सीय स्वयंबरु देखिअ जाई । ईसु काहि धौं देइ बड़ाई ॥ लखन कहा जस भाजनु सोई । नाथ कृपा तव जापर होई ॥
हरषे मुनि सब सुनि बर बानी । दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी ॥ पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला । देखन चले धनुषमख साला ॥
रंगभूमि आए दोउ भाई । असि सुधि सब पुरबासिंह पाई ॥ चले सकल गृह काज बिसारी । बाल जुबान जरठ नर नारी ॥
देखी जनक भीर भै भारी । सुचि सेवक सब लिए हँकारी ॥ तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू । आसन उचित देहू सब काहू ॥
दो. कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि । उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि ॥ २४० ॥
राजकुअँर तेहि अवसर आए । मनहुँ मनोहरता तन छाए ॥ गुन सागर नागर बर बीरा । सुंदर स्यामल गौर सरीरा ॥
राज समाज बिराजत रूरे । उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे ॥ जिन्ह कें रही भावना जैसी । प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥
देखहिं रूप महा रनधीरा । मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा ॥ डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी । मनहुँ भयानक मूरति भारी ॥
रहे असुर छल छोनिप बेषा । तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा ॥ पुरबासिंह देखे दोउ भाई । नरभूषन लोचन सुखदाई ॥
दो. नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप । जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप ॥ २४१ ॥
बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा । बहु मुख कर पग लोचन सीसा ॥ जनक जाति अवलोकहिं कैसैं । सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें ॥
सहित बिदेह बिलोकहिं रानी । सिसु सम प्रीति न जाति बखानी ॥ जोगिन्ह परम तत्त्वमय भासा । सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा ॥
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता । इष्टदेव इव सब सुख दाता ॥ रामहि चितव भायँ जेहि सीया । सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया ॥
उर अनुभवति न कहि सक सोऊ । कवन प्रकार कहै कबि कोऊ ॥ एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ । तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ ॥
दो. राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर । सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर ॥ २४२ ॥
सहज मनोहर मूरति दोऊ । कोटि काम उपमा लघु सोऊ ॥ सरद चंद निंदक मुख नीके । नीरज नयन भावते जी के ॥
चितवत चारु मार मनु हरनी । भावति हृदय जाति नहीं बरनी ॥ कल कपोल श्रुति कुंडल लोला । चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला ॥
कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा । भृकुटी बिकट मनोहर नासा ॥ भाल बिसाल तिलक झलकाहीं । कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं ॥
पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई । कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं ॥ रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ । जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ ॥
दो. कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल । बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल ॥ २४३ ॥
कटि तूनीर पीत पट बाँधे । कर सर धनुष बाम बर काँधे ॥ पीत जग्य उपबीत सुहाए । नख सिख मंजु महाछबि छाए ॥
देखि लोग सब भए सुखारे । एकटक लोचन चलत न तारे ॥ हरषे जनकु देखि दोउ भाई । मुनि पद कमल गहे तब जाई ॥
करि बिनती निज कथा सुनाई । रंग अवनि सब मुनिहि देखाई ॥ जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ । तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ ॥
निज निज रुख रामहि सबु देखा । कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा ॥ भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ । राजाँ मुदित महासुख लहेऊ ॥
दो. सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल । मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल ॥ २४४ ॥
प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे । जनु राकेस उदय भएँ तारे ॥ असि प्रतीति सब के मन माहीं । राम चाप तोरब सक नाहीं ॥
बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला । मेलिहि सीय राम उर माला ॥ अस बिचारि गवनहु घर भाई । जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई ॥
बिहसे अपर भूप सुनि बानी । जे अबिबेक अंध अभिमानी ॥ तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा । बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा ॥
एक बार कालउ किन होऊ । सिय हित समर जितब हम सोऊ ॥ यह सुनि अवर महिप मुसकाने । धरमसील हरिभगत सयाने ॥
सो. सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के ॥ जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे ॥ २४५ ॥
ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई । मन मोदकन्हि कि भूख बुताई ॥ सिख हमारि सुनि परम पुनीता । जगदंबा जानहु जियँ सीता ॥
जगत पिता रघुपतिहि बिचारी । भरि लोचन छबि लेहु निहारी ॥ सुंदर सुखद सकल गुन रासी । ए दोउ बंधु संभु उर बासी ॥
सुधा समुद्र समीप बिहाई । मृगजलु निरखि मरहु कत धाई ॥ करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा । हम तौ आजु जनम फलु पावा ॥
अस कहि भले भूप अनुरागे । रूप अनूप बिलोकन लागे ॥ देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना । बरषहिं सुमन करहिं कल गाना ॥
दो. जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई । चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं ॥ २४६ ॥
सिय सोभा नहिं जाइ बखानी । जगदंबिका रूप गुन खानी ॥ उपमा सकल मोहि लघु लागीं । प्राकृत नारि अंग अनुरागीं ॥
सिय बरनिअ तेइ उपमा देई । कुकबि कहाइ अजसु को लेई ॥ जौ पटतरिअ तीय सम सीया । जग असि जुबति कहाँ कमनीया ॥
गिरा मुखर तन अरध भवानी । रति अति दुखित अतनु पति जानी ॥ बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही । कहिअ रमासम किमि बैदेही ॥
जौ छबि सुधा पयोनिधि होई । परम रूपमय कच्छप सोई ॥ सोभा रजु मंदरु सिंगारू । मथै पानि पंकज निज मारू ॥
दो. एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल । तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल ॥ २४७ ॥
चलिं संग लै सखीं सयानी । गावत गीत मनोहर बानी ॥ सोह नवल तनु सुंदर सारी । जगत जननि अतुलित छबि भारी ॥
भूषन सकल सुदेस सुहाए । अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए ॥ रंगभूमि जब सिय पगु धारी । देखि रूप मोहे नर नारी ॥
हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई । बरषि प्रसून अपछरा गाई ॥ पानि सरोज सोह जयमाला । अवचट चितए सकल भुआला ॥
सीय चकित चित रामहि चाहा । भए मोहबस सब नरनाहा ॥ मुनि समीप देखे दोउ भाई । लगे ललकि लोचन निधि पाई ॥
दो. गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि ॥ लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि ॥ २४८ ॥
राम रूपु अरु सिय छबि देखें । नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें ॥ सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं । बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं ॥
हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई । मति हमारि असि देहि सुहाई ॥ बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु । सीय राम कर करै बिबाहू ॥
जगु भल कहहि भाव सब काहू । हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू ॥ एहिं लालसाँ मगन सब लोगू । बरु साँवरो जानकी जोगू ॥
तब बंदीजन जनक बौलाए । बिरिदावली कहत चलि आए ॥ कह नृप जाइ कहहु पन मोरा । चले भाट हियँ हरषु न थोरा ॥
दो. बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल । पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल ॥ २४९ ॥
नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू । गरुअ कठोर बिदित सब काहू ॥ रावनु बानु महाभट भारे । देखि सरासन गवँहिं सिधारे ॥
सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा । राज समाज आजु जोइ तोरा ॥ त्रिभुवन जय समेत बैदेही ॥ बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही ॥
सुनि पन सकल भूप अभिलाषे । भटमानी अतिसय मन माखे ॥ परिकर बाँधि उठे अकुलाई । चले इष्टदेवन्ह सिर नाई ॥
तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं । उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं ॥ जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं । चाप समीप महीप न जाहीं ॥
दो. तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ । मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ ॥ २५० ॥
भूप सहस दस एकहि बारा । लगे उठावन टरइ न टारा ॥ डगइ न संभु सरासन कैसें । कामी बचन सती मनु जैसें ॥
सब नृप भए जोगु उपहासी । जैसें बिनु बिराग संन्यासी ॥ कीरति बिजय बीरता भारी । चले चाप कर बरबस हारी ॥
श्रीहत भए हारि हियँ राजा । बैठे निज निज जाइ समाजा ॥ नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने । बोले बचन रोष जनु साने ॥
दीप दीप के भूपति नाना । आए सुनि हम जो पनु ठाना ॥ देव दनुज धरि मनुज सरीरा । बिपुल बीर आए रनधीरा ॥
दो. कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय । पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय ॥ २५१ ॥
कहहु काहि यहु लाभु न भावा । काहुँ न संकर चाप चढ़ावा ॥ रहउ चढ़ाउब तोरब भाई । तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई ॥
अब जनि कोउ माखै भट मानी । बीर बिहीन मही मैं जानी ॥ तजहु आस निज निज गृह जाहू । लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू ॥
सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ । कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ ॥ जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई । तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई ॥
जनक बचन सुनि सब नर नारी । देखि जानकिहि भए दुखारी ॥ माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें । रदपट फरकत नयन रिसौंहें ॥
दो. कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान । नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान ॥ २५२ ॥
रघुबंसिंह महुँ जहँ कोउ होई । तेहिं समाज अस कहइ न कोई ॥ कही जनक जसि अनुचित बानी । बिद्यमान रघुकुल मनि जानी ॥
सुनहु भानुकुल पंकज भानू । कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू ॥ जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं । कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं ॥
काचे घट जिमि डारौं फोरी । सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी ॥ तव प्रताप महिमा भगवाना । को बापुरो पिनाक पुराना ॥
नाथ जानि अस आयसु होऊ । कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ ॥ कमल नाल जिमि चाफ चढ़ावौं । जोजन सत प्रमान लै धावौं ॥
दो. तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ । जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ ॥ २५३ ॥
लखन सकोप बचन जे बोले । डगमगानि महि दिग्गज डोले ॥ सकल लोक सब भूप डेराने । सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने ॥
गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं । मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं ॥ सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे । प्रेम समेत निकट बैठारे ॥
बिस्वामित्र समय सुभ जानी । बोले अति सनेहमय बानी ॥ उठहु राम भंजहु भवचापा । मेटहु तात जनक परितापा ॥
सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा । हरषु बिषादु न कछु उर आवा ॥ ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ । ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ ॥
दो. उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग । बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग ॥ २५४ ॥
नृपन्ह केरि आसा निसि नासी । बचन नखत अवली न प्रकासी ॥ मानी महिप कुमुद सकुचाने । कपटी भूप उलूक लुकाने ॥
भए बिसोक कोक मुनि देवा । बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा ॥ गुर पद बंदि सहित अनुरागा । राम मुनिन्ह सन आयसु मागा ॥
सहजहिं चले सकल जग स्वामी । मत्त मंजु बर कुंजर गामी ॥ चलत राम सब पुर नर नारी । पुलक पूरि तन भए सुखारी ॥
बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे । जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे ॥ तौ सिवधनु मृनाल की नाईं । तोरहुँ राम गनेस गोसाईं ॥
दो. रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ । सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ ॥ २५५ ॥
सखि सब कौतुक देखनिहारे । जेठ कहावत हितू हमारे ॥ कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं । ए बालक असि हठ भलि नाहीं ॥
रावन बान छुआ नहिं चापा । हारे सकल भूप करि दापा ॥ सो धनु राजकुअँर कर देहीं । बाल मराल कि मंदर लेहीं ॥
भूप सयानप सकल सिरानी । सखि बिधि गति कछु जाति न जानी ॥ बोली चतुर सखी मृदु बानी । तेजवंत लघु गनिअ न रानी ॥
कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा । सोषेउ सुजसु सकल संसारा ॥ रबि मंडल देखत लघु लागा । उदयँ तासु तिभुवन तम भागा ॥
दो. मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब । महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब ॥ २५६ ॥
काम कुसुम धनु सायक लीन्हे । सकल भुवन अपने बस कीन्हे ॥ देबि तजिअ संसउ अस जानी । भंजब धनुष रामु सुनु रानी ॥
सखी बचन सुनि भै परतीती । मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती ॥ तब रामहि बिलोकि बैदेही । सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही ॥
मनहीं मन मनाव अकुलानी । होहु प्रसन्न महेस भवानी ॥ करहु सफल आपनि सेवकाई । करि हितु हरहु चाप गरुआई ॥
गननायक बरदायक देवा । आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा ॥ बार बार बिनती सुनि मोरी । करहु चाप गुरुता अति थोरी ॥
दो. देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर ॥ भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर ॥ २५७ ॥
नीकें निरखि नयन भरि सोभा । पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा ॥ अहह तात दारुनि हठ ठानी । समुझत नहिं कछु लाभु न हानी ॥
सचिव सभय सिख देइ न कोई । बुध समाज बड़ अनुचित होई ॥ कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा । कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा ॥
बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा । सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा ॥ सकल सभा कै मति भै भोरी । अब मोहि संभुचाप गति तोरी ॥
निज जड़ता लोगन्ह पर डारी । होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी ॥ अति परिताप सीय मन माही । लव निमेष जुग सब सय जाहीं ॥
दो. प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल । खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल ॥ २५८ ॥
गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी । प्रगट न लाज निसा अवलोकी ॥ लोचन जलु रह लोचन कोना । जैसे परम कृपन कर सोना ॥
सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी । धरि धीरजु प्रतीति उर आनी ॥ तन मन बचन मोर पनु साचा । रघुपति पद सरोज चितु राचा ॥
तौ भगवानु सकल उर बासी । करिहिं मोहि रघुबर कै दासी ॥ जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू । सो तेहि मिलइ न कछु संहेहू ॥
प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना । कृपानिधान राम सबु जाना ॥ सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे । चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे ॥
दो. लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु । पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु ॥ २५९ ॥
दिसकुंजरहु कमठ अहि कोला । धरहु धरनि धरि धीर न डोला ॥ रामु चहहिं संकर धनु तोरा । होहु सजग सुनि आयसु मोरा ॥
चाप सपीप रामु जब आए । नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए ॥ सब कर संसउ अरु अग्यानू । मंद महीपन्ह कर अभिमानू ॥
भृगुपति केरि गरब गरुआई । सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई ॥ सिय कर सोचु जनक पछितावा । रानिन्ह कर दारुन दुख दावा ॥
संभुचाप बड बोहितु पाई । चढे जाइ सब संगु बनाई ॥ राम बाहुबल सिंधु अपारू । चहत पारु नहि कोउ कड़हारू ॥
दो. राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि । चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि ॥ २६० ॥
देखी बिपुल बिकल बैदेही । निमिष बिहात कलप सम तेही ॥ तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा । मुएँ करइ का सुधा तड़ागा ॥
का बरषा सब कृषी सुखानें । समय चुकें पुनि का पछितानें ॥ अस जियँ जानि जानकी देखी । प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी ॥
गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा । अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा ॥ दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ । पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ ॥
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें । काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें ॥ तेहि छन राम मध्य धनु तोरा । भरे भुवन धुनि घोर कठोरा ॥
छं. भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले । चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले ॥ सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं । कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारही ॥
सो. संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु । बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस ॥ २६१ ॥
प्रभु दोउ चापखंड महि डारे । देखि लोग सब भए सुखारे ॥ कोसिकरुप पयोनिधि पावन । प्रेम बारि अवगाहु सुहावन ॥
रामरूप राकेसु निहारी । बढ़त बीचि पुलकावलि भारी ॥ बाजे नभ गहगहे निसाना । देवबधू नाचहिं करि गाना ॥
ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा । प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा ॥ बरिसहिं सुमन रंग बहु माला । गावहिं किंनर गीत रसाला ॥
रही भुवन भरि जय जय बानी । धनुषभंग धुनि जात न जानी ॥ मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी । भंजेउ राम संभुधनु भारी ॥
दो. बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर । करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर ॥ २६२ ॥
झाँझि मृदंग संख सहनाई । भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई ॥ बाजहिं बहु बाजने सुहाए । जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए ॥
सखिन्ह सहित हरषी अति रानी । सूखत धान परा जनु पानी ॥ जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई । पैरत थकें थाह जनु पाई ॥
श्रीहत भए भूप धनु टूटे । जैसें दिवस दीप छबि छूटे ॥ सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती । जनु चातकी पाइ जलु स्वाती ॥
रामहि लखनु बिलोकत कैसें । ससिहि चकोर किसोरकु जैसें ॥ सतानंद तब आयसु दीन्हा । सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा ॥
दो. संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार । गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार ॥ २६३ ॥
सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे । छबिगन मध्य महाछबि जैसें ॥ कर सरोज जयमाल सुहाई । बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई ॥
तन सकोचु मन परम उछाहू । गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू ॥ जाइ समीप राम छबि देखी । रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी ॥
चतुर सखीं लखि कहा बुझाई । पहिरावहु जयमाल सुहाई ॥ सुनत जुगल कर माल उठाई । प्रेम बिबस पहिराइ न जाई ॥
सोहत जनु जुग जलज सनाला । ससिहि सभीत देत जयमाला ॥ गावहिं छबि अवलोकि सहेली । सियँ जयमाल राम उर मेली ॥
सो. रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन । सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन ॥ २६४ ॥
पुर अरु ब्योम बाजने बाजे । खल भए मलिन साधु सब राजे ॥ सुर किंनर नर नाग मुनीसा । जय जय जय कहि देहिं असीसा ॥
नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं । बार बार कुसुमांजलि छूटीं ॥ जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं । बंदी बिरदावलि उच्चरहीं ॥
महि पाताल नाक जसु ब्यापा । राम बरी सिय भंजेउ चापा ॥ करहिं आरती पुर नर नारी । देहिं निछावरि बित्त बिसारी ॥
सोहति सीय राम कै जौरी । छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी ॥ सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता । करति न चरन परस अति भीता ॥
दो. गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि । मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि ॥ २६५ ॥
तब सिय देखि भूप अभिलाषे । कूर कपूत मूढ़ मन माखे ॥ उठि उठि पहिरि सनाह अभागे । जहँ तहँ गाल बजावन लागे ॥
लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ । धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ ॥ तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई । जीवत हमहि कुअँरि को बरई ॥
जौं बिदेहु कछु करै सहाई । जीतहु समर सहित दोउ भाई ॥ साधु भूप बोले सुनि बानी । राजसमाजहि लाज लजानी ॥
बलु प्रतापु बीरता बड़ाई । नाक पिनाकहि संग सिधाई ॥ सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई । असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई ॥
दो. देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु । लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु ॥ २६६ ॥
बैनतेय बलि जिमि चह कागू । जिमि ससु चहै नाग अरि भागू ॥ जिमि चह कुसल अकारन कोही । सब संपदा चहै सिवद्रोही ॥
लोभी लोलुप कल कीरति चहई । अकलंकता कि कामी लहई ॥ हरि पद बिमुख परम गति चाहा । तस तुम्हार लालचु नरनाहा ॥
कोलाहलु सुनि सीय सकानी । सखीं लवाइ गईं जहँ रानी ॥ रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं । सिय सनेहु बरनत मन माहीं ॥
रानिन्ह सहित सोचबस सीया । अब धौं बिधिहि काह करनीया ॥ भूप बचन सुनि इत उत तकहीं । लखनु राम डर बोलि न सकहीं ॥
दो. अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप । मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप ॥ २६७ ॥
खरभरु देखि बिकल पुर नारीं । सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं ॥ तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा । आयसु भृगुकुल कमल पतंगा ॥
देखि महीप सकल सकुचाने । बाज झपट जनु लवा लुकाने ॥ गौरि सरीर भूति भल भ्राजा । भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा ॥
सीस जटा ससिबदनु सुहावा । रिसबस कछुक अरुन होइ आवा ॥ भृकुटी कुटिल नयन रिस राते । सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते ॥
बृषभ कंध उर बाहु बिसाला । चारु जनेउ माल मृगछाला ॥ कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें । धनु सर कर कुठारु कल काँधें ॥
दो. सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप । धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप ॥ २६८ ॥
देखत भृगुपति बेषु कराला । उठे सकल भय बिकल भुआला ॥ पितु समेत कहि कहि निज नामा । लगे करन सब दंड प्रनामा ॥
जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी । सो जानइ जनु आइ खुटानी ॥ जनक बहोरि आइ सिरु नावा । सीय बोलाइ प्रनामु करावा ॥
आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं । निज समाज लै गई सयानीं ॥ बिस्वामित्रु मिले पुनि आई । पद सरोज मेले दोउ भाई ॥
रामु लखनु दसरथ के ढोटा । दीन्हि असीस देखि भल जोटा ॥ रामहि चितइ रहे थकि लोचन । रूप अपार मार मद मोचन ॥
दो. बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर ॥ पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर ॥ २६९ ॥
समाचार कहि जनक सुनाए । जेहि कारन महीप सब आए ॥ सुनत बचन फिरि अनत निहारे । देखे चापखंड महि डारे ॥
अति रिस बोले बचन कठोरा । कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा ॥ बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू । उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू ॥
अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं । कुटिल भूप हरषे मन माहीं ॥ सुर मुनि नाग नगर नर नारी ॥ सोचहिं सकल त्रास उर भारी ॥
मन पछिताति सीय महतारी । बिधि अब सँवरी बात बिगारी ॥ भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता । अरध निमेष कलप सम बीता ॥
दो. सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु । हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु ॥ २७० ॥
नाथ संभुधनु भंजनिहारा । होइहि केउ एक दास तुम्हारा ॥ आयसु काह कहिअ किन मोही । सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही ॥
सेवकु सो जो करै सेवकाई । अरि करनी करि करिअ लराई ॥ सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा । सहसबाहु सम सो रिपु मोरा ॥
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा । न त मारे जैहहिं सब राजा ॥ सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने । बोले परसुधरहि अपमाने ॥
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं । कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं ॥ एहि धनु पर ममता केहि हेतू । सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू ॥
दो. रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार ॥ धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार ॥ २७१ ॥
लखन कहा हँसि हमरें जाना । सुनहु देव सब धनुष समाना ॥ का छति लाभु जून धनु तौरें । देखा राम नयन के भोरें ॥
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू । मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू । बोले चितइ परसु की ओरा । रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा ॥
बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही । केवल मुनि जड़ जानहि मोही ॥ बाल ब्रह्मचारी अति कोही । बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही ॥
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही । बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही ॥ सहसबाहु भुज छेदनिहारा । परसु बिलोकु महीपकुमारा ॥
दो. मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर । गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर ॥ २७२ ॥
बिहसि लखनु बोले मृदु बानी । अहो मुनीसु महा भटमानी ॥ पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू । चहत उड़ावन फूँकि पहारू ॥
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं । जे तरजनी देखि मरि जाहीं ॥ देखि कुठारु सरासन बाना । मैं कछु कहा सहित अभिमाना ॥
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी । जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी ॥ सुर महिसुर हरिजन अरु गाई । हमरें कुल इन्ह पर न सुराई ॥
बधें पापु अपकीरति हारें । मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें ॥ कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा । ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा ॥
दो. जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर । सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर ॥ २७३ ॥
कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु । कुटिल कालबस निज कुल घालकु ॥ भानु बंस राकेस कलंकू । निपट निरंकुस अबुध असंकू ॥
काल कवलु होइहि छन माहीं । कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं ॥ तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा । कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा ॥
लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा । तुम्हहि अछत को बरनै पारा ॥ अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी । बार अनेक भाँति बहु बरनी ॥
नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू । जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू ॥ बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा । गारी देत न पावहु सोभा ॥
दो. सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु । बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु ॥ २७४ ॥
तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा । बार बार मोहि लागि बोलावा ॥ सुनत लखन के बचन कठोरा । परसु सुधारि धरेउ कर घोरा ॥
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू । कटुबादी बालकु बधजोगू ॥ बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा । अब यहु मरनिहार भा साँचा ॥
कौसिक कहा छमिअ अपराधू । बाल दोष गुन गनहिं न साधू ॥ खर कुठार मैं अकरुन कोही । आगें अपराधी गुरुद्रोही ॥
उतर देत छोड़उँ बिनु मारें । केवल कौसिक सील तुम्हारें ॥ न त एहि काटि कुठार कठोरें । गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें ॥
दो. गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ । अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ ॥ २७५ ॥
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा । को नहि जान बिदित संसारा ॥ माता पितहि उरिन भए नीकें । गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें ॥
सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा । दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा ॥ अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली । तुरत देउँ मैं थैली खोली ॥
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा । हाय हाय सब सभा पुकारा ॥ भृगुबर परसु देखावहु मोही । बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही ॥
मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े । द्विज देवता घरहि के बाढ़े ॥ अनुचित कहि सब लोग पुकारे । रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे ॥
दो. लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु । बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु ॥ २७६ ॥
नाथ करहु बालक पर छोहू । सूध दूधमुख करिअ न कोहू ॥ जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना । तौ कि बराबरि करत अयाना ॥
जौं लरिका कछु अचगरि करहीं । गुर पितु मातु मोद मन भरहीं ॥ करिअ कृपा सिसु सेवक जानी । तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी ॥
राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने । कहि कछु लखनु बहुरि मुसकाने ॥ हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी । राम तोर भ्राता बड़ पापी ॥
गौर सरीर स्याम मन माहीं । कालकूटमुख पयमुख नाहीं ॥ सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही । नीचु मीचु सम देख न मौहीं ॥
दो. लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल । जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल ॥ २७७ ॥
मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया । परिहरि कोपु करिअ अब दाया ॥ टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने । बैठिअ होइहिं पाय पिराने ॥
जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई । जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई ॥ बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं । मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं ॥
थर थर कापहिं पुर नर नारी । छोट कुमार खोट बड़ भारी ॥ भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी । रिस तन जरइ होइ बल हानी ॥
बोले रामहि देइ निहोरा । बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा ॥ मनु मलीन तनु सुंदर कैसें । बिष रस भरा कनक घटु जैसैं ॥
दो. सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम । गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम ॥ २७८ ॥
अति बिनीत मृदु सीतल बानी । बोले रामु जोरि जुग पानी ॥ सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना । बालक बचनु करिअ नहिं काना ॥
बररै बालक एकु सुभाऊ । इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ ॥ तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा । अपराधी में नाथ तुम्हारा ॥
कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं । मो पर करिअ दास की नाई ॥ कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई । मुनिनायक सोइ करौं उपाई ॥
कह मुनि राम जाइ रिस कैसें । अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें ॥ एहि के कंठ कुठारु न दीन्हा । तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा ॥
दो. गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर । परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर ॥ २७९ ॥
बहइ न हाथु दहइ रिस छाती । भा कुठारु कुंठित नृपघाती ॥ भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ । मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ ॥
आजु दया दुखु दुसह सहावा । सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा ॥ बाउ कृपा मूरति अनुकूला । बोलत बचन झरत जनु फूला ॥
जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता । क्रोध भएँ तनु राख बिधाता ॥ देखु जनक हठि बालक एहू । कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू ॥
बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा । देखत छोट खोट नृप ढोटा ॥ बिहसे लखनु कहा मन माहीं । मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं ॥
दो. परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु । संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु ॥ २८० ॥
बंधु कहइ कटु संमत तोरें । तू छल बिनय करसि कर जोरें ॥ करु परितोषु मोर संग्रामा । नाहिं त छाड़ कहाउब रामा ॥
छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही । बंधु सहित न त मारउँ तोही ॥ भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ । मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ ॥
गुनह लखन कर हम पर रोषू । कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू ॥ टेढ़ जानि सब बंदइ काहू । बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू ॥
राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा । कर कुठारु आगें यह सीसा ॥ जेंहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी । मोहि जानि आपन अनुगामी ॥
दो. प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु । बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु ॥ २८१ ॥
देखि कुठार बान धनु धारी । भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी ॥ नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा । बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा ॥
जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं । पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं ॥ छमहु चूक अनजानत केरी । चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी ॥
हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा ॥ कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा ॥ राम मात्र लघु नाम हमारा । परसु सहित बड़ नाम तोहारा ॥
देव एकु गुनु धनुष हमारें । नव गुन परम पुनीत तुम्हारें ॥ सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे । छमहु बिप्र अपराध हमारे ॥
दो. बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम । बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम ॥ २८२ ॥
निपटहिं द्विज करि जानहि मोही । मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही ॥ चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू । कोप मोर अति घोर कृसानु ॥
समिधि सेन चतुरंग सुहाई । महा महीप भए पसु आई ॥ मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे । समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे ॥
मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें । बोलसि निदरि बिप्र के भोरें ॥ भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा । अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा ॥
राम कहा मुनि कहहु बिचारी । रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी ॥ छुअतहिं टूट पिनाक पुराना । मैं कहि हेतु करौं अभिमाना ॥
दो. जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ । तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ ॥ २८३ ॥
देव दनुज भूपति भट नाना । समबल अधिक होउ बलवाना ॥ जौं रन हमहि पचारै कोऊ । लरहिं सुखेन कालु किन होऊ ॥
छत्रिय तनु धरि समर सकाना । कुल कलंकु तेहिं पावँर आना ॥ कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी । कालहु डरहिं न रन रघुबंसी ॥
बिप्रबंस कै असि प्रभुताई । अभय होइ जो तुम्हहि डेराई ॥ सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के । उघरे पटल परसुधर मति के ॥
राम रमापति कर धनु लेहू । खैंचहु मिटै मोर संदेहू ॥ देत चापु आपुहिं चलि गयऊ । परसुराम मन बिसमय भयऊ ॥
दो. जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात । जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात ॥ २८४ ॥
जय रघुबंस बनज बन भानू । गहन दनुज कुल दहन कृसानु ॥ जय सुर बिप्र धेनु हितकारी । जय मद मोह कोह भ्रम हारी ॥
बिनय सील करुना गुन सागर । जयति बचन रचना अति नागर ॥ सेवक सुखद सुभग सब अंगा । जय सरीर छबि कोटि अनंगा ॥
करौं काह मुख एक प्रसंसा । जय महेस मन मानस हंसा ॥ अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता । छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता ॥
कहि जय जय जय रघुकुलकेतू । भृगुपति गए बनहि तप हेतू ॥ अपभयँ कुटिल महीप डेराने । जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने ॥
दो. देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल । हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल ॥ २८५ ॥
अति गहगहे बाजने बाजे । सबहिं मनोहर मंगल साजे ॥ जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं । करहिं गान कल कोकिलबयनी ॥
सुखु बिदेह कर बरनि न जाई । जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई ॥ गत त्रास भइ सीय सुखारी । जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी ॥
जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा । प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा ॥ मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं । अब जो उचित सो कहिअ गोसाई ॥
कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना । रहा बिबाहु चाप आधीना ॥ टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू । सुर नर नाग बिदित सब काहु ॥
दो. तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु । बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु ॥ २८६ ॥
दूत अवधपुर पठवहु जाई । आनहिं नृप दसरथहि बोलाई ॥ मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला । पठए दूत बोलि तेहि काला ॥
बहुरि महाजन सकल बोलाए । आइ सबन्हि सादर सिर नाए ॥ हाट बाट मंदिर सुरबासा । नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा ॥
हरषि चले निज निज गृह आए । पुनि परिचारक बोलि पठाए ॥ रचहु बिचित्र बितान बनाई । सिर धरि बचन चले सचु पाई ॥
पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना । जे बितान बिधि कुसल सुजाना ॥ बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा । बिरचे कनक कदलि के खंभा ॥
दो. हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल । रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल ॥ २८७ ॥
बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे । सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे ॥ कनक कलित अहिबेल बनाई । लखि नहि परइ सपरन सुहाई ॥
तेहि के रचि पचि बंध बनाए । बिच बिच मुकता दाम सुहाए ॥ मानिक मरकत कुलिस पिरोजा । चीरि कोरि पचि रचे सरोजा ॥
किए भृंग बहुरंग बिहंगा । गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा ॥ सुर प्रतिमा खंभन गढ़ी काढ़ी । मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ी ॥
चौंकें भाँति अनेक पुराईं । सिंधुर मनिमय सहज सुहाई ॥
दो. सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि ॥ हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि ॥ २८८ ॥
रचे रुचिर बर बंदनिबारे । मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे ॥ मंगल कलस अनेक बनाए । ध्वज पताक पट चमर सुहाए ॥
दीप मनोहर मनिमय नाना । जाइ न बरनि बिचित्र बिताना ॥ जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही । सो बरनै असि मति कबि केही ॥
दूलहु रामु रूप गुन सागर । सो बितानु तिहुँ लोक उजागर ॥ जनक भवन कै सौभा जैसी । गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी ॥
जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी । तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी ॥ जो संपदा नीच गृह सोहा । सो बिलोकि सुरनायक मोहा ॥
दो. बसइ नगर जेहि लच्छ करि कपट नारि बर बेषु ॥ तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु ॥ २८९ ॥
पहुँचे दूत राम पुर पावन । हरषे नगर बिलोकि सुहावन ॥ भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई । दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई ॥
करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही । मुदित महीप आपु उठि लीन्ही ॥ बारि बिलोचन बाचत पाँती । पुलक गात आई भरि छाती ॥
रामु लखनु उर कर बर चीठी । रहि गए कहत न खाटी मीठी ॥ पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची । हरषी सभा बात सुनि साँची ॥
खेलत रहे तहाँ सुधि पाई । आए भरतु सहित हित भाई ॥ पूछत अति सनेहँ सकुचाई । तात कहाँ तें पाती आई ॥
दो. कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस । सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस ॥ २९० ॥
सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता । अधिक सनेहु समात न गाता ॥ प्रीति पुनीत भरत कै देखी । सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी ॥
तब नृप दूत निकट बैठारे । मधुर मनोहर बचन उचारे ॥ भैया कहहु कुसल दोउ बारे । तुम्ह नीकें निज नयन निहारे ॥
स्यामल गौर धरें धनु भाथा । बय किसोर कौसिक मुनि साथा ॥ पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ । प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ ॥
जा दिन तें मुनि गए लवाई । तब तें आजु साँचि सुधि पाई ॥ कहहु बिदेह कवन बिधि जाने । सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने ॥
दो. सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ । रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ ॥ २९१ ॥
पूछन जोगु न तनय तुम्हारे । पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे ॥ जिन्ह के जस प्रताप कें आगे । ससि मलीन रबि सीतल लागे ॥
तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे । देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे ॥ सीय स्वयंबर भूप अनेका । समिटे सुभट एक तें एका ॥
संभु सरासनु काहुँ न टारा । हारे सकल बीर बरिआरा ॥ तीनि लोक महँ जे भटमानी । सभ कै सकति संभु धनु भानी ॥
सकइ उठाइ सरासुर मेरू । सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू ॥ जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा । सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा ॥
दो. तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा महिपाल । भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल ॥ २९२ ॥
सुनि सरोष भृगुनायकु आए । बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए ॥ देखि राम बलु निज धनु दीन्हा । करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा ॥
राजन रामु अतुलबल जैसें । तेज निधान लखनु पुनि तैसें ॥ कंपहि भूप बिलोकत जाकें । जिमि गज हरि किसोर के ताकें ॥
देव देखि तव बालक दोऊ । अब न आँखि तर आवत कोऊ ॥ दूत बचन रचना प्रिय लागी । प्रेम प्रताप बीर रस पागी ॥
सभा समेत राउ अनुरागे । दूतन्ह देन निछावरि लागे ॥ कहि अनीति ते मूदहिं काना । धरमु बिचारि सबहिं सुख माना ॥
दो. तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ । कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ ॥ २९३ ॥
सुनि बोले गुर अति सुखु पाई । पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई ॥ जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं । जद्यपि ताहि कामना नाहीं ॥
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ । धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ ॥ तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी । तसि पुनीत कौसल्या देबी ॥
सुकृती तुम्ह समान जग माहीं । भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं ॥ तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें । राजन राम सरिस सुत जाकें ॥
बीर बिनीत धरम ब्रत धारी । गुन सागर बर बालक चारी ॥ तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना । सजहु बरात बजाइ निसाना ॥
दो. चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ । भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ ॥ २९४ ॥
राजा सबु रनिवास बोलाई । जनक पत्रिका बाचि सुनाई ॥ सुनि संदेसु सकल हरषानीं । अपर कथा सब भूप बखानीं ॥
प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी । मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बनी ॥ मुदित असीस देहिं गुरु नारीं । अति आनंद मगन महतारीं ॥
लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती । हृदयँ लगाइ जुड़ावहिं छाती ॥ राम लखन कै कीरति करनी । बारहिं बार भूपबर बरनी ॥
मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए । रानिन्ह तब महिदेव बोलाए ॥ दिए दान आनंद समेता । चले बिप्रबर आसिष देता ॥
सो. जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि । चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के ॥ २९५ ॥
कहत चले पहिरें पट नाना । हरषि हने गहगहे निसाना ॥ समाचार सब लोगन्ह पाए । लागे घर घर होने बधाए ॥
भुवन चारि दस भरा उछाहू । जनकसुता रघुबीर बिआहू ॥ सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे । मग गृह गलीं सँवारन लागे ॥
जद्यपि अवध सदैव सुहावनि । राम पुरी मंगलमय पावनि ॥ तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई । मंगल रचना रची बनाई ॥
ध्वज पताक पट चामर चारु । छावा परम बिचित्र बजारू ॥ कनक कलस तोरन मनि जाला । हरद दूब दधि अच्छत माला ॥
दो. मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ । बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ ॥ २९६ ॥
जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि । सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि ॥ बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि । निज सरुप रति मानु बिमोचनि ॥
गावहिं मंगल मंजुल बानीं । सुनिकल रव कलकंठि लजानीं ॥ भूप भवन किमि जाइ बखाना । बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना ॥
मंगल द्रब्य मनोहर नाना । राजत बाजत बिपुल निसाना ॥ कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं । कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं ॥
गावहिं सुंदरि मंगल गीता । लै लै नामु रामु अरु सीता ॥ बहुत उछाहु भवनु अति थोरा । मानहुँ उमगि चला चहु ओरा ॥
दो. सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार । जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार ॥ २९७ ॥
भूप भरत पुनि लिए बोलाई । हय गय स्यंदन साजहु जाई ॥ चलहु बेगि रघुबीर बराता । सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता ॥
भरत सकल साहनी बोलाए । आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए ॥ रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे । बरन बरन बर बाजि बिराजे ॥
सुभग सकल सुठि चंचल करनी । अय इव जरत धरत पग धरनी ॥ नाना जाति न जाहिं बखाने । निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने ॥
तिन्ह सब छयल भए असवारा । भरत सरिस बय राजकुमारा ॥ सब सुंदर सब भूषनधारी । कर सर चाप तून कटि भारी ॥
दो. छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन । जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन ॥ २९८ ॥
बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े । निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े ॥ फेरहिं चतुर तुरग गति नाना । हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना ॥
रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए । ध्वज पताक मनि भूषन लाए ॥ चवँर चारु किंकिन धुनि करही । भानु जान सोभा अपहरहीं ॥
सावँकरन अगनित हय होते । ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते ॥ सुंदर सकल अलंकृत सोहे । जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे ॥
जे जल चलहिं थलहि की नाई । टाप न बूड़ बेग अधिकाई ॥ अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई । रथी सारथिन्ह लिए बोलाई ॥
दो. चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात । होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात ॥ २९९ ॥
कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं । कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं ॥ चले मत्तगज घंट बिराजी । मनहुँ सुभग सावन घन राजी ॥
बाहन अपर अनेक बिधाना । सिबिका सुभग सुखासन जाना ॥ तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृन्दा । जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा ॥
मागध सूत बंदि गुनगायक । चले जान चढ़ि जो जेहि लायक ॥ बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती । चले बस्तु भरि अगनित भाँती ॥
कोटिन्ह काँवरि चले कहारा । बिबिध बस्तु को बरनै पारा ॥ चले सकल सेवक समुदाई । निज निज साजु समाजु बनाई ॥
दो. सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर । कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनू दोउ बीर ॥ ३०० ॥
गरजहिं गज घंटा धुनि घोरा । रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा ॥ निदरि घनहि घुर्म्मरहिं निसाना । निज पराइ कछु सुनिअ न काना ॥
महा भीर भूपति के द्वारें । रज होइ जाइ पषान पबारें ॥ चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नारीं । लिँएँ आरती मंगल थारी ॥
गावहिं गीत मनोहर नाना । अति आनंदु न जाइ बखाना ॥ तब सुमंत्र दुइ स्पंदन साजी । जोते रबि हय निंदक बाजी ॥
दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने । नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने ॥ राज समाजु एक रथ साजा । दूसर तेज पुंज अति भ्राजा ॥
दो. तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाइ नरेसु । आपु चढ़ेउ स्पंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु ॥ ३०१ ॥
सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें । सुर गुर संग पुरंदर जैसें ॥ करि कुल रीति बेद बिधि राऊ । देखि सबहि सब भाँति बनाऊ ॥
सुमिरि रामु गुर आयसु पाई । चले महीपति संख बजाई ॥ हरषे बिबुध बिलोकि बराता । बरषहिं सुमन सुमंगल दाता ॥
भयउ कोलाहल हय गय गाजे । ब्योम बरात बाजने बाजे ॥ सुर नर नारि सुमंगल गाई । सरस राग बाजहिं सहनाई ॥
घंट घंटि धुनि बरनि न जाहीं । सरव करहिं पाइक फहराहीं ॥ करहिं बिदूषक कौतुक नाना । हास कुसल कल गान सुजाना ।
दो. तुरग नचावहिं कुँअर बर अकनि मृदंग निसान ॥ नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान ॥ ३०२ ॥
बनइ न बरनत बनी बराता । होहिं सगुन सुंदर सुभदाता ॥ चारा चाषु बाम दिसि लेई । मनहुँ सकल मंगल कहि देई ॥
दाहिन काग सुखेत सुहावा । नकुल दरसु सब काहूँ पावा ॥ सानुकूल बह त्रिबिध बयारी । सघट सवाल आव बर नारी ॥
लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा । सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा ॥ मृगमाला फिरि दाहिनि आई । मंगल गन जनु दीन्हि देखाई ॥
छेमकरी कह छेम बिसेषी । स्यामा बाम सुतरु पर देखी ॥ सनमुख आयउ दधि अरु मीना । कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना ॥
दो. मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार । जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार ॥ ३०३ ॥
मंगल सगुन सुगम सब ताकें । सगुन ब्रह्म सुंदर सुत जाकें ॥ राम सरिस बरु दुलहिनि सीता । समधी दसरथु जनकु पुनीता ॥
सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे । अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे ॥ एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना । हय गय गाजहिं हने निसाना ॥
आवत जानि भानुकुल केतू । सरितन्हि जनक बँधाए सेतू ॥ बीच बीच बर बास बनाए । सुरपुर सरिस संपदा छाए ॥
असन सयन बर बसन सुहाए । पावहिं सब निज निज मन भाए ॥ नित नूतन सुख लखि अनुकूले । सकल बरातिन्ह मंदिर भूले ॥
दो. आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान । सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान ॥ ३०४ ॥
कनक कलस भरि कोपर थारा । भाजन ललित अनेक प्रकारा ॥ भरे सुधासम सब पकवाने । नाना भाँति न जाहिं बखाने ॥
फल अनेक बर बस्तु सुहाईं । हरषि भेंट हित भूप पठाईं ॥ भूषन बसन महामनि नाना । खग मृग हय गय बहुबिधि जाना ॥
मंगल सगुन सुगंध सुहाए । बहुत भाँति महिपाल पठाए ॥ दधि चिउरा उपहार अपारा । भरि भरि काँवरि चले कहारा ॥
अगवानन्ह जब दीखि बराता । उर आनंदु पुलक भर गाता ॥ देखि बनाव सहित अगवाना । मुदित बरातिन्ह हने निसाना ॥
दो. हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल । जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल ॥ ३०५ ॥
बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं । मुदित देव दुंदुभीं बजावहिं ॥ बस्तु सकल राखीं नृप आगें । बिनय कीन्ह तिन्ह अति अनुरागें ॥
प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा । भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा ॥ करि पूजा मान्यता बड़ाई । जनवासे कहुँ चले लवाई ॥
बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं । देखि धनहु धन मदु परिहरहीं ॥ अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा । जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा ॥
जानी सियँ बरात पुर आई । कछु निज महिमा प्रगटि जनाई ॥ हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाई । भूप पहुनई करन पठाई ॥
दो. सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास । लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास ॥ ३०६ ॥
निज निज बास बिलोकि बराती । सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती ॥ बिभव भेद कछु कोउ न जाना । सकल जनक कर करहिं बखाना ॥
सिय महिमा रघुनायक जानी । हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी ॥ पितु आगमनु सुनत दोउ भाई । हृदयँ न अति आनंदु अमाई ॥
सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं । पितु दरसन लालचु मन माहीं ॥ बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी । उपजा उर संतोषु बिसेषी ॥
हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए । पुलक अंग अंबक जल छाए ॥ चले जहाँ दसरथु जनवासे । मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे ॥
दो. भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत । उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत ॥ ३०७ ॥
मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा । बार बार पद रज धरि सीसा ॥ कौसिक राउ लिये उर लाई । कहि असीस पूछी कुसलाई ॥
पुनि दंडवत करत दोउ भाई । देखि नृपति उर सुखु न समाई ॥ सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे । मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे ॥
पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए । प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए ॥ बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं । मन भावती असीसें पाईं ॥
भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा । लिए उठाइ लाइ उर रामा ॥ हरषे लखन देखि दोउ भ्राता । मिले प्रेम परिपूरित गाता ॥
दो. पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत । मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत ॥ ३०८ ॥
रामहि देखि बरात जुड़ानी । प्रीति कि रीति न जाति बखानी ॥ नृप समीप सोहहिं सुत चारी । जनु धन धरमादिक तनुधारी ॥
सुतन्ह समेत दसरथहि देखी । मुदित नगर नर नारि बिसेषी ॥ सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना । नाकनटीं नाचहिं करि गाना ॥
सतानंद अरु बिप्र सचिव गन । मागध सूत बिदुष बंदीजन ॥ सहित बरात राउ सनमाना । आयसु मागि फिरे अगवाना ॥
प्रथम बरात लगन तें आई । तातें पुर प्रमोदु अधिकाई ॥ ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं । बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं ॥
दो. रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दोउ राज । जहँ जहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज ॥ । ३०९ ॥
जनक सुकृत मूरति बैदेही । दसरथ सुकृत रामु धरें देही ॥ इन्ह सम काँहु न सिव अवराधे । काहिँ न इन्ह समान फल लाधे ॥
इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं । है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं ॥ हम सब सकल सुकृत कै रासी । भए जग जनमि जनकपुर बासी ॥
जिन्ह जानकी राम छबि देखी । को सुकृती हम सरिस बिसेषी ॥ पुनि देखब रघुबीर बिआहू । लेब भली बिधि लोचन लाहू ॥
कहहिं परसपर कोकिलबयनीं । एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं ॥ बड़ें भाग बिधि बात बनाई । नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई ॥
दो. बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय । लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय ॥ ३१० ॥
बिबिध भाँति होइहि पहुनाई । प्रिय न काहि अस सासुर माई ॥ तब तब राम लखनहि निहारी । होइहहिं सब पुर लोग सुखारी ॥
सखि जस राम लखनकर जोटा । तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा ॥ स्याम गौर सब अंग सुहाए । ते सब कहहिं देखि जे आए ॥
कहा एक मैं आजु निहारे । जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे ॥ भरतु रामही की अनुहारी । सहसा लखि न सकहिं नर नारी ॥
लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा । नख सिख ते सब अंग अनूपा ॥ मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं । उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं ॥
छं. उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं । बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं ॥ पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं ॥ ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं ॥
सो. कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन । सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ ॥ ३११ ॥
एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं । आनँद उमगि उमगि उर भरहीं ॥ जे नृप सीय स्वयंबर आए । देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए ॥
कहत राम जसु बिसद बिसाला । निज निज भवन गए महिपाला ॥ गए बीति कुछ दिन एहि भाँती । प्रमुदित पुरजन सकल बराती ॥
मंगल मूल लगन दिनु आवा । हिम रितु अगहनु मासु सुहावा ॥ ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू । लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू ॥
पठै दीन्हि नारद सन सोई । गनी जनक के गनकन्ह जोई ॥ सुनी सकल लोगन्ह यह बाता । कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता ॥
दो. धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल । बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकुल ॥ ३१२ ॥
उपरोहितहि कहेउ नरनाहा । अब बिलंब कर कारनु काहा ॥ सतानंद तब सचिव बोलाए । मंगल सकल साजि सब ल्याए ॥
संख निसान पनव बहु बाजे । मंगल कलस सगुन सुभ साजे ॥ सुभग सुआसिनि गावहिं गीता । करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता ॥
लेन चले सादर एहि भाँती । गए जहाँ जनवास बराती ॥ कोसलपति कर देखि समाजू । अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू ॥
भयउ समउ अब धारिअ पाऊ । यह सुनि परा निसानहिं घाऊ ॥ गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा । चले संग मुनि साधु समाजा ॥
दो. भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि । लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि ॥ ३१३ ॥
सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना । बरषहिं सुमन बजाइ निसाना ॥ सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा । चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा ॥
प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू । चले बिलोकन राम बिआहू ॥ देखि जनकपुरु सुर अनुरागे । निज निज लोक सबहिं लघु लागे ॥
चितवहिं चकित बिचित्र बिताना । रचना सकल अलौकिक नाना ॥ नगर नारि नर रूप निधाना । सुघर सुधरम सुसील सुजाना ॥
तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं । भए नखत जनु बिधु उजिआरीं ॥ बिधिहि भयह आचरजु बिसेषी । निज करनी कछु कतहुँ न देखी ॥
दो. सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु । हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु ॥ ३१४ ॥
जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं । सकल अमंगल मूल नसाहीं ॥ करतल होहिं पदारथ चारी । तेइ सिय रामु कहेउ कामारी ॥
एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा । पुनि आगें बर बसह चलावा ॥ देवन्ह देखे दसरथु जाता । महामोद मन पुलकित गाता ॥
साधु समाज संग महिदेवा । जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा ॥ सोहत साथ सुभग सुत चारी । जनु अपबरग सकल तनुधारी ॥
मरकत कनक बरन बर जोरी । देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी ॥ पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे । नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे ॥
दो. राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि । पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि ॥ ३१५ ॥
केकि कंठ दुति स्यामल अंगा । तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा ॥ ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए । मंगल सब सब भाँति सुहाए ॥
सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन । नयन नवल राजीव लजावन ॥ सकल अलौकिक सुंदरताई । कहि न जाइ मनहीं मन भाई ॥
बंधु मनोहर सोहहिं संगा । जात नचावत चपल तुरंगा ॥ राजकुअँर बर बाजि देखावहिं । बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं ॥
जेहि तुरंग पर रामु बिराजे । गति बिलोकि खगनायकु लाजे ॥ कहि न जाइ सब भाँति सुहावा । बाजि बेषु जनु काम बनावा ॥
छं. जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई । आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई ॥ जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे । किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे ॥
दो. प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव । भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव ॥ ३१६ ॥
जेहिं बर बाजि रामु असवारा । तेहि सारदउ न बरनै पारा ॥ संकरु राम रूप अनुरागे । नयन पंचदस अति प्रिय लागे ॥
हरि हित सहित रामु जब जोहे । रमा समेत रमापति मोहे ॥ निरखि राम छबि बिधि हरषाने । आठइ नयन जानि पछिताने ॥
सुर सेनप उर बहुत उछाहू । बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू ॥ रामहि चितव सुरेस सुजाना । गौतम श्रापु परम हित माना ॥
देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं । आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं ॥ मुदित देवगन रामहि देखी । नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी ॥
छं. अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी । बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी ॥ एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं । रानि सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं ॥
दो. सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि । चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि ॥ ३१७ ॥
बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि । सब निज तन छबि रति मदु मोचनि ॥ पहिरें बरन बरन बर चीरा । सकल बिभूषन सजें सरीरा ॥
सकल सुमंगल अंग बनाएँ । करहिं गान कलकंठि लजाएँ ॥ कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं । चालि बिलोकि काम गज लाजहिं ॥
बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा । नभ अरु नगर सुमंगलचारा ॥ सची सारदा रमा भवानी । जे सुरतिय सुचि सहज सयानी ॥
कपट नारि बर बेष बनाई । मिलीं सकल रनिवासहिं जाई ॥ करहिं गान कल मंगल बानीं । हरष बिबस सब काहुँ न जानी ॥
छं. को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली । कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली ॥
दो. जो सुख भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु । सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु ॥ ३१८ ॥
नयन नीरु हटि मंगल जानी । परिछनि करहिं मुदित मन रानी ॥ बेद बिहित अरु कुल आचारू । कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू ॥
पंच सबद धुनि मंगल गाना । पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना ॥ करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा । राम गमनु मंडप तब कीन्हा ॥
दसरथु सहित समाज बिराजे । बिभव बिलोकि लोकपति लाजे ॥ समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला । सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला ॥
नभ अरु नगर कोलाहल होई । आपनि पर कछु सुनइ न कोई ॥ एहि बिधि रामु मंडपहिं आए । अरघु देइ आसन बैठाए ॥
छं. बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं ॥ मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं ॥ ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं । अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं ॥
दो. नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ । मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ ॥ ३१९ ॥
मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं । करि बैदिक लौकिक सब रीतीं ॥ मिलत महा दोउ राज बिराजे । उपमा खोजि खोजि कबि लाजे ॥
लही न कतहुँ हारि हियँ मानी । इन्ह सम एइ उपमा उर आनी ॥ सामध देखि देव अनुरागे । सुमन बरषि जसु गावन लागे ॥
जगु बिरंचि उपजावा जब तें । देखे सुने ब्याह बहु तब तें ॥ सकल भाँति सम साजु समाजू । सम समधी देखे हम आजू ॥
देव गिरा सुनि सुंदर साँची । प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची ॥ देत पाँवड़े अरघु सुहाए । सादर जनकु मंडपहिं ल्याए ॥
छं. मंडपु बिलोकि बिचीत्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे ॥ निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे ॥ कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही । कौसिकहि पूजत परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही ॥
दो. बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस । दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस ॥ ३२० ॥
बहुरि कीन्ह कोसलपति पूजा । जानि ईस सम भाउ न दूजा ॥ कीन्ह जोरि कर बिनय बड़ाई । कहि निज भाग्य बिभव बहुताई ॥
पूजे भूपति सकल बराती । समधि सम सादर सब भाँती ॥ आसन उचित दिए सब काहू । कहौं काह मूख एक उछाहू ॥
सकल बरात जनक सनमानी । दान मान बिनती बर बानी ॥ बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ । जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ ॥
कपट बिप्र बर बेष बनाएँ । कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ ॥ पूजे जनक देव सम जानें । दिए सुआसन बिनु पहिचानें ॥
छं. पहिचान को केहि जान सबहिं अपान सुधि भोरी भई । आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँद मई ॥ सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए । अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए ॥
दो. रामचंद्र मुख चंद्र छबि लोचन चारु चकोर । करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर ॥ ३२१ ॥
समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए । सादर सतानंदु सुनि आए ॥ बेगि कुअँरि अब आनहु जाई । चले मुदित मुनि आयसु पाई ॥
रानी सुनि उपरोहित बानी । प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी ॥ बिप्र बधू कुलबृद्ध बोलाईं । करि कुल रीति सुमंगल गाईं ॥
नारि बेष जे सुर बर बामा । सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा ॥ तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारीं । बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं ॥
बार बार सनमानहिं रानी । उमा रमा सारद सम जानी ॥ सीय सँवारि समाजु बनाई । मुदित मंडपहिं चलीं लवाई ॥
छं. चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं । नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं ॥ कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं । मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गती बर बाजहीं ॥
दो. सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय । छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय ॥ ३२२ ॥
सिय सुंदरता बरनि न जाई । लघु मति बहुत मनोहरताई ॥ आवत दीखि बरातिन्ह सीता ॥ रूप रासि सब भाँति पुनीता ॥
सबहि मनहिं मन किए प्रनामा । देखि राम भए पूरनकामा ॥ हरषे दसरथ सुतन्ह समेता । कहि न जाइ उर आनँदु जेता ॥
सुर प्रनामु करि बरसहिं फूला । मुनि असीस धुनि मंगल मूला ॥ गान निसान कोलाहलु भारी । प्रेम प्रमोद मगन नर नारी ॥
एहि बिधि सीय मंडपहिं आई । प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई ॥ तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू । दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू ॥
छं. आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं । सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं ॥ मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहैं । भरे कनक कोपर कलस सो सब लिएहिं परिचारक रहैं ॥ १ ॥
कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो । एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो ॥ सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेम काहु न लखि परै ॥ मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै ॥ २ ॥
दो. होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं । बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं ॥ ३२३ ॥
जनक पाटमहिषी जग जानी । सीय मातु किमि जाइ बखानी ॥ सुजसु सुकृत सुख सुदंरताई । सब समेटि बिधि रची बनाई ॥
समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाई । सुनत सुआसिनि सादर ल्याई ॥ जनक बाम दिसि सोह सुनयना । हिमगिरि संग बनि जनु मयना ॥
कनक कलस मनि कोपर रूरे । सुचि सुंगध मंगल जल पूरे ॥ निज कर मुदित रायँ अरु रानी । धरे राम के आगें आनी ॥
पढ़हिं बेद मुनि मंगल बानी । गगन सुमन झरि अवसरु जानी ॥ बरु बिलोकि दंपति अनुरागे । पाय पुनीत पखारन लागे ॥
छं. लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली । नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली ॥ जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं । जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं ॥ १ ॥
जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई । मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई ॥ करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं । ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहै ॥ २ ॥
बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं । भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आँनद भरैं ॥ सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो । करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो ॥ ३ ॥
हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई । तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई ॥ क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरी । करि होम बिधिवत गाँठि जोरी होन लागी भावँरी ॥ ४ ॥
दो. जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान । सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान ॥ ३२४ ॥
कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं ॥ नयन लाभु सब सादर लेहीं ॥ जाइ न बरनि मनोहर जोरी । जो उपमा कछु कहौं सो थोरी ॥
राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं । जगमगात मनि खंभन माहीं । मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा । देखत राम बिआहु अनूपा ॥
दरस लालसा सकुच न थोरी । प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी ॥ भए मगन सब देखनिहारे । जनक समान अपान बिसारे ॥
प्रमुदित मुनिन्ह भावँरी फेरी । नेगसहित सब रीति निबेरीं ॥ राम सीय सिर सेंदुर देहीं । सोभा कहि न जाति बिधि केहीं ॥
अरुन पराग जलजु भरि नीकें । ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें ॥ बहुरि बसिष्ठ दीन्ह अनुसासन । बरु दुलहिनि बैठे एक आसन ॥
छं. बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए । तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु फल नए ॥ भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा । केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा ॥ १ ॥
तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै । माँडवी श्रुतिकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि के ॥ कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई । सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई ॥ २ ॥
जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै । सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै ॥ जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी । सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी ॥ ३ ॥
अनुरुप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं । सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं ॥ सुंदरी सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं । जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिमुन सहित बिराजहीं ॥ ४ ॥
दो. मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि । जनु पार महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि ॥ ३२५ ॥
जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी । सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी ॥ कहि न जाइ कछु दाइज भूरी । रहा कनक मनि मंडपु पूरी ॥
कंबल बसन बिचित्र पटोरे । भाँति भाँति बहु मोल न थोरे ॥ गज रथ तुरग दास अरु दासी । धेनु अलंकृत कामदुहा सी ॥
बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा । कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा ॥ लोकपाल अवलोकि सिहाने । लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने ॥
दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा । उबरा सो जनवासेहिं आवा ॥ तब कर जोरि जनकु मृदु बानी । बोले सब बरात सनमानी ॥
छं. सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै । प्रमुदित महा मुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै ॥ सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ । सुर साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ ॥ १ ॥
कर जोरि जनकु बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों । बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों ॥ संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए । एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए ॥ २ ॥
ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई । अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई ॥ पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए । कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए ॥ ३ ॥
बृंदारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले । दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले ॥ तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै । दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै ॥ ४ ॥
दो. पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न । हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन ॥ ३२६ ॥
स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन । सोभा कोटि मनोज लजावन ॥ जावक जुत पद कमल सुहाए । मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए ॥
पीत पुनीत मनोहर धोती । हरति बाल रबि दामिनि जोती ॥ कल किंकिनि कटि सूत्र मनोहर । बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर ॥
पीत जनेउ महाछबि देई । कर मुद्रिका चोरि चितु लेई ॥ सोहत ब्याह साज सब साजे । उर आयत उरभूषन राजे ॥
पिअर उपरना काखासोती । दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती ॥ नयन कमल कल कुंडल काना । बदनु सकल सौंदर्ज निधाना ॥
सुंदर भृकुटि मनोहर नासा । भाल तिलकु रुचिरता निवासा ॥ सोहत मौरु मनोहर माथे । मंगलमय मुकुता मनि गाथे ॥
छं. गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं । पुर नारि सुर सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं ॥ मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहिं । सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं ॥ १ ॥
कोहबरहिं आने कुँअर कुँअरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै । अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै ॥ लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं । रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं ॥ २ ॥
निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की । चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी ॥ कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं । बर कुअँरि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं ॥ ३ ॥
तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा । चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चारयो मुदित मन सबहीं कहा ॥ जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी । चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी ॥ ४ ॥
दो. सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास । सोभा मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास ॥ ३२७ ॥
पुनि जेवनार भई बहु भाँती । पठए जनक बोलाइ बराती ॥ परत पाँवड़े बसन अनूपा । सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा ॥
सादर सबके पाय पखारे । जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे ॥ धोए जनक अवधपति चरना । सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना ॥
बहुरि राम पद पंकज धोए । जे हर हृदय कमल महुँ गोए ॥ तीनिउ भाई राम सम जानी । धोए चरन जनक निज पानी ॥
आसन उचित सबहि नृप दीन्हे । बोलि सूपकारी सब लीन्हे ॥ सादर लगे परन पनवारे । कनक कील मनि पान सँवारे ॥
दो. सूपोदन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत । छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत ॥ ३२८ ॥
पंच कवल करि जेवन लागे । गारि गान सुनि अति अनुरागे ॥ भाँति अनेक परे पकवाने । सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने ॥
परुसन लगे सुआर सुजाना । बिंजन बिबिध नाम को जाना ॥ चारि भाँति भोजन बिधि गाई । एक एक बिधि बरनि न जाई ॥
छरस रुचिर बिंजन बहु जाती । एक एक रस अगनित भाँती ॥ जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी । लै लै नाम पुरुष अरु नारी ॥
समय सुहावनि गारि बिराजा । हँसत राउ सुनि सहित समाजा ॥ एहि बिधि सबहीं भौजनु कीन्हा । आदर सहित आचमनु दीन्हा ॥
दो. देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज । जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज ॥ ३२९ ॥
नित नूतन मंगल पुर माहीं । निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं ॥ बड़े भोर भूपतिमनि जागे । जाचक गुन गन गावन लागे ॥
देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता । किमि कहि जात मोदु मन जेता ॥ प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं । महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं ॥
करि प्रनाम पूजा कर जोरी । बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी ॥ तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा । भयउँ आजु मैं पूरनकाजा ॥
अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं । देहु धेनु सब भाँति बनाई ॥ सुनि गुर करि महिपाल बड़ाई । पुनि पठए मुनि बृंद बोलाई ॥
दो. बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि । आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि ॥ ३३० ॥
दंड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे । पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे ॥ चारि लच्छ बर धेनु मगाई । कामसुरभि सम सील सुहाई ॥
सब बिधि सकल अलंकृत कीन्हीं । मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीं ॥ करत बिनय बहु बिधि नरनाहू । लहेउँ आजु जग जीवन लाहू ॥
पाइ असीस महीसु अनंदा । लिए बोलि पुनि जाचक बृंदा ॥ कनक बसन मनि हय गय स्यंदन । दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन ॥
चले पढ़त गावत गुन गाथा । जय जय जय दिनकर कुल नाथा ॥ एहि बिधि राम बिआह उछाहू । सकइ न बरनि सहस मुख जाहू ॥
दो. बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ । यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ ॥ ३३१ ॥
जनक सनेहु सीलु करतूती । नृपु सब भाँति सराह बिभूती ॥ दिन उठि बिदा अवधपति मागा । राखहिं जनकु सहित अनुरागा ॥
नित नूतन आदरु अधिकाई । दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई ॥ नित नव नगर अनंद उछाहू । दसरथ गवनु सोहाइ न काहू ॥
बहुत दिवस बीते एहि भाँती । जनु सनेह रजु बँधे बराती ॥ कौसिक सतानंद तब जाई । कहा बिदेह नृपहि समुझाई ॥
अब दसरथ कहँ आयसु देहू । जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू ॥ भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए । कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए ॥
दो. अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ । भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ ॥ ३३२ ॥
पुरबासी सुनि चलिहि बराता । बूझत बिकल परस्पर बाता ॥ सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने । मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने ॥
जहँ जहँ आवत बसे बराती । तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती ॥ बिबिध भाँति मेवा पकवाना । भोजन साजु न जाइ बखाना ॥
भरि भरि बसहँ अपार कहारा । पठई जनक अनेक सुसारा ॥ तुरग लाख रथ सहस पचीसा । सकल सँवारे नख अरु सीसा ॥
मत्त सहस दस सिंधुर साजे । जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे ॥ कनक बसन मनि भरि भरि जाना । महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना ॥
दो. दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि । जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि ॥ ३३३ ॥
सबु समाजु एहि भाँति बनाई । जनक अवधपुर दीन्ह पठाई ॥ चलिहि बरात सुनत सब रानीं । बिकल मीनगन जनु लघु पानीं ॥
पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं । देइ असीस सिखावनु देहीं ॥ होएहु संतत पियहि पिआरी । चिरु अहिबात असीस हमारी ॥
सासु ससुर गुर सेवा करेहू । पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू ॥ अति सनेह बस सखीं सयानी । नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी ॥
सादर सकल कुअँरि समुझाई । रानिन्ह बार बार उर लाई ॥ बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं । कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं ॥
दो. तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु । चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु ॥ ३३४ ॥
चारिअ भाइ सुभायँ सुहाए । नगर नारि नर देखन धाए ॥ कोउ कह चलन चहत हहिं आजू । कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू ॥
लेहु नयन भरि रूप निहारी । प्रिय पाहुने भूप सुत चारी ॥ को जानै केहि सुकृत सयानी । नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी ॥
मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा । सुरतरु लहै जनम कर भूखा ॥ पाव नारकी हरिपदु जैसें । इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसे ॥
निरखि राम सोभा उर धरहू । निज मन फनि मूरति मनि करहू ॥ एहि बिधि सबहि नयन फलु देता । गए कुअँर सब राज निकेता ॥
दो. रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु । करहि निछावरि आरती महा मुदित मन सासु ॥ ३३५ ॥
देखि राम छबि अति अनुरागीं । प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं ॥ रही न लाज प्रीति उर छाई । सहज सनेहु बरनि किमि जाई ॥
भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए । छरस असन अति हेतु जेवाँए ॥ बोले रामु सुअवसरु जानी । सील सनेह सकुचमय बानी ॥
राउ अवधपुर चहत सिधाए । बिदा होन हम इहाँ पठाए ॥ मातु मुदित मन आयसु देहू । बालक जानि करब नित नेहू ॥
सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू । बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू ॥ हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही । पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही ॥
छं. करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै । बलि जाँउ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै ॥ परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी । तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी ॥
सो. तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय । जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन ॥ ३३६ ॥
अस कहि रही चरन गहि रानी । प्रेम पंक जनु गिरा समानी ॥ सुनि सनेहसानी बर बानी । बहुबिधि राम सासु सनमानी ॥
राम बिदा मागत कर जोरी । कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी ॥ पाइ असीस बहुरि सिरु नाई । भाइन्ह सहित चले रघुराई ॥
मंजु मधुर मूरति उर आनी । भई सनेह सिथिल सब रानी ॥ पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारी । बार बार भेटहिं महतारीं ॥
पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी । बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी ॥ पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई । बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई ॥
दो. प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु । मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु ॥ ३३७ ॥
सुक सारिका जानकी ज्याए । कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए ॥ ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही । सुनि धीरजु परिहरइ न केही ॥
भए बिकल खग मृग एहि भाँति । मनुज दसा कैसें कहि जाती ॥ बंधु समेत जनकु तब आए । प्रेम उमगि लोचन जल छाए ॥
सीय बिलोकि धीरता भागी । रहे कहावत परम बिरागी ॥ लीन्हि राँय उर लाइ जानकी । मिटी महामरजाद ग्यान की ॥
समुझावत सब सचिव सयाने । कीन्ह बिचारु न अवसर जाने ॥ बारहिं बार सुता उर लाई । सजि सुंदर पालकीं मगाई ॥
दो. प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस । कुँअरि चढ़ाई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस ॥ ३३८ ॥
बहुबिधि भूप सुता समुझाई । नारिधरमु कुलरीति सिखाई ॥ दासीं दास दिए बहुतेरे । सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे ॥
सीय चलत ब्याकुल पुरबासी । होहिं सगुन सुभ मंगल रासी ॥ भूसुर सचिव समेत समाजा । संग चले पहुँचावन राजा ॥
समय बिलोकि बाजने बाजे । रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे ॥ दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे । दान मान परिपूरन कीन्हे ॥
चरन सरोज धूरि धरि सीसा । मुदित महीपति पाइ असीसा ॥ सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना । मंगलमूल सगुन भए नाना ॥
दो. सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान । चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान ॥ ३३९ ॥
नृप करि बिनय महाजन फेरे । सादर सकल मागने टेरे ॥ भूषन बसन बाजि गज दीन्हे । प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे ॥
बार बार बिरिदावलि भाषी । फिरे सकल रामहि उर राखी ॥ बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं । जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं ॥
पुनि कह भूपति बचन सुहाए । फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए ॥ राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े । प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े ॥
तब बिदेह बोले कर जोरी । बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी ॥ करौ कवन बिधि बिनय बनाई । महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई ॥
दो. कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति । मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति ॥ ३४० ॥
मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा । आसिरबादु सबहि सन पावा ॥ सादर पुनि भेंटे जामाता । रूप सील गुन निधि सब भ्राता ॥
जोरि पंकरुह पानि सुहाए । बोले बचन प्रेम जनु जाए ॥ राम करौ केहि भाँति प्रसंसा । मुनि महेस मन मानस हंसा ॥
करहिं जोग जोगी जेहि लागी । कोहु मोहु ममता मदु त्यागी ॥ ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी । चिदानंदु निरगुन गुनरासी ॥
मन समेत जेहि जान न बानी । तरकि न सकहिं सकल अनुमानी ॥ महिमा निगमु नेति कहि कहई । जो तिहुँ काल एकरस रहई ॥
दो. नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल । सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल ॥ ३४१ ॥
सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई । निज जन जानि लीन्ह अपनाई ॥ होहिं सहस दस सारद सेषा । करहिं कलप कोटिक भरि लेखा ॥
मोर भाग्य राउर गुन गाथा । कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा ॥ मै कछु कहउँ एक बल मोरें । तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें ॥
बार बार मागउँ कर जोरें । मनु परिहरै चरन जनि भोरें ॥ सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे । पूरनकाम रामु परितोषे ॥
करि बर बिनय ससुर सनमाने । पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने ॥ बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही । मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही ॥
दो. मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस । भए परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस ॥ ३४२ ॥
बार बार करि बिनय बड़ाई । रघुपति चले संग सब भाई ॥ जनक गहे कौसिक पद जाई । चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई ॥
सुनु मुनीस बर दरसन तोरें । अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें ॥ जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं । करत मनोरथ सकुचत अहहीं ॥
सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी । सब सिधि तव दरसन अनुगामी ॥ कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई । फिरे महीसु आसिषा पाई ॥
चली बरात निसान बजाई । मुदित छोट बड़ सब समुदाई ॥ रामहि निरखि ग्राम नर नारी । पाइ नयन फलु होहिं सुखारी ॥
दो. बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत । अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत ॥ ३४३ ॥
हने निसान पनव बर बाजे । भेरि संख धुनि हय गय गाजे ॥ झाँझि बिरव डिंडमीं सुहाई । सरस राग बाजहिं सहनाई ॥
पुर जन आवत अकनि बराता । मुदित सकल पुलकावलि गाता ॥ निज निज सुंदर सदन सँवारे । हाट बाट चौहट पुर द्वारे ॥
गलीं सकल अरगजाँ सिंचाई । जहँ तहँ चौकें चारु पुराई ॥ बना बजारु न जाइ बखाना । तोरन केतु पताक बिताना ॥
सफल पूगफल कदलि रसाला । रोपे बकुल कदंब तमाला ॥ लगे सुभग तरु परसत धरनी । मनिमय आलबाल कल करनी ॥
दो. बिबिध भाँति मंगल कलस गृह गृह रचे सँवारि । सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि ॥ ३४४ ॥
भूप भवन तेहि अवसर सोहा । रचना देखि मदन मनु मोहा ॥ मंगल सगुन मनोहरताई । रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई ॥
जनु उछाह सब सहज सुहाए । तनु धरि धरि दसरथ दसरथ गृहँ छाए ॥ देखन हेतु राम बैदेही । कहहु लालसा होहि न केही ॥
जुथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि । निज छबि निदरहिं मदन बिलासनि ॥ सकल सुमंगल सजें आरती । गावहिं जनु बहु बेष भारती ॥
भूपति भवन कोलाहलु होई । जाइ न बरनि समउ सुखु सोई ॥ कौसल्यादि राम महतारीं । प्रेम बिबस तन दसा बिसारीं ॥
दो. दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारी । प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि ॥ ३४५ ॥
मोद प्रमोद बिबस सब माता । चलहिं न चरन सिथिल भए गाता ॥ राम दरस हित अति अनुरागीं । परिछनि साजु सजन सब लागीं ॥
बिबिध बिधान बाजने बाजे । मंगल मुदित सुमित्राँ साजे ॥ हरद दूब दधि पल्लव फूला । पान पूगफल मंगल मूला ॥
अच्छत अंकुर लोचन लाजा । मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा ॥ छुहे पुरट घट सहज सुहाए । मदन सकुन जनु नीड़ बनाए ॥
सगुन सुंगध न जाहिं बखानी । मंगल सकल सजहिं सब रानी ॥ रचीं आरतीं बहुत बिधाना । मुदित करहिं कल मंगल गाना ॥
दो. कनक थार भरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात । चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात ॥ ३४६ ॥
धूप धूम नभु मेचक भयऊ । सावन घन घमंडु जनु ठयऊ ॥ सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं । मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं ॥
मंजुल मनिमय बंदनिवारे । मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे ॥ प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि । चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि ॥
दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा । जाचक चातक दादुर मोरा ॥ सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी । सुखी सकल ससि पुर नर नारी ॥
समउ जानी गुर आयसु दीन्हा । पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा ॥ सुमिरि संभु गिरजा गनराजा । मुदित महीपति सहित समाजा ॥
दो. होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुंदुभीं बजाइ । बिबुध बधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ ॥ ३४७ ॥
मागध सूत बंदि नट नागर । गावहिं जसु तिहु लोक उजागर ॥ जय धुनि बिमल बेद बर बानी । दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी ॥
बिपुल बाजने बाजन लागे । नभ सुर नगर लोग अनुरागे ॥ बने बराती बरनि न जाहीं । महा मुदित मन सुख न समाहीं ॥
पुरबासिंह तब राय जोहारे । देखत रामहि भए सुखारे ॥ करहिं निछावरि मनिगन चीरा । बारि बिलोचन पुलक सरीरा ॥
आरति करहिं मुदित पुर नारी । हरषहिं निरखि कुँअर बर चारी ॥ सिबिका सुभग ओहार उघारी । देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी ॥
दो. एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर । मुदित मातु परुछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार ॥ ३४८ ॥
करहिं आरती बारहिं बारा । प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा ॥ भूषन मनि पट नाना जाती ॥ करही निछावरि अगनित भाँती ॥
बधुन्ह समेत देखि सुत चारी । परमानंद मगन महतारी ॥ पुनि पुनि सीय राम छबि देखी ॥ मुदित सफल जग जीवन लेखी ॥
सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही । गान करहिं निज सुकृत सराही ॥ बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा । नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा ॥
देखि मनोहर चारिउ जोरीं । सारद उपमा सकल ढँढोरीं ॥ देत न बनहिं निपट लघु लागी । एकटक रहीं रूप अनुरागीं ॥
दो. निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़े देत । बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत ॥ ३४९ ॥
चारि सिंघासन सहज सुहाए । जनु मनोज निज हाथ बनाए ॥ तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे । सादर पाय पुनित पखारे ॥
धूप दीप नैबेद बेद बिधि । पूजे बर दुलहिनि मंगलनिधि ॥ बारहिं बार आरती करहीं । ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं ॥
बस्तु अनेक निछावर होहीं । भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं ॥ पावा परम तत्त्व जनु जोगीं । अमृत लहेउ जनु संतत रोगीं ॥
जनम रंक जनु पारस पावा । अंधहि लोचन लाभु सुहावा ॥ मूक बदन जनु सारद छाई । मानहुँ समर सूर जय पाई ॥
दो. एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु ॥ भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु ॥ ३५०(क) ॥
लोक रीत जननी करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं । मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसकाहिं ॥ ३५०(ख) ॥
देव पितर पूजे बिधि नीकी । पूजीं सकल बासना जी की ॥ सबहिं बंदि मागहिं बरदाना । भाइन्ह सहित राम कल्याना ॥
अंतरहित सुर आसिष देहीं । मुदित मातु अंचल भरि लेंहीं ॥ भूपति बोलि बराती लीन्हे । जान बसन मनि भूषन दीन्हे ॥
आयसु पाइ राखि उर रामहि । मुदित गए सब निज निज धामहि ॥ पुर नर नारि सकल पहिराए । घर घर बाजन लगे बधाए ॥
जाचक जन जाचहि जोइ जोई । प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई ॥ सेवक सकल बजनिआ नाना । पूरन किए दान सनमाना ॥
दो. देंहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ । तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ ॥ ३५१ ॥
जो बसिष्ठ अनुसासन दीन्ही । लोक बेद बिधि सादर कीन्ही ॥ भूसुर भीर देखि सब रानी । सादर उठीं भाग्य बड़ जानी ॥
पाय पखारि सकल अन्हवाए । पूजि भली बिधि भूप जेवाँए ॥ आदर दान प्रेम परिपोषे । देत असीस चले मन तोषे ॥
बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा । नाथ मोहि सम धन्य न दूजा ॥ कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी । रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी ॥
भीतर भवन दीन्ह बर बासु । मन जोगवत रह नृप रनिवासू ॥ पूजे गुर पद कमल बहोरी । कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी ॥
दो. बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु । पुनि पुनि बंदत गुर चरन देत असीस मुनीसु ॥ ३५२ ॥
बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें । सुत संपदा राखि सब आगें ॥ नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा । आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा ॥
उर धरि रामहि सीय समेता । हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता ॥ बिप्रबधू सब भूप बोलाई । चैल चारु भूषन पहिराई ॥
बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं । रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं ॥ नेगी नेग जोग सब लेहीं । रुचि अनुरुप भूपमनि देहीं ॥
प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने । भूपति भली भाँति सनमाने ॥ देव देखि रघुबीर बिबाहू । बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू ॥
दो. चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ । कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ ॥ ३५३ ॥
सब बिधि सबहि समदि नरनाहू । रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू ॥ जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे । सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे ॥
लिए गोद करि मोद समेता । को कहि सकइ भयउ सुखु जेता ॥ बधू सप्रेम गोद बैठारीं । बार बार हियँ हरषि दुलारीं ॥
देखि समाजु मुदित रनिवासू । सब कें उर अनंद कियो बासू ॥ कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू । सुनि हरषु होत सब काहू ॥
जनक राज गुन सीलु बड़ाई । प्रीति रीति संपदा सुहाई ॥ बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी । रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी ॥
दो. सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति । भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति ॥ ३५४ ॥
मंगलगान करहिं बर भामिनि । भै सुखमूल मनोहर जामिनि ॥ अँचइ पान सब काहूँ पाए । स्त्रग सुगंध भूषित छबि छाए ॥
रामहि देखि रजायसु पाई । निज निज भवन चले सिर नाई ॥ प्रेम प्रमोद बिनोदु बढ़ाई । समउ समाजु मनोहरताई ॥
कहि न सकहि सत सारद सेसू । बेद बिरंचि महेस गनेसू ॥ सो मै कहौं कवन बिधि बरनी । भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी ॥
नृप सब भाँति सबहि सनमानी । कहि मृदु बचन बोलाई रानी ॥ बधू लरिकनीं पर घर आईं । राखेहु नयन पलक की नाई ॥
दो. लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ । अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ ॥ ३५५ ॥
भूप बचन सुनि सहज सुहाए । जरित कनक मनि पलँग डसाए ॥ सुभग सुरभि पय फेन समाना । कोमल कलित सुपेतीं नाना ॥
उपबरहन बर बरनि न जाहीं । स्त्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं ॥ रतनदीप सुठि चारु चँदोवा । कहत न बनइ जान जेहिं जोवा ॥
सेज रुचिर रचि रामु उठाए । प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए ॥ अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही । निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही ॥
देखि स्याम मृदु मंजुल गाता । कहहिं सप्रेम बचन सब माता ॥ मारग जात भयावनि भारी । केहि बिधि तात ताड़का मारी ॥
दो. घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु ॥ मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु ॥ ३५६ ॥
मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी । ईस अनेक करवरें टारी ॥ मख रखवारी करि दुहुँ भाई । गुरु प्रसाद सब बिद्या पाई ॥
मुनितय तरी लगत पग धूरी । कीरति रही भुवन भरि पूरी ॥ कमठ पीठि पबि कूट कठोरा । नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा ॥
बिस्व बिजय जसु जानकि पाई । आए भवन ब्याहि सब भाई ॥ सकल अमानुष करम तुम्हारे । केवल कौसिक कृपाँ सुधारे ॥
आजु सुफल जग जनमु हमारा । देखि तात बिधुबदन तुम्हारा ॥ जे दिन गए तुम्हहि बिनु देखें । ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें ॥
दो. राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन । सुमिरि संभु गुर बिप्र पद किए नीदबस नैन ॥ ३५७ ॥
नीदउँ बदन सोह सुठि लोना । मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना ॥ घर घर करहिं जागरन नारीं । देहिं परसपर मंगल गारीं ॥
पुरी बिराजति राजति रजनी । रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी ॥ सुंदर बधुन्ह सासु लै सोई । फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोई ॥
प्रात पुनीत काल प्रभु जागे । अरुनचूड़ बर बोलन लागे ॥ बंदि मागधन्हि गुनगन गाए । पुरजन द्वार जोहारन आए ॥
बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता । पाइ असीस मुदित सब भ्राता ॥ जननिन्ह सादर बदन निहारे । भूपति संग द्वार पगु धारे ॥
दो. कीन्ह सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ । प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ ॥ ३५८ ॥
Navaparayana 3 Ends
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