ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Chaupai / चोपाई
गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा। मैं सब कही मोरि मति जथा ॥ राम चरित सत कोटि अपारा। श्रुति सारदा न बरनै पारा ॥
राम अनंत अनंत गुनानी। जन्म कर्म अनंत नामानी ॥ जल सीकर महि रज गनि जाहीं। रघुपति चरित न बरनि सिराहीं ॥
बिमल कथा हरि पद दायनी। भगति होइ सुनि अनपायनी ॥ उमा कहिउँ सब कथा सुहाई। जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई ॥
कछुक राम गुन कहेउँ बखानी। अब का कहौं सो कहहु भवानी ॥ सुनि सुभ कथा उमा हरषानी। बोली अति बिनीत मृदु बानी ॥
धन्य धन्य मैं धन्य पुरारी। सुनेउँ राम गुन भव भय हारी ॥
Doha / दोहा
दो. तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह । जानेउँ राम प्रताप प्रभु चिदानंद संदोह ॥ ५२(क) ॥
नाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर । श्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर ॥ ५२(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं ॥ जीवनमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहीं निरंतर तेऊ ॥
भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा ॥ बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा। श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा ॥
श्रवनवंत अस को जग माहीं। जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं ॥ ते जड़ जीव निजात्मक घाती। जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती ॥
हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा। सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा ॥ तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई। कागभसुंडि गरुड़ प्रति गाई ॥
Doha / दोहा
दो. बिरति ग्यान बिग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह । बायस तन रघुपति भगति मोहि परम संदेह ॥ ५३ ॥
Chaupai / चोपाई
नर सहस्र महँ सुनहु पुरारी। कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी ॥ धर्मसील कोटिक महँ कोई। बिषय बिमुख बिराग रत होई ॥
कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई। सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई ॥ ग्यानवंत कोटिक महँ कोऊ। जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ ॥
तिन्ह सहस्र महुँ सब सुख खानी। दुर्लभ ब्रह्मलीन बिग्यानी ॥ धर्मसील बिरक्त अरु ग्यानी। जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी ॥
सब ते सो दुर्लभ सुरराया। राम भगति रत गत मद माया ॥ सो हरिभगति काग किमि पाई। बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई ॥
Doha / दोहा
दो. राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर । नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर ॥ ५४ ॥
Chaupai / चोपाई
यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा। कहहु कृपाल काग कहँ पावा ॥ तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी। कहहु मोहि अति कौतुक भारी ॥
गरुड़ महाग्यानी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी ॥ तेहिं केहि हेतु काग सन जाई। सुनी कथा मुनि निकर बिहाई ॥
कहहु कवन बिधि भा संबादा। दोउ हरिभगत काग उरगादा ॥ गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई। बोले सिव सादर सुख पाई ॥
धन्य सती पावन मति तोरी। रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी ॥ सुनहु परम पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा ॥
उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा ॥
Doha / दोहा
दो. ऐसिअ प्रस्न बिहंगपति कीन्ह काग सन जाइ । सो सब सादर कहिहउँ सुनहु उमा मन लाइ ॥ ५५ ॥
Chaupai / चोपाई
मैं जिमि कथा सुनी भव मोचनि। सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि ॥ प्रथम दच्छ गृह तव अवतारा। सती नाम तब रहा तुम्हारा ॥
दच्छ जग्य तब भा अपमाना। तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना ॥ मम अनुचरन्ह कीन्ह मख भंगा। जानहु तुम्ह सो सकल प्रसंगा ॥
तब अति सोच भयउ मन मोरें। दुखी भयउँ बियोग प्रिय तोरें ॥ सुंदर बन गिरि सरित तड़ागा। कौतुक देखत फिरउँ बेरागा ॥
गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी। नील सैल एक सुन्दर भूरी ॥ तासु कनकमय सिखर सुहाए। चारि चारु मोरे मन भाए ॥
तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला। बट पीपर पाकरी रसाला ॥ सैलोपरि सर सुंदर सोहा। मनि सोपान देखि मन मोहा ॥
Doha / दोहा
दो. -सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरंग । कूजत कल रव हंस गन गुंजत मजुंल भृंग ॥ ५६ ॥
Chaupai / चोपाई
तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पांत न होई ॥ माया कृत गुन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका ॥
रहे ब्यापि समस्त जग माहीं। तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं ॥ तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा। सो सुनु उमा सहित अनुरागा ॥
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई ॥ आँब छाहँ कर मानस पूजा। तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा ॥
बर तर कह हरि कथा प्रसंगा। आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा ॥ राम चरित बिचीत्र बिधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना ॥
सुनहिं सकल मति बिमल मराला। बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला ॥ जब मैं जाइ सो कौतुक देखा। उर उपजा आनंद बिसेषा ॥
Doha / दोहा
दो. तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास । सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास ॥ ५७ ॥
Chaupai / चोपाई
गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा। मैं जेहि समय गयउँ खग पासा ॥ अब सो कथा सुनहु जेही हेतू। गयउ काग पहिं खग कुल केतू ॥
जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा। समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा ॥ इंद्रजीत कर आपु बँधायो। तब नारद मुनि गरुड़ पठायो ॥
बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा ॥ प्रभु बंधन समुझत बहु भाँती। करत बिचार उरग आराती ॥
ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा। माया मोह पार परमीसा ॥ सो अवतार सुनेउँ जग माहीं। देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीं ॥
Doha / दोहा
दो. -भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम । खर्च निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम ॥ ५८ ॥
Chaupai / चोपाई
नाना भाँति मनहि समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा ॥ खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई। भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई ॥
ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संसय निज मन माहीं ॥ सुनि नारदहि लागि अति दाया। सुनु खग प्रबल राम कै माया ॥
जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई। बरिआई बिमोह मन करई ॥ जेहिं बहु बार नचावा मोही। सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही ॥
महामोह उपजा उर तोरें। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें ॥ चतुरानन पहिं जाहु खगेसा। सोइ करेहु जेहि होइ निदेसा ॥
Doha / दोहा
दो. अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान । हरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान ॥ ५९ ॥
Chaupai / चोपाई
तब खगपति बिरंचि पहिं गयऊ। निज संदेह सुनावत भयऊ ॥ सुनि बिरंचि रामहि सिरु नावा। समुझि प्रताप प्रेम अति छावा ॥
मन महुँ करइ बिचार बिधाता। माया बस कबि कोबिद ग्याता ॥ हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा ॥
अग जगमय जग मम उपराजा। नहिं आचरज मोह खगराजा ॥ तब बोले बिधि गिरा सुहाई। जान महेस राम प्रभुताई ॥
बैनतेय संकर पहिं जाहू। तात अनत पूछहु जनि काहू ॥ तहँ होइहि तव संसय हानी। चलेउ बिहंग सुनत बिधि बानी ॥
Doha / दोहा
दो. परमातुर बिहंगपति आयउ तब मो पास । जात रहेउँ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास ॥ ६० ॥
Chaupai / चोपाई
तेहिं मम पद सादर सिरु नावा। पुनि आपन संदेह सुनावा ॥ सुनि ता करि बिनती मृदु बानी। परेम सहित मैं कहेउँ भवानी ॥
मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही ॥ तबहि होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा ॥
सुनिअ तहाँ हरि कथा सुहाई। नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई ॥ जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना ॥
नित हरि कथा होत जहँ भाई। पठवउँ तहाँ सुनहि तुम्ह जाई ॥ जाइहि सुनत सकल संदेहा। राम चरन होइहि अति नेहा ॥
Doha / दोहा
दो. बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग । मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग ॥ ६१ ॥
Chaupai / चोपाई
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा ॥ उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला ॥
राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना ॥ राम कथा सो कहइ निरंतर। सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर ॥
जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी। होइहि मोह जनित दुख दूरी ॥ मैं जब तेहि सब कहा बुझाई। चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई ॥
ताते उमा न मैं समुझावा। रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा ॥ होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खौवै चह कृपानिधाना ॥
कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा ॥ प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी ॥
Doha / दोहा
दो. ग्यानि भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान । ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान ॥ ६२(क) ॥
सिव बिरंचि कहुँ मोहइ को है बपुरा आन । अस जियँ जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान ॥ ६२(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुंडा। मति अकुंठ हरि भगति अखंडा ॥ देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ। माया मोह सोच सब गयऊ ॥
करि तड़ाग मज्जन जलपाना। बट तर गयउ हृदयँ हरषाना ॥ बृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए। सुनै राम के चरित सुहाए ॥
कथा अरंभ करै सोइ चाहा। तेही समय गयउ खगनाहा ॥ आवत देखि सकल खगराजा। हरषेउ बायस सहित समाजा ॥
अति आदर खगपति कर कीन्हा। स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा ॥ करि पूजा समेत अनुरागा। मधुर बचन तब बोलेउ कागा ॥
Doha / दोहा
दो. नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज । आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहि काज ॥ ६३(क) ॥
Chaupai / चोपाई
सदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस । जेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस ॥ ६३(ख) ॥
सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ ॥ देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम ॥
अब श्रीराम कथा अति पावनि। सदा सुखद दुख पुंज नसावनि ॥ सादर तात सुनावहु मोही। बार बार बिनवउँ प्रभु तोही ॥
सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता। सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता ॥ भयउ तासु मन परम उछाहा। लाग कहै रघुपति गुन गाहा ॥
प्रथमहिं अति अनुराग भवानी। रामचरित सर कहेसि बखानी ॥ पुनि नारद कर मोह अपारा। कहेसि बहुरि रावन अवतारा ॥
प्रभु अवतार कथा पुनि गाई। तब सिसु चरित कहेसि मन लाई ॥
Doha / दोहा
दो. बालचरित कहिं बिबिध बिधि मन महँ परम उछाह । रिषि आगवन कहेसि पुनि श्री रघुबीर बिबाह ॥ ६४ ॥
Chaupai / चोपाई
बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा। पुनि नृप बचन राज रस भंगा ॥ पुरबासिंह कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन संबादा ॥
बिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा ॥ बालमीक प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना ॥
सचिवागवन नगर नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना ॥ करि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी ॥
पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए ॥ भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी ॥
Doha / दोहा
दो. कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग ॥ बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभु अगस्ति सतसंग ॥ ६५ ॥
Chaupai / चोपाई
कहि दंडक बन पावनताई। गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई ॥ पुनि प्रभु पंचवटीं कृत बासा। भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा ॥
पुनि लछिमन उपदेस अनूपा। सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा ॥ खर दूषन बध बहुरि बखाना। जिमि सब मरमु दसानन जाना ॥
दसकंधर मारीच बतकहीं। जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही ॥ पुनि माया सीता कर हरना। श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना ॥
पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही। बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही ॥ बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा। जेहि बिधि गए सरोबर तीरा ॥
Doha / दोहा
दो. प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग । पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग ॥ ६६((क) ॥
कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास । बरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास ॥ ६६(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए। सीता खोज सकल दिसि धाए ॥ बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँती। कपिन्ह बहोरि मिला संपाती ॥
सुनि सब कथा समीरकुमारा। नाघत भयउ पयोधि अपारा ॥ लंकाँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा। पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा ॥
बन उजारि रावनहि प्रबोधी। पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी ॥ आए कपि सब जहँ रघुराई। बैदेही कि कुसल सुनाई ॥
सेन समेति जथा रघुबीरा। उतरे जाइ बारिनिधि तीरा ॥ मिला बिभीषन जेहि बिधि आई। सागर निग्रह कथा सुनाई ॥
Doha / दोहा
दो. सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार । गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार ॥ ६७(क) ॥
निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार । कुंभकरन घननाद कर बल पौरुष संघार ॥ ६७(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
निसिचर निकर मरन बिधि नाना। रघुपति रावन समर बखाना ॥ रावन बध मंदोदरि सोका। राज बिभीषण देव असोका ॥
सीता रघुपति मिलन बहोरी। सुरन्ह कीन्ह अस्तुति कर जोरी ॥ पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता। अवध चले प्रभु कृपा निकेता ॥
जेहि बिधि राम नगर निज आए। बायस बिसद चरित सब गाए ॥ कहेसि बहोरि राम अभिषैका। पुर बरनत नृपनीति अनेका ॥
कथा समस्त भुसुंड बखानी। जो मैं तुम्ह सन कही भवानी ॥ सुनि सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा ॥
Sortha / सोरठा
सो. गयउ मोर संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित । भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक ॥ ६८(क) ॥
Chaupai / चोपाई
मोहि भयउ अति मोह प्रभु बंधन रन महुँ निरखि । चिदानंद संदोह राम बिकल कारन कवन। ६८(ख) ॥
देखि चरित अति नर अनुसारी। भयउ हृदयँ मम संसय भारी ॥ सोइ भ्रम अब हित करि मैं माना। कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना ॥
जो अति आतप ब्याकुल होई। तरु छाया सुख जानइ सोई ॥ जौं नहिं होत मोह अति मोही। मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही ॥
सुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई। अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई ॥ निगमागम पुरान मत एहा। कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा ॥
संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही ॥ राम कृपाँ तव दरसन भयऊ। तव प्रसाद सब संसय गयऊ ॥
Doha / दोहा
दो. सुनि बिहंगपति बानी सहित बिनय अनुराग । पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग ॥ ६९(क) ॥
श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास । पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास ॥ ६९(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
बोलेउ काकभसुंड बहोरी। नभग नाथ पर प्रीति न थोरी ॥ सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे ॥
तुम्हहि न संसय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्ह तुम्ह दाया ॥ पठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही ॥
तुम्ह निज मोह कही खग साईं। सो नहिं कछु आचरज गोसाईं ॥ नारद भव बिरंचि सनकादी। जे मुनिनायक आतमबादी ॥
मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही ॥ तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा ॥
Doha / दोहा
दो. ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार । केहि कै लौभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार ॥ ७०(क) ॥
श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि । मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि ॥ ७०(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
गुन कृत सन्यपात नहिं केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही ॥ जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा ॥
मच्छर काहि कलंक न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा ॥ चिंता साँपिनि को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया ॥
कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा ॥ सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी ॥
यह सब माया कर परिवारा। प्रबल अमिति को बरनै पारा ॥ सिव चतुरानन जाहि डेराहीं। अपर जीव केहि लेखे माहीं ॥
Doha / दोहा
दो. ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड ॥ सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड ॥ ७१(क) ॥
सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि । छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोऽपि ॥ ७१(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
जो माया सब जगहि नचावा। जासु चरित लखि काहुँ न पावा ॥ सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा ॥
सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज बिग्यान रूपो बल धामा ॥ ब्यापक ब्याप्य अखंड अनंता। अखिल अमोघसक्ति भगवंता ॥
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सबदरसी अनवद्य अजीता ॥ निर्मम निराकार निरमोहा। नित्य निरंजन सुख संदोहा ॥
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ॥ इहाँ मोह कर कारन नाहीं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ॥
Doha / दोहा
दो. भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप । किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप ॥ ७२(क) ॥
जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ । सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ ॥ ७२(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
असि रघुपति लीला उरगारी। दनुज बिमोहनि जन सुखकारी ॥ जे मति मलिन बिषयबस कामी। प्रभु मोह धरहिं इमि स्वामी ॥
नयन दोष जा कहँ जब होई। पीत बरन ससि कहुँ कह सोई ॥ जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा। सो कह पच्छिम उयउ दिनेसा ॥
नौकारूढ़ चलत जग देखा। अचल मोह बस आपुहि लेखा ॥ बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादीं। कहहिं परस्पर मिथ्याबादी ॥
हरि बिषइक अस मोह बिहंगा। सपनेहुँ नहिं अग्यान प्रसंगा ॥ मायाबस मतिमंद अभागी। हृदयँ जमनिका बहुबिधि लागी ॥
ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अग्यान राम पर धरहीं ॥
Doha / दोहा
दो. काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप । ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप ॥ ७३(क) ॥
निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ । सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ ॥ ७३(ख) ॥
Sign In