ॐ श्री परमात्मने नमः
सीय स्वयंबरु देखिअ जाई । ईसु काहि धौं देइ बड़ाई ॥ लखन कहा जस भाजनु सोई । नाथ कृपा तव जापर होई ॥
हरषे मुनि सब सुनि बर बानी । दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी ॥ पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला । देखन चले धनुषमख साला ॥
रंगभूमि आए दोउ भाई । असि सुधि सब पुरबासिंह पाई ॥ चले सकल गृह काज बिसारी । बाल जुबान जरठ नर नारी ॥
देखी जनक भीर भै भारी । सुचि सेवक सब लिए हँकारी ॥ तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू । आसन उचित देहू सब काहू ॥
दो. कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि । उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि ॥ २४० ॥
राजकुअँर तेहि अवसर आए । मनहुँ मनोहरता तन छाए ॥ गुन सागर नागर बर बीरा । सुंदर स्यामल गौर सरीरा ॥
राज समाज बिराजत रूरे । उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे ॥ जिन्ह कें रही भावना जैसी । प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥
देखहिं रूप महा रनधीरा । मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा ॥ डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी । मनहुँ भयानक मूरति भारी ॥
रहे असुर छल छोनिप बेषा । तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा ॥ पुरबासिंह देखे दोउ भाई । नरभूषन लोचन सुखदाई ॥
दो. नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप । जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप ॥ २४१ ॥
बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा । बहु मुख कर पग लोचन सीसा ॥ जनक जाति अवलोकहिं कैसैं । सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें ॥
सहित बिदेह बिलोकहिं रानी । सिसु सम प्रीति न जाति बखानी ॥ जोगिन्ह परम तत्त्वमय भासा । सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा ॥
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता । इष्टदेव इव सब सुख दाता ॥ रामहि चितव भायँ जेहि सीया । सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया ॥
उर अनुभवति न कहि सक सोऊ । कवन प्रकार कहै कबि कोऊ ॥ एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ । तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ ॥
दो. राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर । सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर ॥ २४२ ॥
सहज मनोहर मूरति दोऊ । कोटि काम उपमा लघु सोऊ ॥ सरद चंद निंदक मुख नीके । नीरज नयन भावते जी के ॥
चितवत चारु मार मनु हरनी । भावति हृदय जाति नहीं बरनी ॥ कल कपोल श्रुति कुंडल लोला । चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला ॥
कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा । भृकुटी बिकट मनोहर नासा ॥ भाल बिसाल तिलक झलकाहीं । कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं ॥
पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई । कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं ॥ रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ । जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ ॥
दो. कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल । बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल ॥ २४३ ॥
कटि तूनीर पीत पट बाँधे । कर सर धनुष बाम बर काँधे ॥ पीत जग्य उपबीत सुहाए । नख सिख मंजु महाछबि छाए ॥
देखि लोग सब भए सुखारे । एकटक लोचन चलत न तारे ॥ हरषे जनकु देखि दोउ भाई । मुनि पद कमल गहे तब जाई ॥
करि बिनती निज कथा सुनाई । रंग अवनि सब मुनिहि देखाई ॥ जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ । तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ ॥
निज निज रुख रामहि सबु देखा । कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा ॥ भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ । राजाँ मुदित महासुख लहेऊ ॥
दो. सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल । मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल ॥ २४४ ॥
प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे । जनु राकेस उदय भएँ तारे ॥ असि प्रतीति सब के मन माहीं । राम चाप तोरब सक नाहीं ॥
बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला । मेलिहि सीय राम उर माला ॥ अस बिचारि गवनहु घर भाई । जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई ॥
बिहसे अपर भूप सुनि बानी । जे अबिबेक अंध अभिमानी ॥ तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा । बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा ॥
एक बार कालउ किन होऊ । सिय हित समर जितब हम सोऊ ॥ यह सुनि अवर महिप मुसकाने । धरमसील हरिभगत सयाने ॥
सो. सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के ॥ जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे ॥ २४५ ॥
ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई । मन मोदकन्हि कि भूख बुताई ॥ सिख हमारि सुनि परम पुनीता । जगदंबा जानहु जियँ सीता ॥
जगत पिता रघुपतिहि बिचारी । भरि लोचन छबि लेहु निहारी ॥ सुंदर सुखद सकल गुन रासी । ए दोउ बंधु संभु उर बासी ॥
सुधा समुद्र समीप बिहाई । मृगजलु निरखि मरहु कत धाई ॥ करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा । हम तौ आजु जनम फलु पावा ॥
अस कहि भले भूप अनुरागे । रूप अनूप बिलोकन लागे ॥ देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना । बरषहिं सुमन करहिं कल गाना ॥
दो. जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई । चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं ॥ २४६ ॥
सिय सोभा नहिं जाइ बखानी । जगदंबिका रूप गुन खानी ॥ उपमा सकल मोहि लघु लागीं । प्राकृत नारि अंग अनुरागीं ॥
सिय बरनिअ तेइ उपमा देई । कुकबि कहाइ अजसु को लेई ॥ जौ पटतरिअ तीय सम सीया । जग असि जुबति कहाँ कमनीया ॥
गिरा मुखर तन अरध भवानी । रति अति दुखित अतनु पति जानी ॥ बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही । कहिअ रमासम किमि बैदेही ॥
जौ छबि सुधा पयोनिधि होई । परम रूपमय कच्छप सोई ॥ सोभा रजु मंदरु सिंगारू । मथै पानि पंकज निज मारू ॥
दो. एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल । तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल ॥ २४७ ॥
चलिं संग लै सखीं सयानी । गावत गीत मनोहर बानी ॥ सोह नवल तनु सुंदर सारी । जगत जननि अतुलित छबि भारी ॥
भूषन सकल सुदेस सुहाए । अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए ॥ रंगभूमि जब सिय पगु धारी । देखि रूप मोहे नर नारी ॥
हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई । बरषि प्रसून अपछरा गाई ॥ पानि सरोज सोह जयमाला । अवचट चितए सकल भुआला ॥
सीय चकित चित रामहि चाहा । भए मोहबस सब नरनाहा ॥ मुनि समीप देखे दोउ भाई । लगे ललकि लोचन निधि पाई ॥
दो. गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि ॥ लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि ॥ २४८ ॥
राम रूपु अरु सिय छबि देखें । नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें ॥ सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं । बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं ॥
हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई । मति हमारि असि देहि सुहाई ॥ बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु । सीय राम कर करै बिबाहू ॥
जगु भल कहहि भाव सब काहू । हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू ॥ एहिं लालसाँ मगन सब लोगू । बरु साँवरो जानकी जोगू ॥
तब बंदीजन जनक बौलाए । बिरिदावली कहत चलि आए ॥ कह नृप जाइ कहहु पन मोरा । चले भाट हियँ हरषु न थोरा ॥
दो. बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल । पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल ॥ २४९ ॥
नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू । गरुअ कठोर बिदित सब काहू ॥ रावनु बानु महाभट भारे । देखि सरासन गवँहिं सिधारे ॥
सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा । राज समाज आजु जोइ तोरा ॥ त्रिभुवन जय समेत बैदेही ॥ बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही ॥
सुनि पन सकल भूप अभिलाषे । भटमानी अतिसय मन माखे ॥ परिकर बाँधि उठे अकुलाई । चले इष्टदेवन्ह सिर नाई ॥
तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं । उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं ॥ जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं । चाप समीप महीप न जाहीं ॥
दो. तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ । मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ ॥ २५० ॥
भूप सहस दस एकहि बारा । लगे उठावन टरइ न टारा ॥ डगइ न संभु सरासन कैसें । कामी बचन सती मनु जैसें ॥
सब नृप भए जोगु उपहासी । जैसें बिनु बिराग संन्यासी ॥ कीरति बिजय बीरता भारी । चले चाप कर बरबस हारी ॥
श्रीहत भए हारि हियँ राजा । बैठे निज निज जाइ समाजा ॥ नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने । बोले बचन रोष जनु साने ॥
दीप दीप के भूपति नाना । आए सुनि हम जो पनु ठाना ॥ देव दनुज धरि मनुज सरीरा । बिपुल बीर आए रनधीरा ॥
दो. कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय । पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय ॥ २५१ ॥
कहहु काहि यहु लाभु न भावा । काहुँ न संकर चाप चढ़ावा ॥ रहउ चढ़ाउब तोरब भाई । तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई ॥
अब जनि कोउ माखै भट मानी । बीर बिहीन मही मैं जानी ॥ तजहु आस निज निज गृह जाहू । लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू ॥
सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ । कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ ॥ जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई । तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई ॥
जनक बचन सुनि सब नर नारी । देखि जानकिहि भए दुखारी ॥ माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें । रदपट फरकत नयन रिसौंहें ॥
दो. कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान । नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान ॥ २५२ ॥
रघुबंसिंह महुँ जहँ कोउ होई । तेहिं समाज अस कहइ न कोई ॥ कही जनक जसि अनुचित बानी । बिद्यमान रघुकुल मनि जानी ॥
सुनहु भानुकुल पंकज भानू । कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू ॥ जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं । कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं ॥
काचे घट जिमि डारौं फोरी । सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी ॥ तव प्रताप महिमा भगवाना । को बापुरो पिनाक पुराना ॥
नाथ जानि अस आयसु होऊ । कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ ॥ कमल नाल जिमि चाफ चढ़ावौं । जोजन सत प्रमान लै धावौं ॥
दो. तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ । जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ ॥ २५३ ॥
लखन सकोप बचन जे बोले । डगमगानि महि दिग्गज डोले ॥ सकल लोक सब भूप डेराने । सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने ॥
गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं । मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं ॥ सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे । प्रेम समेत निकट बैठारे ॥
बिस्वामित्र समय सुभ जानी । बोले अति सनेहमय बानी ॥ उठहु राम भंजहु भवचापा । मेटहु तात जनक परितापा ॥
सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा । हरषु बिषादु न कछु उर आवा ॥ ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ । ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ ॥
दो. उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग । बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग ॥ २५४ ॥
नृपन्ह केरि आसा निसि नासी । बचन नखत अवली न प्रकासी ॥ मानी महिप कुमुद सकुचाने । कपटी भूप उलूक लुकाने ॥
भए बिसोक कोक मुनि देवा । बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा ॥ गुर पद बंदि सहित अनुरागा । राम मुनिन्ह सन आयसु मागा ॥
सहजहिं चले सकल जग स्वामी । मत्त मंजु बर कुंजर गामी ॥ चलत राम सब पुर नर नारी । पुलक पूरि तन भए सुखारी ॥
बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे । जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे ॥ तौ सिवधनु मृनाल की नाईं । तोरहुँ राम गनेस गोसाईं ॥
दो. रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ । सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ ॥ २५५ ॥
सखि सब कौतुक देखनिहारे । जेठ कहावत हितू हमारे ॥ कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं । ए बालक असि हठ भलि नाहीं ॥
रावन बान छुआ नहिं चापा । हारे सकल भूप करि दापा ॥ सो धनु राजकुअँर कर देहीं । बाल मराल कि मंदर लेहीं ॥
भूप सयानप सकल सिरानी । सखि बिधि गति कछु जाति न जानी ॥ बोली चतुर सखी मृदु बानी । तेजवंत लघु गनिअ न रानी ॥
कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा । सोषेउ सुजसु सकल संसारा ॥ रबि मंडल देखत लघु लागा । उदयँ तासु तिभुवन तम भागा ॥
दो. मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब । महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब ॥ २५६ ॥
काम कुसुम धनु सायक लीन्हे । सकल भुवन अपने बस कीन्हे ॥ देबि तजिअ संसउ अस जानी । भंजब धनुष रामु सुनु रानी ॥
सखी बचन सुनि भै परतीती । मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती ॥ तब रामहि बिलोकि बैदेही । सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही ॥
मनहीं मन मनाव अकुलानी । होहु प्रसन्न महेस भवानी ॥ करहु सफल आपनि सेवकाई । करि हितु हरहु चाप गरुआई ॥
गननायक बरदायक देवा । आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा ॥ बार बार बिनती सुनि मोरी । करहु चाप गुरुता अति थोरी ॥
दो. देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर ॥ भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर ॥ २५७ ॥
नीकें निरखि नयन भरि सोभा । पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा ॥ अहह तात दारुनि हठ ठानी । समुझत नहिं कछु लाभु न हानी ॥
सचिव सभय सिख देइ न कोई । बुध समाज बड़ अनुचित होई ॥ कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा । कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा ॥
बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा । सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा ॥ सकल सभा कै मति भै भोरी । अब मोहि संभुचाप गति तोरी ॥
निज जड़ता लोगन्ह पर डारी । होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी ॥ अति परिताप सीय मन माही । लव निमेष जुग सब सय जाहीं ॥
दो. प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल । खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल ॥ २५८ ॥
गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी । प्रगट न लाज निसा अवलोकी ॥ लोचन जलु रह लोचन कोना । जैसे परम कृपन कर सोना ॥
सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी । धरि धीरजु प्रतीति उर आनी ॥ तन मन बचन मोर पनु साचा । रघुपति पद सरोज चितु राचा ॥
तौ भगवानु सकल उर बासी । करिहिं मोहि रघुबर कै दासी ॥ जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू । सो तेहि मिलइ न कछु संहेहू ॥
प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना । कृपानिधान राम सबु जाना ॥ सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे । चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे ॥
दो. लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु । पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु ॥ २५९ ॥
दिसकुंजरहु कमठ अहि कोला । धरहु धरनि धरि धीर न डोला ॥ रामु चहहिं संकर धनु तोरा । होहु सजग सुनि आयसु मोरा ॥
चाप सपीप रामु जब आए । नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए ॥ सब कर संसउ अरु अग्यानू । मंद महीपन्ह कर अभिमानू ॥
भृगुपति केरि गरब गरुआई । सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई ॥ सिय कर सोचु जनक पछितावा । रानिन्ह कर दारुन दुख दावा ॥
संभुचाप बड बोहितु पाई । चढे जाइ सब संगु बनाई ॥ राम बाहुबल सिंधु अपारू । चहत पारु नहि कोउ कड़हारू ॥
दो. राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि । चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि ॥ २६० ॥
देखी बिपुल बिकल बैदेही । निमिष बिहात कलप सम तेही ॥ तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा । मुएँ करइ का सुधा तड़ागा ॥
का बरषा सब कृषी सुखानें । समय चुकें पुनि का पछितानें ॥ अस जियँ जानि जानकी देखी । प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी ॥
गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा । अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा ॥ दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ । पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ ॥
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें । काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें ॥ तेहि छन राम मध्य धनु तोरा । भरे भुवन धुनि घोर कठोरा ॥
छं. भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले । चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले ॥ सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं । कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारही ॥
सो. संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु । बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस ॥ २६१ ॥
प्रभु दोउ चापखंड महि डारे । देखि लोग सब भए सुखारे ॥ कोसिकरुप पयोनिधि पावन । प्रेम बारि अवगाहु सुहावन ॥
रामरूप राकेसु निहारी । बढ़त बीचि पुलकावलि भारी ॥ बाजे नभ गहगहे निसाना । देवबधू नाचहिं करि गाना ॥
ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा । प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा ॥ बरिसहिं सुमन रंग बहु माला । गावहिं किंनर गीत रसाला ॥
रही भुवन भरि जय जय बानी । धनुषभंग धुनि जात न जानी ॥ मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी । भंजेउ राम संभुधनु भारी ॥
दो. बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर । करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर ॥ २६२ ॥
झाँझि मृदंग संख सहनाई । भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई ॥ बाजहिं बहु बाजने सुहाए । जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए ॥
सखिन्ह सहित हरषी अति रानी । सूखत धान परा जनु पानी ॥ जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई । पैरत थकें थाह जनु पाई ॥
श्रीहत भए भूप धनु टूटे । जैसें दिवस दीप छबि छूटे ॥ सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती । जनु चातकी पाइ जलु स्वाती ॥
रामहि लखनु बिलोकत कैसें । ससिहि चकोर किसोरकु जैसें ॥ सतानंद तब आयसु दीन्हा । सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा ॥
दो. संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार । गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार ॥ २६३ ॥
सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे । छबिगन मध्य महाछबि जैसें ॥ कर सरोज जयमाल सुहाई । बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई ॥
तन सकोचु मन परम उछाहू । गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू ॥ जाइ समीप राम छबि देखी । रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी ॥
चतुर सखीं लखि कहा बुझाई । पहिरावहु जयमाल सुहाई ॥ सुनत जुगल कर माल उठाई । प्रेम बिबस पहिराइ न जाई ॥
सोहत जनु जुग जलज सनाला । ससिहि सभीत देत जयमाला ॥ गावहिं छबि अवलोकि सहेली । सियँ जयमाल राम उर मेली ॥
सो. रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन । सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन ॥ २६४ ॥
पुर अरु ब्योम बाजने बाजे । खल भए मलिन साधु सब राजे ॥ सुर किंनर नर नाग मुनीसा । जय जय जय कहि देहिं असीसा ॥
नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं । बार बार कुसुमांजलि छूटीं ॥ जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं । बंदी बिरदावलि उच्चरहीं ॥
महि पाताल नाक जसु ब्यापा । राम बरी सिय भंजेउ चापा ॥ करहिं आरती पुर नर नारी । देहिं निछावरि बित्त बिसारी ॥
सोहति सीय राम कै जौरी । छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी ॥ सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता । करति न चरन परस अति भीता ॥
दो. गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि । मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि ॥ २६५ ॥
तब सिय देखि भूप अभिलाषे । कूर कपूत मूढ़ मन माखे ॥ उठि उठि पहिरि सनाह अभागे । जहँ तहँ गाल बजावन लागे ॥
लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ । धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ ॥ तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई । जीवत हमहि कुअँरि को बरई ॥
जौं बिदेहु कछु करै सहाई । जीतहु समर सहित दोउ भाई ॥ साधु भूप बोले सुनि बानी । राजसमाजहि लाज लजानी ॥
बलु प्रतापु बीरता बड़ाई । नाक पिनाकहि संग सिधाई ॥ सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई । असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई ॥
दो. देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु । लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु ॥ २६६ ॥
बैनतेय बलि जिमि चह कागू । जिमि ससु चहै नाग अरि भागू ॥ जिमि चह कुसल अकारन कोही । सब संपदा चहै सिवद्रोही ॥
लोभी लोलुप कल कीरति चहई । अकलंकता कि कामी लहई ॥ हरि पद बिमुख परम गति चाहा । तस तुम्हार लालचु नरनाहा ॥
कोलाहलु सुनि सीय सकानी । सखीं लवाइ गईं जहँ रानी ॥ रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं । सिय सनेहु बरनत मन माहीं ॥
रानिन्ह सहित सोचबस सीया । अब धौं बिधिहि काह करनीया ॥ भूप बचन सुनि इत उत तकहीं । लखनु राम डर बोलि न सकहीं ॥
दो. अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप । मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप ॥ २६७ ॥
खरभरु देखि बिकल पुर नारीं । सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं ॥ तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा । आयसु भृगुकुल कमल पतंगा ॥
देखि महीप सकल सकुचाने । बाज झपट जनु लवा लुकाने ॥ गौरि सरीर भूति भल भ्राजा । भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा ॥
सीस जटा ससिबदनु सुहावा । रिसबस कछुक अरुन होइ आवा ॥ भृकुटी कुटिल नयन रिस राते । सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते ॥
बृषभ कंध उर बाहु बिसाला । चारु जनेउ माल मृगछाला ॥ कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें । धनु सर कर कुठारु कल काँधें ॥
दो. सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप । धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप ॥ २६८ ॥
देखत भृगुपति बेषु कराला । उठे सकल भय बिकल भुआला ॥ पितु समेत कहि कहि निज नामा । लगे करन सब दंड प्रनामा ॥
जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी । सो जानइ जनु आइ खुटानी ॥ जनक बहोरि आइ सिरु नावा । सीय बोलाइ प्रनामु करावा ॥
आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं । निज समाज लै गई सयानीं ॥ बिस्वामित्रु मिले पुनि आई । पद सरोज मेले दोउ भाई ॥
रामु लखनु दसरथ के ढोटा । दीन्हि असीस देखि भल जोटा ॥ रामहि चितइ रहे थकि लोचन । रूप अपार मार मद मोचन ॥
दो. बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर ॥ पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर ॥ २६९ ॥
समाचार कहि जनक सुनाए । जेहि कारन महीप सब आए ॥ सुनत बचन फिरि अनत निहारे । देखे चापखंड महि डारे ॥
अति रिस बोले बचन कठोरा । कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा ॥ बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू । उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू ॥
अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं । कुटिल भूप हरषे मन माहीं ॥ सुर मुनि नाग नगर नर नारी ॥ सोचहिं सकल त्रास उर भारी ॥
मन पछिताति सीय महतारी । बिधि अब सँवरी बात बिगारी ॥ भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता । अरध निमेष कलप सम बीता ॥
दो. सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु । हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु ॥ २७० ॥
Masaparayana 9 Ends
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