ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Doha / दोहा
दो. -सुनि बिनती सर्बग्य सिव देखि ब्रिप्र अनुरागु । पुनि मंदिर नभबानी भइ द्विजबर बर मागु ॥ १०८(क) ॥
जौं प्रसन्न प्रभु मो पर नाथ दीन पर नेहु । निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु ॥ १०८(ख) ॥
तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान । तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपा सिंधु भगवान ॥ १०८(ग) ॥
संकर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल । साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल ॥ १०८(घ) ॥
Chaupai / चोपाई
एहि कर होइ परम कल्याना। सोइ करहु अब कृपानिधाना ॥ बिप्रगिरा सुनि परहित सानी। एवमस्तु इति भइ नभबानी ॥
जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा। मैं पुनि दीन्ह कोप करि सापा ॥ तदपि तुम्हार साधुता देखी। करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी ॥
छमासील जे पर उपकारी। ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी ॥ मोर श्राप द्विज ब्यर्थ न जाइहि। जन्म सहस अवस्य यह पाइहि ॥
जनमत मरत दुसह दुख होई। अहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई ॥ कवनेउँ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना। सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना ॥
रघुपति पुरीं जन्म तब भयऊ। पुनि तैं मम सेवाँ मन दयऊ ॥ पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें। राम भगति उपजिहि उर तोरें ॥
सुनु मम बचन सत्य अब भाई। हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई ॥ अब जनि करहि बिप्र अपमाना। जानेहु संत अनंत समाना ॥
इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला। कालदंड हरि चक्र कराला ॥ जो इन्ह कर मारा नहिं मरई। बिप्रद्रोह पावक सो जरई ॥
अस बिबेक राखेहु मन माहीं। तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥ औरउ एक आसिषा मोरी। अप्रतिहत गति होइहि तोरी ॥
Doha / दोहा
दो. सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि । मोहि प्रबोधि गयउ गृह संभु चरन उर राखि ॥ १०९(क) ॥
प्रेरित काल बिधि गिरि जाइ भयउँ मैं ब्याल । पुनि प्रयास बिनु सो तनु जजेउँ गएँ कछु काल ॥ १०९(ख) ॥
जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि अनायास हरिजान । जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ पुरान ॥ १०९(ग) ॥
सिवँ राखी श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस । एहि बिधि धरेउँ बिबिध तनु ग्यान न गयउ खगेस ॥ १०९(घ) ॥
Chaupai / चोपाई
त्रिजग देव नर जोइ तनु धरउँ। तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ ॥ एक सूल मोहि बिसर न काऊ। गुर कर कोमल सील सुभाऊ ॥
चरम देह द्विज कै मैं पाई। सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई ॥ खेलउँ तहूँ बालकन्ह मीला। करउँ सकल रघुनायक लीला ॥
प्रौढ़ भएँ मोहि पिता पढ़ावा। समझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा ॥ मन ते सकल बासना भागी। केवल राम चरन लय लागी ॥
कहु खगेस अस कवन अभागी। खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी ॥ प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई। हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई ॥
भए कालबस जब पितु माता। मैं बन गयउँ भजन जनत्राता ॥ जहँ जहँ बिपिन मुनीस्वर पावउँ। आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ ॥
बूझत तिन्हहि राम गुन गाहा। कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा ॥ सुनत फिरउँ हरि गुन अनुबादा। अब्याहत गति संभु प्रसादा ॥
छूटी त्रिबिध ईषना गाढ़ी। एक लालसा उर अति बाढ़ी ॥ राम चरन बारिज जब देखौं। तब निज जन्म सफल करि लेखौं ॥
जेहि पूँछउँ सोइ मुनि अस कहई। ईस्वर सर्ब भूतमय अहई ॥ निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई। सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई ॥
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