ॐ श्री परमात्मने नमः
रघुपति अनुजहि आवत देखी। बाहिज चिंता कीन्हि बिसेषी ॥ जनकसुता परिहरिहु अकेली। आयहु तात बचन मम पेली ॥
निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं। मम मन सीता आश्रम नाहीं ॥ गहि पद कमल अनुज कर जोरी। कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी ॥
अनुज समेत गए प्रभु तहवाँ। गोदावरि तट आश्रम जहवाँ ॥ आश्रम देखि जानकी हीना। भए बिकल जस प्राकृत दीना ॥
हा गुन खानि जानकी सीता। रूप सील ब्रत नेम पुनीता ॥ लछिमन समुझाए बहु भाँती। पूछत चले लता तरु पाँती ॥
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी ॥ खंजन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना ॥
कुंद कली दाड़िम दामिनी। कमल सरद ससि अहिभामिनी ॥ बरुन पास मनोज धनु हंसा। गज केहरि निज सुनत प्रसंसा ॥
श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं। नेकु न संक सकुच मन माहीं ॥ सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू ॥
किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं । प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं ॥ एहि बिधि खौजत बिलपत स्वामी। मनहुँ महा बिरही अति कामी ॥
पूरनकाम राम सुख रासी। मनुज चरित कर अज अबिनासी ॥ आगे परा गीधपति देखा। सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा ॥
दो. कर सरोज सिर परसेउ कृपासिंधु रधुबीर ॥ निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर ॥ ३० ॥
तब कह गीध बचन धरि धीरा । सुनहु राम भंजन भव भीरा ॥ नाथ दसानन यह गति कीन्ही। तेहि खल जनकसुता हरि लीन्ही ॥
लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाई। बिलपति अति कुररी की नाई ॥ दरस लागी प्रभु राखेंउँ प्राना। चलन चहत अब कृपानिधाना ॥
राम कहा तनु राखहु ताता। मुख मुसकाइ कही तेहिं बाता ॥ जा कर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होई श्रुति गावा ॥
सो मम लोचन गोचर आगें। राखौं देह नाथ केहि खाँगेँ ॥ जल भरि नयन कहहिँ रघुराई। तात कर्म निज ते गतिं पाई ॥
परहित बस जिन्ह के मन माहीँ। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीँ ॥ तनु तजि तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम्ह पूरनकामा ॥
दो. सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ ॥ जौँ मैँ राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ ॥ ३१ ॥
गीध देह तजि धरि हरि रुपा। भूषन बहु पट पीत अनूपा ॥ स्याम गात बिसाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी ॥
छं. जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही। दससीस बाहु प्रचंड खंडन चंड सर मंडन मही ॥
पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं। नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं ॥ १ ॥
बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं। गोबिंद गोपर द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधरं ॥
जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनं। नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनं ॥ २।
जेहि श्रुति निरंजन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं ॥ करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं ॥
सो प्रगट करुना कंद सोभा बृंद अग जग मोहई। मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई ॥ ३ ॥
जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा। पस्यंति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा ॥
सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी। मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी ॥ ४ ॥
दो. अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम। तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम ॥ ३२ ॥
कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला ॥ गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्हि जो जाचत जोगी ॥
सुनहु उमा ते लोग अभागी। हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी ॥ पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई। चले बिलोकत बन बहुताई ॥
संकुल लता बिटप घन कानन। बहु खग मृग तहँ गज पंचानन ॥ आवत पंथ कबंध निपाता। तेहिं सब कही साप कै बाता ॥
दुरबासा मोहि दीन्ही सापा। प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा ॥ सुनु गंधर्ब कहउँ मै तोही। मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही ॥
दो. मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव। मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव ॥ ३३ ॥
सापत ताड़त परुष कहंता। बिप्र पूज्य अस गावहिं संता ॥ पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना ॥
कहि निज धर्म ताहि समुझावा। निज पद प्रीति देखि मन भावा ॥ रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयउ गगन आपनि गति पाई ॥
ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें आश्रम पगु धारा ॥ सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए ॥
सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला ॥ स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई ॥
प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा ॥ सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे ॥
दो. कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि। प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि ॥ ३४ ॥
पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी ॥ केहि बिधि अस्तुति करौ तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी ॥
अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी ॥ कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता ॥
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई ॥ भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ॥
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं ॥ प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ॥
दो. गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान। चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ॥ ३५ ॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥ छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा ॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा ॥ आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ॥
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना ॥ नव महुँ एकउ जिन्ह के होई। नारि पुरुष सचराचर कोई ॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें ॥ जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई ॥
मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा ॥ जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी ॥
पंपा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई ॥ सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा ॥
बार बार प्रभु पद सिरु नाई। प्रेम सहित सब कथा सुनाई ॥
छं. कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदयँ पद पंकज धरे। तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे ॥
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू। बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू ॥
दो. जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि। महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि ॥ ३६ ॥
चले राम त्यागा बन सोऊ। अतुलित बल नर केहरि दोऊ ॥ बिरही इव प्रभु करत बिषादा। कहत कथा अनेक संबादा ॥
लछिमन देखु बिपिन कइ सोभा। देखत केहि कर मन नहिं छोभा ॥ नारि सहित सब खग मृग बृंदा। मानहुँ मोरि करत हहिं निंदा ॥
हमहि देखि मृग निकर पराहीं। मृगीं कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीं ॥ तुम्ह आनंद करहु मृग जाए। कंचन मृग खोजन ए आए ॥
संग लाइ करिनीं करि लेहीं। मानहुँ मोहि सिखावनु देहीं ॥ सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ। भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ ॥
राखिअ नारि जदपि उर माहीं। जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं ॥ देखहु तात बसंत सुहावा। प्रिया हीन मोहि भय उपजावा ॥
दो. बिरह बिकल बलहीन मोहि जानेसि निपट अकेल। सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल ॥ ३७(क) ॥
देखि गयउ भ्राता सहित तासु दूत सुनि बात। डेरा कीन्हेउ मनहुँ तब कटकु हटकि मनजात ॥ ३७(ख) ॥
बिटप बिसाल लता अरुझानी। बिबिध बितान दिए जनु तानी ॥ कदलि ताल बर धुजा पताका। दैखि न मोह धीर मन जाका ॥
बिबिध भाँति फूले तरु नाना। जनु बानैत बने बहु बाना ॥ कहुँ कहुँ सुन्दर बिटप सुहाए। जनु भट बिलग बिलग होइ छाए ॥
कूजत पिक मानहुँ गज माते। ढेक महोख ऊँट बिसराते ॥ मोर चकोर कीर बर बाजी। पारावत मराल सब ताजी ॥
तीतिर लावक पदचर जूथा। बरनि न जाइ मनोज बरुथा ॥ रथ गिरि सिला दुंदुभी झरना। चातक बंदी गुन गन बरना ॥
मधुकर मुखर भेरि सहनाई। त्रिबिध बयारि बसीठीं आई ॥ चतुरंगिनी सेन सँग लीन्हें। बिचरत सबहि चुनौती दीन्हें ॥
लछिमन देखत काम अनीका। रहहिं धीर तिन्ह कै जग लीका ॥ एहि कें एक परम बल नारी। तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी ॥
दो. तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ। मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ ॥ ३८(क) ॥
लोभ कें इच्छा दंभ बल काम कें केवल नारि। क्रोध के परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि ॥ ३८(ख) ॥
गुनातीत सचराचर स्वामी। राम उमा सब अंतरजामी ॥ कामिन्ह कै दीनता देखाई। धीरन्ह कें मन बिरति दृढ़ाई ॥
क्रोध मनोज लोभ मद माया। छूटहिं सकल राम कीं दाया ॥ सो नर इंद्रजाल नहिं भूला। जा पर होइ सो नट अनुकूला ॥
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत सब सपना ॥ पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा। पंपा नाम सुभग गंभीरा ॥
संत हृदय जस निर्मल बारी। बाँधे घाट मनोहर चारी ॥ जहँ तहँ पिअहिं बिबिध मृग नीरा। जनु उदार गृह जाचक भीरा ॥
दो. पुरइनि सबन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म। मायाछन्न न देखिऐ जैसे निर्गुन ब्रह्म ॥ ३९(क) ॥
सुखि मीन सब एकरस अति अगाध जल माहिं। जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख संजुत जाहिं ॥ ३९(ख) ॥
बिकसे सरसिज नाना रंगा। मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा ॥ बोलत जलकुक्कुट कलहंसा। प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा ॥
चक्रवाक बक खग समुदाई। देखत बनइ बरनि नहिं जाई ॥ सुन्दर खग गन गिरा सुहाई। जात पथिक जनु लेत बोलाई ॥
ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए। चहु दिसि कानन बिटप सुहाए ॥ चंपक बकुल कदंब तमाला। पाटल पनस परास रसाला ॥
नव पल्लव कुसुमित तरु नाना। चंचरीक पटली कर गाना ॥ सीतल मंद सुगंध सुभाऊ। संतत बहइ मनोहर बाऊ ॥
कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं। सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं ॥
दो. फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ। पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ ॥ ४० ॥
देखि राम अति रुचिर तलावा। मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा ॥ देखी सुंदर तरुबर छाया। बैठे अनुज सहित रघुराया ॥
तहँ पुनि सकल देव मुनि आए। अस्तुति करि निज धाम सिधाए ॥ बैठे परम प्रसन्न कृपाला। कहत अनुज सन कथा रसाला ॥
बिरहवंत भगवंतहि देखी। नारद मन भा सोच बिसेषी ॥ मोर साप करि अंगीकारा। सहत राम नाना दुख भारा ॥
ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई। पुनि न बनिहि अस अवसरु आई ॥ यह बिचारि नारद कर बीना। गए जहाँ प्रभु सुख आसीना ॥
गावत राम चरित मृदु बानी। प्रेम सहित बहु भाँति बखानी ॥ करत दंडवत लिए उठाई। राखे बहुत बार उर लाई ॥
स्वागत पूँछि निकट बैठारे। लछिमन सादर चरन पखारे ॥
दो. नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जियँ जानि। नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि ॥ ४१ ॥
सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुंदर अगम सुगम बर दायक ॥ देहु एक बर मागउँ स्वामी। जद्यपि जानत अंतरजामी ॥
जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ। जन सन कबहुँ कि करउँ दुराऊ ॥ कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। जो मुनिबर न सकहु तुम्ह मागी ॥
जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें। अस बिस्वास तजहु जनि भोरें ॥ तब नारद बोले हरषाई । अस बर मागउँ करउँ ढिठाई ॥
जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक तें एका ॥ राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका ॥
दो. राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम। अपर नाम उडगन बिमल बसुहुँ भगत उर ब्योम ॥ ४२(क) ॥
एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिंधु रघुनाथ। तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायउ माथ ॥ ४२(ख) ॥
अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी। पुनि नारद बोले मृदु बानी ॥ राम जबहिं प्रेरेउ निज माया। मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया ॥
तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा। प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा ॥ सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा ॥
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी ॥ गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई। तहँ राखइ जननी अरगाई ॥
प्रौढ़ भएँ तेहि सुत पर माता। प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता ॥ मोरे प्रौढ़ तनय सम ग्यानी। बालक सुत सम दास अमानी ॥
जनहि मोर बल निज बल ताही। दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही ॥ यह बिचारि पंडित मोहि भजहीं। पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीं ॥
दो. काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि। तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि ॥ ४३ ॥
सुनि मुनि कह पुरान श्रुति संता। मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता ॥ जप तप नेम जलाश्रय झारी। होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी ॥
काम क्रोध मद मत्सर भेका। इन्हहि हरषप्रद बरषा एका ॥ दुर्बासना कुमुद समुदाई। तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई ॥
धर्म सकल सरसीरुह बृंदा। होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मंदा ॥ पुनि ममता जवास बहुताई। पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई ॥
पाप उलूक निकर सुखकारी। नारि निबिड़ रजनी अँधिआरी ॥ बुधि बल सील सत्य सब मीना। बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना ॥
दो. अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि। ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि ॥ ४४ ॥
सुनि रघुपति के बचन सुहाए। मुनि तन पुलक नयन भरि आए ॥ कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती ॥
जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी। ग्यान रंक नर मंद अभागी ॥ पुनि सादर बोले मुनि नारद। सुनहु राम बिग्यान बिसारद ॥
संतन्ह के लच्छन रघुबीरा। कहहु नाथ भव भंजन भीरा ॥ सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ। जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ ॥
षट बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन सुचि सुखधामा ॥ अमितबोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी ॥
सावधान मानद मदहीना। धीर धर्म गति परम प्रबीना ॥
दो. गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह ॥ तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह ॥ ४५ ॥
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं ॥ सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती ॥
जप तप ब्रत दम संजम नेमा। गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा ॥ श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया ॥
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना ॥ दंभ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहिं कुमारग पाऊ ॥
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला ॥ मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते ॥
छं. कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे। अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे ॥
सिरु नाह बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए ॥ ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए ॥
दो. रावनारि जसु पावन गावहिं सुनहिं जे लोग। राम भगति दृढ़ पावहिं बिनु बिराग जप जोग ॥ ४६(क) ॥
दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग। भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग ॥ ४६(ख) ॥
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने तृतीयः सोपानः समाप्तः।
श्रीरामचरितमानस चतुर्थ सोपान
कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौ शोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ । मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौं हितौ सीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः ॥ १ ॥
ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्ययं श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा । संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम् ॥ २ ॥
सो. मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानि अघ हानि कर जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न ॥
जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय। तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस ॥
आगें चले बहुरि रघुराया। रिष्यमूक परवत निअराया ॥ तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा। आवत देखि अतुल बल सींवा ॥
अति सभीत कह सुनु हनुमाना। पुरुष जुगल बल रूप निधाना ॥ धरि बटु रूप देखु तैं जाई। कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई ॥
पठए बालि होहिं मन मैला। भागौं तुरत तजौं यह सैला ॥ बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ। माथ नाइ पूछत अस भयऊ ॥
को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा। छत्री रूप फिरहु बन बीरा ॥ कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी ॥
मृदुल मनोहर सुंदर गाता। सहत दुसह बन आतप बाता ॥ की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ। नर नारायन की तुम्ह दोऊ ॥
दो. जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार। की तुम्ह अकिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार ॥ १ ॥
कोसलेस दसरथ के जाए । हम पितु बचन मानि बन आए ॥ नाम राम लछिमन दऊ भाई। संग नारि सुकुमारि सुहाई ॥
इहाँ हरि निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही ॥ आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई ॥
प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा नहिं बरना ॥ पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना ॥
पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही ॥ मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं ॥
तव माया बस फिरउँ भुलाना। ता ते मैं नहिं प्रभु पहिचाना ॥
दो. एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान। पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान ॥ २ ॥
जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें ॥ नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा ॥
ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानउँ नहिं कछु भजन उपाई ॥ सेवक सुत पति मातु भरोसें। रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें ॥
अस कहि परेउ चरन अकुलाई। निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई ॥ तब रघुपति उठाइ उर लावा। निज लोचन जल सींचि जुड़ावा ॥
सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना। तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना ॥ समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ ॥
दो. सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत। मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ॥ ३ ॥
देखि पवन सुत पति अनुकूला। हृदयँ हरष बीती सब सूला ॥ नाथ सैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई ॥
तेहि सन नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे ॥ सो सीता कर खोज कराइहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि ॥
एहि बिधि सकल कथा समुझाई। लिए दुऔ जन पीठि चढ़ाई ॥ जब सुग्रीवँ राम कहुँ देखा। अतिसय जन्म धन्य करि लेखा ॥
सादर मिलेउ नाइ पद माथा। भैंटेउ अनुज सहित रघुनाथा ॥ कपि कर मन बिचार एहि रीती। करिहहिं बिधि मो सन ए प्रीती ॥
दो. तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ ॥ पावक साखी देइ करि जोरी प्रीती दृढ़ाइ ॥ ४ ॥
कीन्ही प्रीति कछु बीच न राखा। लछमिन राम चरित सब भाषा ॥ कह सुग्रीव नयन भरि बारी। मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी ॥
मंत्रिन्ह सहित इहाँ एक बारा। बैठ रहेउँ मैं करत बिचारा ॥ गगन पंथ देखी मैं जाता। परबस परी बहुत बिलपाता ॥
राम राम हा राम पुकारी। हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी ॥ मागा राम तुरत तेहिं दीन्हा। पट उर लाइ सोच अति कीन्हा ॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। तजहु सोच मन आनहु धीरा ॥ सब प्रकार करिहउँ सेवकाई। जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई ॥
दो. सखा बचन सुनि हरषे कृपासिधु बलसींव। कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव ॥ ५ ॥
नात बालि अरु मैं द्वौ भाई। प्रीति रही कछु बरनि न जाई ॥ मय सुत मायावी तेहि नाऊँ। आवा सो प्रभु हमरें गाऊँ ॥
अर्ध राति पुर द्वार पुकारा। बाली रिपु बल सहै न पारा ॥ धावा बालि देखि सो भागा। मैं पुनि गयउँ बंधु सँग लागा ॥
गिरिबर गुहाँ पैठ सो जाई। तब बालीं मोहि कहा बुझाई ॥ परिखेसु मोहि एक पखवारा। नहिं आवौं तब जानेसु मारा ॥
मास दिवस तहँ रहेउँ खरारी। निसरी रुधिर धार तहँ भारी ॥ बालि हतेसि मोहि मारिहि आई। सिला देइ तहँ चलेउँ पराई ॥
मंत्रिन्ह पुर देखा बिनु साईं। दीन्हेउ मोहि राज बरिआई ॥ बालि ताहि मारि गृह आवा। देखि मोहि जियँ भेद बढ़ावा ॥
रिपु सम मोहि मारेसि अति भारी। हरि लीन्हेसि सर्बसु अरु नारी ॥ ताकें भय रघुबीर कृपाला। सकल भुवन मैं फिरेउँ बिहाला ॥
इहाँ साप बस आवत नाहीं। तदपि सभीत रहउँ मन माहीँ ॥ सुनि सेवक दुख दीनदयाला। फरकि उठीं द्वै भुजा बिसाला ॥
दो. सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान। ब्रह्म रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान ॥ ६ ॥
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ॥ निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना ॥
जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई ॥ कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटे अवगुनन्हि दुरावा ॥
देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई ॥ बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ॥
आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई ॥ जा कर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहि भलाई ॥
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी ॥ सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें ॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। बालि महाबल अति रनधीरा ॥ दुंदुभी अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए ॥
देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती। बालि बधब इन्ह भइ परतीती ॥ बार बार नावइ पद सीसा। प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा ॥
उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला ॥ सुख संपति परिवार बड़ाई। सब परिहरि करिहउँ सेवकाई ॥
ए सब रामभगति के बाधक। कहहिं संत तब पद अवराधक ॥ सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं। माया कृत परमारथ नाहीं ॥
बालि परम हित जासु प्रसादा। मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा ॥ सपनें जेहि सन होइ लराई। जागें समुझत मन सकुचाई ॥
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती। सब तजि भजनु करौं दिन राती ॥ सुनि बिराग संजुत कपि बानी। बोले बिहँसि रामु धनुपानी ॥
जो कछु कहेहु सत्य सब सोई। सखा बचन मम मृषा न होई ॥ नट मरकट इव सबहि नचावत। रामु खगेस बेद अस गावत ॥
लै सुग्रीव संग रघुनाथा। चले चाप सायक गहि हाथा ॥ तब रघुपति सुग्रीव पठावा। गर्जेसि जाइ निकट बल पावा ॥
सुनत बालि क्रोधातुर धावा। गहि कर चरन नारि समुझावा ॥ सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा ॥
कोसलेस सुत लछिमन रामा। कालहु जीति सकहिं संग्रामा ॥
दो. कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ। जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ ॥ ७ ॥
अस कहि चला महा अभिमानी। तृन समान सुग्रीवहि जानी ॥ भिरे उभौ बाली अति तर्जा । मुठिका मारि महाधुनि गर्जा ॥
तब सुग्रीव बिकल होइ भागा। मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा ॥ मैं जो कहा रघुबीर कृपाला। बंधु न होइ मोर यह काला ॥
एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ ॥ कर परसा सुग्रीव सरीरा। तनु भा कुलिस गई सब पीरा ॥
मेली कंठ सुमन कै माला। पठवा पुनि बल देइ बिसाला ॥ पुनि नाना बिधि भई लराई। बिटप ओट देखहिं रघुराई ॥
दो. बहु छल बल सुग्रीव कर हियँ हारा भय मानि। मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि ॥ ८ ॥
परा बिकल महि सर के लागें। पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगें ॥ स्याम गात सिर जटा बनाएँ। अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ ॥
पुनि पुनि चितइ चरन चित दीन्हा। सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा ॥ हृदयँ प्रीति मुख बचन कठोरा। बोला चितइ राम की ओरा ॥
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाई। मारेहु मोहि ब्याध की नाई ॥ मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कबन नाथ मोहि मारा ॥
अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी ॥ इन्हहि कुद्दष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई ॥
मुढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना ॥ मम भुज बल आश्रित तेहि जानी। मारा चहसि अधम अभिमानी ॥
दो. सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि। प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि ॥ ९ ॥
सुनत राम अति कोमल बानी। बालि सीस परसेउ निज पानी ॥ अचल करौं तनु राखहु प्राना। बालि कहा सुनु कृपानिधाना ॥
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं ॥ जासु नाम बल संकर कासी। देत सबहि सम गति अविनासी ॥
मम लोचन गोचर सोइ आवा। बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा ॥
छं. सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं। जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं ॥
मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही। अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही ॥ १ ॥
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ। जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ ॥
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिऐ। गहि बाहँ सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिऐ ॥ २ ॥
दो. राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग। सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग ॥ १० ॥
राम बालि निज धाम पठावा। नगर लोग सब ब्याकुल धावा ॥ नाना बिधि बिलाप कर तारा। छूटे केस न देह सँभारा ॥
तारा बिकल देखि रघुराया । दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया ॥ छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा ॥
प्रगट सो तनु तव आगें सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ॥ उपजा ग्यान चरन तब लागी। लीन्हेसि परम भगति बर मागी ॥
उमा दारु जोषित की नाई। सबहि नचावत रामु गोसाई ॥ तब सुग्रीवहि आयसु दीन्हा। मृतक कर्म बिधिबत सब कीन्हा ॥
राम कहा अनुजहि समुझाई। राज देहु सुग्रीवहि जाई ॥ रघुपति चरन नाइ करि माथा। चले सकल प्रेरित रघुनाथा ॥
दो. लछिमन तुरत बोलाए पुरजन बिप्र समाज। राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अंगद कहँ जुबराज ॥ ११ ॥
उमा राम सम हित जग माहीं। गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ॥ सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ॥
बालि त्रास ब्याकुल दिन राती। तन बहु ब्रन चिंताँ जर छाती ॥ सोइ सुग्रीव कीन्ह कपिराऊ। अति कृपाल रघुबीर सुभाऊ ॥
जानतहुँ अस प्रभु परिहरहीं। काहे न बिपति जाल नर परहीं ॥ पुनि सुग्रीवहि लीन्ह बोलाई। बहु प्रकार नृपनीति सिखाई ॥
कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा। पुर न जाउँ दस चारि बरीसा ॥ गत ग्रीषम बरषा रितु आई। रहिहउँ निकट सैल पर छाई ॥
अंगद सहित करहु तुम्ह राजू। संतत हृदय धरेहु मम काजू ॥ जब सुग्रीव भवन फिरि आए। रामु प्रबरषन गिरि पर छाए ॥
दो. प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेउ रुचिर बनाइ। राम कृपानिधि कछु दिन बास करहिंगे आइ ॥ १२ ॥
सुंदर बन कुसुमित अति सोभा। गुंजत मधुप निकर मधु लोभा ॥ कंद मूल फल पत्र सुहाए। भए बहुत जब ते प्रभु आए ॥
देखि मनोहर सैल अनूपा। रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा ॥ मधुकर खग मृग तनु धरि देवा। करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा ॥
मंगलरुप भयउ बन तब ते । कीन्ह निवास रमापति जब ते ॥ फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई। सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई ॥
कहत अनुज सन कथा अनेका। भगति बिरति नृपनीति बिबेका ॥ बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए ॥
दो. लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पैखि। गृही बिरति रत हरष जस बिष्नु भगत कहुँ देखि ॥ १३ ॥
घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा ॥ दामिनि दमक रह न घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं ॥
बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ ॥ बूँद अघात सहहिं गिरि कैंसें । खल के बचन संत सह जैसें ॥
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई ॥ भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी ॥
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा ॥ सरिता जल जलनिधि महुँ जाई। होई अचल जिमि जिव हरि पाई ॥
दो. हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ। जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ ॥ १४ ॥
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ॥ नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका ॥
अर्क जबास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ ॥ खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी ॥
ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी ॥ निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा ॥
महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं । जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं ॥ कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ॥
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं ॥ ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा ॥
बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ॥ जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना ॥
दो. कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं। जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं ॥ १५(क) ॥
कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग। बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग ॥ १५(ख) ॥
बरषा बिगत सरद रितु आई। लछिमन देखहु परम सुहाई ॥ फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई ॥
उदित अगस्ति पंथ जल सोषा। जिमि लोभहि सोषइ संतोषा ॥ सरिता सर निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद मोहा ॥
रस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी ॥ जानि सरद रितु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए ॥
पंक न रेनु सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप कै जसि करनी ॥ जल संकोच बिकल भइँ मीना। अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना ॥
बिनु धन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा ॥ कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी ॥
दो. चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि। जिमि हरिभगत पाइ श्रम तजहि आश्रमी चारि ॥ १६ ॥
सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकउ बाधा ॥ फूलें कमल सोह सर कैसा। निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा ॥
गुंजत मधुकर मुखर अनूपा। सुंदर खग रव नाना रूपा ॥ चक्रबाक मन दुख निसि पैखी। जिमि दुर्जन पर संपति देखी ॥
चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न संकरद्रोही ॥ सरदातप निसि ससि अपहरई। संत दरस जिमि पातक टरई ॥
देखि इंदु चकोर समुदाई। चितवतहिं जिमि हरिजन हरि पाई ॥ मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा ॥
दो. भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ। सदगुर मिले जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ ॥ १७ ॥
बरषा गत निर्मल रितु आई। सुधि न तात सीता कै पाई ॥ एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं। कालहु जीत निमिष महुँ आनौं ॥
कतहुँ रहउ जौं जीवति होई। तात जतन करि आनेउँ सोई ॥ सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोस पुर नारी ॥
जेहिं सायक मारा मैं बाली। तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली ॥ जासु कृपाँ छूटहीं मद मोहा। ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा ॥
जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी। जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी ॥ लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना। धनुष चढ़ाइ गहे कर बाना ॥
दो. तब अनुजहि समुझावा रघुपति करुना सींव ॥ भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव ॥ १८ ॥
इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा। राम काजु सुग्रीवँ बिसारा ॥ निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा ॥
सुनि सुग्रीवँ परम भय माना। बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना ॥ अब मारुतसुत दूत समूहा। पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा ॥
कहहु पाख महुँ आव न जोई। मोरें कर ता कर बध होई ॥ तब हनुमंत बोलाए दूता। सब कर करि सनमान बहूता ॥
भय अरु प्रीति नीति देखाई। चले सकल चरनन्हि सिर नाई ॥ एहि अवसर लछिमन पुर आए। क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए ॥
दो. धनुष चढ़ाइ कहा तब जारि करउँ पुर छार। ब्याकुल नगर देखि तब आयउ बालिकुमार ॥ १९ ॥
चरन नाइ सिरु बिनती कीन्ही। लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही ॥ क्रोधवंत लछिमन सुनि काना। कह कपीस अति भयँ अकुलाना ॥
सुनु हनुमंत संग लै तारा। करि बिनती समुझाउ कुमारा ॥ तारा सहित जाइ हनुमाना। चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना ॥
करि बिनती मंदिर लै आए। चरन पखारि पलँग बैठाए ॥ तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा। गहि भुज लछिमन कंठ लगावा ॥
नाथ बिषय सम मद कछु नाहीं। मुनि मन मोह करइ छन माहीं ॥ सुनत बिनीत बचन सुख पावा। लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा ॥
पवन तनय सब कथा सुनाई। जेहि बिधि गए दूत समुदाई ॥
दो. हरषि चले सुग्रीव तब अंगदादि कपि साथ। रामानुज आगें करि आए जहँ रघुनाथ ॥ २० ॥
नाइ चरन सिरु कह कर जोरी। नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी ॥ अतिसय प्रबल देव तब माया। छूटइ राम करहु जौं दाया ॥
बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी। मैं पावँर पसु कपि अति कामी ॥ नारि नयन सर जाहि न लागा। घोर क्रोध तम निसि जो जागा ॥
लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया। सो नर तुम्ह समान रघुराया ॥ यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई ॥
तब रघुपति बोले मुसकाई। तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई ॥ अब सोइ जतनु करहु मन लाई। जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई ॥
दो. एहि बिधि होत बतकही आए बानर जूथ। नाना बरन सकल दिसि देखिअ कीस बरुथ ॥ २१ ॥
बानर कटक उमा में देखा। सो मूरुख जो करन चह लेखा ॥ आइ राम पद नावहिं माथा। निरखि बदनु सब होहिं सनाथा ॥
अस कपि एक न सेना माहीं। राम कुसल जेहि पूछी नाहीं ॥ यह कछु नहिं प्रभु कइ अधिकाई। बिस्वरूप ब्यापक रघुराई ॥
ठाढ़े जहँ तहँ आयसु पाई। कह सुग्रीव सबहि समुझाई ॥ राम काजु अरु मोर निहोरा। बानर जूथ जाहु चहुँ ओरा ॥
जनकसुता कहुँ खोजहु जाई। मास दिवस महँ आएहु भाई ॥ अवधि मेटि जो बिनु सुधि पाएँ। आवइ बनिहि सो मोहि मराएँ ॥
दो. बचन सुनत सब बानर जहँ तहँ चले तुरंत । तब सुग्रीवँ बोलाए अंगद नल हनुमंत ॥ २२ ॥
सुनहु नील अंगद हनुमाना। जामवंत मतिधीर सुजाना ॥ सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू। सीता सुधि पूँछेउ सब काहू ॥
मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु। रामचंद्र कर काजु सँवारेहु ॥ भानु पीठि सेइअ उर आगी। स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी ॥
तजि माया सेइअ परलोका। मिटहिं सकल भव संभव सोका ॥ देह धरे कर यह फलु भाई। भजिअ राम सब काम बिहाई ॥
सोइ गुनग्य सोई बड़भागी । जो रघुबीर चरन अनुरागी ॥ आयसु मागि चरन सिरु नाई। चले हरषि सुमिरत रघुराई ॥
पाछें पवन तनय सिरु नावा। जानि काज प्रभु निकट बोलावा ॥ परसा सीस सरोरुह पानी। करमुद्रिका दीन्हि जन जानी ॥
बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु। कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु ॥ हनुमत जन्म सुफल करि माना। चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना ॥
जद्यपि प्रभु जानत सब बाता। राजनीति राखत सुरत्राता ॥
दो. चले सकल बन खोजत सरिता सर गिरि खोह। राम काज लयलीन मन बिसरा तन कर छोह ॥ २३ ॥
कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा। प्रान लेहिं एक एक चपेटा ॥ बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं। कोउ मुनि मिलत ताहि सब घेरहिं ॥
लागि तृषा अतिसय अकुलाने। मिलइ न जल घन गहन भुलाने ॥ मन हनुमान कीन्ह अनुमाना। मरन चहत सब बिनु जल पाना ॥
चढ़ि गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा। भूमि बिबिर एक कौतुक पेखा ॥ चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं। बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं ॥
गिरि ते उतरि पवनसुत आवा। सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा ॥ आगें कै हनुमंतहि लीन्हा। पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा ॥
दो. दीख जाइ उपवन बर सर बिगसित बहु कंज। मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज ॥ २४ ॥
दूरि ते ताहि सबन्हि सिर नावा। पूछें निज बृत्तांत सुनावा ॥ तेहिं तब कहा करहु जल पाना। खाहु सुरस सुंदर फल नाना ॥
मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए। तासु निकट पुनि सब चलि आए ॥ तेहिं सब आपनि कथा सुनाई। मैं अब जाब जहाँ रघुराई ॥
मूदहु नयन बिबर तजि जाहू। पैहहु सीतहि जनि पछिताहू ॥ नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा। ठाढ़े सकल सिंधु कें तीरा ॥
सो पुनि गई जहाँ रघुनाथा। जाइ कमल पद नाएसि माथा ॥ नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्ही। अनपायनी भगति प्रभु दीन्ही ॥
दो. बदरीबन कहुँ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस । उर धरि राम चरन जुग जे बंदत अज ईस ॥ २५ ॥
इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं। बीती अवधि काज कछु नाहीं ॥ सब मिलि कहहिं परस्पर बाता। बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता ॥
कह अंगद लोचन भरि बारी। दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी ॥ इहाँ न सुधि सीता कै पाई। उहाँ गएँ मारिहि कपिराई ॥
पिता बधे पर मारत मोही। राखा राम निहोर न ओही ॥ पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं। मरन भयउ कछु संसय नाहीं ॥
अंगद बचन सुनत कपि बीरा। बोलि न सकहिं नयन बह नीरा ॥ छन एक सोच मगन होइ रहे। पुनि अस वचन कहत सब भए ॥
हम सीता कै सुधि लिन्हें बिना। नहिं जैंहैं जुबराज प्रबीना ॥ अस कहि लवन सिंधु तट जाई। बैठे कपि सब दर्भ डसाई ॥
जामवंत अंगद दुख देखी। कहिं कथा उपदेस बिसेषी ॥ तात राम कहुँ नर जनि मानहु। निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु ॥
दो. निज इच्छा प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि। सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि ॥ २६ ॥
एहि बिधि कथा कहहि बहु भाँती गिरि कंदराँ सुनी संपाती ॥ बाहेर होइ देखि बहु कीसा। मोहि अहार दीन्ह जगदीसा ॥
आजु सबहि कहँ भच्छन करऊँ। दिन बहु चले अहार बिनु मरऊँ ॥ कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा। आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा ॥
डरपे गीध बचन सुनि काना। अब भा मरन सत्य हम जाना ॥ कपि सब उठे गीध कहँ देखी। जामवंत मन सोच बिसेषी ॥
कह अंगद बिचारि मन माहीं। धन्य जटायू सम कोउ नाहीं ॥ राम काज कारन तनु त्यागी । हरि पुर गयउ परम बड़ भागी ॥
सुनि खग हरष सोक जुत बानी । आवा निकट कपिन्ह भय मानी ॥ तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई। कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई ॥
सुनि संपाति बंधु कै करनी। रघुपति महिमा बधुबिधि बरनी ॥
दो. मोहि लै जाहु सिंधुतट देउँ तिलांजलि ताहि । बचन सहाइ करवि मैं पैहहु खोजहु जाहि ॥ २७ ॥
अनुज क्रिया करि सागर तीरा। कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा ॥ हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई । गगन गए रबि निकट उडाई ॥
तेज न सहि सक सो फिरि आवा । मै अभिमानी रबि निअरावा ॥ जरे पंख अति तेज अपारा । परेउँ भूमि करि घोर चिकारा ॥
मुनि एक नाम चंद्रमा ओही। लागी दया देखी करि मोही ॥ बहु प्रकार तेंहि ग्यान सुनावा । देहि जनित अभिमानी छड़ावा ॥
त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही। तासु नारि निसिचर पति हरिही ॥ तासु खोज पठइहि प्रभू दूता। तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता ॥
जमिहहिं पंख करसि जनि चिंता । तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता ॥ मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू । सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू ॥
गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका । तहँ रह रावन सहज असंका ॥ तहँ असोक उपबन जहँ रहई ॥ सीता बैठि सोच रत अहई ॥
दो. मैं देखउँ तुम्ह नाहि गीघहि दष्टि अपार ॥ बूढ भयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार ॥ २८ ॥
जो नाघइ सत जोजन सागर । करइ सो राम काज मति आगर ॥ मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा । राम कृपाँ कस भयउ सरीरा ॥
पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं। अति अपार भवसागर तरहीं ॥ तासु दूत तुम्ह तजि कदराई। राम हृदयँ धरि करहु उपाई ॥
अस कहि गरुड़ गीध जब गयऊ। तिन्ह कें मन अति बिसमय भयऊ ॥ निज निज बल सब काहूँ भाषा। पार जाइ कर संसय राखा ॥
जरठ भयउँ अब कहइ रिछेसा। नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा ॥ जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी। तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी ॥
दो. बलि बाँधत प्रभु बाढेउ सो तनु बरनि न जाई। उभय धरी महँ दीन्ही सात प्रदच्छिन धाइ ॥ २९ ॥
अंगद कहइ जाउँ मैं पारा। जियँ संसय कछु फिरती बारा ॥ जामवंत कह तुम्ह सब लायक। पठइअ किमि सब ही कर नायक ॥
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना ॥ पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना ॥
कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं ॥ राम काज लगि तब अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्वताकारा ॥
कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहु अपर गिरिन्ह कर राजा ॥ सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहीं नाषउँ जलनिधि खारा ॥
सहित सहाय रावनहि मारी। आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी ॥ जामवंत मैं पूँछउँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही ॥
एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई ॥ तब निज भुज बल राजिव नैना। कौतुक लागि संग कपि सेना ॥
छं. -कपि सेन संग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं। त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं ॥
जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावई। रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई ॥
दो. भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहि जे नर अरु नारि। तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करिहि त्रिसिरारि ॥ ३०(क) ॥
सो. नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक। सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक ॥ ३०(ख) ॥
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने चतुर्थ सोपानः समाप्तः।
श्रीरामचरितमानस पञ्चम सोपान ।
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् । रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम् ॥ १ ॥
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा । भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ २ ॥
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् । सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥ ३ ॥
जामवंत के बचन सुहाए । सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ॥ तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई । सहि दुख कंद मूल फल खाई ॥
जब लगि आवौं सीतहि देखी । होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ॥ यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ॥
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर । कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ॥ बार बार रघुबीर सँभारी । तरकेउ पवनतनय बल भारी ॥
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता । चलेउ सो गा पाताल तुरंता ॥ जिमि अमोघ रघुपति कर बाना । एही भाँति चलेउ हनुमाना ॥
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी । तैं मैनाक होहि श्रमहारी ॥
दो. हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम । राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ॥ १ ॥
जात पवनसुत देवन्ह देखा । जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा ॥ सुरसा नाम अहिन्ह कै माता । पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता ॥
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा । सुनत बचन कह पवनकुमारा ॥ राम काजु करि फिरि मैं आवौं । सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं ॥
तब तव बदन पैठिहउँ आई । सत्य कहउँ मोहि जान दे माई ॥ कबनेहुँ जतन देइ नहिं जाना । ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना ॥
जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा । कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥ सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ । तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ ॥
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा । तासु दून कपि रूप देखावा ॥ सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा । अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ॥
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा । मागा बिदा ताहि सिरु नावा ॥ मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा । बुधि बल मरमु तोर मै पावा ॥
दो. राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान । आसिष देह गई सो हरषि चलेउ हनुमान ॥ २ ॥
निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई । करि माया नभु के खग गहई ॥ जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं । जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ॥
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई । एहि बिधि सदा गगनचर खाई ॥ सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा । तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ॥
ताहि मारि मारुतसुत बीरा । बारिधि पार गयउ मतिधीरा ॥ तहाँ जाइ देखी बन सोभा । गुंजत चंचरीक मधु लोभा ॥
नाना तरु फल फूल सुहाए । खग मृग बृंद देखि मन भाए ॥ सैल बिसाल देखि एक आगें । ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें ॥
उमा न कछु कपि कै अधिकाई । प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ॥ गिरि पर चढि लंका तेहिं देखी । कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी ॥
अति उतंग जलनिधि चहु पासा । कनक कोट कर परम प्रकासा ॥
छं=कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना । चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना ॥ गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै ॥ बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै ॥ १ ॥
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं । नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं ॥ कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं । नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं ॥ २ ॥
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं । कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं ॥ एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही । रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही ॥ ३ ॥
दो. पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार । अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार ॥ ३ ॥
मसक समान रूप कपि धरी । लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ॥ नाम लंकिनी एक निसिचरी । सो कह चलेसि मोहि निंदरी ॥
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा । मोर अहार जहाँ लगि चोरा ॥ मुठिका एक महा कपि हनी । रुधिर बमत धरनीं ढनमनी ॥
पुनि संभारि उठि सो लंका । जोरि पानि कर बिनय संसका ॥ जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा । चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ॥
बिकल होसि तैं कपि कें मारे । तब जानेसु निसिचर संघारे ॥ तात मोर अति पुन्य बहूता । देखेउँ नयन राम कर दूता ॥
दो. तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग । तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥ ४ ॥
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा । हृदयँ राखि कौसलपुर राजा ॥ गरल सुधा रिपु करहिं मिताई । गोपद सिंधु अनल सितलाई ॥
गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही । राम कृपा करि चितवा जाही ॥ अति लघु रूप धरेउ हनुमाना । पैठा नगर सुमिरि भगवाना ॥
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा । देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ॥ गयउ दसानन मंदिर माहीं । अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ॥
सयन किए देखा कपि तेही । मंदिर महुँ न दीखि बैदेही ॥ भवन एक पुनि दीख सुहावा । हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ॥
दो. रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ । नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरषि कपिराइ ॥ ५ ॥
लंका निसिचर निकर निवासा । इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ॥ मन महुँ तरक करै कपि लागा । तेहीं समय बिभीषनु जागा ॥
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा । हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा ॥ एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी । साधु ते होइ न कारज हानी ॥
बिप्र रुप धरि बचन सुनाए । सुनत बिभीषण उठि तहँ आए ॥ करि प्रनाम पूँछी कुसलाई । बिप्र कहहु निज कथा बुझाई ॥
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई । मोरें हृदय प्रीति अति होई ॥ की तुम्ह रामु दीन अनुरागी । आयहु मोहि करन बड़भागी ॥
दो. तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम । सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥ ६ ॥
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी । जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ॥ तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा । करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ॥
तामस तनु कछु साधन नाहीं । प्रीति न पद सरोज मन माहीं ॥ अब मोहि भा भरोस हनुमंता । बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ॥
जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा । तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ॥ सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती । करहिं सदा सेवक पर प्रीती ॥
कहहु कवन मैं परम कुलीना । कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ॥ प्रात लेइ जो नाम हमारा । तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ॥
दो. अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर । कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥ ७ ॥
जानतहूँ अस स्वामि बिसारी । फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी ॥ एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा । पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा ॥
पुनि सब कथा बिभीषन कही । जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही ॥ तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता । देखी चहउँ जानकी माता ॥
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई । चलेउ पवनसुत बिदा कराई ॥ करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ । बन असोक सीता रह जहवाँ ॥
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा । बैठेहिं बीति जात निसि जामा ॥ कृस तन सीस जटा एक बेनी । जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी ॥
दो. निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन । परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥ ८ ॥
तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई । करइ बिचार करौं का भाई ॥ तेहि अवसर रावनु तहँ आवा । संग नारि बहु किएँ बनावा ॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी । मंदोदरी आदि सब रानी ॥ तव अनुचरीं करउँ पन मोरा । एक बार बिलोकु मम ओरा ॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही । सुमिरि अवधपति परम सनेही ॥ सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा । कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा ॥
अस मन समुझु कहति जानकी । खल सुधि नहिं रघुबीर बान की ॥ सठ सूने हरि आनेहि मोहि । अधम निलज्ज लाज नहिं तोही ॥
दो. आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान । परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥ ९ ॥
सीता तैं मम कृत अपमाना । कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना ॥ नाहिं त सपदि मानु मम बानी । सुमुखि होति न त जीवन हानी ॥
स्याम सरोज दाम सम सुंदर । प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर ॥ सो भुज कंठ कि तव असि घोरा । सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा ॥
चंद्रहास हरु मम परितापं । रघुपति बिरह अनल संजातं ॥ सीतल निसित बहसि बर धारा । कह सीता हरु मम दुख भारा ॥
सुनत बचन पुनि मारन धावा । मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ॥ कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई । सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई ॥
मास दिवस महुँ कहा न माना । तौ मैं मारबि काढि कृपाना । ।
दो. भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद । सीतहि त्रास देखावहि धरहिं रूप बहु मंद ॥ १० ॥
त्रिजटा नाम राच्छसी एका । राम चरन रति निपुन बिबेका ॥ सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना । सीतहि सेइ करहु हित अपना ॥
सपनें बानर लंका जारी । जातुधान सेना सब मारी ॥ खर आरूढ़ नगन दससीसा । मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ॥
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई । लंका मनहुँ बिभीषन पाई ॥ नगर फिरी रघुबीर दोहाई । तब प्रभु सीता बोलि पठाई ॥
यह सपना में कहउँ पुकारी । होइहि सत्य गएँ दिन चारी ॥ तासु बचन सुनि ते सब डरीं । जनकसुता के चरनन्हि परीं ॥
दो. जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच । मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥ ११ ॥
त्रिजटा सन बोली कर जोरी । मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ॥ तजौं देह करु बेगि उपाई । दुसहु बिरहु अब नहिं सहि जाई ॥
आनि काठ रचु चिता बनाई । मातु अनल पुनि देहि लगाई ॥ सत्य करहि मम प्रीति सयानी । सुनै को श्रवन सूल सम बानी ॥
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि । प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ॥ निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी । अस कहि सो निज भवन सिधारी ॥
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला । मिलहि न पावक मिटिहि न सूला ॥ देखिअत प्रगट गगन अंगारा । अवनि न आवत एकउ तारा ॥
पावकमय ससि स्त्रवत न आगी । मानहुँ मोहि जानि हतभागी ॥ सुनहि बिनय मम बिटप असोका । सत्य नाम करु हरु मम सोका ॥
नूतन किसलय अनल समाना । देहि अगिनि जनि करहि निदाना ॥ देखि परम बिरहाकुल सीता । सो छन कपिहि कलप सम बीता ॥
सो. कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारी तब । जनु असोक अंगार दीन्हि हरषि उठि कर गहेउ ॥ १२ ॥
तब देखी मुद्रिका मनोहर । राम नाम अंकित अति सुंदर ॥ चकित चितव मुदरी पहिचानी । हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी ॥
जीति को सकइ अजय रघुराई । माया तें असि रचि नहिं जाई ॥ सीता मन बिचार कर नाना । मधुर बचन बोलेउ हनुमाना ॥
रामचंद्र गुन बरनैं लागा । सुनतहिं सीता कर दुख भागा ॥ लागीं सुनैं श्रवन मन लाई । आदिहु तें सब कथा सुनाई ॥
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई । कहि सो प्रगट होति किन भाई ॥ तब हनुमंत निकट चलि गयऊ । फिरि बैंठीं मन बिसमय भयऊ ॥
राम दूत मैं मातु जानकी । सत्य सपथ करुनानिधान की ॥ यह मुद्रिका मातु मैं आनी । दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी ॥
नर बानरहि संग कहु कैसें । कहि कथा भइ संगति जैसें ॥
दो. कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास ॥ जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥ १३ ॥
हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी । सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ॥ बूड़त बिरह जलधि हनुमाना । भयउ तात मों कहुँ जलजाना ॥
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी । अनुज सहित सुख भवन खरारी ॥ कोमलचित कृपाल रघुराई । कपि केहि हेतु धरी निठुराई ॥
सहज बानि सेवक सुख दायक । कबहुँक सुरति करत रघुनायक ॥ कबहुँ नयन मम सीतल ताता । होइहहि निरखि स्याम मृदु गाता ॥
बचनु न आव नयन भरे बारी । अहह नाथ हौं निपट बिसारी ॥ देखि परम बिरहाकुल सीता । बोला कपि मृदु बचन बिनीता ॥
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता । तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ॥ जनि जननी मानहु जियँ ऊना । तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना ॥
दो. रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर । अस कहि कपि गद गद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥ १४ ॥
कहेउ राम बियोग तव सीता । मो कहुँ सकल भए बिपरीता ॥ नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू । कालनिसा सम निसि ससि भानू ॥
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा । बारिद तपत तेल जनु बरिसा ॥ जे हित रहे करत तेइ पीरा । उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ॥
कहेहू तें कछु दुख घटि होई । काहि कहौं यह जान न कोई ॥ तत्त्व प्रेम कर मम अरु तोरा । जानत प्रिया एकु मनु मोरा ॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं । जानु प्रीति रसु एतेनहि माहीं ॥ प्रभु संदेसु सुनत बैदेही । मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ॥
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता । सुमिरु राम सेवक सुखदाता ॥ उर आनहु रघुपति प्रभुताई । सुनि मम बचन तजहु कदराई ॥
दो. निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु । जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥ १५ ॥
जौं रघुबीर होति सुधि पाई । करते नहिं बिलंबु रघुराई ॥ रामबान रबि उएँ जानकी । तम बरूथ कहँ जातुधान की ॥
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई । प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ॥ कछुक दिवस जननी धरु धीरा । कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ॥
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं । तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ॥ हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना । जातुधान अति भट बलवाना ॥
मोरें हृदय परम संदेहा । सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा ॥ कनक भूधराकार सरीरा । समर भयंकर अतिबल बीरा ॥
दो. सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल । प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ॥ १६ ॥
मन संतोष सुनत कपि बानी । भगति प्रताप तेज बल सानी ॥ आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना । होहु तात बल सील निधाना ॥
अजर अमर गुननिधि सुत होहू । करहुँ बहुत रघुनायक छोहू ॥ करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना । निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ॥
बार बार नाएसि पद सीसा । बोला बचन जोरि कर कीसा ॥ अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता । आसिष तव अमोघ बिख्याता ॥
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा । लागि देखि सुंदर फल रूखा ॥ सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी । परम सुभट रजनीचर भारी ॥
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं । जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ॥
दो. देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु । रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ॥ १७ ॥
चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा । फल खाएसि तरु तोरैं लागा ॥ रहे तहाँ बहु भट रखवारे । कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे ॥
नाथ एक आवा कपि भारी । तेहिं असोक बाटिका उजारी ॥ खाएसि फल अरु बिटप उपारे । रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे ॥
सुनि रावन पठए भट नाना । तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ॥ सब रजनीचर कपि संघारे । गए पुकारत कछु अधमारे ॥
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा । चला संग लै सुभट अपारा ॥ आवत देखि बिटप गहि तर्जा । ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ॥
दो. कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि । कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ॥ १८ ॥
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना । पठएसि मेघनाद बलवाना ॥ मारसि जनि सुत बांधेसु ताही । देखिअ कपिहि कहाँ कर आही ॥
चला इंद्रजित अतुलित जोधा । बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ॥ कपि देखा दारुन भट आवा । कटकटाइ गर्जा अरु धावा ॥
अति बिसाल तरु एक उपारा । बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ॥ रहे महाभट ताके संगा । गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा ॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा । भिरे जुगल मानहुँ गजराजा । मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई । ताहि एक छन मुरुछा आई ॥
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया । जीति न जाइ प्रभंजन जाया ॥
दो. ब्रह्म अस्त्र तेहिं साँधा कपि मन कीन्ह बिचार । जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥ १९ ॥
ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहि मारा । परतिहुँ बार कटकु संघारा ॥ तेहि देखा कपि मुरुछित भयऊ । नागपास बाँधेसि लै गयऊ ॥
जासु नाम जपि सुनहु भवानी । भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ॥ तासु दूत कि बंध तरु आवा । प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ॥
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए । कौतुक लागि सभाँ सब आए ॥ दसमुख सभा दीखि कपि जाई । कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ॥
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता । भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ॥ देखि प्रताप न कपि मन संका । जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ॥
दो. कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद । सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद ॥ २० ॥
कह लंकेस कवन तैं कीसा । केहिं के बल घालेहि बन खीसा ॥ की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही । देखउँ अति असंक सठ तोही ॥
मारे निसिचर केहिं अपराधा । कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ॥ सुन रावन ब्रह्मांड निकाया । पाइ जासु बल बिरचित माया ॥
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा । पालत सृजत हरत दससीसा । जा बल सीस धरत सहसानन । अंडकोस समेत गिरि कानन ॥
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता । तुम्ह ते सठन्ह सिखावनु दाता । हर कोदंड कठिन जेहि भंजा । तेहि समेत नृप दल मद गंजा ॥
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली । बधे सकल अतुलित बलसाली ॥
दो. जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि । तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥ २१ ॥
जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई । सहसबाहु सन परी लराई ॥ समर बालि सन करि जसु पावा । सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा ॥
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा । कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ॥ सब कें देह परम प्रिय स्वामी । मारहिं मोहि कुमारग गामी ॥
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे । तेहि पर बाँधेउ तनयँ तुम्हारे ॥ मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा । कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ॥
बिनती करउँ जोरि कर रावन । सुनहु मान तजि मोर सिखावन ॥ देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी । भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ॥
जाकें डर अति काल डेराई । जो सुर असुर चराचर खाई ॥ तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै । मोरे कहें जानकी दीजै ॥
दो. प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि । गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ॥ २२ ॥
राम चरन पंकज उर धरहू । लंका अचल राज तुम्ह करहू ॥ रिषि पुलिस्त जसु बिमल मंयका । तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका ॥
राम नाम बिनु गिरा न सोहा । देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ॥ बसन हीन नहिं सोह सुरारी । सब भूषण भूषित बर नारी ॥
राम बिमुख संपति प्रभुताई । जाइ रही पाई बिनु पाई ॥ सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं । बरषि गए पुनि तबहिं सुखाहीं ॥
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी । बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ॥ संकर सहस बिष्नु अज तोही । सकहिं न राखि राम कर द्रोही ॥
दो. मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान । भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ॥ २३ ॥
जदपि कहि कपि अति हित बानी । भगति बिबेक बिरति नय सानी ॥ बोला बिहसि महा अभिमानी । मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी ॥
मृत्यु निकट आई खल तोही । लागेसि अधम सिखावन मोही ॥ उलटा होइहि कह हनुमाना । मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना ॥
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना । बेगि न हरहुँ मूढ़ कर प्राना ॥ सुनत निसाचर मारन धाए । सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए ।
नाइ सीस करि बिनय बहूता । नीति बिरोध न मारिअ दूता ॥ आन दंड कछु करिअ गोसाँई । सबहीं कहा मंत्र भल भाई ॥
सुनत बिहसि बोला दसकंधर । अंग भंग करि पठइअ बंदर ॥
दो. कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ । तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ॥ २४ ॥
पूँछहीन बानर तहँ जाइहि । तब सठ निज नाथहि लइ आइहि ॥ जिन्ह कै कीन्हसि बहुत बड़ाई । देखेउँûमैं तिन्ह कै प्रभुताई ॥
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना । भइ सहाय सारद मैं जाना ॥ जातुधान सुनि रावन बचना । लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना ॥
रहा न नगर बसन घृत तेला । बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला ॥ कौतुक कहँ आए पुरबासी । मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी ॥
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी । नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी ॥ पावक जरत देखि हनुमंता । भयउ परम लघु रुप तुरंता ॥
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं । भई सभीत निसाचर नारीं ॥
दो. हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास । अट्टहास करि गर्ज़ा कपि बढ़ि लाग अकास ॥ २५ ॥
देह बिसाल परम हरुआई । मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ॥ जरइ नगर भा लोग बिहाला । झपट लपट बहु कोटि कराला ॥
तात मातु हा सुनिअ पुकारा । एहि अवसर को हमहि उबारा ॥ हम जो कहा यह कपि नहिं होई । बानर रूप धरें सुर कोई ॥
साधु अवग्या कर फलु ऐसा । जरइ नगर अनाथ कर जैसा ॥ जारा नगरु निमिष एक माहीं । एक बिभीषन कर गृह नाहीं ॥
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा । जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ॥ उलटि पलटि लंका सब जारी । कूदि परा पुनि सिंधु मझारी ॥
दो. पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि । जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि ॥ २६ ॥
मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा । जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ॥ चूड़ामनि उतारि तब दयऊ । हरष समेत पवनसुत लयऊ ॥
कहेहु तात अस मोर प्रनामा । सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ॥ दीन दयाल बिरिदु संभारी । हरहु नाथ मम संकट भारी ॥
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु । बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु ॥ मास दिवस महुँ नाथु न आवा । तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा ॥
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना । तुम्हहू तात कहत अब जाना ॥ तोहि देखि सीतलि भइ छाती । पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती ॥
दो. जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह । चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ॥ २७ ॥
चलत महाधुनि गर्जेसि भारी । गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी ॥ नाघि सिंधु एहि पारहि आवा । सबद किलकिला कपिन्ह सुनावा ॥
हरषे सब बिलोकि हनुमाना । नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ॥ मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा । कीन्हेसि रामचन्द्र कर काजा ॥
मिले सकल अति भए सुखारी । तलफत मीन पाव जिमि बारी ॥ चले हरषि रघुनायक पासा । पूँछत कहत नवल इतिहासा ॥
तब मधुबन भीतर सब आए । अंगद संमत मधु फल खाए ॥ रखवारे जब बरजन लागे । मुष्टि प्रहार हनत सब भागे ॥
दो. जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज । सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥ २८ ॥
जौं न होति सीता सुधि पाई । मधुबन के फल सकहिं कि खाई ॥ एहि बिधि मन बिचार कर राजा । आइ गए कपि सहित समाजा ॥
आइ सबन्हि नावा पद सीसा । मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा ॥ पूँछी कुसल कुसल पद देखी । राम कृपाँ भा काजु बिसेषी ॥
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना । राखे सकल कपिन्ह के प्राना ॥ सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ । कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ ।
राम कपिन्ह जब आवत देखा । किएँ काजु मन हरष बिसेषा ॥ फटिक सिला बैठे द्वौ भाई । परे सकल कपि चरनन्हि जाई ॥
दो. प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज । पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥ २९ ॥
जामवंत कह सुनु रघुराया । जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया ॥ ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर । सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर ॥
सोइ बिजई बिनई गुन सागर । तासु सुजसु त्रेलोक उजागर ॥ प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू । जन्म हमार सुफल भा आजू ॥
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी । सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी ॥ पवनतनय के चरित सुहाए । जामवंत रघुपतिहि सुनाए ॥
सुनत कृपानिधि मन अति भाए । पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए ॥ कहहु तात केहि भाँति जानकी । रहति करति रच्छा स्वप्रान की ॥
दो. नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट । लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥ ३० ॥
चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही । रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही ॥ नाथ जुगल लोचन भरि बारी । बचन कहे कछु जनककुमारी ॥
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना । दीन बंधु प्रनतारति हरना ॥ मन क्रम बचन चरन अनुरागी । केहि अपराध नाथ हौं त्यागी ॥
अवगुन एक मोर मैं माना । बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना ॥ नाथ सो नयनन्हि को अपराधा । निसरत प्रान करिहिं हठि बाधा ॥
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा । स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ॥ नयन स्त्रवहि जलु निज हित लागी । जरैं न पाव देह बिरहागी ।
सीता के अति बिपति बिसाला । बिनहिं कहें भलि दीनदयाला ॥
दो. निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति । बेगि चलिय प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥ ३१ ॥
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना । भरि आए जल राजिव नयना ॥ बचन काँय मन मम गति जाही । सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही ॥
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई । जब तव सुमिरन भजन न होई ॥ केतिक बात प्रभु जातुधान की । रिपुहि जीति आनिबी जानकी ॥
सुनु कपि तोहि समान उपकारी । नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ॥ प्रति उपकार करौं का तोरा । सनमुख होइ न सकत मन मोरा ॥
सुनु सुत उरिन मैं नाहीं । देखेउँ करि बिचार मन माहीं ॥ पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता । लोचन नीर पुलक अति गाता ॥
दो. सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत । चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥ ३२ ॥
बार बार प्रभु चहइ उठावा । प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ॥ प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा । सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ॥
सावधान मन करि पुनि संकर । लागे कहन कथा अति सुंदर ॥ कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा । कर गहि परम निकट बैठावा ॥
कहु कपि रावन पालित लंका । केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ॥ प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना । बोला बचन बिगत अभिमाना ॥
साखामृग के बड़ि मनुसाई । साखा तें साखा पर जाई ॥ नाघि सिंधु हाटकपुर जारा । निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा । ।
सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥
दो. ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकुल । तब प्रभावँ बड़वानलहिं जारि सकइ खलु तूल ॥ ३३ ॥
नाथ भगति अति सुखदायनी । देहु कृपा करि अनपायनी ॥ सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी । एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना । ताहि भजनु तजि भाव न आना ॥ यह संवाद जासु उर आवा । रघुपति चरन भगति सोइ पावा ॥
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा । जय जय जय कृपाल सुखकंदा ॥ तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा । कहा चलैं कर करहु बनावा ॥
अब बिलंबु केहि कारन कीजे । तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे ॥ कौतुक देखि सुमन बहु बरषी । नभ तें भवन चले सुर हरषी ॥
दो. कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ । नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥ ३४ ॥
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा । गरजहिं भालु महाबल कीसा ॥ देखी राम सकल कपि सेना । चितइ कृपा करि राजिव नैना ॥
राम कृपा बल पाइ कपिंदा । भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा ॥ हरषि राम तब कीन्ह पयाना । सगुन भए सुंदर सुभ नाना ॥
जासु सकल मंगलमय कीती । तासु पयान सगुन यह नीती ॥ प्रभु पयान जाना बैदेहीं । फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं ॥
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई । असगुन भयउ रावनहि सोई ॥ चला कटकु को बरनैं पारा । गर्जहि बानर भालु अपारा ॥
नख आयुध गिरि पादपधारी । चले गगन महि इच्छाचारी ॥ केहरिनाद भालु कपि करहीं । डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं ॥
छं. चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे । मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे ॥ कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं । जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ॥ १ ॥
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई । गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई ॥ रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी । जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ॥ २ ॥
दो. एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर । जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥ ३५ ॥
उहाँ निसाचर रहहिं ससंका । जब ते जारि गयउ कपि लंका ॥ निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा । नहिं निसिचर कुल केर उबारा ॥
जासु दूत बल बरनि न जाई । तेहि आएँ पुर कवन भलाई ॥ दूतन्हि सन सुनि पुरजन बानी । मंदोदरी अधिक अकुलानी ॥
रहसि जोरि कर पति पग लागी । बोली बचन नीति रस पागी ॥ कंत करष हरि सन परिहरहू । मोर कहा अति हित हियँ धरहु ॥
समुझत जासु दूत कइ करनी । स्त्रवहीं गर्भ रजनीचर धरनी ॥ तासु नारि निज सचिव बोलाई । पठवहु कंत जो चहहु भलाई ॥
तब कुल कमल बिपिन दुखदाई । सीता सीत निसा सम आई ॥ सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें । हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ॥
दो. -राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक । जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥ ३६ ॥
श्रवन सुनी सठ ता करि बानी । बिहसा जगत बिदित अभिमानी ॥ सभय सुभाउ नारि कर साचा । मंगल महुँ भय मन अति काचा ॥
जौं आवइ मर्कट कटकाई । जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ॥ कंपहिं लोकप जाकी त्रासा । तासु नारि सभीत बड़ि हासा ॥
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई । चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ॥ मंदोदरी हृदयँ कर चिंता । भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ॥
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई । सिंधु पार सेना सब आई ॥ बूझेसि सचिव उचित मत कहहू । ते सब हँसे मष्ट करि रहहू ॥
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं । नर बानर केहि लेखे माही ॥
दो. सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस । राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥ ३७ ॥
सोइ रावन कहुँ बनि सहाई । अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई ॥ अवसर जानि बिभीषनु आवा । भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा ॥
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन । बोला बचन पाइ अनुसासन ॥ जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता । मति अनुरुप कहउँ हित ताता ॥
जो आपन चाहै कल्याना । सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ॥ सो परनारि लिलार गोसाईं । तजउ चउथि के चंद कि नाई ॥
चौदह भुवन एक पति होई । भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई ॥ गुन सागर नागर नर जोऊ । अलप लोभ भल कहइ न कोऊ ॥
दो. काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ । सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ॥ ३८ ॥
तात राम नहिं नर भूपाला । भुवनेस्वर कालहु कर काला ॥ ब्रह्म अनामय अज भगवंता । ब्यापक अजित अनादि अनंता ॥
गो द्विज धेनु देव हितकारी । कृपासिंधु मानुष तनुधारी ॥ जन रंजन भंजन खल ब्राता । बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ॥
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा । प्रनतारति भंजन रघुनाथा ॥ देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही । भजहु राम बिनु हेतु सनेही ॥
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा । बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ॥ जासु नाम त्रय ताप नसावन । सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन ॥
दो. बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस । परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ॥ ३९(क) ॥
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात । तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ॥ ३९(ख) ॥
माल्यवंत अति सचिव सयाना । तासु बचन सुनि अति सुख माना ॥ तात अनुज तव नीति बिभूषन । सो उर धरहु जो कहत बिभीषन ॥
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ । दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ ॥ माल्यवंत गृह गयउ बहोरी । कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी ॥
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं । नाथ पुरान निगम अस कहहीं ॥ जहाँ सुमति तहँ संपति नाना । जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ॥
तव उर कुमति बसी बिपरीता । हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ॥ कालराति निसिचर कुल केरी । तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ॥
दो. तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार । सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ॥ ४० ॥
बुध पुरान श्रुति संमत बानी । कही बिभीषन नीति बखानी ॥ सुनत दसानन उठा रिसाई । खल तोहि निकट मुत्यु अब आई ॥
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा । रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा ॥ कहसि न खल अस को जग माहीं । भुज बल जाहि जिता मैं नाही ॥
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती । सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती ॥ अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा । अनुज गहे पद बारहिं बारा ॥
उमा संत कइ इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई ॥ तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा । रामु भजें हित नाथ तुम्हारा ॥
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ । सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ ॥
दो. रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि । मै रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि ॥ ४१ ॥
अस कहि चला बिभीषनु जबहीं । आयूहीन भए सब तबहीं ॥ साधु अवग्या तुरत भवानी । कर कल्यान अखिल कै हानी ॥
रावन जबहिं बिभीषन त्यागा । भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा ॥ चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं । करत मनोरथ बहु मन माहीं ॥
देखिहउँ जाइ चरन जलजाता । अरुन मृदुल सेवक सुखदाता ॥ जे पद परसि तरी रिषिनारी । दंडक कानन पावनकारी ॥
जे पद जनकसुताँ उर लाए । कपट कुरंग संग धर धाए ॥ हर उर सर सरोज पद जेई । अहोभाग्य मै देखिहउँ तेई ॥
दो. जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ । ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ॥ ४२ ॥
एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा । आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा ॥ कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा । जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा ॥
ताहि राखि कपीस पहिं आए । समाचार सब ताहि सुनाए ॥ कह सुग्रीव सुनहु रघुराई । आवा मिलन दसानन भाई ॥
कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा । कहइ कपीस सुनहु नरनाहा ॥ जानि न जाइ निसाचर माया । कामरूप केहि कारन आया ॥
भेद हमार लेन सठ आवा । राखिअ बाँधि मोहि अस भावा ॥ सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी । मम पन सरनागत भयहारी ॥
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना । सरनागत बच्छल भगवाना ॥
दो. सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि । ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ॥ ४३ ॥
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू । आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ॥ सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥
पापवंत कर सहज सुभाऊ । भजनु मोर तेहि भाव न काऊ ॥ जौं पै दुष्टहृदय सोइ होई । मोरें सनमुख आव कि सोई ॥
निर्मल मन जन सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥ भेद लेन पठवा दससीसा । तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा ॥
जग महुँ सखा निसाचर जेते । लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते ॥ जौं सभीत आवा सरनाई । रखिहउँ ताहि प्रान की नाई ॥
दो. उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत । जय कृपाल कहि चले अंगद हनू समेत ॥ ४४ ॥
सादर तेहि आगें करि बानर । चले जहाँ रघुपति करुनाकर ॥ दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता । नयनानंद दान के दाता ॥
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी । रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी ॥ भुज प्रलंब कंजारुन लोचन । स्यामल गात प्रनत भय मोचन ॥
सिंघ कंध आयत उर सोहा । आनन अमित मदन मन मोहा ॥ नयन नीर पुलकित अति गाता । मन धरि धीर कही मृदु बाता ॥
नाथ दसानन कर मैं भ्राता । निसिचर बंस जनम सुरत्राता ॥ सहज पापप्रिय तामस देहा । जथा उलूकहि तम पर नेहा ॥
दो. श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर । त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥ ४५ ॥
अस कहि करत दंडवत देखा । तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा ॥ दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा । भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा ॥
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी । बोले बचन भगत भयहारी ॥ कहु लंकेस सहित परिवारा । कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ॥
खल मंडलीं बसहु दिनु राती । सखा धरम निबहइ केहि भाँती ॥ मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती । अति नय निपुन न भाव अनीती ॥
बरु भल बास नरक कर ताता । दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ॥ अब पद देखि कुसल रघुराया । जौं तुम्ह कीन्ह जानि जन दाया ॥
दो. तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम । जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम ॥ ४६ ॥
तब लगि हृदयँ बसत खल नाना । लोभ मोह मच्छर मद माना ॥ जब लगि उर न बसत रघुनाथा । धरें चाप सायक कटि भाथा ॥
ममता तरुन तमी अँधिआरी । राग द्वेष उलूक सुखकारी ॥ तब लगि बसति जीव मन माहीं । जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं ॥
अब मैं कुसल मिटे भय भारे । देखि राम पद कमल तुम्हारे ॥ तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला । ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला ॥
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ । सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ ॥ जासु रूप मुनि ध्यान न आवा । तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा ॥
दो. -अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज । देखेउँ नयन बिरंचि सिब सेब्य जुगल पद कंज ॥ ४७ ॥
सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ । जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ ॥ जौं नर होइ चराचर द्रोही । आवे सभय सरन तकि मोही ॥
तजि मद मोह कपट छल नाना । करउँ सद्य तेहि साधु समाना ॥ जननी जनक बंधु सुत दारा । तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा ॥
सब कै ममता ताग बटोरी । मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ॥ समदरसी इच्छा कछु नाहीं । हरष सोक भय नहिं मन माहीं ॥
अस सज्जन मम उर बस कैसें । लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें ॥ तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें । धरउँ देह नहिं आन निहोरें ॥
दो. सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम । ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ॥ ४८ ॥
सुनु लंकेस सकल गुन तोरें । तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें ॥ राम बचन सुनि बानर जूथा । सकल कहहिं जय कृपा बरूथा ॥
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी । नहिं अघात श्रवनामृत जानी ॥ पद अंबुज गहि बारहिं बारा । हृदयँ समात न प्रेमु अपारा ॥
सुनहु देव सचराचर स्वामी । प्रनतपाल उर अंतरजामी ॥ उर कछु प्रथम बासना रही । प्रभु पद प्रीति सरित सो बही ॥
अब कृपाल निज भगति पावनी । देहु सदा सिव मन भावनी ॥ एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा । मागा तुरत सिंधु कर नीरा ॥
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं । मोर दरसु अमोघ जग माहीं ॥ अस कहि राम तिलक तेहि सारा । सुमन बृष्टि नभ भई अपारा ॥
दो. रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड । जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेहु राजु अखंड ॥ ४९(क) ॥
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ । सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ ॥ ४९(ख) ॥
अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना । ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना ॥ निज जन जानि ताहि अपनावा । प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा ॥
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी । सर्बरूप सब रहित उदासी ॥ बोले बचन नीति प्रतिपालक । कारन मनुज दनुज कुल घालक ॥
सुनु कपीस लंकापति बीरा । केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा ॥ संकुल मकर उरग झष जाती । अति अगाध दुस्तर सब भाँती ॥
कह लंकेस सुनहु रघुनायक । कोटि सिंधु सोषक तव सायक ॥ जद्यपि तदपि नीति असि गाई । बिनय करिअ सागर सन जाई ॥
दो. प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि । बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ॥ ५० ॥
सखा कही तुम्ह नीकि उपाई । करिअ दैव जौं होइ सहाई ॥ मंत्र न यह लछिमन मन भावा । राम बचन सुनि अति दुख पावा ॥
नाथ दैव कर कवन भरोसा । सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा ॥ कादर मन कहुँ एक अधारा । दैव दैव आलसी पुकारा ॥
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा । ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा ॥ अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई । सिंधु समीप गए रघुराई ॥
प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई । बैठे पुनि तट दर्भ डसाई ॥ जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए । पाछें रावन दूत पठाए ॥
दो. सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह । प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ॥ ५१ ॥
प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ । अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ ॥ रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने । सकल बाँधि कपीस पहिं आने ॥
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर । अंग भंग करि पठवहु निसिचर ॥ सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए । बाँधि कटक चहु पास फिराए ॥
बहु प्रकार मारन कपि लागे । दीन पुकारत तदपि न त्यागे ॥ जो हमार हर नासा काना । तेहि कोसलाधीस कै आना ॥
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए । दया लागि हँसि तुरत छोडाए ॥ रावन कर दीजहु यह पाती । लछिमन बचन बाचु कुलघाती ॥
दो. कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार । सीता देइ मिलेहु न त आवा काल तुम्हार ॥ ५२ ॥
तुरत नाइ लछिमन पद माथा । चले दूत बरनत गुन गाथा ॥ कहत राम जसु लंकाँ आए । रावन चरन सीस तिन्ह नाए ॥
बिहसि दसानन पूँछी बाता । कहसि न सुक आपनि कुसलाता ॥ पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी । जाहि मृत्यु आई अति नेरी ॥
करत राज लंका सठ त्यागी । होइहि जब कर कीट अभागी ॥ पुनि कहु भालु कीस कटकाई । कठिन काल प्रेरित चलि आई ॥
जिन्ह के जीवन कर रखवारा । भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा ॥ कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी । जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी ॥
दो. की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर । कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥ ५३ ॥
नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें । मानहु कहा क्रोध तजि तैसें ॥ मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा । जातहिं राम तिलक तेहि सारा ॥
रावन दूत हमहि सुनि काना । कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना ॥ श्रवन नासिका काटै लागे । राम सपथ दीन्हे हम त्यागे ॥
पूँछिहु नाथ राम कटकाई । बदन कोटि सत बरनि न जाई ॥ नाना बरन भालु कपि धारी । बिकटानन बिसाल भयकारी ॥
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा । सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा ॥ अमित नाम भट कठिन कराला । अमित नाग बल बिपुल बिसाला ॥
दो. द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि । दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ॥ ५४ ॥
ए कपि सब सुग्रीव समाना । इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना ॥ राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं । तृन समान त्रेलोकहि गनहीं ॥
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर । पदुम अठारह जूथप बंदर ॥ नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं । जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं ॥
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा । आयसु पै न देहिं रघुनाथा ॥ सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला । पूरहीं न त भरि कुधर बिसाला ॥
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा । ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा ॥ गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका । मानहु ग्रसन चहत हहिं लंका ॥
दो. -सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम । रावन काल कोटि कहु जीति सकहिं संग्राम ॥ ५५ ॥
राम तेज बल बुधि बिपुलाई । तब भ्रातहि पूँछेउ नय नागर ॥ तासु बचन सुनि सागर पाहीं । मागत पंथ कृपा मन माहीं ॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा । जौं असि मति सहाय कृत कीसा ॥ सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई । सागर सन ठानी मचलाई ॥
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई । रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई ॥ सचिव सभीत बिभीषन जाकें । बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें ॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी । समय बिचारि पत्रिका काढ़ी ॥ रामानुज दीन्ही यह पाती । नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती ॥
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन । सचिव बोलि सठ लाग बचावन ॥
दो. -बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस । राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ॥ ५६(क) ॥
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग । होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ॥ ५६(ख) ॥
सुनत सभय मन मुख मुसुकाई । कहत दसानन सबहि सुनाई ॥ भूमि परा कर गहत अकासा । लघु तापस कर बाग बिलासा ॥
कह सुक नाथ सत्य सब बानी । समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी ॥ सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा । नाथ राम सन तजहु बिरोधा ॥
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ । जद्यपि अखिल लोक कर राऊ ॥ मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही । उर अपराध न एकउ धरिही ॥
जनकसुता रघुनाथहि दीजे । एतना कहा मोर प्रभु कीजे । जब तेहिं कहा देन बैदेही । चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही ॥
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ । कृपासिंधु रघुनायक जहाँ ॥ करि प्रनामु निज कथा सुनाई । राम कृपाँ आपनि गति पाई ॥
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी । राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी ॥ बंदि राम पद बारहिं बारा । मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा ॥
दो. बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति । बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ॥ ५७ ॥
लछिमन बान सरासन आनू । सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू ॥ सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती । सहज कृपन सन सुंदर नीती ॥
ममता रत सन ग्यान कहानी । अति लोभी सन बिरति बखानी ॥ क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा । ऊसर बीज बएँ फल जथा ॥
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा । यह मत लछिमन के मन भावा ॥ संघानेउ प्रभु बिसिख कराला । उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ॥
मकर उरग झष गन अकुलाने । जरत जंतु जलनिधि जब जाने ॥ कनक थार भरि मनि गन नाना । बिप्र रूप आयउ तजि माना ॥
दो. काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच । बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ॥ ५८ ॥
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे । छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ॥ गगन समीर अनल जल धरनी । इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ॥
तव प्रेरित मायाँ उपजाए । सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए ॥ प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई । सो तेहि भाँति रहे सुख लहई ॥
प्रभु भल कीन्ही मोहि सिख दीन्ही । मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही ॥ ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी ॥
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई । उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई ॥ प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई । करौं सो बेगि जौ तुम्हहि सोहाई ॥
दो. सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ । जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ॥ ५९ ॥
नाथ नील नल कपि द्वौ भाई । लरिकाई रिषि आसिष पाई ॥ तिन्ह के परस किएँ गिरि भारे । तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ॥
मैं पुनि उर धरि प्रभुताई । करिहउँ बल अनुमान सहाई ॥ एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ । जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ ॥
एहि सर मम उत्तर तट बासी । हतहु नाथ खल नर अघ रासी ॥ सुनि कृपाल सागर मन पीरा । तुरतहिं हरी राम रनधीरा ॥
देखि राम बल पौरुष भारी । हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी ॥ सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा । चरन बंदि पाथोधि सिधावा ॥
छं. निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ । यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ ॥ सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना । तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ॥
दो. सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान । सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ॥ ६० ॥
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
(सुन्दरकाण्ड समाप्त)
श्री रामचरितमानस षष्ठ सोपान ।
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम् । मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम् ॥ १ ॥
शंखेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं कालव्यालकरालभूषणधरं गंगाशशांकप्रियम्। काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम् ॥ २ ॥
यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्। खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे ॥ ३ ॥
दो. लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चंड। भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदंड ॥
सो. सिंधु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ। अब बिलंबु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु ॥
सुनहु भानुकुल केतु जामवंत कर जोरि कह। नाथ नाम तव सेतु नर चढ़ि भव सागर तरिहिं ॥
यह लघु जलधि तरत कति बारा। अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा ॥ प्रभु प्रताप बड़वानल भारी। सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी ॥
तब रिपु नारी रुदन जल धारा। भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा ॥ सुनि अति उकुति पवनसुत केरी। हरषे कपि रघुपति तन हेरी ॥
जामवंत बोले दोउ भाई। नल नीलहि सब कथा सुनाई ॥ राम प्रताप सुमिरि मन माहीं। करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं ॥
बोलि लिए कपि निकर बहोरी। सकल सुनहु बिनती कछु मोरी ॥ राम चरन पंकज उर धरहू। कौतुक एक भालु कपि करहू ॥
धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा ॥ सुनि कपि भालु चले करि हूहा। जय रघुबीर प्रताप समूहा ॥
दो. अति उतंग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ। आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ ॥ १ ॥
सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कंदुक इव नल नील ते लेहीं ॥ देखि सेतु अति सुंदर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना ॥
परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी ॥ करिहउँ इहाँ संभु थापना। मोरे हृदयँ परम कलपना ॥
सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिबर सकल बोलि लै आए ॥ लिंग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा ॥
सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा ॥ संकर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी ॥
दो. संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास। ते नर करहि कलप भरि धोर नरक महुँ बास ॥ २ ॥
जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं ॥ जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि ॥
होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति मोरि तेहि संकर देइहि ॥ मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही ॥
राम बचन सब के जिय भाए। मुनिबर निज निज आश्रम आए ॥ गिरिजा रघुपति कै यह रीती। संतत करहिं प्रनत पर प्रीती ॥
बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर ॥ बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई। भए उपल बोहित सम तेई ॥
महिमा यह न जलधि कइ बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी ॥
दो. श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान। ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन ॥ ३ ॥
बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा। देखि कृपानिधि के मन भावा ॥ चली सेन कछु बरनि न जाई। गर्जहिं मर्कट भट समुदाई ॥
सेतुबंध ढिग चढ़ि रघुराई। चितव कृपाल सिंधु बहुताई ॥ देखन कहुँ प्रभु करुना कंदा। प्रगट भए सब जलचर बृंदा ॥
मकर नक्र नाना झष ब्याला। सत जोजन तन परम बिसाला ॥ अइसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं। एकन्ह कें डर तेपि डेराहीं ॥
प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे। मन हरषित सब भए सुखारे ॥ तिन्ह की ओट न देखिअ बारी। मगन भए हरि रूप निहारी ॥
चला कटकु प्रभु आयसु पाई। को कहि सक कपि दल बिपुलाई ॥
दो. सेतुबंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं। अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़ि चढ़ि पारहि जाहिं ॥ ४ ॥
अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई। बिहँसि चले कृपाल रघुराई ॥ सेन सहित उतरे रघुबीरा। कहि न जाइ कपि जूथप भीरा ॥
सिंधु पार प्रभु डेरा कीन्हा। सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा ॥ खाहु जाइ फल मूल सुहाए। सुनत भालु कपि जहँ तहँ धाए ॥
सब तरु फरे राम हित लागी। रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी ॥ खाहिं मधुर फल बटप हलावहिं। लंका सन्मुख सिखर चलावहिं ॥
जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं। घेरि सकल बहु नाच नचावहिं ॥ दसनन्हि काटि नासिका काना। कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना ॥
जिन्ह कर नासा कान निपाता। तिन्ह रावनहि कही सब बाता ॥ सुनत श्रवन बारिधि बंधाना। दस मुख बोलि उठा अकुलाना ॥
दो. बांध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस। सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस ॥ ५ ॥
निज बिकलता बिचारि बहोरी। बिहँसि गयउ ग्रह करि भय भोरी ॥ मंदोदरीं सुन्यो प्रभु आयो। कौतुकहीं पाथोधि बँधायो ॥
कर गहि पतिहि भवन निज आनी। बोली परम मनोहर बानी ॥ चरन नाइ सिरु अंचलु रोपा। सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा ॥
नाथ बयरु कीजे ताही सों। बुधि बल सकिअ जीति जाही सों ॥ तुम्हहि रघुपतिहि अंतर कैसा। खलु खद्योत दिनकरहि जैसा ॥
अतिबल मधु कैटभ जेहिं मारे। महाबीर दितिसुत संघारे ॥ जेहिं बलि बाँधि सहजभुज मारा। सोइ अवतरेउ हरन महि भारा ॥
तासु बिरोध न कीजिअ नाथा। काल करम जिव जाकें हाथा ॥
दो. रामहि सौपि जानकी नाइ कमल पद माथ। सुत कहुँ राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ ॥ ६ ॥
नाथ दीनदयाल रघुराई। बाघउ सनमुख गएँ न खाई ॥ चाहिअ करन सो सब करि बीते। तुम्ह सुर असुर चराचर जीते ॥
संत कहहिं असि नीति दसानन। चौथेंपन जाइहि नृप कानन ॥ तासु भजन कीजिअ तहँ भर्ता। जो कर्ता पालक संहर्ता ॥
सोइ रघुवीर प्रनत अनुरागी। भजहु नाथ ममता सब त्यागी ॥ मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी। भूप राजु तजि होहिं बिरागी ॥
सोइ कोसलधीस रघुराया। आयउ करन तोहि पर दाया ॥ जौं पिय मानहु मोर सिखावन। सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन ॥
दो. अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कंपित गात। नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात ॥ ७ ॥
तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई ॥ सुनु तै प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना ॥
बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला ॥ देव दनुज नर सब बस मोरें। कवन हेतु उपजा भय तोरें ॥
नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई। सभाँ बहोरि बैठ सो जाई ॥ मंदोदरीं हृदयँ अस जाना। काल बस्य उपजा अभिमाना ॥
सभाँ आइ मंत्रिन्ह तेंहि बूझा। करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा ॥ कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा। बार बार प्रभु पूछहु काहा ॥
कहहु कवन भय करिअ बिचारा। नर कपि भालु अहार हमारा ॥
दो. सब के बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि। निति बिरोध न करिअ प्रभु मत्रिंन्ह मति अति थोरि ॥ ८ ॥
कहहिं सचिव सठ ठकुरसोहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँती ॥ बारिधि नाघि एक कपि आवा। तासु चरित मन महुँ सबु गावा ॥
छुधा न रही तुम्हहि तब काहू। जारत नगरु कस न धरि खाहू ॥ सुनत नीक आगें दुख पावा। सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा ॥
जेहिं बारीस बँधायउ हेला। उतरेउ सेन समेत सुबेला ॥ सो भनु मनुज खाब हम भाई। बचन कहहिं सब गाल फुलाई ॥
तात बचन मम सुनु अति आदर। जनि मन गुनहु मोहि करि कादर ॥ प्रिय बानी जे सुनहिं जे कहहीं। ऐसे नर निकाय जग अहहीं ॥
बचन परम हित सुनत कठोरे। सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे ॥ प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीती। सीता देइ करहु पुनि प्रीती ॥
दो. नारि पाइ फिरि जाहिं जौं तौ न बढ़ाइअ रारि। नाहिं त सन्मुख समर महि तात करिअ हठि मारि ॥ ९ ॥
यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा। उभय प्रकार सुजसु जग तोरा ॥ सुत सन कह दसकंठ रिसाई। असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई ॥
अबहीं ते उर संसय होई। बेनुमूल सुत भयहु घमोई ॥ सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा। चला भवन कहि बचन कठोरा ॥
हित मत तोहि न लागत कैसें। काल बिबस कहुँ भेषज जैसें ॥ संध्या समय जानि दससीसा। भवन चलेउ निरखत भुज बीसा ॥
लंका सिखर उपर आगारा। अति बिचित्र तहँ होइ अखारा ॥ बैठ जाइ तेही मंदिर रावन। लागे किंनर गुन गन गावन ॥
बाजहिं ताल पखाउज बीना। नृत्य करहिं अपछरा प्रबीना ॥
दो. सुनासीर सत सरिस सो संतत करइ बिलास। परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास ॥ १० ॥
सिखर एक उतंग अति देखी। परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी ॥ तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए ॥
ता पर रूचिर मृदुल मृगछाला। तेहीं आसान आसीन कृपाला ॥ प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा। बाम दहिन दिसि चाप निषंगा ॥
दुहुँ कर कमल सुधारत बाना। कह लंकेस मंत्र लगि काना ॥ बड़भागी अंगद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना ॥
प्रभु पाछें लछिमन बीरासन। कटि निषंग कर बान सरासन ॥
दो. एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन। धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन ॥ ११(क) ॥
पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मंयक। कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असंक ॥ ११(ख) ॥
पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी। परम प्रताप तेज बल रासी ॥ मत्त नाग तम कुंभ बिदारी। ससि केसरी गगन बन चारी ॥
बिथुरे नभ मुकुताहल तारा। निसि सुंदरी केर सिंगारा ॥ कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई। कहहु काह निज निज मति भाई ॥
कह सुग़ीव सुनहु रघुराई। ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई ॥ मारेउ राहु ससिहि कह कोई। उर महँ परी स्यामता सोई ॥
कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा। सार भाग ससि कर हरि लीन्हा ॥ छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं। तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं ॥
प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा। अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा ॥ बिष संजुत कर निकर पसारी। जारत बिरहवंत नर नारी ॥
दो. कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हारा प्रिय दास। तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास ॥ १२(क) ॥
पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान। दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान ॥ १२(ख) ॥
Navaparayana 7 Ends
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