ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Chaupai / चोपाई
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ ॥ नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न कहहु बखानी ॥
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा ॥ बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी ॥
संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु ॥ कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला ॥
मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई ॥ तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती ॥
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही ॥ नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी ॥
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर ॥ काँच किरिच बदलें ते लेही। कर ते डारि परस मनि देहीं ॥
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं ॥ पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया ॥
संत सहहिं दुख परहित लागी। परदुख हेतु असंत अभागी ॥ भूर्ज तरू सम संत कृपाला। परहित निति सह बिपति बिसाला ॥
सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई ॥ खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी ॥
पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं ॥ दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू ॥
संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी ॥ परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा ॥
हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्र पाव तन सोई ॥ द्विज निंदक बहु नरक भोगकरि। जग जनमइ बायस सरीर धरि ॥
सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी ॥ होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत ॥
सब के निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं ॥ सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा ॥
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला ॥ काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा ॥
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई ॥ बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना ॥
ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई ॥ पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई ॥
अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ ॥ तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी ॥
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका ॥
Doha / दोहा
दो. एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि । पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि ॥ १२१(क) ॥
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान । भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान ॥ १२१(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी ॥ मानक रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए ॥
जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी ॥ बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे ॥
राम कृपाँ नासहि सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संयोगा ॥ सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा ॥
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