Ram Charita Manas

Complete Uttara Kanda

ॐ श्री परमात्मने नमः

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Uttara Kanda Begins / अथ उत्तर काण्ड


श्रीरामचरितमानस सप्तम सोपान (उत्तरकाण्ड)



Mangalashloka / मंगलश्लोक्


केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्।पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम् ॥ १ ॥


कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ । जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृङ्गसड्गिनौ ॥ २ ॥


कुन्दइन्दुदरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम् । कारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शंकरमनंगमोचनम् ॥ ३ ॥



Doha / दोहा


दो. रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग । जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग ॥



Chaupai / चोपाई


सगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन्न सब केर । प्रभु आगवन जनाव जनु नगर रम्य चहुँ फेर ॥


कौसल्यादि मातु सब मन अनंद अस होइ। आयउ प्रभु श्री अनुज जुत कहन चहत अब कोइ ॥


भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार। जानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार ॥


रहेउ एक दिन अवधि अधारा। समुझत मन दुख भयउ अपारा ॥ कारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ ॥


अहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंदु अनुरागी ॥ कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा ॥


जौं करनी समुझै प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलप सत कोरी ॥ जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ ॥


मोरि जियँ भरोस दृढ़ सोई। मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई ॥ बीतें अवधि रहहि जौं प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना ॥



Doha / दोहा


दो. राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत । बिप्र रूप धरि पवन सुत आइ गयउ जनु पोत ॥ १(क) ॥



Chaupai / चोपाई


बैठि देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात। राम राम रघुपति जपत स्त्रवत नयन जलजात ॥ १(ख) ॥


देखत हनूमान अति हरषेउ। पुलक गात लोचन जल बरषेउ ॥ मन महँ बहुत भाँति सुख मानी। बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी ॥


जासु बिरहँ सोचहु दिन राती। रटहु निरंतर गुन गन पाँती ॥ रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता। आयउ कुसल देव मुनि त्राता ॥


रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत ॥ सुनत बचन बिसरे सब दूखा। तृषावंत जिमि पाइ पियूषा ॥


को तुम्ह तात कहाँ ते आए। मोहि परम प्रिय बचन सुनाए ॥ मारुत सुत मैं कपि हनुमाना। नामु मोर सुनु कृपानिधाना ॥


दीनबंधु रघुपति कर किंकर। सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर ॥ मिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता। नयन स्त्रवत जल पुलकित गाता ॥


कपि तव दरस सकल दुख बीते। मिले आजु मोहि राम पिरीते ॥ बार बार बूझी कुसलाता। तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता ॥


एहि संदेस सरिस जग माहीं। करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं ॥ नाहिन तात उरिन मैं तोही। अब प्रभु चरित सुनावहु मोही ॥


तब हनुमंत नाइ पद माथा। कहे सकल रघुपति गुन गाथा ॥ कहु कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं। सुमिरहिं मोहि दास की नाईं ॥



Chanda / छन्द


छं. निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर् यो । सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकित तन चरनन्हि पर् यो ॥


रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो । काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंधु सो ॥



Doha / दोहा


दो. राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात । पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात ॥ २(क) ॥



Sortha / सोरठा


सो. भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं । कही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि ॥ २(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


हरषि भरत कोसलपुर आए। समाचार सब गुरहि सुनाए ॥ पुनि मंदिर महँ बात जनाई। आवत नगर कुसल रघुराई ॥


सुनत सकल जननीं उठि धाईं। कहि प्रभु कुसल भरत समुझाई ॥ समाचार पुरबासिंह पाए। नर अरु नारि हरषि सब धाए ॥


दधि दुर्बा रोचन फल फूला। नव तुलसी दल मंगल मूला ॥ भरि भरि हेम थार भामिनी। गावत चलिं सिंधु सिंधुरगामिनी ॥


जे जैसेहिं तैसेहिं उटि धावहिं। बाल बृद्ध कहँ संग न लावहिं ॥ एक एकन्ह कहँ बूझहिं भाई। तुम्ह देखे दयाल रघुराई ॥


अवधपुरी प्रभु आवत जानी। भई सकल सोभा कै खानी ॥ बहइ सुहावन त्रिबिध समीरा। भइ सरजू अति निर्मल नीरा ॥



Doha / दोहा


दो. हरषित गुर परिजन अनुज भूसुर बृंद समेत । चले भरत मन प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत ॥ ३(क) ॥


बहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान । देखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमंगल गान ॥ ३(ख) ॥


राका ससि रघुपति पुर सिंधु देखि हरषान । बढ़यो कोलाहल करत जनु नारि तरंग समान ॥ ३(ग) ॥



Chaupai / चोपाई


इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर। कपिन्ह देखावत नगर मनोहर ॥ सुनु कपीस अंगद लंकेसा। पावन पुरी रुचिर यह देसा ॥


जद्यपि सब बैकुंठ बखाना। बेद पुरान बिदित जगु जाना ॥ अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ ॥


जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि ॥ जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा ॥


अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी ॥ हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी ॥



Doha / दोहा


दो. आवत देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान । नगर निकट प्रभु प्रेरेउ उतरेउ भूमि बिमान ॥ ४(क) ॥


उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहि तुम्ह कुबेर पहिं जाहु । प्रेरित राम चलेउ सो हरषु बिरहु अति ताहु ॥ ४(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


आए भरत संग सब लोगा। कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा ॥ बामदेव बसिष्ठ मुनिनायक। देखे प्रभु महि धरि धनु सायक ॥


धाइ धरे गुर चरन सरोरुह। अनुज सहित अति पुलक तनोरुह ॥ भेंटि कुसल बूझी मुनिराया। हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया ॥


सकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा। धर्म धुरंधर रघुकुलनाथा ॥ गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज। नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज ॥


परे भूमि नहिं उठत उठाए। बर करि कृपासिंधु उर लाए ॥ स्यामल गात रोम भए ठाढ़े। नव राजीव नयन जल बाढ़े ॥



Chanda / छन्द


छं. राजीव लोचन स्त्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी । अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी ॥


प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही । जनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही ॥ १ ॥


बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई । सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई ॥


अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो । बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो ॥ २ ॥



Doha / दोहा


दो. पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ लगाइ । लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ ॥ ५ ॥



Chaupai / चोपाई


भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे। दुसह बिरह संभव दुख मेटे ॥ सीता चरन भरत सिरु नावा। अनुज समेत परम सुख पावा ॥


प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी। जनित बियोग बिपति सब नासी ॥ प्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी ॥


अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला ॥ कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी ॥


छन महिं सबहि मिले भगवाना। उमा मरम यह काहुँ न जाना ॥ एहि बिधि सबहि सुखी करि रामा। आगें चले सील गुन धामा ॥


कौसल्यादि मातु सब धाई। निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई ॥



Chanda / छन्द


छं. जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गईं । दिन अंत पुर रुख स्त्रवत थन हुंकार करि धावत भई ॥


अति प्रेम सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे । गइ बिषम बियोग भव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे ॥



Doha / दोहा


दो. भेटेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि । रामहि मिलत कैकेई हृदयँ बहुत सकुचानि ॥ ६(क) ॥


लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ । कैकेइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ ॥ ६ ॥



Chaupai / चोपाई


सासुन्ह सबनि मिली बैदेही। चरनन्हि लागि हरषु अति तेही ॥ देहिं असीस बूझि कुसलाता। होइ अचल तुम्हार अहिवाता ॥


सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं। मंगल जानि नयन जल रोकहिं ॥ कनक थार आरति उतारहिं। बार बार प्रभु गात निहारहिं ॥


नाना भाँति निछावरि करहीं। परमानंद हरष उर भरहीं ॥ कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि। चितवति कृपासिंधु रनधीरहि ॥


हृदयँ बिचारति बारहिं बारा। कवन भाँति लंकापति मारा ॥ अति सुकुमार जुगल मेरे बारे। निसिचर सुभट महाबल भारे ॥



Doha / दोहा


दो. लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकति मातु । परमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु ॥ ७ ॥



Chaupai / चोपाई


लंकापति कपीस नल नीला। जामवंत अंगद सुभसीला ॥ हनुमदादि सब बानर बीरा। धरे मनोहर मनुज सरीरा ॥


भरत सनेह सील ब्रत नेमा। सादर सब बरनहिं अति प्रेमा ॥ देखि नगरबासिंह कै रीती। सकल सराहहि प्रभु पद प्रीती ॥


पुनि रघुपति सब सखा बोलाए। मुनि पद लागहु सकल सिखाए ॥ गुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे। इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे ॥


ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे ॥ मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे ॥


सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। निमिष निमिष उपजत सुख नए ॥



Doha / दोहा


दो. कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ ॥ आसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ ॥ ८(क) ॥


सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद । चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद ॥ ८(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


कंचन कलस बिचित्र सँवारे। सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे ॥ बंदनवार पताका केतू। सबन्हि बनाए मंगल हेतू ॥


बीथीं सकल सुगंध सिंचाई। गजमनि रचि बहु चौक पुराई ॥ नाना भाँति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे ॥


जहँ तहँ नारि निछावर करहीं। देहिं असीस हरष उर भरहीं ॥ कंचन थार आरती नाना। जुबती सजें करहिं सुभ गाना ॥


करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें ॥ पुर सोभा संपति कल्याना। निगम सेष सारदा बखाना ॥


तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं। उमा तासु गुन नर किमि कहहीं ॥



Doha / दोहा


दो. नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस । अस्त भएँ बिगसत भईं निरखि राम राकेस ॥ ९(क) ॥


होहिं सगुन सुभ बिबिध बिधि बाजहिं गगन निसान । पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान ॥ ९(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


प्रभु जानी कैकेई लजानी। प्रथम तासु गृह गए भवानी ॥ ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा। पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा ॥


कृपासिंधु जब मंदिर गए। पुर नर नारि सुखी सब भए ॥ गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई। आजु सुघरी सुदिन समुदाई ॥


सब द्विज देहु हरषि अनुसासन। रामचंद्र बैठहिं सिंघासन ॥ मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए। सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए ॥


कहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका। जग अभिराम राम अभिषेका ॥ अब मुनिबर बिलंब नहिं कीजे। महाराज कहँ तिलक करीजै ॥



Doha / दोहा


दो. तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ । रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ ॥ १०(क) ॥


जहँ तहँ धावन पठइ पुनि मंगल द्रब्य मगाइ । हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ ॥ १०(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई ॥ राम कहा सेवकन्ह बुलाई। प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई ॥


सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए। सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए ॥ पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे। निज कर राम जटा निरुआरे ॥


अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई। भगत बछल कृपाल रघुराई ॥ भरत भाग्य प्रभु कोमलताई। सेष कोटि सत सकहिं न गाई ॥


पुनि निज जटा राम बिबराए। गुर अनुसासन मागि नहाए ॥ करि मज्जन प्रभु भूषन साजे। अंग अनंग देखि सत लाजे ॥



Doha / दोहा


दो. सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ । दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ ॥ ११(क) ॥


राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि । देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि ॥ ११(ख) ॥


सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद । चढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद ॥ ११(ग) ॥



Chaupai / चोपाई


प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा। तुरत दिब्य सिंघासन मागा ॥ रबि सम तेज सो बरनि न जाई। बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई ॥


जनकसुता समेत रघुराई। पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई ॥ बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे। नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे ॥


प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा ॥ सुत बिलोकि हरषीं महतारी। बार बार आरती उतारी ॥


बिप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे। जाचक सकल अजाचक कीन्हे ॥ सिंघासन पर त्रिभुअन साई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं ॥



Chanda / छन्द


छं. नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं । नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं ॥


भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते । गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते ॥ १ ॥


श्री सहित दिनकर बंस बूषन काम बहु छबि सोहई । नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई ॥


मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे । अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे ॥ २ ॥



Doha / दोहा


दो. वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस । बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस ॥ १२(क) ॥


भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम । बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम ॥ १२(ख) ॥


प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान । लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान ॥ १२(ग) ॥



Chanda / छन्द


छं. जय सगुन निर्गुन रूप अनूप भूप सिरोमने । दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने ॥


अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे । जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे ॥ १ ॥


तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे । भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे ॥


जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे । भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे ॥ २ ॥


जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी । ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी ॥


बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे । जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे ॥ ३ ॥


जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी । नख निर्गता मुनि बंदिता त्रेलोक पावनि सुरसरी ॥


ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे । पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे ॥ ४ ॥


अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने । षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने ॥


फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे । पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे ॥ ५ ॥


जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं । ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं ॥


करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं । मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं ॥ ६ ॥



Doha / दोहा


दो. सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार । अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार ॥ १३(क) ॥


बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर । बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर ॥ १३(ख) ॥



Chanda / छन्द


छं. जय राम रमारमनं समनं। भव ताप भयाकुल पाहि जनं ॥ अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो ॥ १ ॥


दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा ॥ रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे ॥ २ ॥


महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं ॥ मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी ॥ ३ ॥


मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए ॥ हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे ॥ ४ ॥


बहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए ॥ भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते ॥ ५ ॥


अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं ॥ अवलंब भवंत कथा जिन्ह के ॥ प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें ॥ ६ ॥


नहिं राग न लोभ न मान मदा ॥ तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा ॥ एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ॥ ७ ॥


करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ ॥ सम मानि निरादर आदरही। सब संत सुखी बिचरंति मही ॥ ८ ॥


मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे ॥ तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी ॥ ९ ॥


गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं ॥ रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं ॥ १० ॥



Doha / दोहा


दो. बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग । पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ॥ १४(क) ॥


बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास । तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास ॥ १४(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


सुनु खगपति यह कथा पावनी। त्रिबिध ताप भव भय दावनी ॥ महाराज कर सुभ अभिषेका। सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका ॥


जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं। सुख संपति नाना बिधि पावहिं ॥ सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं। अंतकाल रघुपति पुर जाहीं ॥


सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई ॥ खगपति राम कथा मैं बरनी। स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी ॥


बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी। मोह नदी कहँ सुंदर तरनी ॥ नित नव मंगल कौसलपुरी। हरषित रहहिं लोग सब कुरी ॥


नित नइ प्रीति राम पद पंकज। सबकें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज ॥ मंगन बहु प्रकार पहिराए। द्विजन्ह दान नाना बिधि पाए ॥



Doha / दोहा


दो. ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति । जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति ॥ १५ ॥



Chaupai / चोपाई


बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं। जिमि परद्रोह संत मन माही ॥ तब रघुपति सब सखा बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिरु नाए ॥


परम प्रीति समीप बैठारे। भगत सुखद मृदु बचन उचारे ॥ तुम्ह अति कीन्ह मोरि सेवकाई। मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई ॥


ताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे। मम हित लागि भवन सुख त्यागे ॥ अनुज राज संपति बैदेही। देह गेह परिवार सनेही ॥


सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना। मृषा न कहउँ मोर यह बाना ॥ सब के प्रिय सेवक यह नीती। मोरें अधिक दास पर प्रीती ॥



Doha / दोहा


दो. अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम । सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम ॥ १६ ॥



Chaupai / चोपाई


सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। को हम कहाँ बिसरि तन गए ॥ एकटक रहे जोरि कर आगे। सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे ॥


परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा। कहा बिबिध बिधि ग्यान बिसेषा ॥ प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं। पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं ॥


तब प्रभु भूषन बसन मगाए। नाना रंग अनूप सुहाए ॥ सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए ॥


प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए। लंकापति रघुपति मन भाए ॥ अंगद बैठ रहा नहिं डोला। प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला ॥



Doha / दोहा


दो. जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ । हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ ॥ १७(क) ॥


तब अंगद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि । अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि ॥ १७(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो। दीन दयाकर आरत बंधो ॥ मरती बेर नाथ मोहि बाली। गयउ तुम्हारेहि कोंछें घाली ॥


असरन सरन बिरदु संभारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी ॥ मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता ॥


तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा। प्रभु तजि भवन काज मम काहा ॥ बालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना ॥


नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ। पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ ॥ अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही ॥



Doha / दोहा


दो. अंगद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव । प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव ॥ १८(क) ॥


निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ । बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ ॥ १८(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


भरत अनुज सौमित्र समेता। पठवन चले भगत कृत चेता ॥ अंगद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा। फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा ॥


बार बार कर दंड प्रनामा। मन अस रहन कहहिं मोहि रामा ॥ राम बिलोकनि बोलनि चलनी। सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी ॥


प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी। चलेउ हृदयँ पद पंकज राखी ॥ अति आदर सब कपि पहुँचाए। भाइन्ह सहित भरत पुनि आए ॥


तब सुग्रीव चरन गहि नाना। भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना ॥ दिन दस करि रघुपति पद सेवा। पुनि तव चरन देखिहउँ देवा ॥


पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा। सेवहु जाइ कृपा आगारा ॥ अस कहि कपि सब चले तुरंता। अंगद कहइ सुनहु हनुमंता ॥



Doha / दोहा


दो. कहेहु दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि । बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि ॥ १९(क) ॥


अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमंत । तासु प्रीति प्रभु सन कहि मगन भए भगवंत ॥ !९(ख) ॥


कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि । चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि ॥ १९(ग) ॥



Chaupai / चोपाई


पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा। दीन्हे भूषन बसन प्रसादा ॥ जाहु भवन मम सुमिरन करेहू। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू ॥


तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता ॥ बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी ॥


चरन नलिन उर धरि गृह आवा। प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा ॥ रघुपति चरित देखि पुरबासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी ॥


राम राज बैंठें त्रेलोका। हरषित भए गए सब सोका ॥ बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई ॥



Doha / दोहा


दो. बरनाश्रम निज निज धरम बनिरत बेद पथ लोग । चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग ॥ २० ॥



Chaupai / चोपाई


दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा ॥ सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती ॥


चारिउ चरन धर्म जग माहीं। पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं ॥ राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी ॥


अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा ॥ नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना ॥


सब निर्दंभ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी ॥ सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी ॥



Doha / दोहा


दो. राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं ॥ काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं ॥ २१ ॥



Chaupai / चोपाई


भूमि सप्त सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला ॥ भुअन अनेक रोम प्रति जासू। यह प्रभुता कछु बहुत न तासू ॥


सो महिमा समुझत प्रभु केरी। यह बरनत हीनता घनेरी ॥ सोउ महिमा खगेस जिन्ह जानी। फिरी एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी ॥


सोउ जाने कर फल यह लीला। कहहिं महा मुनिबर दमसीला ॥ राम राज कर सुख संपदा। बरनि न सकइ फनीस सारदा ॥


सब उदार सब पर उपकारी। बिप्र चरन सेवक नर नारी ॥ एकनारि ब्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी ॥



Doha / दोहा


दो. दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज । जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज ॥ २२ ॥



Chaupai / चोपाई


फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। रहहि एक सँग गज पंचानन ॥ खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई ॥


कूजहिं खग मृग नाना बृंदा। अभय चरहिं बन करहिं अनंदा ॥ सीतल सुरभि पवन बह मंदा। गूंजत अलि लै चलि मकरंदा ॥


लता बिटप मागें मधु चवहीं। मनभावतो धेनु पय स्त्रवहीं ॥ ससि संपन्न सदा रह धरनी। त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी ॥


प्रगटीं गिरिन्ह बिबिध मनि खानी। जगदातमा भूप जग जानी ॥ सरिता सकल बहहिं बर बारी। सीतल अमल स्वाद सुखकारी ॥


सागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं ॥ सरसिज संकुल सकल तड़ागा। अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा ॥



Doha / दोहा


दो. बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज । मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र के राज ॥ २३ ॥



Chaupai / चोपाई


कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे। दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे ॥ श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर। गुनातीत अरु भोग पुरंदर ॥


पति अनुकूल सदा रह सीता। सोभा खानि सुसील बिनीता ॥ जानति कृपासिंधु प्रभुताई। सेवति चरन कमल मन लाई ॥


जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी। बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी ॥ निज कर गृह परिचरजा करई। रामचंद्र आयसु अनुसरई ॥


जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ। सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ ॥ कौसल्यादि सासु गृह माहीं। सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं ॥


उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता। जगदंबा संततमनिंदिता ॥



Doha / दोहा


दो. जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोइ । राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोइ ॥ २४ ॥



Chaupai / चोपाई


सेवहिं सानकूल सब भाई। राम चरन रति अति अधिकाई ॥ प्रभु मुख कमल बिलोकत रहहीं। कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीं ॥


राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती। नाना भाँति सिखावहिं नीती ॥ हरषित रहहिं नगर के लोगा। करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा ॥


अहनिसि बिधिहि मनावत रहहीं। श्रीरघुबीर चरन रति चहहीं ॥ दुइ सुत सुन्दर सीताँ जाए। लव कुस बेद पुरानन्ह गाए ॥


दोउ बिजई बिनई गुन मंदिर। हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर ॥ दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे। भए रूप गुन सील घनेरे ॥



Doha / दोहा


दो. ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार । सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार ॥ २५ ॥



Chaupai / चोपाई


प्रातकाल सरऊ करि मज्जन। बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन ॥ बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं ॥


अनुजन्ह संजुत भोजन करहीं। देखि सकल जननीं सुख भरहीं ॥ भरत सत्रुहन दोनउ भाई। सहित पवनसुत उपबन जाई ॥


बूझहिं बैठि राम गुन गाहा। कह हनुमान सुमति अवगाहा ॥ सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं। बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं ॥


सब कें गृह गृह होहिं पुराना। रामचरित पावन बिधि नाना ॥ नर अरु नारि राम गुन गानहिं। करहिं दिवस निसि जात न जानहिं ॥



Doha / दोहा


दो. अवधपुरी बासिंह कर सुख संपदा समाज । सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज ॥ २६ ॥



Chaupai / चोपाई


नारदादि सनकादि मुनीसा। दरसन लागि कोसलाधीसा ॥ दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं। देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं ॥


जातरूप मनि रचित अटारीं। नाना रंग रुचिर गच ढारीं ॥ पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर। रचे कँगूरा रंग रंग बर ॥


नव ग्रह निकर अनीक बनाई। जनु घेरी अमरावति आई ॥ महि बहु रंग रचित गच काँचा। जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा ॥


धवल धाम ऊपर नभ चुंबत। कलस मनहुँ रबि ससि दुति निंदत ॥ बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं। गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं ॥



Chanda / छन्द


छं. मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची । मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची ॥


सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे । प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे ॥



Doha / दोहा


दो. चारु चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे बनाइ । राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ ॥ २७ ॥



Chaupai / चोपाई


सुमन बाटिका सबहिं लगाई। बिबिध भाँति करि जतन बनाई ॥ लता ललित बहु जाति सुहाई। फूलहिं सदा बंसत कि नाई ॥


गुंजत मधुकर मुखर मनोहर। मारुत त्रिबिध सदा बह सुंदर ॥ नाना खग बालकन्हि जिआए। बोलत मधुर उड़ात सुहाए ॥


मोर हंस सारस पारावत। भवननि पर सोभा अति पावत ॥ जहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं। बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं ॥


सुक सारिका पढ़ावहिं बालक। कहहु राम रघुपति जनपालक ॥ राज दुआर सकल बिधि चारू। बीथीं चौहट रूचिर बजारू ॥



Chanda / छन्द


छं. बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए । जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए ॥


बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते । सब सुखी सब सच्चरित सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे ॥



Doha / दोहा


दो. उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर । बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर ॥ २८ ॥



Chaupai / चोपाई


दूरि फराक रुचिर सो घाटा। जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा ॥ पनिघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना ॥


राजघाट सब बिधि सुंदर बर। मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर ॥ तीर तीर देवन्ह के मंदिर। चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर ॥


कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी। बसहिं ग्यान रत मुनि संन्यासी ॥ तीर तीर तुलसिका सुहाई। बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई ॥


पुर सोभा कछु बरनि न जाई। बाहेर नगर परम रुचिराई ॥ देखत पुरी अखिल अघ भागा। बन उपबन बापिका तड़ागा ॥



Chanda / छन्द


छं. बापीं तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं । सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं ॥


बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं । आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं ॥



Doha / दोहा


दो. रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ । अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ ॥ २९ ॥



Chaupai / चोपाई


जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं। बैठि परसपर इहइ सिखावहिं ॥ भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि ॥


जलज बिलोचन स्यामल गातहि। पलक नयन इव सेवक त्रातहि ॥ धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। संत कंज बन रबि रनधीरहि ॥


काल कराल ब्याल खगराजहि। नमत राम अकाम ममता जहि ॥ लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि ॥


संसय सोक निबिड़ तम भानुहि। दनुज गहन घन दहन कृसानुहि ॥ जनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भंजन भव भीरहि ॥


बहु बासना मसक हिम रासिहि। सदा एकरस अज अबिनासिहि ॥ मुनि रंजन भंजन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि ॥



Doha / दोहा


दो. एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान । सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान ॥ ३० ॥



Chaupai / चोपाई


जब ते राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ॥ पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका ॥


जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अबिद्या निसा नसानी ॥ अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने ॥


बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ। ए चकोर सुख लहहिं न काऊ ॥ मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा ॥


धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना। ए पंकज बिकसे बिधि नाना ॥ सुख संतोष बिराग बिबेका। बिगत सोक ए कोक अनेका ॥



Doha / दोहा


दो. यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास । पछिले बाढ़हिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास ॥ ३१ ॥



Chaupai / चोपाई


भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा। संग परम प्रिय पवनकुमारा ॥ सुंदर उपबन देखन गए। सब तरु कुसुमित पल्लव नए ॥


जानि समय सनकादिक आए। तेज पुंज गुन सील सुहाए ॥ ब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना ॥


रूप धरें जनु चारिउ बेदा। समदरसी मुनि बिगत बिभेदा ॥ आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं ॥


तहाँ रहे सनकादि भवानी। जहँ घटसंभव मुनिबर ग्यानी ॥ राम कथा मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी ॥



Doha / दोहा


दो. देखि राम मुनि आवत हरषि दंडवत कीन्ह । स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह ॥ ३२ ॥



Chaupai / चोपाई


कीन्ह दंडवत तीनिउँ भाई। सहित पवनसुत सुख अधिकाई ॥ मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी। भए मगन मन सके न रोकी ॥


स्यामल गात सरोरुह लोचन। सुंदरता मंदिर भव मोचन ॥ एकटक रहे निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं ॥


तिन्ह कै दसा देखि रघुबीरा। स्त्रवत नयन जल पुलक सरीरा ॥ कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे। परम मनोहर बचन उचारे ॥


आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा ॥ बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा ॥



Doha / दोहा


दो. संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ । कहहि संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ ॥ ३३ ॥



Chaupai / चोपाई


सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारी। पुलकित तन अस्तुति अनुसारी ॥ जय भगवंत अनंत अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय ॥


जय निर्गुन जय जय गुन सागर। सुख मंदिर सुंदर अति नागर ॥ जय इंदिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर ॥


ग्यान निधान अमान मानप्रद। पावन सुजस पुरान बेद बद ॥ तग्य कृतग्य अग्यता भंजन। नाम अनेक अनाम निरंजन ॥


सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय। बससि सदा हम कहुँ परिपालय ॥ द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय। ह्रदि बसि राम काम मद गंजय ॥



Doha / दोहा


दो. परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम । प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम ॥ ३४ ॥



Chaupai / चोपाई


देहु भगति रघुपति अति पावनि। त्रिबिध ताप भव दाप नसावनि ॥ प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु ॥


भव बारिधि कुंभज रघुनायक। सेवत सुलभ सकल सुख दायक ॥ मन संभव दारुन दुख दारय। दीनबंधु समता बिस्तारय ॥


आस त्रास इरिषादि निवारक। बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक ॥ भूप मौलि मन मंडन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी ॥


मुनि मन मानस हंस निरंतर। चरन कमल बंदित अज संकर ॥ रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक। काल करम सुभाउ गुन भच्छक ॥


तारन तरन हरन सब दूषन। तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन ॥



Doha / दोहा


दो. बार बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ । ब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ ॥ ३५ ॥



Chaupai / चोपाई


सनकादिक बिधि लोक सिधाए। भ्रातन्ह राम चरन सिरु नाए ॥ पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं। चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं ॥


सुनि चहहिं प्रभु मुख कै बानी। जो सुनि होइ सकल भ्रम हानी ॥ अंतरजामी प्रभु सभ जाना। बूझत कहहु काह हनुमाना ॥


जोरि पानि कह तब हनुमंता। सुनहु दीनदयाल भगवंता ॥ नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं। प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं ॥


तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ। भरतहि मोहि कछु अंतर काऊ ॥ सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना। सुनहु नाथ प्रनतारति हरना ॥



Doha / दोहा


दो. नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहुँ सोक न मोह । केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह ॥ ३६ ॥



Chaupai / चोपाई


करउँ कृपानिधि एक ढिठाई। मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई ॥ संतन्ह कै महिमा रघुराई। बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई ॥


श्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्हि बड़ाई। तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई ॥ सुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन। कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन ॥


संत असंत भेद बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई ॥ संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता ॥


संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी ॥ काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई ॥



Doha / दोहा


दो. ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड । अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड ॥ ३७ ॥



Chaupai / चोपाई


बिषय अलंपट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर ॥ सम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी ॥


कोमलचित दीनन्ह पर दाया। मन बच क्रम मम भगति अमाया ॥ सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी ॥


बिगत काम मम नाम परायन। सांति बिरति बिनती मुदितायन ॥ सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री ॥


ए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात संत संतत फुर ॥ सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं। परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं ॥



Doha / दोहा


दो. निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज । ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज ॥ ३८ ॥



Chaupai / चोपाई


सनहु असंतन्ह केर सुभाऊ। भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ ॥ तिन्ह कर संग सदा दुखदाई। जिमि कलपहि घालइ हरहाई ॥


खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी। जरहिं सदा पर संपति देखी ॥ जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई ॥


काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन ॥ बयरु अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों ॥


झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना ॥ बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अति हृदय कठोरा ॥



Doha / दोहा


दो. पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद । ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद ॥ ३९ ॥



Chaupai / चोपाई


लोभइ ओढ़न लोभइ डासन। सिस्त्रोदर पर जमपुर त्रास न ॥ काहू की जौं सुनहिं बड़ाई। स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई ॥


जब काहू कै देखहिं बिपती। सुखी भए मानहुँ जग नृपती ॥ स्वारथ रत परिवार बिरोधी। लंपट काम लोभ अति क्रोधी ॥


मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं। आपु गए अरु घालहिं आनहिं ॥ करहिं मोह बस द्रोह परावा। संत संग हरि कथा न भावा ॥


अवगुन सिंधु मंदमति कामी। बेद बिदूषक परधन स्वामी ॥ बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा। दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा ॥



Doha / दोहा


दो. ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेता नाहिं । द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं ॥ ४० ॥



Chaupai / चोपाई


पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥ निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर ॥


नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा ॥ करहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना ॥


कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता। सुभ अरु असुभ कर्म फल दाता ॥ अस बिचारि जे परम सयाने। भजहिं मोहि संसृत दुख जाने ॥


त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक। भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक ॥ संत असंतन्ह के गुन भाषे। ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे ॥



Doha / दोहा


दो. सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक । गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक ॥ ४१ ॥



Chaupai / चोपाई


श्रीमुख बचन सुनत सब भाई। हरषे प्रेम न हृदयँ समाई ॥ करहिं बिनय अति बारहिं बारा। हनूमान हियँ हरष अपारा ॥


पुनि रघुपति निज मंदिर गए। एहि बिधि चरित करत नित नए ॥ बार बार नारद मुनि आवहिं। चरित पुनीत राम के गावहिं ॥


नित नव चरन देखि मुनि जाहीं। ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं ॥ सुनि बिरंचि अतिसय सुख मानहिं। पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं ॥


सनकादिक नारदहि सराहहिं। जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं ॥ सुनि गुन गान समाधि बिसारी ॥ सादर सुनहिं परम अधिकारी ॥



Doha / दोहा


दो. जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान । जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान ॥ ४२ ॥



Chaupai / चोपाई


एक बार रघुनाथ बोलाए। गुर द्विज पुरबासी सब आए ॥ बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन। बोले बचन भगत भव भंजन ॥


सनहु सकल पुरजन मम बानी। कहउँ न कछु ममता उर आनी ॥ नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई ॥


सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई ॥ जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौं मोहि बरजहु भय बिसराई ॥


बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा ॥ साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा ॥



Doha / दोहा


दो. सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ । कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ ॥ ४३ ॥



Chaupai / चोपाई


एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ॥ नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं ॥


ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई ॥ आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी ॥


फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा ॥ कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही ॥


नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ॥ करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ॥



Doha / दोहा


दो. जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ । सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ॥ ४४ ॥



Chaupai / चोपाई


जौं परलोक इहाँ सुख चहहू। सुनि मम बचन ह्रृदयँ दृढ़ गहहू ॥ सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई ॥


ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका ॥ करत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ ॥


भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ॥ पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता ॥


पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा ॥ सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा ॥



Doha / दोहा


दो. औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि । संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि ॥ ४५ ॥



Chaupai / चोपाई


कहहु भगति पथ कवन प्रयासा। जोग न मख जप तप उपवासा ॥ सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई ॥


मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा ॥ बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई। एहि आचरन बस्य मैं भाई ॥


बैर न बिग्रह आस न त्रासा। सुखमय ताहि सदा सब आसा ॥ अनारंभ अनिकेत अमानी। अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी ॥


प्रीति सदा सज्जन संसर्गा। तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा ॥ भगति पच्छ हठ नहिं सठताई। दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई ॥



Doha / दोहा


दो. मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह । ता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह ॥ ४६ ॥



Chaupai / चोपाई


सुनत सुधासम बचन राम के। गहे सबनि पद कृपाधाम के ॥ जननि जनक गुर बंधु हमारे। कृपा निधान प्रान ते प्यारे ॥


तनु धनु धाम राम हितकारी। सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी ॥ असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ। मातु पिता स्वारथ रत ओऊ ॥


हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥ स्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं ॥


सबके बचन प्रेम रस साने। सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने ॥ निज निज गृह गए आयसु पाई। बरनत प्रभु बतकही सुहाई ॥



Doha / दोहा


दो. -उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप । ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप ॥ ४७ ॥



Chaupai / चोपाई


एक बार बसिष्ट मुनि आए। जहाँ राम सुखधाम सुहाए ॥ अति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारि पादोदक लीन्हा ॥


राम सुनहु मुनि कह कर जोरी। कृपासिंधु बिनती कछु मोरी ॥ देखि देखि आचरन तुम्हारा। होत मोह मम हृदयँ अपारा ॥


महिमा अमित बेद नहिं जाना। मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना ॥ उपरोहित्य कर्म अति मंदा। बेद पुरान सुमृति कर निंदा ॥


जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही। कहा लाभ आगें सुत तोही ॥ परमातमा ब्रह्म नर रूपा। होइहि रघुकुल भूषन भूपा ॥



Doha / दोहा


दो. -तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान । जा कहुँ करिअ सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन ॥ ४८ ॥



Chaupai / चोपाई


जप तप नियम जोग निज धर्मा। श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा ॥ ग्यान दया दम तीरथ मज्जन। जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन ॥


आगम निगम पुरान अनेका। पढ़े सुने कर फल प्रभु एका ॥ तब पद पंकज प्रीति निरंतर। सब साधन कर यह फल सुंदर ॥


छूटइ मल कि मलहि के धोएँ। घृत कि पाव कोइ बारि बिलोएँ ॥ प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥


सोइ सर्बग्य तग्य सोइ पंडित। सोइ गुन गृह बिग्यान अखंडित ॥ दच्छ सकल लच्छन जुत सोई। जाकें पद सरोज रति होई ॥



Doha / दोहा


दो. नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु । जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु ॥ ४९ ॥



Chaupai / चोपाई


अस कहि मुनि बसिष्ट गृह आए। कृपासिंधु के मन अति भाए ॥ हनूमान भरतादिक भ्राता। संग लिए सेवक सुखदाता ॥


पुनि कृपाल पुर बाहेर गए। गज रथ तुरग मगावत भए ॥ देखि कृपा करि सकल सराहे। दिए उचित जिन्ह जिन्ह तेइ चाहे ॥


हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई। गए जहाँ सीतल अवँराई ॥ भरत दीन्ह निज बसन डसाई। बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई ॥


मारुतसुत तब मारूत करई। पुलक बपुष लोचन जल भरई ॥ हनूमान सम नहिं बड़भागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी ॥


गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई। बार बार प्रभु निज मुख गाई ॥



Doha / दोहा


दो. तेहिं अवसर मुनि नारद आए करतल बीन । गावन लगे राम कल कीरति सदा नबीन ॥ ५० ॥



Chaupai / चोपाई


मामवलोकय पंकज लोचन। कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन ॥ नील तामरस स्याम काम अरि। हृदय कंज मकरंद मधुप हरि ॥


जातुधान बरूथ बल भंजन। मुनि सज्जन रंजन अघ गंजन ॥ भूसुर ससि नव बृंद बलाहक। असरन सरन दीन जन गाहक ॥


भुज बल बिपुल भार महि खंडित। खर दूषन बिराध बध पंडित ॥ रावनारि सुखरूप भूपबर। जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर ॥


सुजस पुरान बिदित निगमागम। गावत सुर मुनि संत समागम ॥ कारुनीक ब्यलीक मद खंडन। सब बिधि कुसल कोसला मंडन ॥


कलि मल मथन नाम ममताहन। तुलसीदास प्रभु पाहि प्रनत जन ॥



Doha / दोहा


दो. प्रेम सहित मुनि नारद बरनि राम गुन ग्राम । सोभासिंधु हृदयँ धरि गए जहाँ बिधि धाम ॥ ५१ ॥



Chaupai / चोपाई


गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा। मैं सब कही मोरि मति जथा ॥ राम चरित सत कोटि अपारा। श्रुति सारदा न बरनै पारा ॥


राम अनंत अनंत गुनानी। जन्म कर्म अनंत नामानी ॥ जल सीकर महि रज गनि जाहीं। रघुपति चरित न बरनि सिराहीं ॥


बिमल कथा हरि पद दायनी। भगति होइ सुनि अनपायनी ॥ उमा कहिउँ सब कथा सुहाई। जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई ॥


कछुक राम गुन कहेउँ बखानी। अब का कहौं सो कहहु भवानी ॥ सुनि सुभ कथा उमा हरषानी। बोली अति बिनीत मृदु बानी ॥


धन्य धन्य मैं धन्य पुरारी। सुनेउँ राम गुन भव भय हारी ॥



Doha / दोहा


दो. तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह । जानेउँ राम प्रताप प्रभु चिदानंद संदोह ॥ ५२(क) ॥


नाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर । श्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर ॥ ५२(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं ॥ जीवनमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहीं निरंतर तेऊ ॥


भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा ॥ बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा। श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा ॥


श्रवनवंत अस को जग माहीं। जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं ॥ ते जड़ जीव निजात्मक घाती। जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती ॥


हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा। सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा ॥ तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई। कागभसुंडि गरुड़ प्रति गाई ॥



Doha / दोहा


दो. बिरति ग्यान बिग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह । बायस तन रघुपति भगति मोहि परम संदेह ॥ ५३ ॥



Chaupai / चोपाई


नर सहस्र महँ सुनहु पुरारी। कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी ॥ धर्मसील कोटिक महँ कोई। बिषय बिमुख बिराग रत होई ॥


कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई। सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई ॥ ग्यानवंत कोटिक महँ कोऊ। जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ ॥


तिन्ह सहस्र महुँ सब सुख खानी। दुर्लभ ब्रह्मलीन बिग्यानी ॥ धर्मसील बिरक्त अरु ग्यानी। जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी ॥


सब ते सो दुर्लभ सुरराया। राम भगति रत गत मद माया ॥ सो हरिभगति काग किमि पाई। बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई ॥



Doha / दोहा


दो. राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर । नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर ॥ ५४ ॥



Chaupai / चोपाई


यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा। कहहु कृपाल काग कहँ पावा ॥ तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी। कहहु मोहि अति कौतुक भारी ॥


गरुड़ महाग्यानी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी ॥ तेहिं केहि हेतु काग सन जाई। सुनी कथा मुनि निकर बिहाई ॥


कहहु कवन बिधि भा संबादा। दोउ हरिभगत काग उरगादा ॥ गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई। बोले सिव सादर सुख पाई ॥


धन्य सती पावन मति तोरी। रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी ॥ सुनहु परम पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा ॥


उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा ॥



Doha / दोहा


दो. ऐसिअ प्रस्न बिहंगपति कीन्ह काग सन जाइ । सो सब सादर कहिहउँ सुनहु उमा मन लाइ ॥ ५५ ॥



Chaupai / चोपाई


मैं जिमि कथा सुनी भव मोचनि। सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि ॥ प्रथम दच्छ गृह तव अवतारा। सती नाम तब रहा तुम्हारा ॥


दच्छ जग्य तब भा अपमाना। तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना ॥ मम अनुचरन्ह कीन्ह मख भंगा। जानहु तुम्ह सो सकल प्रसंगा ॥


तब अति सोच भयउ मन मोरें। दुखी भयउँ बियोग प्रिय तोरें ॥ सुंदर बन गिरि सरित तड़ागा। कौतुक देखत फिरउँ बेरागा ॥


गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी। नील सैल एक सुन्दर भूरी ॥ तासु कनकमय सिखर सुहाए। चारि चारु मोरे मन भाए ॥


तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला। बट पीपर पाकरी रसाला ॥ सैलोपरि सर सुंदर सोहा। मनि सोपान देखि मन मोहा ॥



Doha / दोहा


दो. -सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरंग । कूजत कल रव हंस गन गुंजत मजुंल भृंग ॥ ५६ ॥



Chaupai / चोपाई


तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पांत न होई ॥ माया कृत गुन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका ॥


रहे ब्यापि समस्त जग माहीं। तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं ॥ तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा। सो सुनु उमा सहित अनुरागा ॥


पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई ॥ आँब छाहँ कर मानस पूजा। तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा ॥


बर तर कह हरि कथा प्रसंगा। आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा ॥ राम चरित बिचीत्र बिधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना ॥


सुनहिं सकल मति बिमल मराला। बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला ॥ जब मैं जाइ सो कौतुक देखा। उर उपजा आनंद बिसेषा ॥



Doha / दोहा


दो. तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास । सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास ॥ ५७ ॥



Chaupai / चोपाई


गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा। मैं जेहि समय गयउँ खग पासा ॥ अब सो कथा सुनहु जेही हेतू। गयउ काग पहिं खग कुल केतू ॥


जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा। समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा ॥ इंद्रजीत कर आपु बँधायो। तब नारद मुनि गरुड़ पठायो ॥


बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा ॥ प्रभु बंधन समुझत बहु भाँती। करत बिचार उरग आराती ॥


ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा। माया मोह पार परमीसा ॥ सो अवतार सुनेउँ जग माहीं। देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीं ॥



Doha / दोहा


दो. -भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम । खर्च निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम ॥ ५८ ॥



Chaupai / चोपाई


नाना भाँति मनहि समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा ॥ खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई। भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई ॥


ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संसय निज मन माहीं ॥ सुनि नारदहि लागि अति दाया। सुनु खग प्रबल राम कै माया ॥


जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई। बरिआई बिमोह मन करई ॥ जेहिं बहु बार नचावा मोही। सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही ॥


महामोह उपजा उर तोरें। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें ॥ चतुरानन पहिं जाहु खगेसा। सोइ करेहु जेहि होइ निदेसा ॥



Doha / दोहा


दो. अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान । हरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान ॥ ५९ ॥



Chaupai / चोपाई


तब खगपति बिरंचि पहिं गयऊ। निज संदेह सुनावत भयऊ ॥ सुनि बिरंचि रामहि सिरु नावा। समुझि प्रताप प्रेम अति छावा ॥


मन महुँ करइ बिचार बिधाता। माया बस कबि कोबिद ग्याता ॥ हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा ॥


अग जगमय जग मम उपराजा। नहिं आचरज मोह खगराजा ॥ तब बोले बिधि गिरा सुहाई। जान महेस राम प्रभुताई ॥


बैनतेय संकर पहिं जाहू। तात अनत पूछहु जनि काहू ॥ तहँ होइहि तव संसय हानी। चलेउ बिहंग सुनत बिधि बानी ॥



Doha / दोहा


दो. परमातुर बिहंगपति आयउ तब मो पास । जात रहेउँ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास ॥ ६० ॥



Chaupai / चोपाई


तेहिं मम पद सादर सिरु नावा। पुनि आपन संदेह सुनावा ॥ सुनि ता करि बिनती मृदु बानी। परेम सहित मैं कहेउँ भवानी ॥


मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही ॥ तबहि होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा ॥


सुनिअ तहाँ हरि कथा सुहाई। नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई ॥ जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना ॥


नित हरि कथा होत जहँ भाई। पठवउँ तहाँ सुनहि तुम्ह जाई ॥ जाइहि सुनत सकल संदेहा। राम चरन होइहि अति नेहा ॥



Doha / दोहा


दो. बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग । मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग ॥ ६१ ॥



Chaupai / चोपाई


मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा ॥ उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला ॥


राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना ॥ राम कथा सो कहइ निरंतर। सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर ॥


जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी। होइहि मोह जनित दुख दूरी ॥ मैं जब तेहि सब कहा बुझाई। चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई ॥


ताते उमा न मैं समुझावा। रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा ॥ होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खौवै चह कृपानिधाना ॥


कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा ॥ प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी ॥



Doha / दोहा


दो. ग्यानि भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान । ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान ॥ ६२(क) ॥


सिव बिरंचि कहुँ मोहइ को है बपुरा आन । अस जियँ जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान ॥ ६२(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुंडा। मति अकुंठ हरि भगति अखंडा ॥ देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ। माया मोह सोच सब गयऊ ॥


करि तड़ाग मज्जन जलपाना। बट तर गयउ हृदयँ हरषाना ॥ बृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए। सुनै राम के चरित सुहाए ॥


कथा अरंभ करै सोइ चाहा। तेही समय गयउ खगनाहा ॥ आवत देखि सकल खगराजा। हरषेउ बायस सहित समाजा ॥


अति आदर खगपति कर कीन्हा। स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा ॥ करि पूजा समेत अनुरागा। मधुर बचन तब बोलेउ कागा ॥



Doha / दोहा


दो. नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज । आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहि काज ॥ ६३(क) ॥



Chaupai / चोपाई


सदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस । जेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस ॥ ६३(ख) ॥


सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ ॥ देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम ॥


अब श्रीराम कथा अति पावनि। सदा सुखद दुख पुंज नसावनि ॥ सादर तात सुनावहु मोही। बार बार बिनवउँ प्रभु तोही ॥


सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता। सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता ॥ भयउ तासु मन परम उछाहा। लाग कहै रघुपति गुन गाहा ॥


प्रथमहिं अति अनुराग भवानी। रामचरित सर कहेसि बखानी ॥ पुनि नारद कर मोह अपारा। कहेसि बहुरि रावन अवतारा ॥


प्रभु अवतार कथा पुनि गाई। तब सिसु चरित कहेसि मन लाई ॥



Doha / दोहा


दो. बालचरित कहिं बिबिध बिधि मन महँ परम उछाह । रिषि आगवन कहेसि पुनि श्री रघुबीर बिबाह ॥ ६४ ॥



Chaupai / चोपाई


बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा। पुनि नृप बचन राज रस भंगा ॥ पुरबासिंह कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन संबादा ॥


बिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा ॥ बालमीक प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना ॥


सचिवागवन नगर नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना ॥ करि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी ॥


पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए ॥ भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी ॥



Doha / दोहा


दो. कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग ॥ बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभु अगस्ति सतसंग ॥ ६५ ॥



Chaupai / चोपाई


कहि दंडक बन पावनताई। गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई ॥ पुनि प्रभु पंचवटीं कृत बासा। भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा ॥


पुनि लछिमन उपदेस अनूपा। सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा ॥ खर दूषन बध बहुरि बखाना। जिमि सब मरमु दसानन जाना ॥


दसकंधर मारीच बतकहीं। जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही ॥ पुनि माया सीता कर हरना। श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना ॥


पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही। बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही ॥ बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा। जेहि बिधि गए सरोबर तीरा ॥



Doha / दोहा


दो. प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग । पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग ॥ ६६((क) ॥


कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास । बरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास ॥ ६६(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए। सीता खोज सकल दिसि धाए ॥ बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँती। कपिन्ह बहोरि मिला संपाती ॥


सुनि सब कथा समीरकुमारा। नाघत भयउ पयोधि अपारा ॥ लंकाँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा। पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा ॥


बन उजारि रावनहि प्रबोधी। पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी ॥ आए कपि सब जहँ रघुराई। बैदेही कि कुसल सुनाई ॥


सेन समेति जथा रघुबीरा। उतरे जाइ बारिनिधि तीरा ॥ मिला बिभीषन जेहि बिधि आई। सागर निग्रह कथा सुनाई ॥



Doha / दोहा


दो. सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार । गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार ॥ ६७(क) ॥


निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार । कुंभकरन घननाद कर बल पौरुष संघार ॥ ६७(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


निसिचर निकर मरन बिधि नाना। रघुपति रावन समर बखाना ॥ रावन बध मंदोदरि सोका। राज बिभीषण देव असोका ॥


सीता रघुपति मिलन बहोरी। सुरन्ह कीन्ह अस्तुति कर जोरी ॥ पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता। अवध चले प्रभु कृपा निकेता ॥


जेहि बिधि राम नगर निज आए। बायस बिसद चरित सब गाए ॥ कहेसि बहोरि राम अभिषैका। पुर बरनत नृपनीति अनेका ॥


कथा समस्त भुसुंड बखानी। जो मैं तुम्ह सन कही भवानी ॥ सुनि सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा ॥



Sortha / सोरठा


सो. गयउ मोर संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित । भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक ॥ ६८(क) ॥



Chaupai / चोपाई


मोहि भयउ अति मोह प्रभु बंधन रन महुँ निरखि । चिदानंद संदोह राम बिकल कारन कवन। ६८(ख) ॥


देखि चरित अति नर अनुसारी। भयउ हृदयँ मम संसय भारी ॥ सोइ भ्रम अब हित करि मैं माना। कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना ॥


जो अति आतप ब्याकुल होई। तरु छाया सुख जानइ सोई ॥ जौं नहिं होत मोह अति मोही। मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही ॥


सुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई। अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई ॥ निगमागम पुरान मत एहा। कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा ॥


संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही ॥ राम कृपाँ तव दरसन भयऊ। तव प्रसाद सब संसय गयऊ ॥



Doha / दोहा


दो. सुनि बिहंगपति बानी सहित बिनय अनुराग । पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग ॥ ६९(क) ॥


श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास । पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास ॥ ६९(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


बोलेउ काकभसुंड बहोरी। नभग नाथ पर प्रीति न थोरी ॥ सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे ॥


तुम्हहि न संसय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्ह तुम्ह दाया ॥ पठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही ॥


तुम्ह निज मोह कही खग साईं। सो नहिं कछु आचरज गोसाईं ॥ नारद भव बिरंचि सनकादी। जे मुनिनायक आतमबादी ॥


मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही ॥ तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा ॥



Doha / दोहा


दो. ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार । केहि कै लौभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार ॥ ७०(क) ॥


श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि । मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि ॥ ७०(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


गुन कृत सन्यपात नहिं केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही ॥ जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा ॥


मच्छर काहि कलंक न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा ॥ चिंता साँपिनि को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया ॥


कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा ॥ सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी ॥


यह सब माया कर परिवारा। प्रबल अमिति को बरनै पारा ॥ सिव चतुरानन जाहि डेराहीं। अपर जीव केहि लेखे माहीं ॥



Doha / दोहा


दो. ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड ॥ सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड ॥ ७१(क) ॥


सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि । छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोऽपि ॥ ७१(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


जो माया सब जगहि नचावा। जासु चरित लखि काहुँ न पावा ॥ सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा ॥


सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज बिग्यान रूपो बल धामा ॥ ब्यापक ब्याप्य अखंड अनंता। अखिल अमोघसक्ति भगवंता ॥


अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सबदरसी अनवद्य अजीता ॥ निर्मम निराकार निरमोहा। नित्य निरंजन सुख संदोहा ॥


प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ॥ इहाँ मोह कर कारन नाहीं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ॥



Doha / दोहा


दो. भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप । किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप ॥ ७२(क) ॥


जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ । सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ ॥ ७२(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


असि रघुपति लीला उरगारी। दनुज बिमोहनि जन सुखकारी ॥ जे मति मलिन बिषयबस कामी। प्रभु मोह धरहिं इमि स्वामी ॥


नयन दोष जा कहँ जब होई। पीत बरन ससि कहुँ कह सोई ॥ जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा। सो कह पच्छिम उयउ दिनेसा ॥


नौकारूढ़ चलत जग देखा। अचल मोह बस आपुहि लेखा ॥ बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादीं। कहहिं परस्पर मिथ्याबादी ॥


हरि बिषइक अस मोह बिहंगा। सपनेहुँ नहिं अग्यान प्रसंगा ॥ मायाबस मतिमंद अभागी। हृदयँ जमनिका बहुबिधि लागी ॥


ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अग्यान राम पर धरहीं ॥



Doha / दोहा


दो. काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप । ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप ॥ ७३(क) ॥


निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ । सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ ॥ ७३(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई। कहउँ जथामति कथा सुहाई ॥ जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही ॥


राम कृपा भाजन तुम्ह ताता। हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता ॥ ताते नहिं कछु तुम्हहिं दुरावउँ। परम रहस्य मनोहर गावउँ ॥


सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ ॥ संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना ॥


ताते करहिं कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति भूरी ॥ जिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाई। मातु चिराव कठिन की नाईं ॥



Doha / दोहा


दो. जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर । ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर ॥ ७४(क) ॥


तिमि रघुपति निज दासकर हरहिं मान हित लागि । तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि ॥ ७४(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


राम कृपा आपनि जड़ताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई ॥ जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लील बहु करहीं ॥


तब तब अवधपुरी मैं ज़ाऊँ। बालचरित बिलोकि हरषाऊँ ॥ जन्म महोत्सव देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई ॥


इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा ॥ निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी ॥


लघु बायस बपु धरि हरि संगा। देखउँ बालचरित बहुरंगा ॥



Doha / दोहा


दो. लरिकाईं जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ संग उड़ाउँ । जूठनि परइ अजिर महँ सो उठाइ करि खाउँ ॥ ७५(क) ॥



Chaupai / चोपाई


एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर । सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर ॥ ७५(ख) ॥


कहइ भसुंड सुनहु खगनायक। रामचरित सेवक सुखदायक ॥ नृपमंदिर सुंदर सब भाँती। खचित कनक मनि नाना जाती ॥


बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई। जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई ॥ बालबिनोद करत रघुराई। बिचरत अजिर जननि सुखदाई ॥


मरकत मृदुल कलेवर स्यामा। अंग अंग प्रति छबि बहु कामा ॥ नव राजीव अरुन मृदु चरना। पदज रुचिर नख ससि दुति हरना ॥


ललित अंक कुलिसादिक चारी। नूपुर चारू मधुर रवकारी ॥ चारु पुरट मनि रचित बनाई। कटि किंकिन कल मुखर सुहाई ॥



Doha / दोहा


दो. रेखा त्रय सुन्दर उदर नाभी रुचिर गँभीर । उर आयत भ्राजत बिबिध बाल बिभूषन चीर ॥ ७६ ॥



Chaupai / चोपाई


अरुन पानि नख करज मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर ॥ कंध बाल केहरि दर ग्रीवा। चारु चिबुक आनन छबि सींवा ॥


कलबल बचन अधर अरुनारे। दुइ दुइ दसन बिसद बर बारे ॥ ललित कपोल मनोहर नासा। सकल सुखद ससि कर सम हासा ॥


नील कंज लोचन भव मोचन। भ्राजत भाल तिलक गोरोचन ॥ बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए। कुंचित कच मेचक छबि छाए ॥


पीत झीनि झगुली तन सोही। किलकनि चितवनि भावति मोही ॥ रूप रासि नृप अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी ॥


मोहि सन करहीं बिबिध बिधि क्रीड़ा। बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा ॥ किलकत मोहि धरन जब धावहिं। चलउँ भागि तब पूप देखावहिं ॥



Doha / दोहा


दो. आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं । जाउँ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं ॥ ७७(क) ॥


प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह । कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह ॥ ७७(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


एतना मन आनत खगराया। रघुपति प्रेरित ब्यापी माया ॥ सो माया न दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृत नाहीं ॥


नाथ इहाँ कछु कारन आना। सुनहु सो सावधान हरिजाना ॥ ग्यान अखंड एक सीताबर। माया बस्य जीव सचराचर ॥


जौं सब कें रह ग्यान एकरस। ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस ॥ माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुनखानी ॥


परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता ॥ मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया ॥



Doha / दोहा


दो. रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान । ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान ॥ ७८(क) ॥


राकापति षोड़स उअहिं तारागन समुदाइ ॥ सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ ॥ ७८(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा ॥ हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या ॥


ताते नास न होइ दास कर। भेद भगति भाढ़इ बिहंगबर ॥ भ्रम ते चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा ॥


तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ ॥ जानु पानि धाए मोहि धरना। स्यामल गात अरुन कर चरना ॥


तब मैं भागि चलेउँ उरगामी। राम गहन कहँ भुजा पसारी ॥ जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा। तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा ॥



Doha / दोहा


दो. ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात । जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात ॥ ७९(क) ॥


सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि । गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि ॥ ७९(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


मूदेउँ नयन त्रसित जब भयउँ। पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ ॥ मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं। बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं ॥


उदर माझ सुनु अंडज राया। देखेउँ बहु ब्रह्मांड निकाया ॥ अति बिचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका ॥


कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा। अगनित उडगन रबि रजनीसा ॥ अगनित लोकपाल जम काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला ॥


सागर सरि सर बिपिन अपारा। नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा ॥ सुर मुनि सिद्ध नाग नर किंनर। चारि प्रकार जीव सचराचर ॥



Doha / दोहा


दो. जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ । सो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ ॥ ८०(क) ॥


एक एक ब्रह्मांड महुँ रहउँ बरष सत एक । एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक ॥ ८०(ख) ॥


एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक ॥ ८०(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता। भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता ॥ नर गंधर्ब भूत बेताला। किंनर निसिचर पसु खग ब्याला ॥


देव दनुज गन नाना जाती। सकल जीव तहँ आनहि भाँती ॥ महि सरि सागर सर गिरि नाना। सब प्रपंच तहँ आनइ आना ॥


अंडकोस प्रति प्रति निज रुपा। देखेउँ जिनस अनेक अनूपा ॥ अवधपुरी प्रति भुवन निनारी। सरजू भिन्न भिन्न नर नारी ॥


दसरथ कौसल्या सुनु ताता। बिबिध रूप भरतादिक भ्राता ॥ प्रति ब्रह्मांड राम अवतारा। देखउँ बालबिनोद अपारा ॥



Doha / दोहा


दो. भिन्न भिन्न मै दीख सबु अति बिचित्र हरिजान । अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन ॥ ८१(क) ॥


सोइ सिसुपन सोइ सोभा सोइ कृपाल रघुबीर । भुवन भुवन देखत फिरउँ प्रेरित मोह समीर ॥ ८१(ख)



Chaupai / चोपाई


भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका। बीते मनहुँ कल्प सत एका ॥ फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ। तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ ॥


निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ। निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ ॥ देखउँ जन्म महोत्सव जाई। जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई ॥


राम उदर देखेउँ जग नाना। देखत बनइ न जाइ बखाना ॥ तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना। माया पति कृपाल भगवाना ॥


करउँ बिचार बहोरि बहोरी। मोह कलिल ब्यापित मति मोरी ॥ उभय घरी महँ मैं सब देखा। भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा ॥



Doha / दोहा


दो. देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर । बिहँसतहीं मुख बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर ॥ ८२(क) ॥



Chaupai / चोपाई


सोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम । कोटि भाँति समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम ॥ ८२(ख) ॥


देखि चरित यह सो प्रभुताई। समुझत देह दसा बिसराई ॥ धरनि परेउँ मुख आव न बाता। त्राहि त्राहि आरत जन त्राता ॥


प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी। निज माया प्रभुता तब रोकी ॥ कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ। दीनदयाल सकल दुख हरेऊ ॥


कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा। सेवक सुखद कृपा संदोहा ॥ प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी। मन महँ होइ हरष अति भारी ॥


भगत बछलता प्रभु कै देखी। उपजी मम उर प्रीति बिसेषी ॥ सजल नयन पुलकित कर जोरी। कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी ॥



Doha / दोहा


दो. सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास । बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास ॥ ८३(क) ॥



Chaupai / चोपाई


काकभसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि । अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि ॥ ८३(ख) ॥


ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना। मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना ॥ आजु देउँ सब संसय नाहीं। मागु जो तोहि भाव मन माहीं ॥


सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ। मन अनुमान करन तब लागेऊँ ॥ प्रभु कह देन सकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही ॥


भगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिंजन जैसे ॥ भजन हीन सुख कवने काजा। अस बिचारि बोलेउँ खगराजा ॥


जौं प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू। मो पर करहु कृपा अरु नेहू ॥ मन भावत बर मागउँ स्वामी। तुम्ह उदार उर अंतरजामी ॥



Doha / दोहा


दो. अबिरल भगति बिसुध्द तव श्रुति पुरान जो गाव । जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव ॥ ८४(क) ॥



Chaupai / चोपाई


भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपा सिंधु सुख धाम । सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम ॥ ८४(ख) ॥


एवमस्तु कहि रघुकुलनायक। बोले बचन परम सुखदायक ॥ सुनु बायस तैं सहज सयाना। काहे न मागसि अस बरदाना ॥


सब सुख खानि भगति तैं मागी। नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी ॥ जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं। जे जप जोग अनल तन दहहीं ॥


रीझेउँ देखि तोरि चतुराई। मागेहु भगति मोहि अति भाई ॥ सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें। सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें ॥


भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा ॥ जानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा ॥



Doha / दोहा


दों.माया संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि । जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि ॥ ८५(क) ॥


मोहि भगत प्रिय संतत अस बिचारि सुनु काग । कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग ॥ ८५(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


अब सुनु परम बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी ॥ निज सिद्धांत सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही ॥


मम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा ॥ सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए ॥


तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी ॥ तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी ॥


तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा ॥ पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं ॥


भगति हीन बिरंचि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई ॥ भगतिवंत अति नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी ॥



Doha / दोहा


दो. सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग । श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग ॥ ८६ ॥



Chaupai / चोपाई


एक पिता के बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन सील अचारा ॥ कोउ पंडिंत कोउ तापस ग्याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता ॥


कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम होई ॥ कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा। सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा ॥


सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना। जद्यपि सो सब भाँति अयाना ॥ एहि बिधि जीव चराचर जेते। त्रिजग देव नर असुर समेते ॥


अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया ॥ तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया। भजै मोहि मन बच अरू काया ॥



Doha / दोहा


दो. पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ । सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ ॥ ८७(क) ॥



Sortha / सोरठा


सो. सत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय । अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब ॥ ८७(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


कबहूँ काल न ब्यापिहि तोही। सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही ॥ प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ। तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ ॥


सो सुख जानइ मन अरु काना। नहिं रसना पहिं जाइ बखाना ॥ प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना। कहि किमि सकहिं तिन्हहि नहिं बयना ॥


बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई। लगे करन सिसु कौतुक तेई ॥ सजल नयन कछु मुख करि रूखा। चितइ मातु लागी अति भूखा ॥


देखि मातु आतुर उठि धाई। कहि मृदु बचन लिए उर लाई ॥ गोद राखि कराव पय पाना। रघुपति चरित ललित कर गाना ॥



Sortha / सोरठा


सो. जेहि सुख लागि पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद । अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ संतत मगन ॥ ८८(क) ॥


सोइ सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ । ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति ॥ ८८(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला। देखेउँ बालबिनोद रसाला ॥ राम प्रसाद भगति बर पायउँ। प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ ॥


तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया ॥ यह सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा ॥


निज अनुभव अब कहउँ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा ॥ राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई ॥


जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ॥ प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई ॥



Sortha / सोरठा


सो. बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु । गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु ॥ ८९(क) ॥


कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु । चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ ॥ ८९(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ॥ राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा ॥


बिनु बिग्यान कि समता आवइ। कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ ॥ श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गंध कि पावइ कोई ॥


बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा। जल बिनु रस कि होइ संसारा ॥ सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई ॥


निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा ॥ कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा ॥



Doha / दोहा


दो. बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु । राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु ॥ ९०(क) ॥



Sortha / सोरठा


सो. अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल । भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद ॥ ९०(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


निज मति सरिस नाथ मैं गाई। प्रभु प्रताप महिमा खगराई ॥ कहेउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी। यह सब मैं निज नयनन्हि देखी ॥


महिमा नाम रूप गुन गाथा। सकल अमित अनंत रघुनाथा ॥ निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं। निगम सेष सिव पार न पावहिं ॥


तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता। नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता ॥ तिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा ॥


रामु काम सत कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन ॥ सक्र कोटि सत सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा ॥



Doha / दोहा


दो. मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास । ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास ॥ ९१(क) ॥


काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत । धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत ॥ ९१(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला ॥ तीरथ अमित कोटि सम पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन ॥


हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा। सिंधु कोटि सत सम गंभीरा ॥ कामधेनु सत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना ॥


सारद कोटि अमित चतुराई। बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई ॥ बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता। रुद्र कोटि सत सम संहर्ता ॥


धनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना ॥ भार धरन सत कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा ॥



Chanda / छन्द


छं. निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै । जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै ॥


एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनिस हरिहि बखानहीं । प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं ॥



Doha / दोहा


दो. रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ । संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ ॥ ९२(क) ॥



Sortha / सोरठा


सो. भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन । तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन ॥ ९२(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए। हरषित खगपति पंख फुलाए ॥ नयन नीर मन अति हरषाना। श्रीरघुपति प्रताप उर आना ॥


पाछिल मोह समुझि पछिताना। ब्रह्म अनादि मनुज करि माना ॥ पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा। जानि राम सम प्रेम बढ़ावा ॥


गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई ॥ संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता ॥


तव सरूप गारुड़ि रघुनायक। मोहि जिआयउ जन सुखदायक ॥ तव प्रसाद मम मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना ॥



Doha / दोहा


दो. ताहि प्रसंसि बिबिध बिधि सीस नाइ कर जोरि । बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि ॥ ९३(क) ॥


प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि । कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि ॥ ९३(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


तुम्ह सर्बग्य तन्य तम पारा। सुमति सुसील सरल आचारा ॥ ग्यान बिरति बिग्यान निवासा। रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा ॥


कारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई ॥ राम चरित सर सुंदर स्वामी। पायहु कहाँ कहहु नभगामी ॥


नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं। महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं ॥ मुधा बचन नहिं ईस्वर कहई। सोउ मोरें मन संसय अहई ॥


अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा ॥ अंड कटाह अमित लय कारी। कालु सदा दुरतिक्रम भारी ॥



Sortha / सोरठा


सो. तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन । मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल ॥ ९४(क) ॥



Doha / दोहा


दो. प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग । कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग ॥ ९४(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा। बोलेउ उमा परम अनुरागा ॥ धन्य धन्य तव मति उरगारी। प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी ॥


सुनि तव प्रस्न सप्रेम सुहाई। बहुत जनम कै सुधि मोहि आई ॥ सब निज कथा कहउँ मैं गाई। तात सुनहु सादर मन लाई ॥


जप तप मख सम दम ब्रत दाना। बिरति बिबेक जोग बिग्याना ॥ सब कर फल रघुपति पद प्रेमा। तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा ॥


एहि तन राम भगति मैं पाई। ताते मोहि ममता अधिकाई ॥ जेहि तें कछु निज स्वारथ होई। तेहि पर ममता कर सब कोई ॥



Sortha / सोरठा


सो. पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं । अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित ॥ ९५(क) ॥


पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर । कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम ॥ ९५(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा। मन क्रम बचन राम पद नेहा ॥


सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा। जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा ॥ राम बिमुख लहि बिधि सम देही। कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही ॥


राम भगति एहिं तन उर जामी। ताते मोहि परम प्रिय स्वामी ॥ तजउँ न तन निज इच्छा मरना। तन बिनु बेद भजन नहिं बरना ॥


प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा। राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा ॥ नाना जनम कर्म पुनि नाना। किए जोग जप तप मख दाना ॥


कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीं। मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं ॥ देखेउँ करि सब करम गोसाई। सुखी न भयउँ अबहिं की नाई ॥


सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी। सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी ॥



Doha / दोहा


दो. प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस । सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस ॥ ९६(क) ॥


पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल ॥ नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल ॥ ९६(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


तेहि कलिजुग कोसलपुर जाई। जन्मत भयउँ सूद्र तनु पाई ॥ सिव सेवक मन क्रम अरु बानी। आन देव निंदक अभिमानी ॥


धन मद मत्त परम बाचाला। उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला ॥ जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी। तदपि न कछु महिमा तब जानी ॥


अब जाना मैं अवध प्रभावा। निगमागम पुरान अस गावा ॥ कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई। राम परायन सो परि होई ॥


अवध प्रभाव जान तब प्रानी। जब उर बसहिं रामु धनुपानी ॥ सो कलिकाल कठिन उरगारी। पाप परायन सब नर नारी ॥



Doha / दोहा


दो. कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ । दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ ॥ ९७(क) ॥


भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म । सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म ॥ ९७(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी ॥ द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन ॥


मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा ॥ मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहुँ संत कहइ सब कोई ॥


सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी ॥ जौ कह झूँठ मसखरी जाना। कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना ॥


निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी ॥ जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला ॥



Doha / दोहा


दो. असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं । तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं ॥ ९८(क) ॥



Sortha / सोरठा


सो. जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ । मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ ॥ ९८(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


नारि बिबस नर सकल गोसाई। नाचहिं नट मर्कट की नाई ॥ सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना ॥


सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी ॥ गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी ॥


सौभागिनीं बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिंगार नबीना ॥ गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा ॥


हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई ॥ मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं ॥



Doha / दोहा


दो. ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात । कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात ॥ ९९(क) ॥


बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि । जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि ॥ ९९(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


पर त्रिय लंपट कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने ॥ तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखा में चरित्र कलिजुग कर ॥


आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं ॥ कल्प कल्प भरि एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका ॥


जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा ॥ नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासी ॥


ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं ॥ बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी ॥


सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना ॥ सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा ॥



Doha / दोहा


दो. भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग । करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग ॥ १००(क) ॥


श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक । तेहि न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक ॥ १००(ख) ॥



Chanda / छन्द


छं. बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती ॥ तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही ॥


कुलवंति निकारहिं नारि सती। गृह आनिहिं चेरी निबेरि गती ॥ सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं ॥


ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपरूप कुटुंब भए तब तें ॥ नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं ॥


धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी ॥ नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो।


कबि बृंद उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोऽपि गुनी ॥ कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै ॥



Doha / दोहा


दो. सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड । मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड ॥ १०१(क) ॥


तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत मख दान । देव न बरषहिं धरनीं बए न जामहिं धान ॥ १०१(ख) ॥



Chanda / छन्द


छं. अबला कच भूषन भूरि छुधा। धनहीन दुखी ममता बहुधा ॥ सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता ॥ १ ॥


नर पीड़ित रोग न भोग कहीं। अभिमान बिरोध अकारनहीं ॥ लघु जीवन संबतु पंच दसा। कलपांत न नास गुमानु असा ॥ २ ॥


कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा । नहिं तोष बिचार न सीतलता। सब जाति कुजाति भए मगता ॥ ३ ॥


इरिषा परुषाच्छर लोलुपता। भरि पूरि रही समता बिगता ॥ सब लोग बियोग बिसोक हुए। बरनाश्रम धर्म अचार गए ॥ ४ ॥


दम दान दया नहिं जानपनी। जड़ता परबंचनताति घनी ॥ तनु पोषक नारि नरा सगरे। परनिंदक जे जग मो बगरे ॥ ५ ॥



Doha / दोहा


दो. सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार । गुनउँ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार ॥ १०२(क) ॥


कृतजुग त्रेता द्वापर पूजा मख अरु जोग । जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग ॥ १०२(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी ॥ त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं ॥


द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा ॥ कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा ॥


कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना ॥ सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि ॥


सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं ॥ कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा ॥



Doha / दोहा


दो. कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास । गाइ राम गुन गन बिमलँ भव तर बिनहिं प्रयास ॥ १०३(क) ॥


प्रगट चारि पद धर्म के कलिल महुँ एक प्रधान । जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान ॥ १०३(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


नित जुग धर्म होहिं सब केरे। हृदयँ राम माया के प्रेरे ॥ सुद्ध सत्व समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना ॥


सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा। सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा ॥ बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस ॥


तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा ॥ बुध जुग धर्म जानि मन माहीं। तजि अधर्म रति धर्म कराहीं ॥


काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही ॥ नट कृत बिकट कपट खगराया। नट सेवकहि न ब्यापइ माया ॥



Doha / दोहा


दो. हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं । भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं ॥ १०४(क) ॥


तेहि कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस । परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस ॥ १०४(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


गयउँ उजेनी सुनु उरगारी। दीन मलीन दरिद्र दुखारी ॥ गएँ काल कछु संपति पाई। तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई ॥


बिप्र एक बैदिक सिव पूजा। करइ सदा तेहि काजु न दूजा ॥ परम साधु परमारथ बिंदक। संभु उपासक नहिं हरि निंदक ॥


तेहि सेवउँ मैं कपट समेता। द्विज दयाल अति नीति निकेता ॥ बाहिज नम्र देखि मोहि साईं। बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाईं ॥


संभु मंत्र मोहि द्विजबर दीन्हा। सुभ उपदेस बिबिध बिधि कीन्हा ॥ जपउँ मंत्र सिव मंदिर जाई। हृदयँ दंभ अहमिति अधिकाई ॥



Doha / दोहा


दो. मैं खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह । हरि जन द्विज देखें जरउँ करउँ बिष्नु कर द्रोह ॥ १०५(क) ॥



Sortha / सोरठा


सो. गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम । मोहि उपजइ अति क्रोध दंभिहि नीति कि भावई ॥ १०५(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


एक बार गुर लीन्ह बोलाई। मोहि नीति बहु भाँति सिखाई ॥ सिव सेवा कर फल सुत सोई। अबिरल भगति राम पद होई ॥


रामहि भजहिं तात सिव धाता। नर पावँर कै केतिक बाता ॥ जासु चरन अज सिव अनुरागी। तातु द्रोहँ सुख चहसि अभागी ॥


हर कहुँ हरि सेवक गुर कहेऊ। सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ ॥ अधम जाति मैं बिद्या पाएँ। भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ ॥


मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती। गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती ॥ अति दयाल गुर स्वल्प न क्रोधा। पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा ॥


जेहि ते नीच बड़ाई पावा। सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा ॥ धूम अनल संभव सुनु भाई। तेहि बुझाव घन पदवी पाई ॥


रज मग परी निरादर रहई। सब कर पद प्रहार नित सहई ॥ मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई। पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई ॥


सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा। बुध नहिं करहिं अधम कर संगा ॥ कबि कोबिद गावहिं असि नीती। खल सन कलह न भल नहिं प्रीती ॥


उदासीन नित रहिअ गोसाईं। खल परिहरिअ स्वान की नाईं ॥ मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई। गुर हित कहइ न मोहि सोहाई ॥



Doha / दोहा


दो. एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम । गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम ॥ १०६(क) ॥


सो दयाल नहिं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस । अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस ॥ १०६(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


मंदिर माझ भई नभ बानी। रे हतभाग्य अग्य अभिमानी ॥ जद्यपि तव गुर कें नहिं क्रोधा। अति कृपाल चित सम्यक बोधा ॥


तदपि साप सठ दैहउँ तोही। नीति बिरोध सोहाइ न मोही ॥ जौं नहिं दंड करौं खल तोरा। भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा ॥


जे सठ गुर सन इरिषा करहीं। रौरव नरक कोटि जुग परहीं ॥ त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा। अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा ॥


बैठ रहेसि अजगर इव पापी। सर्प होहि खल मल मति ब्यापी ॥ महा बिटप कोटर महुँ जाई ॥ रहु अधमाधम अधगति पाई ॥



Doha / दोहा


दो. हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप ॥ कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप ॥ १०७(क) ॥


करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि । बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि ॥ १०७(ख) ॥



Chanda / छन्द


नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विंभुं ब्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं।निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरींह। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं ॥


निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं ॥ करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं ॥


तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं ॥ स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा ॥


चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं ॥ मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥


प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं ॥ त्रयःशूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं ॥


कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनान्ददाता पुरारी ॥ चिदानंदसंदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥


न यावद् उमानाथ पादारविन्दं। भजंतीह लोके परे वा नराणां ॥ न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं ॥


न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं ॥ जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ॥



Shloka / श्लोक्


श्लोक-रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये । ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥ ९ ॥



Doha / दोहा


दो. -सुनि बिनती सर्बग्य सिव देखि ब्रिप्र अनुरागु । पुनि मंदिर नभबानी भइ द्विजबर बर मागु ॥ १०८(क) ॥


जौं प्रसन्न प्रभु मो पर नाथ दीन पर नेहु । निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु ॥ १०८(ख) ॥


तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान । तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपा सिंधु भगवान ॥ १०८(ग) ॥


संकर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल । साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल ॥ १०८(घ) ॥



Chaupai / चोपाई


एहि कर होइ परम कल्याना। सोइ करहु अब कृपानिधाना ॥ बिप्रगिरा सुनि परहित सानी। एवमस्तु इति भइ नभबानी ॥


जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा। मैं पुनि दीन्ह कोप करि सापा ॥ तदपि तुम्हार साधुता देखी। करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी ॥


छमासील जे पर उपकारी। ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी ॥ मोर श्राप द्विज ब्यर्थ न जाइहि। जन्म सहस अवस्य यह पाइहि ॥


जनमत मरत दुसह दुख होई। अहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई ॥ कवनेउँ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना। सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना ॥


रघुपति पुरीं जन्म तब भयऊ। पुनि तैं मम सेवाँ मन दयऊ ॥ पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें। राम भगति उपजिहि उर तोरें ॥


सुनु मम बचन सत्य अब भाई। हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई ॥ अब जनि करहि बिप्र अपमाना। जानेहु संत अनंत समाना ॥


इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला। कालदंड हरि चक्र कराला ॥ जो इन्ह कर मारा नहिं मरई। बिप्रद्रोह पावक सो जरई ॥


अस बिबेक राखेहु मन माहीं। तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥ औरउ एक आसिषा मोरी। अप्रतिहत गति होइहि तोरी ॥



Doha / दोहा


दो. सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि । मोहि प्रबोधि गयउ गृह संभु चरन उर राखि ॥ १०९(क) ॥


प्रेरित काल बिधि गिरि जाइ भयउँ मैं ब्याल । पुनि प्रयास बिनु सो तनु जजेउँ गएँ कछु काल ॥ १०९(ख) ॥


जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि अनायास हरिजान । जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ पुरान ॥ १०९(ग) ॥


सिवँ राखी श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस । एहि बिधि धरेउँ बिबिध तनु ग्यान न गयउ खगेस ॥ १०९(घ) ॥



Chaupai / चोपाई


त्रिजग देव नर जोइ तनु धरउँ। तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ ॥ एक सूल मोहि बिसर न काऊ। गुर कर कोमल सील सुभाऊ ॥


चरम देह द्विज कै मैं पाई। सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई ॥ खेलउँ तहूँ बालकन्ह मीला। करउँ सकल रघुनायक लीला ॥


प्रौढ़ भएँ मोहि पिता पढ़ावा। समझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा ॥ मन ते सकल बासना भागी। केवल राम चरन लय लागी ॥


कहु खगेस अस कवन अभागी। खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी ॥ प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई। हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई ॥


भए कालबस जब पितु माता। मैं बन गयउँ भजन जनत्राता ॥ जहँ जहँ बिपिन मुनीस्वर पावउँ। आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ ॥


बूझत तिन्हहि राम गुन गाहा। कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा ॥ सुनत फिरउँ हरि गुन अनुबादा। अब्याहत गति संभु प्रसादा ॥


छूटी त्रिबिध ईषना गाढ़ी। एक लालसा उर अति बाढ़ी ॥ राम चरन बारिज जब देखौं। तब निज जन्म सफल करि लेखौं ॥


जेहि पूँछउँ सोइ मुनि अस कहई। ईस्वर सर्ब भूतमय अहई ॥ निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई। सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई ॥



Doha / दोहा


दो. गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग । रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग ॥ ११०(क) ॥


मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन । देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन ॥ ११०(ख) ॥


सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज । मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज ॥ ११०(ग) ॥


तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान । सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान ॥ ११०(घ) ॥



Chaupai / चोपाई


तब मुनिष रघुपति गुन गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा ॥ ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानि। मोहि परम अधिकारी जानी ॥


लागे करन ब्रह्म उपदेसा। अज अद्वेत अगुन हृदयेसा ॥ अकल अनीह अनाम अरुपा। अनुभव गम्य अखंड अनूपा ॥


मन गोतीत अमल अबिनासी। निर्बिकार निरवधि सुख रासी ॥ सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहि बेदा ॥


बिबिध भाँति मोहि मुनि समुझावा। निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा ॥ पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा ॥


राम भगति जल मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना ॥ सोइ उपदेस कहहु करि दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया ॥


भरि लोचन बिलोकि अवधेसा। तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा ॥ मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा। खंडि सगुन मत अगुन निरूपा ॥


तब मैं निर्गुन मत कर दूरी। सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी ॥ उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा। मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा ॥


सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ। उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ ॥ अति संघरषन जौं कर कोई। अनल प्रगट चंदन ते होई ॥



Doha / दोहा


दो. -बारंबार सकोप मुनि करइ निरुपन ग्यान । मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिध अनुमान ॥ १११(क) ॥


क्रोध कि द्वेतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान । मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान ॥ १११(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


कबहुँ कि दुख सब कर हित ताकें। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें ॥ परद्रोही की होहिं निसंका। कामी पुनि कि रहहिं अकलंका ॥


बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें। कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हें ॥ काहू सुमति कि खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी ॥


भव कि परहिं परमात्मा बिंदक। सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिंदक ॥ राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें ॥


पावन जस कि पुन्य बिनु होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई ॥ लाभु कि किछु हरि भगति समाना। जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना ॥


हानि कि जग एहि सम किछु भाई। भजिअ न रामहि नर तनु पाई ॥ अघ कि पिसुनता सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना ॥


एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ। मुनि उपदेस न सादर सुनऊँ ॥ पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा ॥


मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि। उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि ॥ सत्य बचन बिस्वास न करही। बायस इव सबही ते डरही ॥


सठ स्वपच्छ तब हृदयँ बिसाला। सपदि होहि पच्छी चंडाला ॥ लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई। नहिं कछु भय न दीनता आई ॥



Doha / दोहा


दो. तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ । सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ ॥ ११२(क) ॥


उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध ॥ निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥ ११२(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन। उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन ॥ कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी। लीन्हि प्रेम परिच्छा मोरी ॥


मन बच क्रम मोहि निज जन जाना। मुनि मति पुनि फेरी भगवाना ॥ रिषि मम महत सीलता देखी। राम चरन बिस्वास बिसेषी ॥


अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई। सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई ॥ मम परितोष बिबिध बिधि कीन्हा। हरषित राममंत्र तब दीन्हा ॥


बालकरूप राम कर ध्याना। कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना ॥ सुंदर सुखद मिहि अति भावा। सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा ॥


मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा। रामचरितमानस तब भाषा ॥ सादर मोहि यह कथा सुनाई। पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई ॥


रामचरित सर गुप्त सुहावा। संभु प्रसाद तात मैं पावा ॥ तोहि निज भगत राम कर जानी। ताते मैं सब कहेउँ बखानी ॥


राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं। कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह पाहीं ॥ मुनि मोहि बिबिध भाँति समुझावा। मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा ॥


निज कर कमल परसि मम सीसा। हरषित आसिष दीन्ह मुनीसा ॥ राम भगति अबिरल उर तोरें। बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें ॥



Doha / दोहा


दो. -सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान । कामरूप इच्धामरन ग्यान बिराग निधान ॥ ११३(क) ॥


जेंहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत । ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत ॥ ११३(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


काल कर्म गुन दोष सुभाऊ। कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिहि काऊ ॥ राम रहस्य ललित बिधि नाना। गुप्त प्रगट इतिहास पुराना ॥


बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ। नित नव नेह राम पद होऊ ॥ जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं ॥


सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा। ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा ॥ एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी। यह मम भगत कर्म मन बानी ॥


सुनि नभगिरा हरष मोहि भयऊ। प्रेम मगन सब संसय गयऊ ॥ करि बिनती मुनि आयसु पाई। पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई ॥


हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ। प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ ॥ इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा। बीते कलप सात अरु बीसा ॥


करउँ सदा रघुपति गुन गाना। सादर सुनहिं बिहंग सुजाना ॥ जब जब अवधपुरीं रघुबीरा। धरहिं भगत हित मनुज सरीरा ॥


तब तब जाइ राम पुर रहऊँ। सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ ॥ पुनि उर राखि राम सिसुरूपा। निज आश्रम आवउँ खगभूपा ॥


कथा सकल मैं तुम्हहि सुनाई। काग देह जेहिं कारन पाई ॥ कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी। राम भगति महिमा अति भारी ॥



Doha / दोहा


दो. ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह । निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह ॥ ११४(क) ॥


भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप । मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप ॥ ११४(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं ॥ ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी ॥


सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई ॥ ते सठ महासिंधु बिनु तरनी। पैरि पार चाहहिं जड़ करनी ॥


सुनि भसुंडि के बचन भवानी। बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी ॥ तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीं ॥


सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा। तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा ॥ एक बात प्रभु पूँछउँ तोही। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही ॥


कहहिं संत मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना ॥ सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं। नहिं आदरेहु भगति की नाईं ॥


ग्यानहि भगतिहि अंतर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता ॥ सुनि उरगारि बचन सुख माना। सादर बोलेउ काग सुजाना ॥


भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा ॥ नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर। सावधान सोउ सुनु बिहंगबर ॥


ग्यान बिराग जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना ॥ पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती ॥



Doha / दोहा


दो. -पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर ॥ न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर ॥ ११५(क) ॥



Sortha / सोरठा


सो. सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि । बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट ॥ ११५(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ। बेद पुरान संत मत भाषउँ ॥ मोह न नारि नारि कें रूपा। पन्नगारि यह रीति अनूपा ॥


माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ। नारि बर्ग जानइ सब कोऊ ॥ पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी ॥


भगतिहि सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया ॥ राम भगति निरुपम निरुपाधी। बसइ जासु उर सदा अबाधी ॥


तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई ॥ अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी। जाचहीं भगति सकल सुख खानी ॥



Doha / दोहा


दो. यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ । जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ ॥ ११६(क) ॥


औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन । जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन ॥ ११६(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी ॥ ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी ॥


सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाई ॥ जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥


तब ते जीव भयउ संसारी। छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी ॥ श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई ॥


जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी ॥ अस संजोग ईस जब करई। तबहुँ कदाचित सो निरुअरई ॥


सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई ॥ जप तप ब्रत जम नियम अपारा। जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा ॥


तेइ तृन हरित चरै जब गाई। भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई ॥ नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा ॥


परम धर्ममय पय दुहि भाई। अवटै अनल अकाम बिहाई ॥ तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै। धृति सम जावनु देइ जमावै ॥


मुदिताँ मथैं बिचार मथानी। दम अधार रजु सत्य सुबानी ॥ तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता ॥



Doha / दोहा


दो. जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ । बुद्धि सिरावैं ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ ॥ ११७(क) ॥


तब बिग्यानरूपिनि बुद्धि बिसद घृत पाइ । चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ ॥ ११७(ख) ॥


तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि । तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि ॥ ११७(ग) ॥



Sortha / सोरठा


सो. एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय ॥ जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब ॥ ११७(घ) ॥



Chaupai / चोपाई


सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा ॥ आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा ॥


प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तम मिटइ अपारा ॥ तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा। उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा ॥


छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई ॥ छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्न अनेक करइ तब माया ॥


रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई ॥ कल बल छल करि जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा ॥


होइ बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी ॥ जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी ॥


इंद्रीं द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना ॥ आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देही कपाट उघारी ॥


जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई ॥ ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा ॥


इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई ॥ बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी ॥



Doha / दोहा


दो. तब फिरि जीव बिबिध बिधि पावइ संसृति क्लेस । हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस ॥ ११८(क) ॥


कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन बिबेक । होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक ॥ ११८(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा ॥ जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई ॥


अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद ॥ राम भजत सोइ मुकुति गोसाई। अनइच्छित आवइ बरिआई ॥


जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई ॥ तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ॥


अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने ॥ भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा ॥


भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी ॥ असि हरिभगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई ॥



Doha / दोहा


दो. सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि ॥ भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि ॥ ११९(क) ॥


जो चेतन कहँ ज़ड़ करइ ज़ड़हि करइ चैतन्य । अस समर्थ रघुनायकहिं भजहिं जीव ते धन्य ॥ ११९(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई। सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई ॥ राम भगति चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर ॥


परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती ॥ मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा ॥


प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई ॥ खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं ॥


गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई ॥ ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस सब जीव दुखारी ॥


राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें ॥ चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं ॥


सो मनि जदपि प्रगट जग अहई। राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई ॥ सुगम उपाय पाइबे केरे। नर हतभाग्य देहिं भटमेरे ॥


पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना ॥ मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी ॥


भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी ॥ मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा ॥


राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा ॥ सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई ॥


अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा ॥



Doha / दोहा


दो. ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं । कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं ॥ १२०(क) ॥


बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि । जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि ॥ १२०(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ ॥ नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न कहहु बखानी ॥


प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा ॥ बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी ॥


संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु ॥ कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला ॥


मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई ॥ तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती ॥


नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही ॥ नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी ॥


सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर ॥ काँच किरिच बदलें ते लेही। कर ते डारि परस मनि देहीं ॥


नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं ॥ पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया ॥


संत सहहिं दुख परहित लागी। परदुख हेतु असंत अभागी ॥ भूर्ज तरू सम संत कृपाला। परहित निति सह बिपति बिसाला ॥


सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई ॥ खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी ॥


पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं ॥ दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू ॥


संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी ॥ परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा ॥


हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्र पाव तन सोई ॥ द्विज निंदक बहु नरक भोगकरि। जग जनमइ बायस सरीर धरि ॥


सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी ॥ होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत ॥


सब के निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं ॥ सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा ॥


मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला ॥ काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा ॥


प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई ॥ बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना ॥


ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई ॥ पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई ॥


अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ ॥ तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी ॥


जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका ॥



Doha / दोहा


दो. एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि । पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि ॥ १२१(क) ॥


नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान । भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान ॥ १२१(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी ॥ मानक रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए ॥


जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी ॥ बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे ॥


राम कृपाँ नासहि सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संयोगा ॥ सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा ॥


रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी ॥ एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं ॥


जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई। जब उर बल बिराग अधिकाई ॥ सुमति छुधा बाढ़इ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई ॥


बिमल ग्यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई ॥ सिव अज सुक सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद ॥


सब कर मत खगनायक एहा। करिअ राम पद पंकज नेहा ॥ श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं। रघुपति भगति बिना सुख नाहीं ॥


कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बंध्या सुत बरु काहुहि मारा ॥ फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला ॥


तृषा जाइ बरु मृगजल पाना। बरु जामहिं सस सीस बिषाना ॥ अंधकारु बरु रबिहि नसावै। राम बिमुख न जीव सुख पावै ॥


हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई ॥ दो०=बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।



Doha / दोहा


दो. बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल । बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल ॥ १२२(क) ॥


मसकहि करइ बिंरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन । अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन ॥ १२२(ख) ॥



Shloka / श्लोक्


श्लोक- विनिच्श्रितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे । हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते ॥ १२२(ग) ॥



Chaupai / चोपाई


कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा। ब्यास समास स्वमति अनुरुपा ॥ श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी ॥


प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही। मोहि से सठ पर ममता जाही ॥ तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा। नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा ॥


पूछिहुँ राम कथा अति पावनि। सुक सनकादि संभु मन भावनि ॥ सत संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा ॥


देखु गरुड़ निज हृदयँ बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी ॥ सकुनाधम सब भाँति अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन ॥



Doha / दोहा


दो. आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन । निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन ॥ १२३(क) ॥


नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ । चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ ॥ १२३ ॥



Chaupai / चोपाई


सुमिरि राम के गुन गन नाना। पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना ॥ महिमा निगम नेति करि गाई। अतुलित बल प्रताप प्रभुताई ॥


सिव अज पूज्य चरन रघुराई। मो पर कृपा परम मृदुलाई ॥ अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ। केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ ॥


साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी ॥ जोगी सूर सुतापस ग्यानी। धर्म निरत पंडित बिग्यानी ॥


तरहिं न बिनु सीँ मम स्वामी। राम नमामि नमामि नमामी ॥ सरन गएँ मो से अघ रासी। होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी ॥



Doha / दोहा


दो. जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल । सो कृपालु मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल ॥ १२४(क) ॥


सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह । बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत संदेह ॥ १२४(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


मै कृत्कृत्य भयउँ तव बानी। सुनि रघुबीर भगति रस सानी ॥ राम चरन नूतन रति भई। माया जनित बिपति सब गई ॥


मोह जलधि बोहित तुम्ह भए। मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए ॥ मो पहिं होइ न प्रति उपकारा। बंदउँ तव पद बारहिं बारा ॥


पूरन काम राम अनुरागी। तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी ॥ संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी ॥


संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना ॥ निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता ॥


जीवन जन्म सुफल मम भयऊ। तव प्रसाद संसय सब गयऊ ॥ जानेहु सदा मोहि निज किंकर। पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर ॥



Doha / दोहा


दो. तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर । गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर ॥ १२५(क) ॥


गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन । बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान ॥ १२५(ख) ॥



Chaupai / चोपाई


कहेउँ परम पुनीत इतिहासा। सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा ॥ प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा। उपजइ प्रीति राम पद कंजा ॥


मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई ॥ तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई ॥


नाना कर्म धर्म ब्रत दाना। संजम दम जप तप मख नाना ॥ भूत दया द्विज गुर सेवकाई। बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई ॥


जहँ लगि साधन बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी ॥ सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई। राम कृपाँ काहूँ एक पाई ॥



Doha / दोहा


दो. मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास । जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास ॥ १२६ ॥



Chaupai / चोपाई


सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता। सोइ महि मंडित पंडित दाता ॥ धर्म परायन सोइ कुल त्राता। राम चरन जा कर मन राता ॥


नीति निपुन सोइ परम सयाना। श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना ॥ सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा ॥


धन्य देस सो जहँ सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी ॥ धन्य सो भूपु नीति जो करई। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई ॥


सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी ॥ धन्य घरी सोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा ॥


दो. सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत । श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत ॥ १२७ ॥


मति अनुरूप कथा मैं भाषी। जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी ॥ तव मन प्रीति देखि अधिकाई। तब मैं रघुपति कथा सुनाई ॥


यह न कहिअ सठही हठसीलहि। जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि ॥ कहिअ न लोभिहि क्रोधहि कामिहि। जो न भजइ सचराचर स्वामिहि ॥


द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ। सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ ॥ राम कथा के तेइ अधिकारी। जिन्ह कें सतसंगति अति प्यारी ॥


गुर पद प्रीति नीति रत जेई। द्विज सेवक अधिकारी तेई ॥ ता कहँ यह बिसेष सुखदाई। जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई ॥



Doha / दोहा


दो. राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान । भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान ॥ १२८ ॥



Chaupai / चोपाई


राम कथा गिरिजा मैं बरनी। कलि मल समनि मनोमल हरनी ॥ संसृति रोग सजीवन मूरी। राम कथा गावहिं श्रुति सूरी ॥


एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना। रघुपति भगति केर पंथाना ॥ अति हरि कृपा जाहि पर होई। पाउँ देइ एहिं मारग सोई ॥


मन कामना सिद्धि नर पावा। जे यह कथा कपट तजि गावा ॥ कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं ॥


सुनि सब कथा हृदयँ अति भाई। गिरिजा बोली गिरा सुहाई ॥ नाथ कृपाँ मम गत संदेहा। राम चरन उपजेउ नव नेहा ॥



Doha / दोहा


दो. मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस । उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस ॥ १२९ ॥



Chaupai / चोपाई


यह सुभ संभु उमा संबादा। सुख संपादन समन बिषादा ॥ भव भंजन गंजन संदेहा। जन रंजन सज्जन प्रिय एहा ॥


राम उपासक जे जग माहीं। एहि सम प्रिय तिन्ह के कछु नाहीं ॥ रघुपति कृपाँ जथामति गावा। मैं यह पावन चरित सुहावा ॥


एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा ॥ रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि ॥


जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना ॥ ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई ॥



Chanda / छन्द


छं. पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना । गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना ॥


आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे । कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥ १ ॥


रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं । कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं ॥


सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै । दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्रीरघुबर हरै ॥ २ ॥


सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो । सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को ॥


जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ । पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ ॥ ३ ॥



Doha / दोहा


दो. मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर । अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ॥ १३०(क) ॥


कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम । तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ॥ १३०(ख) ॥



Shloka / श्लोक्


श्लोक-यत्पूर्व प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्।


मत्वा तद्रघुनाथमनिरतं स्वान्तस्तमःशान्तये भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम् ॥ १ ॥


पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।


श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ॥ २ ॥



Uttara Kanda Ends / उत्तर काण्ड समपूर्णम्


इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने सप्तमः सोपानः समाप्तः।



Aarti आरति


आरति श्रीरामायनजी की। कीरति कलित ललित सिय पी की ॥


गावत ब्रह्मादिक मुनि नारद। बालमीक बिग्यान बिसारद।सुक सनकादि सेष अरु सारद। बरनि पवनसुत कीरति नीकी ॥ १ ॥


गावत बेद पुरान अष्टदस। छओ सास्त्र सब ग्रंथन को रस।मुनि जन धन संतन को सरबस। सार अंस संमत सबही की ॥ २ ॥


गावत संतत संभु भवानी। अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी।ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी। कागभुसुंडि गरुड के ही की ॥ ३ ॥


कलिमल हरनि बिषय रस फीकी। सुभग सिंगार मुक्ति जुबती की।दलन रोग भव मूरि अमी की। तात मात सब बिधि तुलसी की ॥ ४ ॥



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