ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Doha / दोहा
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप । मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप ॥ ११४(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं ॥ ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी ॥
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई ॥ ते सठ महासिंधु बिनु तरनी। पैरि पार चाहहिं जड़ करनी ॥
सुनि भसुंडि के बचन भवानी। बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी ॥ तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीं ॥
सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा। तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा ॥ एक बात प्रभु पूँछउँ तोही। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही ॥
कहहिं संत मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना ॥ सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं। नहिं आदरेहु भगति की नाईं ॥
ग्यानहि भगतिहि अंतर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता ॥ सुनि उरगारि बचन सुख माना। सादर बोलेउ काग सुजाना ॥
भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा ॥ नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर। सावधान सोउ सुनु बिहंगबर ॥
ग्यान बिराग जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना ॥ पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती ॥
Doha / दोहा
दो. -पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर ॥ न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर ॥ ११५(क) ॥
Sortha / सोरठा
सो. सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि । बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट ॥ ११५(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ। बेद पुरान संत मत भाषउँ ॥ मोह न नारि नारि कें रूपा। पन्नगारि यह रीति अनूपा ॥
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ। नारि बर्ग जानइ सब कोऊ ॥ पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी ॥
भगतिहि सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया ॥ राम भगति निरुपम निरुपाधी। बसइ जासु उर सदा अबाधी ॥
तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई ॥ अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी। जाचहीं भगति सकल सुख खानी ॥
Doha / दोहा
दो. यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ । जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ ॥ ११६(क) ॥
औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन । जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन ॥ ११६(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी ॥ ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी ॥
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाई ॥ जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥
तब ते जीव भयउ संसारी। छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी ॥ श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई ॥
जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी ॥ अस संजोग ईस जब करई। तबहुँ कदाचित सो निरुअरई ॥
सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई ॥ जप तप ब्रत जम नियम अपारा। जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा ॥
तेइ तृन हरित चरै जब गाई। भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई ॥ नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा ॥
परम धर्ममय पय दुहि भाई। अवटै अनल अकाम बिहाई ॥ तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै। धृति सम जावनु देइ जमावै ॥
मुदिताँ मथैं बिचार मथानी। दम अधार रजु सत्य सुबानी ॥ तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता ॥
Doha / दोहा
दो. जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ । बुद्धि सिरावैं ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ ॥ ११७(क) ॥
तब बिग्यानरूपिनि बुद्धि बिसद घृत पाइ । चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ ॥ ११७(ख) ॥
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि । तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि ॥ ११७(ग) ॥
Sortha / सोरठा
सो. एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय ॥ जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब ॥ ११७(घ) ॥
Chaupai / चोपाई
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा ॥ आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा ॥
प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तम मिटइ अपारा ॥ तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा। उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा ॥
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई ॥ छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्न अनेक करइ तब माया ॥
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई ॥ कल बल छल करि जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा ॥
होइ बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी ॥ जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी ॥
इंद्रीं द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना ॥ आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देही कपाट उघारी ॥
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई ॥ ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा ॥
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई ॥ बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी ॥
Doha / दोहा
दो. तब फिरि जीव बिबिध बिधि पावइ संसृति क्लेस । हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस ॥ ११८(क) ॥
कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन बिबेक । होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक ॥ ११८(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा ॥ जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई ॥
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद ॥ राम भजत सोइ मुकुति गोसाई। अनइच्छित आवइ बरिआई ॥
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई ॥ तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ॥
अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने ॥ भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा ॥
भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी ॥ असि हरिभगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई ॥
Doha / दोहा
दो. सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि ॥ भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि ॥ ११९(क) ॥
जो चेतन कहँ ज़ड़ करइ ज़ड़हि करइ चैतन्य । अस समर्थ रघुनायकहिं भजहिं जीव ते धन्य ॥ ११९(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई। सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई ॥ राम भगति चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर ॥
परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती ॥ मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा ॥
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई ॥ खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं ॥
गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई ॥ ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस सब जीव दुखारी ॥
राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें ॥ चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं ॥
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई। राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई ॥ सुगम उपाय पाइबे केरे। नर हतभाग्य देहिं भटमेरे ॥
पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना ॥ मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी ॥
भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी ॥ मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा ॥
राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा ॥ सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई ॥
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा ॥
Doha / दोहा
दो. ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं । कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं ॥ १२०(क) ॥
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि । जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि ॥ १२०(ख) ॥
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