ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Chaupai / चोपाई
अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई ॥ राम कहा सेवकन्ह बुलाई। प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई ॥
सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए। सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए ॥ पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे। निज कर राम जटा निरुआरे ॥
अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई। भगत बछल कृपाल रघुराई ॥ भरत भाग्य प्रभु कोमलताई। सेष कोटि सत सकहिं न गाई ॥
पुनि निज जटा राम बिबराए। गुर अनुसासन मागि नहाए ॥ करि मज्जन प्रभु भूषन साजे। अंग अनंग देखि सत लाजे ॥
Doha / दोहा
दो. सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ । दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ ॥ ११(क) ॥
राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि । देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि ॥ ११(ख) ॥
सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद । चढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद ॥ ११(ग) ॥
Chaupai / चोपाई
प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा। तुरत दिब्य सिंघासन मागा ॥ रबि सम तेज सो बरनि न जाई। बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई ॥
जनकसुता समेत रघुराई। पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई ॥ बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे। नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे ॥
प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा ॥ सुत बिलोकि हरषीं महतारी। बार बार आरती उतारी ॥
बिप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे। जाचक सकल अजाचक कीन्हे ॥ सिंघासन पर त्रिभुअन साई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं ॥
Chanda / छन्द
छं. नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं । नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं ॥
भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते । गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते ॥ १ ॥
श्री सहित दिनकर बंस बूषन काम बहु छबि सोहई । नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई ॥
मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे । अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे ॥ २ ॥
Doha / दोहा
दो. वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस । बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस ॥ १२(क) ॥
भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम । बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम ॥ १२(ख) ॥
प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान । लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान ॥ १२(ग) ॥
Chanda / छन्द
छं. जय सगुन निर्गुन रूप अनूप भूप सिरोमने । दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने ॥
अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे । जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे ॥ १ ॥
तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे । भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे ॥
जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे । भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे ॥ २ ॥
जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी । ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी ॥
बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे । जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे ॥ ३ ॥
जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी । नख निर्गता मुनि बंदिता त्रेलोक पावनि सुरसरी ॥
ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे । पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे ॥ ४ ॥
अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने । षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने ॥
फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे । पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे ॥ ५ ॥
जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं । ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं ॥
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं । मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं ॥ ६ ॥
Doha / दोहा
दो. सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार । अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार ॥ १३(क) ॥
बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर । बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर ॥ १३(ख) ॥
Chanda / छन्द
छं. जय राम रमारमनं समनं। भव ताप भयाकुल पाहि जनं ॥ अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो ॥ १ ॥
दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा ॥ रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे ॥ २ ॥
महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं ॥ मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी ॥ ३ ॥
मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए ॥ हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे ॥ ४ ॥
बहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए ॥ भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते ॥ ५ ॥
अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं ॥ अवलंब भवंत कथा जिन्ह के ॥ प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें ॥ ६ ॥
नहिं राग न लोभ न मान मदा ॥ तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा ॥ एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ॥ ७ ॥
करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ ॥ सम मानि निरादर आदरही। सब संत सुखी बिचरंति मही ॥ ८ ॥
मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे ॥ तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी ॥ ९ ॥
गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं ॥ रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं ॥ १० ॥
Doha / दोहा
दो. बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग । पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ॥ १४(क) ॥
बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास । तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास ॥ १४(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
सुनु खगपति यह कथा पावनी। त्रिबिध ताप भव भय दावनी ॥ महाराज कर सुभ अभिषेका। सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका ॥
जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं। सुख संपति नाना बिधि पावहिं ॥ सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं। अंतकाल रघुपति पुर जाहीं ॥
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई ॥ खगपति राम कथा मैं बरनी। स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी ॥
बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी। मोह नदी कहँ सुंदर तरनी ॥ नित नव मंगल कौसलपुरी। हरषित रहहिं लोग सब कुरी ॥
नित नइ प्रीति राम पद पंकज। सबकें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज ॥ मंगन बहु प्रकार पहिराए। द्विजन्ह दान नाना बिधि पाए ॥
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