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ॐ श्री गणेशाय नमः

Doha / दोहा
दो. कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ । तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ॥ २४ ॥
Chaupai / चोपाई
पूँछहीन बानर तहँ जाइहि । तब सठ निज नाथहि लइ आइहि ॥ जिन्ह कै कीन्हसि बहुत बड़ाई । देखेउँûमैं तिन्ह कै प्रभुताई ॥
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना । भइ सहाय सारद मैं जाना ॥ जातुधान सुनि रावन बचना । लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना ॥
रहा न नगर बसन घृत तेला । बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला ॥ कौतुक कहँ आए पुरबासी । मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी ॥
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी । नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी ॥ पावक जरत देखि हनुमंता । भयउ परम लघु रुप तुरंता ॥
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं । भई सभीत निसाचर नारीं ॥
Doha / दोहा
दो. हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास । अट्टहास करि गर्ज़ा कपि बढ़ि लाग अकास ॥ २५ ॥
Chaupai / चोपाई
देह बिसाल परम हरुआई । मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ॥ जरइ नगर भा लोग बिहाला । झपट लपट बहु कोटि कराला ॥
तात मातु हा सुनिअ पुकारा । एहि अवसर को हमहि उबारा ॥ हम जो कहा यह कपि नहिं होई । बानर रूप धरें सुर कोई ॥
साधु अवग्या कर फलु ऐसा । जरइ नगर अनाथ कर जैसा ॥ जारा नगरु निमिष एक माहीं । एक बिभीषन कर गृह नाहीं ॥
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा । जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ॥ उलटि पलटि लंका सब जारी । कूदि परा पुनि सिंधु मझारी ॥

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namo namaḥ!

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