ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Chaupai / चोपाई
पूछिहुँ राम कथा अति पावनि। सुक सनकादि संभु मन भावनि ॥ सत संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा ॥
देखु गरुड़ निज हृदयँ बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी ॥ सकुनाधम सब भाँति अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन ॥
Doha / दोहा
दो. आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन । निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन ॥ १२३(क) ॥
नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ । चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ ॥ १२३ ॥
Chaupai / चोपाई
सुमिरि राम के गुन गन नाना। पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना ॥ महिमा निगम नेति करि गाई। अतुलित बल प्रताप प्रभुताई ॥
सिव अज पूज्य चरन रघुराई। मो पर कृपा परम मृदुलाई ॥ अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ। केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ ॥
साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी ॥ जोगी सूर सुतापस ग्यानी। धर्म निरत पंडित बिग्यानी ॥
तरहिं न बिनु सीँ मम स्वामी। राम नमामि नमामि नमामी ॥ सरन गएँ मो से अघ रासी। होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी ॥
Doha / दोहा
दो. जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल । सो कृपालु मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल ॥ १२४(क) ॥
सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह । बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत संदेह ॥ १२४(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
मै कृत्कृत्य भयउँ तव बानी। सुनि रघुबीर भगति रस सानी ॥ राम चरन नूतन रति भई। माया जनित बिपति सब गई ॥
मोह जलधि बोहित तुम्ह भए। मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए ॥ मो पहिं होइ न प्रति उपकारा। बंदउँ तव पद बारहिं बारा ॥
पूरन काम राम अनुरागी। तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी ॥ संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी ॥
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना ॥ निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता ॥
जीवन जन्म सुफल मम भयऊ। तव प्रसाद संसय सब गयऊ ॥ जानेहु सदा मोहि निज किंकर। पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर ॥
Doha / दोहा
दो. तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर । गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर ॥ १२५(क) ॥
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन । बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान ॥ १२५(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
कहेउँ परम पुनीत इतिहासा। सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा ॥ प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा। उपजइ प्रीति राम पद कंजा ॥
मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई ॥ तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई ॥
नाना कर्म धर्म ब्रत दाना। संजम दम जप तप मख नाना ॥ भूत दया द्विज गुर सेवकाई। बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई ॥
जहँ लगि साधन बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी ॥ सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई। राम कृपाँ काहूँ एक पाई ॥
Doha / दोहा
दो. मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास । जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास ॥ १२६ ॥
Chaupai / चोपाई
सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता। सोइ महि मंडित पंडित दाता ॥ धर्म परायन सोइ कुल त्राता। राम चरन जा कर मन राता ॥
नीति निपुन सोइ परम सयाना। श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना ॥ सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा ॥
धन्य देस सो जहँ सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी ॥ धन्य सो भूपु नीति जो करई। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई ॥
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी ॥ धन्य घरी सोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा ॥
दो. सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत । श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत ॥ १२७ ॥
मति अनुरूप कथा मैं भाषी। जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी ॥ तव मन प्रीति देखि अधिकाई। तब मैं रघुपति कथा सुनाई ॥
यह न कहिअ सठही हठसीलहि। जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि ॥ कहिअ न लोभिहि क्रोधहि कामिहि। जो न भजइ सचराचर स्वामिहि ॥
द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ। सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ ॥ राम कथा के तेइ अधिकारी। जिन्ह कें सतसंगति अति प्यारी ॥
गुर पद प्रीति नीति रत जेई। द्विज सेवक अधिकारी तेई ॥ ता कहँ यह बिसेष सुखदाई। जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई ॥
Doha / दोहा
दो. राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान । भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान ॥ १२८ ॥
Chaupai / चोपाई
राम कथा गिरिजा मैं बरनी। कलि मल समनि मनोमल हरनी ॥ संसृति रोग सजीवन मूरी। राम कथा गावहिं श्रुति सूरी ॥
एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना। रघुपति भगति केर पंथाना ॥ अति हरि कृपा जाहि पर होई। पाउँ देइ एहिं मारग सोई ॥
मन कामना सिद्धि नर पावा। जे यह कथा कपट तजि गावा ॥ कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं ॥
सुनि सब कथा हृदयँ अति भाई। गिरिजा बोली गिरा सुहाई ॥ नाथ कृपाँ मम गत संदेहा। राम चरन उपजेउ नव नेहा ॥
Doha / दोहा
दो. मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस । उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस ॥ १२९ ॥
Chaupai / चोपाई
यह सुभ संभु उमा संबादा। सुख संपादन समन बिषादा ॥ भव भंजन गंजन संदेहा। जन रंजन सज्जन प्रिय एहा ॥
राम उपासक जे जग माहीं। एहि सम प्रिय तिन्ह के कछु नाहीं ॥ रघुपति कृपाँ जथामति गावा। मैं यह पावन चरित सुहावा ॥
एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा ॥ रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि ॥
जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना ॥ ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई ॥
Chanda / छन्द
छं. पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना । गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना ॥
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे । कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥ १ ॥
रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं । कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं ॥
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै । दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्रीरघुबर हरै ॥ २ ॥
सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो । सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को ॥
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ । पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ ॥ ३ ॥
Doha / दोहा
दो. मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर । अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ॥ १३०(क) ॥
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम । तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ॥ १३०(ख) ॥
Shloka / श्लोक्
श्लोक-यत्पूर्व प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्।
मत्वा तद्रघुनाथमनिरतं स्वान्तस्तमःशान्तये भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम् ॥ १ ॥
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ॥ २ ॥
Uttara Kanda Ends / उत्तर काण्ड समपूर्णम्
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने सप्तमः सोपानः समाप्तः।
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