ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Chaupai / चोपाई
सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई। कहउँ जथामति कथा सुहाई ॥ जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही ॥
राम कृपा भाजन तुम्ह ताता। हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता ॥ ताते नहिं कछु तुम्हहिं दुरावउँ। परम रहस्य मनोहर गावउँ ॥
सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ ॥ संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना ॥
ताते करहिं कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति भूरी ॥ जिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाई। मातु चिराव कठिन की नाईं ॥
Doha / दोहा
दो. जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर । ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर ॥ ७४(क) ॥
तिमि रघुपति निज दासकर हरहिं मान हित लागि । तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि ॥ ७४(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
राम कृपा आपनि जड़ताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई ॥ जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लील बहु करहीं ॥
तब तब अवधपुरी मैं ज़ाऊँ। बालचरित बिलोकि हरषाऊँ ॥ जन्म महोत्सव देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई ॥
इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा ॥ निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी ॥
लघु बायस बपु धरि हरि संगा। देखउँ बालचरित बहुरंगा ॥
Doha / दोहा
दो. लरिकाईं जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ संग उड़ाउँ । जूठनि परइ अजिर महँ सो उठाइ करि खाउँ ॥ ७५(क) ॥
Chaupai / चोपाई
एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर । सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर ॥ ७५(ख) ॥
कहइ भसुंड सुनहु खगनायक। रामचरित सेवक सुखदायक ॥ नृपमंदिर सुंदर सब भाँती। खचित कनक मनि नाना जाती ॥
बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई। जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई ॥ बालबिनोद करत रघुराई। बिचरत अजिर जननि सुखदाई ॥
मरकत मृदुल कलेवर स्यामा। अंग अंग प्रति छबि बहु कामा ॥ नव राजीव अरुन मृदु चरना। पदज रुचिर नख ससि दुति हरना ॥
ललित अंक कुलिसादिक चारी। नूपुर चारू मधुर रवकारी ॥ चारु पुरट मनि रचित बनाई। कटि किंकिन कल मुखर सुहाई ॥
Doha / दोहा
दो. रेखा त्रय सुन्दर उदर नाभी रुचिर गँभीर । उर आयत भ्राजत बिबिध बाल बिभूषन चीर ॥ ७६ ॥
Chaupai / चोपाई
अरुन पानि नख करज मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर ॥ कंध बाल केहरि दर ग्रीवा। चारु चिबुक आनन छबि सींवा ॥
कलबल बचन अधर अरुनारे। दुइ दुइ दसन बिसद बर बारे ॥ ललित कपोल मनोहर नासा। सकल सुखद ससि कर सम हासा ॥
नील कंज लोचन भव मोचन। भ्राजत भाल तिलक गोरोचन ॥ बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए। कुंचित कच मेचक छबि छाए ॥
पीत झीनि झगुली तन सोही। किलकनि चितवनि भावति मोही ॥ रूप रासि नृप अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी ॥
मोहि सन करहीं बिबिध बिधि क्रीड़ा। बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा ॥ किलकत मोहि धरन जब धावहिं। चलउँ भागि तब पूप देखावहिं ॥
Doha / दोहा
दो. आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं । जाउँ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं ॥ ७७(क) ॥
प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह । कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह ॥ ७७(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
एतना मन आनत खगराया। रघुपति प्रेरित ब्यापी माया ॥ सो माया न दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृत नाहीं ॥
नाथ इहाँ कछु कारन आना। सुनहु सो सावधान हरिजाना ॥ ग्यान अखंड एक सीताबर। माया बस्य जीव सचराचर ॥
जौं सब कें रह ग्यान एकरस। ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस ॥ माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुनखानी ॥
परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता ॥ मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया ॥
Doha / दोहा
दो. रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान । ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान ॥ ७८(क) ॥
राकापति षोड़स उअहिं तारागन समुदाइ ॥ सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ ॥ ७८(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा ॥ हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या ॥
ताते नास न होइ दास कर। भेद भगति भाढ़इ बिहंगबर ॥ भ्रम ते चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा ॥
तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ ॥ जानु पानि धाए मोहि धरना। स्यामल गात अरुन कर चरना ॥
तब मैं भागि चलेउँ उरगामी। राम गहन कहँ भुजा पसारी ॥ जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा। तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा ॥
Doha / दोहा
दो. ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात । जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात ॥ ७९(क) ॥
सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि । गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि ॥ ७९(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
मूदेउँ नयन त्रसित जब भयउँ। पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ ॥ मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं। बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं ॥
उदर माझ सुनु अंडज राया। देखेउँ बहु ब्रह्मांड निकाया ॥ अति बिचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका ॥
कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा। अगनित उडगन रबि रजनीसा ॥ अगनित लोकपाल जम काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला ॥
सागर सरि सर बिपिन अपारा। नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा ॥ सुर मुनि सिद्ध नाग नर किंनर। चारि प्रकार जीव सचराचर ॥
Doha / दोहा
दो. जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ । सो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ ॥ ८०(क) ॥
एक एक ब्रह्मांड महुँ रहउँ बरष सत एक । एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक ॥ ८०(ख) ॥
एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक ॥ ८०(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता। भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता ॥ नर गंधर्ब भूत बेताला। किंनर निसिचर पसु खग ब्याला ॥
देव दनुज गन नाना जाती। सकल जीव तहँ आनहि भाँती ॥ महि सरि सागर सर गिरि नाना। सब प्रपंच तहँ आनइ आना ॥
अंडकोस प्रति प्रति निज रुपा। देखेउँ जिनस अनेक अनूपा ॥ अवधपुरी प्रति भुवन निनारी। सरजू भिन्न भिन्न नर नारी ॥
दसरथ कौसल्या सुनु ताता। बिबिध रूप भरतादिक भ्राता ॥ प्रति ब्रह्मांड राम अवतारा। देखउँ बालबिनोद अपारा ॥
Doha / दोहा
दो. भिन्न भिन्न मै दीख सबु अति बिचित्र हरिजान । अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन ॥ ८१(क) ॥
सोइ सिसुपन सोइ सोभा सोइ कृपाल रघुबीर । भुवन भुवन देखत फिरउँ प्रेरित मोह समीर ॥ ८१(ख)
Chaupai / चोपाई
भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका। बीते मनहुँ कल्प सत एका ॥ फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ। तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ ॥
निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ। निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ ॥ देखउँ जन्म महोत्सव जाई। जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई ॥
राम उदर देखेउँ जग नाना। देखत बनइ न जाइ बखाना ॥ तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना। माया पति कृपाल भगवाना ॥
करउँ बिचार बहोरि बहोरी। मोह कलिल ब्यापित मति मोरी ॥ उभय घरी महँ मैं सब देखा। भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा ॥
Doha / दोहा
दो. देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर । बिहँसतहीं मुख बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर ॥ ८२(क) ॥
Chaupai / चोपाई
सोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम । कोटि भाँति समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम ॥ ८२(ख) ॥
देखि चरित यह सो प्रभुताई। समुझत देह दसा बिसराई ॥ धरनि परेउँ मुख आव न बाता। त्राहि त्राहि आरत जन त्राता ॥
प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी। निज माया प्रभुता तब रोकी ॥ कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ। दीनदयाल सकल दुख हरेऊ ॥
कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा। सेवक सुखद कृपा संदोहा ॥ प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी। मन महँ होइ हरष अति भारी ॥
भगत बछलता प्रभु कै देखी। उपजी मम उर प्रीति बिसेषी ॥ सजल नयन पुलकित कर जोरी। कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी ॥
Doha / दोहा
दो. सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास । बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास ॥ ८३(क) ॥
Chaupai / चोपाई
काकभसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि । अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि ॥ ८३(ख) ॥
ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना। मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना ॥ आजु देउँ सब संसय नाहीं। मागु जो तोहि भाव मन माहीं ॥
सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ। मन अनुमान करन तब लागेऊँ ॥ प्रभु कह देन सकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही ॥
भगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिंजन जैसे ॥ भजन हीन सुख कवने काजा। अस बिचारि बोलेउँ खगराजा ॥
जौं प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू। मो पर करहु कृपा अरु नेहू ॥ मन भावत बर मागउँ स्वामी। तुम्ह उदार उर अंतरजामी ॥
Doha / दोहा
दो. अबिरल भगति बिसुध्द तव श्रुति पुरान जो गाव । जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव ॥ ८४(क) ॥
Chaupai / चोपाई
भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपा सिंधु सुख धाम । सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम ॥ ८४(ख) ॥
एवमस्तु कहि रघुकुलनायक। बोले बचन परम सुखदायक ॥ सुनु बायस तैं सहज सयाना। काहे न मागसि अस बरदाना ॥
सब सुख खानि भगति तैं मागी। नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी ॥ जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं। जे जप जोग अनल तन दहहीं ॥
रीझेउँ देखि तोरि चतुराई। मागेहु भगति मोहि अति भाई ॥ सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें। सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें ॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा ॥ जानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा ॥
Doha / दोहा
दों.माया संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि । जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि ॥ ८५(क) ॥
मोहि भगत प्रिय संतत अस बिचारि सुनु काग । कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग ॥ ८५(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
अब सुनु परम बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी ॥ निज सिद्धांत सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही ॥
मम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा ॥ सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए ॥
तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी ॥ तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी ॥
तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा ॥ पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं ॥
भगति हीन बिरंचि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई ॥ भगतिवंत अति नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी ॥
Doha / दोहा
दो. सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग । श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग ॥ ८६ ॥
Chaupai / चोपाई
एक पिता के बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन सील अचारा ॥ कोउ पंडिंत कोउ तापस ग्याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता ॥
कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम होई ॥ कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा। सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा ॥
सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना। जद्यपि सो सब भाँति अयाना ॥ एहि बिधि जीव चराचर जेते। त्रिजग देव नर असुर समेते ॥
अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया ॥ तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया। भजै मोहि मन बच अरू काया ॥
Doha / दोहा
दो. पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ । सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ ॥ ८७(क) ॥
Sortha / सोरठा
सो. सत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय । अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब ॥ ८७(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
कबहूँ काल न ब्यापिहि तोही। सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही ॥ प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ। तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ ॥
सो सुख जानइ मन अरु काना। नहिं रसना पहिं जाइ बखाना ॥ प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना। कहि किमि सकहिं तिन्हहि नहिं बयना ॥
बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई। लगे करन सिसु कौतुक तेई ॥ सजल नयन कछु मुख करि रूखा। चितइ मातु लागी अति भूखा ॥
देखि मातु आतुर उठि धाई। कहि मृदु बचन लिए उर लाई ॥ गोद राखि कराव पय पाना। रघुपति चरित ललित कर गाना ॥
Sortha / सोरठा
सो. जेहि सुख लागि पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद । अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ संतत मगन ॥ ८८(क) ॥
सोइ सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ । ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति ॥ ८८(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला। देखेउँ बालबिनोद रसाला ॥ राम प्रसाद भगति बर पायउँ। प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ ॥
तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया ॥ यह सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा ॥
निज अनुभव अब कहउँ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा ॥ राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई ॥
जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ॥ प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई ॥
Sortha / सोरठा
सो. बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु । गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु ॥ ८९(क) ॥
कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु । चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ ॥ ८९(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ॥ राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा ॥
बिनु बिग्यान कि समता आवइ। कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ ॥ श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गंध कि पावइ कोई ॥
बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा। जल बिनु रस कि होइ संसारा ॥ सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई ॥
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा ॥ कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा ॥
Doha / दोहा
दो. बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु । राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु ॥ ९०(क) ॥
Sortha / सोरठा
सो. अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल । भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद ॥ ९०(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
निज मति सरिस नाथ मैं गाई। प्रभु प्रताप महिमा खगराई ॥ कहेउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी। यह सब मैं निज नयनन्हि देखी ॥
महिमा नाम रूप गुन गाथा। सकल अमित अनंत रघुनाथा ॥ निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं। निगम सेष सिव पार न पावहिं ॥
तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता। नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता ॥ तिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा ॥
रामु काम सत कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन ॥ सक्र कोटि सत सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा ॥
Doha / दोहा
दो. मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास । ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास ॥ ९१(क) ॥
काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत । धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत ॥ ९१(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला ॥ तीरथ अमित कोटि सम पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन ॥
हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा। सिंधु कोटि सत सम गंभीरा ॥ कामधेनु सत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना ॥
सारद कोटि अमित चतुराई। बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई ॥ बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता। रुद्र कोटि सत सम संहर्ता ॥
धनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना ॥ भार धरन सत कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा ॥
Chanda / छन्द
छं. निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै । जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै ॥
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनिस हरिहि बखानहीं । प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं ॥
Doha / दोहा
दो. रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ । संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ ॥ ९२(क) ॥
Sortha / सोरठा
सो. भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन । तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन ॥ ९२(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए। हरषित खगपति पंख फुलाए ॥ नयन नीर मन अति हरषाना। श्रीरघुपति प्रताप उर आना ॥
पाछिल मोह समुझि पछिताना। ब्रह्म अनादि मनुज करि माना ॥ पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा। जानि राम सम प्रेम बढ़ावा ॥
गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई ॥ संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता ॥
तव सरूप गारुड़ि रघुनायक। मोहि जिआयउ जन सुखदायक ॥ तव प्रसाद मम मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना ॥
Doha / दोहा
दो. ताहि प्रसंसि बिबिध बिधि सीस नाइ कर जोरि । बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि ॥ ९३(क) ॥
प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि । कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि ॥ ९३(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
तुम्ह सर्बग्य तन्य तम पारा। सुमति सुसील सरल आचारा ॥ ग्यान बिरति बिग्यान निवासा। रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा ॥
कारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई ॥ राम चरित सर सुंदर स्वामी। पायहु कहाँ कहहु नभगामी ॥
नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं। महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं ॥ मुधा बचन नहिं ईस्वर कहई। सोउ मोरें मन संसय अहई ॥
अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा ॥ अंड कटाह अमित लय कारी। कालु सदा दुरतिक्रम भारी ॥
Sortha / सोरठा
सो. तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन । मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल ॥ ९४(क) ॥
Doha / दोहा
दो. प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग । कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग ॥ ९४(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा। बोलेउ उमा परम अनुरागा ॥ धन्य धन्य तव मति उरगारी। प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी ॥
सुनि तव प्रस्न सप्रेम सुहाई। बहुत जनम कै सुधि मोहि आई ॥ सब निज कथा कहउँ मैं गाई। तात सुनहु सादर मन लाई ॥
जप तप मख सम दम ब्रत दाना। बिरति बिबेक जोग बिग्याना ॥ सब कर फल रघुपति पद प्रेमा। तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा ॥
एहि तन राम भगति मैं पाई। ताते मोहि ममता अधिकाई ॥ जेहि तें कछु निज स्वारथ होई। तेहि पर ममता कर सब कोई ॥
Sortha / सोरठा
सो. पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं । अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित ॥ ९५(क) ॥
पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर । कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम ॥ ९५(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा। मन क्रम बचन राम पद नेहा ॥
सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा। जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा ॥ राम बिमुख लहि बिधि सम देही। कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही ॥
राम भगति एहिं तन उर जामी। ताते मोहि परम प्रिय स्वामी ॥ तजउँ न तन निज इच्छा मरना। तन बिनु बेद भजन नहिं बरना ॥
प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा। राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा ॥ नाना जनम कर्म पुनि नाना। किए जोग जप तप मख दाना ॥
कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीं। मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं ॥ देखेउँ करि सब करम गोसाई। सुखी न भयउँ अबहिं की नाई ॥
सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी। सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी ॥
Doha / दोहा
दो. प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस । सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस ॥ ९६(क) ॥
पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल ॥ नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल ॥ ९६(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
तेहि कलिजुग कोसलपुर जाई। जन्मत भयउँ सूद्र तनु पाई ॥ सिव सेवक मन क्रम अरु बानी। आन देव निंदक अभिमानी ॥
धन मद मत्त परम बाचाला। उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला ॥ जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी। तदपि न कछु महिमा तब जानी ॥
अब जाना मैं अवध प्रभावा। निगमागम पुरान अस गावा ॥ कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई। राम परायन सो परि होई ॥
अवध प्रभाव जान तब प्रानी। जब उर बसहिं रामु धनुपानी ॥ सो कलिकाल कठिन उरगारी। पाप परायन सब नर नारी ॥
Doha / दोहा
दो. कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ । दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ ॥ ९७(क) ॥
भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म । सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म ॥ ९७(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी ॥ द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन ॥
मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा ॥ मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहुँ संत कहइ सब कोई ॥
सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी ॥ जौ कह झूँठ मसखरी जाना। कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना ॥
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी ॥ जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला ॥
Doha / दोहा
दो. असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं । तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं ॥ ९८(क) ॥
Sortha / सोरठा
सो. जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ । मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ ॥ ९८(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
नारि बिबस नर सकल गोसाई। नाचहिं नट मर्कट की नाई ॥ सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना ॥
सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी ॥ गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी ॥
सौभागिनीं बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिंगार नबीना ॥ गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा ॥
हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई ॥ मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं ॥
Doha / दोहा
दो. ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात । कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात ॥ ९९(क) ॥
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि । जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि ॥ ९९(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
पर त्रिय लंपट कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने ॥ तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखा में चरित्र कलिजुग कर ॥
आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं ॥ कल्प कल्प भरि एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका ॥
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा ॥ नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासी ॥
ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं ॥ बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी ॥
सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना ॥ सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा ॥
Doha / दोहा
दो. भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग । करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग ॥ १००(क) ॥
श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक । तेहि न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक ॥ १००(ख) ॥
Chanda / छन्द
छं. बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती ॥ तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही ॥
कुलवंति निकारहिं नारि सती। गृह आनिहिं चेरी निबेरि गती ॥ सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं ॥
ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपरूप कुटुंब भए तब तें ॥ नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं ॥
धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी ॥ नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो।
कबि बृंद उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोऽपि गुनी ॥ कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै ॥
Doha / दोहा
दो. सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड । मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड ॥ १०१(क) ॥
तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत मख दान । देव न बरषहिं धरनीं बए न जामहिं धान ॥ १०१(ख) ॥
Chanda / छन्द
छं. अबला कच भूषन भूरि छुधा। धनहीन दुखी ममता बहुधा ॥ सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता ॥ १ ॥
नर पीड़ित रोग न भोग कहीं। अभिमान बिरोध अकारनहीं ॥ लघु जीवन संबतु पंच दसा। कलपांत न नास गुमानु असा ॥ २ ॥
कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा । नहिं तोष बिचार न सीतलता। सब जाति कुजाति भए मगता ॥ ३ ॥
इरिषा परुषाच्छर लोलुपता। भरि पूरि रही समता बिगता ॥ सब लोग बियोग बिसोक हुए। बरनाश्रम धर्म अचार गए ॥ ४ ॥
दम दान दया नहिं जानपनी। जड़ता परबंचनताति घनी ॥ तनु पोषक नारि नरा सगरे। परनिंदक जे जग मो बगरे ॥ ५ ॥
Doha / दोहा
दो. सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार । गुनउँ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार ॥ १०२(क) ॥
कृतजुग त्रेता द्वापर पूजा मख अरु जोग । जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग ॥ १०२(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी ॥ त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं ॥
द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा ॥ कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा ॥
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना ॥ सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि ॥
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं ॥ कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा ॥
Doha / दोहा
दो. कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास । गाइ राम गुन गन बिमलँ भव तर बिनहिं प्रयास ॥ १०३(क) ॥
प्रगट चारि पद धर्म के कलिल महुँ एक प्रधान । जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान ॥ १०३(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
नित जुग धर्म होहिं सब केरे। हृदयँ राम माया के प्रेरे ॥ सुद्ध सत्व समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना ॥
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा। सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा ॥ बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस ॥
तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा ॥ बुध जुग धर्म जानि मन माहीं। तजि अधर्म रति धर्म कराहीं ॥
काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही ॥ नट कृत बिकट कपट खगराया। नट सेवकहि न ब्यापइ माया ॥
Doha / दोहा
दो. हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं । भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं ॥ १०४(क) ॥
तेहि कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस । परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस ॥ १०४(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
गयउँ उजेनी सुनु उरगारी। दीन मलीन दरिद्र दुखारी ॥ गएँ काल कछु संपति पाई। तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई ॥
बिप्र एक बैदिक सिव पूजा। करइ सदा तेहि काजु न दूजा ॥ परम साधु परमारथ बिंदक। संभु उपासक नहिं हरि निंदक ॥
तेहि सेवउँ मैं कपट समेता। द्विज दयाल अति नीति निकेता ॥ बाहिज नम्र देखि मोहि साईं। बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाईं ॥
संभु मंत्र मोहि द्विजबर दीन्हा। सुभ उपदेस बिबिध बिधि कीन्हा ॥ जपउँ मंत्र सिव मंदिर जाई। हृदयँ दंभ अहमिति अधिकाई ॥
Doha / दोहा
दो. मैं खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह । हरि जन द्विज देखें जरउँ करउँ बिष्नु कर द्रोह ॥ १०५(क) ॥
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