भूपसुत आए । समाचार पुरबासिंह पाए ॥ धाए धाम काम सब त्यागी । मनहु रंक निधि लूटन लागी ॥
निरखि सहज सुंदर दोउ भाई । होहिं सुखी लोचन फल पाई ॥ जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं । निरखहिं राम रूप अनुरागीं ॥
कहहिं परसपर बचन सप्रीती । सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती ॥ सुर नर असुर नाग मुनि माहीं । सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं ॥
बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी । बिकट बेष मुख पंच पुरारी ॥ अपर देउ अस कोउ न आही । यह छबि सखि पटतरिअ जाही ॥
दो. बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख धाम । अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम ॥ २२० ॥
कहहु सखी अस को तनुधारी । जो न मोह यह रूप निहारी ॥ कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी । जो मैं सुना सो सुनहु सयानी ॥
ए दोऊ दसरथ के ढोटा । बाल मरालन्हि के कल जोटा ॥ मुनि कौसिक मख के रखवारे । जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे ॥
स्याम गात कल कंज बिलोचन । जो मारीच सुभुज मदु मोचन ॥ कौसल्या सुत सो सुख खानी । नामु रामु धनु सायक पानी ॥
गौर किसोर बेषु बर काछें । कर सर चाप राम के पाछें ॥ लछिमनु नामु राम लघु भ्राता । सुनु सखि तासु सुमित्रा माता ॥
दो. बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि । आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि ॥ २२१ ॥
देखि राम छबि कोउ एक कहई । जोगु जानकिहि यह बरु अहई ॥ जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू । पन परिहरि हठि करइ बिबाहू ॥
कोउ कह ए भूपति पहिचाने । मुनि समेत सादर सनमाने ॥ सखि परंतु पनु राउ न तजई । बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई ॥
कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता । सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता ॥ तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू । नाहिन आलि इहाँ संदेहू ॥
जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू । तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू ॥ सखि हमरें आरति अति तातें । कबहुँक ए आवहिं एहि नातें ॥
दो. नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि । यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि ॥ २२२ ॥
बोली अपर कहेहु सखि नीका । एहिं बिआह अति हित सबहीं का ॥ कोउ कह संकर चाप कठोरा । ए स्यामल मृदुगात किसोरा ॥
सबु असमंजस अहइ सयानी । यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी ॥ सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं । बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं ॥
परसि जासु पद पंकज धूरी । तरी अहल्या कृत अघ भूरी ॥ सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें । यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें ॥
जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी । तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी ॥ तासु बचन सुनि सब हरषानीं । ऐसेइ होउ कहहिं मुदु बानी ॥
दो. हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद । जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद ॥ २२३ ॥
पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई । जहँ धनुमख हित भूमि बनाई ॥ अति बिस्तार चारु गच ढारी । बिमल बेदिका रुचिर सँवारी ॥
चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला । रचे जहाँ बेठहिं महिपाला ॥ तेहि पाछें समीप चहुँ पासा । अपर मंच मंडली बिलासा ॥
कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई । बैठहिं नगर लोग जहँ जाई ॥ तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए । धवल धाम बहुबरन बनाए ॥
जहँ बैंठैं देखहिं सब नारी । जथा जोगु निज कुल अनुहारी ॥ पुर बालक कहि कहि मृदु बचना । सादर प्रभुहि देखावहिं रचना ॥
दो. सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात । तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात ॥ २२४ ॥
सिसु सब राम प्रेमबस जाने । प्रीति समेत निकेत बखाने ॥ निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई । सहित सनेह जाहिं दोउ भाई ॥
राम देखावहिं अनुजहि रचना । कहि मृदु मधुर मनोहर बचना ॥ लव निमेष महँ भुवन निकाया । रचइ जासु अनुसासन माया ॥
भगति हेतु सोइ दीनदयाला । चितवत चकित धनुष मखसाला ॥ कौतुक देखि चले गुरु पाहीं । जानि बिलंबु त्रास मन माहीं ॥
जासु त्रास डर कहुँ डर होई । भजन प्रभाउ देखावत सोई ॥ कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं । किए बिदा बालक बरिआई ॥
दो. सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ । गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ ॥ २२५ ॥
निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा । सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा ॥ कहत कथा इतिहास पुरानी । रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी ॥
मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई । लगे चरन चापन दोउ भाई ॥ जिन्ह के चरन सरोरुह लागी । करत बिबिध जप जोग बिरागी ॥
तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते । गुर पद कमल पलोटत प्रीते ॥ बारबार मुनि अग्या दीन्ही । रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही ॥
चापत चरन लखनु उर लाएँ । सभय सप्रेम परम सचु पाएँ ॥ पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता । पौढ़े धरि उर पद जलजाता ॥
दो. उठे लखन निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान ॥ गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान ॥ २२६ ॥
सकल सौच करि जाइ नहाए । नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए ॥ समय जानि गुर आयसु पाई । लेन प्रसून चले दोउ भाई ॥
भूप बागु बर देखेउ जाई । जहँ बसंत रितु रही लोभाई ॥ लागे बिटप मनोहर नाना । बरन बरन बर बेलि बिताना ॥
नव पल्लव फल सुमान सुहाए । निज संपति सुर रूख लजाए ॥ चातक कोकिल कीर चकोरा । कूजत बिहग नटत कल मोरा ॥
मध्य बाग सरु सोह सुहावा । मनि सोपान बिचित्र बनावा ॥ बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा । जलखग कूजत गुंजत भृंगा ॥
दो. बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत । परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत ॥ २२७ ॥
चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालिगन । लगे लेन दल फूल मुदित मन ॥ तेहि अवसर सीता तहँ आई । गिरिजा पूजन जननि पठाई ॥
संग सखीं सब सुभग सयानी । गावहिं गीत मनोहर बानी ॥ सर समीप गिरिजा गृह सोहा । बरनि न जाइ देखि मनु मोहा ॥
मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता । गई मुदित मन गौरि निकेता ॥ पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा । निज अनुरूप सुभग बरु मागा ॥
एक सखी सिय संगु बिहाई । गई रही देखन फुलवाई ॥ तेहि दोउ बंधु बिलोके जाई । प्रेम बिबस सीता पहिं आई ॥
दो. तासु दसा देखि सखिन्ह पुलक गात जलु नैन । कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु बैन ॥ २२८ ॥
देखन बागु कुअँर दुइ आए । बय किसोर सब भाँति सुहाए ॥ स्याम गौर किमि कहौं बखानी । गिरा अनयन नयन बिनु बानी ॥
सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी । सिय हियँ अति उतकंठा जानी ॥ एक कहइ नृपसुत तेइ आली । सुने जे मुनि सँग आए काली ॥
जिन्ह निज रूप मोहनी डारी । कीन्ह स्वबस नगर नर नारी ॥ बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू । अवसि देखिअहिं देखन जोगू ॥
तासु वचन अति सियहि सुहाने । दरस लागि लोचन अकुलाने ॥ चली अग्र करि प्रिय सखि सोई । प्रीति पुरातन लखइ न कोई ॥
दो. सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत ॥ चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत ॥ २२९ ॥
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि । कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि ॥ मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही ॥ मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही ॥
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा । सिय मुख ससि भए नयन चकोरा ॥ भए बिलोचन चारु अचंचल । मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल ॥
देखि सीय सोभा सुखु पावा । हृदयँ सराहत बचनु न आवा ॥ जनु बिरंचि सब निज निपुनाई । बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई ॥
सुंदरता कहुँ सुंदर करई । छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई ॥ सब उपमा कबि रहे जुठारी । केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी ॥
दो. सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि । बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि ॥ २३० ॥
तात जनकतनया यह सोई । धनुषजग्य जेहि कारन होई ॥ पूजन गौरि सखीं लै आई । करत प्रकासु फिरइ फुलवाई ॥
जासु बिलोकि अलोकिक सोभा । सहज पुनीत मोर मनु छोभा ॥ सो सबु कारन जान बिधाता । फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता ॥
रघुबंसिंह कर सहज सुभाऊ । मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ ॥ मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी । जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी ॥
जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी । नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी ॥ मंगन लहहि न जिन्ह कै नाहीं । ते नरबर थोरे जग माहीं ॥
दो. करत बतकहि अनुज सन मन सिय रूप लोभान । मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान ॥ २३१ ॥
चितवहि चकित चहूँ दिसि सीता । कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता ॥ जहँ बिलोक मृग सावक नैनी । जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी ॥
लता ओट तब सखिन्ह लखाए । स्यामल गौर किसोर सुहाए ॥ देखि रूप लोचन ललचाने । हरषे जनु निज निधि पहिचाने ॥
थके नयन रघुपति छबि देखें । पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें ॥ अधिक सनेहँ देह भै भोरी । सरद ससिहि जनु चितव चकोरी ॥
लोचन मग रामहि उर आनी । दीन्हे पलक कपाट सयानी ॥ जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी । कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी ॥
दो. लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ । निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ ॥ २३२ ॥
सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा । नील पीत जलजाभ सरीरा ॥ मोरपंख सिर सोहत नीके । गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के ॥
भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए । श्रवन सुभग भूषन छबि छाए ॥ बिकट भृकुटि कच घूघरवारे । नव सरोज लोचन रतनारे ॥
चारु चिबुक नासिका कपोला । हास बिलास लेत मनु मोला ॥ मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं । जो बिलोकि बहु काम लजाहीं ॥
उर मनि माल कंबु कल गीवा । काम कलभ कर भुज बलसींवा ॥ सुमन समेत बाम कर दोना । सावँर कुअँर सखी सुठि लोना ॥
दो. केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान । देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान ॥ २३३ ॥
धरि धीरजु एक आलि सयानी । सीता सन बोली गहि पानी ॥ बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू । भूपकिसोर देखि किन लेहू ॥
सकुचि सीयँ तब नयन उघारे । सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे ॥ नख सिख देखि राम कै सोभा । सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा ॥
परबस सखिन्ह लखी जब सीता । भयउ गहरु सब कहहि सभीता ॥ पुनि आउब एहि बेरिआँ काली । अस कहि मन बिहसी एक आली ॥
गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी । भयउ बिलंबु मातु भय मानी ॥ धरि बड़ि धीर रामु उर आने । फिरि अपनपउ पितुबस जाने ॥
दो. देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि । निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि ॥ २३४ ॥
जानि कठिन सिवचाप बिसूरति । चली राखि उर स्यामल मूरति ॥ प्रभु जब जात जानकी जानी । सुख सनेह सोभा गुन खानी ॥
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही । चारु चित भीतीं लिख लीन्ही ॥ गई भवानी भवन बहोरी । बंदि चरन बोली कर जोरी ॥
जय जय गिरिबरराज किसोरी । जय महेस मुख चंद चकोरी ॥ जय गज बदन षड़ानन माता । जगत जननि दामिनि दुति गाता ॥
नहिं तव आदि मध्य अवसाना । अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना ॥ भव भव बिभव पराभव कारिनि । बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि ॥
दो. पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख । महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष ॥ २३५ ॥
सेवत तोहि सुलभ फल चारी । बरदायनी पुरारि पिआरी ॥ देबि पूजि पद कमल तुम्हारे । सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे ॥
मोर मनोरथु जानहु नीकें । बसहु सदा उर पुर सबही कें ॥ कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं । अस कहि चरन गहे बैदेहीं ॥
बिनय प्रेम बस भई भवानी । खसी माल मूरति मुसुकानी ॥ सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ । बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ ॥
सुनु सिय सत्य असीस हमारी । पूजिहि मन कामना तुम्हारी ॥ नारद बचन सदा सुचि साचा । सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा ॥
छं. मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो । करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥ एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली । तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली ॥
सो. जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि । मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥ २३६ ॥
हृदयँ सराहत सीय लोनाई । गुर समीप गवने दोउ भाई ॥ राम कहा सबु कौसिक पाहीं । सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं ॥
सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही । पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही ॥ सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे । रामु लखनु सुनि भए सुखारे ॥
करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी । लगे कहन कछु कथा पुरानी ॥ बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई । संध्या करन चले दोउ भाई ॥
प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा । सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा ॥ बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं । सीय बदन सम हिमकर नाहीं ॥
दो. जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक । सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक ॥ २३७ ॥
घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई । ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई ॥ कोक सिकप्रद पंकज द्रोही । अवगुन बहुत चंद्रमा तोही ॥
बैदेही मुख पटतर दीन्हे । होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे ॥ सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी । गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी ॥
करि मुनि चरन सरोज प्रनामा । आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा ॥ बिगत निसा रघुनायक जागे । बंधु बिलोकि कहन अस लागे ॥
उदउ अरुन अवलोकहु ताता । पंकज कोक लोक सुखदाता ॥ बोले लखनु जोरि जुग पानी । प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी ॥
दो. अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन । जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन ॥ २३८ ॥
नृप सब नखत करहिं उजिआरी । टारि न सकहिं चाप तम भारी ॥ कमल कोक मधुकर खग नाना । हरषे सकल निसा अवसाना ॥
ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे । होइहहिं टूटें धनुष सुखारे ॥ उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा । दुरे नखत जग तेजु प्रकासा ॥
रबि निज उदय ब्याज रघुराया । प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया ॥ तव भुज बल महिमा उदघाटी । प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी ॥
बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने । होइ सुचि सहज पुनीत नहाने ॥ नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए । चरन सरोज सुभग सिर नाए ॥
सतानंदु तब जनक बोलाए । कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए ॥ जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई । हरषे बोलि लिए दोउ भाई ॥
दो. सतानंद पद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ । चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ ॥ २३९ ॥
Masaparayana 8 Ends
Sign In