ॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ श्री गणेशाय नमः
Doha / दोहा
दो. ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति । जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति ॥ १५ ॥
Chaupai / चोपाई
बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं। जिमि परद्रोह संत मन माही ॥ तब रघुपति सब सखा बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिरु नाए ॥
परम प्रीति समीप बैठारे। भगत सुखद मृदु बचन उचारे ॥ तुम्ह अति कीन्ह मोरि सेवकाई। मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई ॥
ताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे। मम हित लागि भवन सुख त्यागे ॥ अनुज राज संपति बैदेही। देह गेह परिवार सनेही ॥
सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना। मृषा न कहउँ मोर यह बाना ॥ सब के प्रिय सेवक यह नीती। मोरें अधिक दास पर प्रीती ॥
Doha / दोहा
दो. अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम । सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम ॥ १६ ॥
Chaupai / चोपाई
सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। को हम कहाँ बिसरि तन गए ॥ एकटक रहे जोरि कर आगे। सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे ॥
परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा। कहा बिबिध बिधि ग्यान बिसेषा ॥ प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं। पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं ॥
तब प्रभु भूषन बसन मगाए। नाना रंग अनूप सुहाए ॥ सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए ॥
प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए। लंकापति रघुपति मन भाए ॥ अंगद बैठ रहा नहिं डोला। प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला ॥
Doha / दोहा
दो. जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ । हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ ॥ १७(क) ॥
तब अंगद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि । अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि ॥ १७(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो। दीन दयाकर आरत बंधो ॥ मरती बेर नाथ मोहि बाली। गयउ तुम्हारेहि कोंछें घाली ॥
असरन सरन बिरदु संभारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी ॥ मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता ॥
तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा। प्रभु तजि भवन काज मम काहा ॥ बालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना ॥
नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ। पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ ॥ अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही ॥
Doha / दोहा
दो. अंगद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव । प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव ॥ १८(क) ॥
निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ । बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ ॥ १८(ख) ॥
Chaupai / चोपाई
भरत अनुज सौमित्र समेता। पठवन चले भगत कृत चेता ॥ अंगद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा। फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा ॥
बार बार कर दंड प्रनामा। मन अस रहन कहहिं मोहि रामा ॥ राम बिलोकनि बोलनि चलनी। सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी ॥
प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी। चलेउ हृदयँ पद पंकज राखी ॥ अति आदर सब कपि पहुँचाए। भाइन्ह सहित भरत पुनि आए ॥
तब सुग्रीव चरन गहि नाना। भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना ॥ दिन दस करि रघुपति पद सेवा। पुनि तव चरन देखिहउँ देवा ॥
पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा। सेवहु जाइ कृपा आगारा ॥ अस कहि कपि सब चले तुरंता। अंगद कहइ सुनहु हनुमंता ॥
Doha / दोहा
दो. कहेहु दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि । बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि ॥ १९(क) ॥
अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमंत । तासु प्रीति प्रभु सन कहि मगन भए भगवंत ॥ !९(ख) ॥
कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि । चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि ॥ १९(ग) ॥
Chaupai / चोपाई
पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा। दीन्हे भूषन बसन प्रसादा ॥ जाहु भवन मम सुमिरन करेहू। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू ॥
तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता ॥ बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी ॥
चरन नलिन उर धरि गृह आवा। प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा ॥ रघुपति चरित देखि पुरबासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी ॥
राम राज बैंठें त्रेलोका। हरषित भए गए सब सोका ॥ बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई ॥
Doha / दोहा
दो. बरनाश्रम निज निज धरम बनिरत बेद पथ लोग । चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग ॥ २० ॥
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