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Argala Strotam

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॥ देवी माहात्म्यम् ॥
देवी माहात्म्यम्
devī māhātmyam
॥ श्री ॥
श्री
śrī
॥ श्रीचण्डिकाध्यानम् ॥
श्री-चण्डिका ध्यानम्
śrī-caṇḍikā dhyānam
ॐ बन्धूककुसुमाभासां पञ्चमुण्डाधिवासिनीम् । स्फुरच्चन्द्रकलारत्नमुकुटां मुण्डमालिनीम् ॥
ॐबन्धूक-कुसुम-आभासाम् पञ्च-मुण्ड-अधिवासिनीम् स्फुरत्-चन्द्र-कला-रत्न-मुकुटाम् मुण्ड-मालिनीम्
oṃbandhūka-kusuma-ābhāsām pañca-muṇḍa-adhivāsinīm sphurat-candra-kalā-ratna-mukuṭām muṇḍa-mālinīm
त्रिनेत्रां रक्तवसनां पीनोन्नतघटस्तनीम् । पुस्तकं चाक्षमालां च वरं चाभयकं क्रमात् ॥
त्रिनेत्राम् रक्त-वसनाम् पीनोन्नतघटस्तनीम् पुस्तकम् च अक्ष-मालाम् च वरम् चाभयकम् क्रमात्
trinetrām rakta-vasanām pīnonnataghaṭastanīm pustakam ca akṣa-mālām ca varam cābhayakam kramāt
दधतीं संस्मरेन्नित्यमुत्तराम्नायमानिताम् ।
दधतीम् संस्मरेत् नित्यम् उत्तर-आम्नाय-मानिताम्
dadhatīm saṃsmaret nityam uttara-āmnāya-mānitām
अथवा
अथ वा
atha vā
या चण्डी मधुकैटभादिदैत्यदलनी या माहिषोन्मूलिनी या धूम्रेक्षणचण्डमुण्डमथनी या रक्तबीजाशनी । शक्तिः शुम्भनिशुम्भदैत्यदलनी या सिद्धिदात्री परा सा देवी नवकोटिमूर्तिसहिता मां पातु विश्वेश्वरी ॥
या चण्डी मधुकैटभादिदैत्यदलनी या माहिषोन्मूलिनी या धूम्र-ईक्षण-चण्ड-मुण्ड-मथनी या रक्त-बीज-अशनी शक्तिः शुम्भनिशुम्भदैत्यदलनी या सिद्धि-दात्री परा सा देवी नव-कोटि-मूर्ति-सहिताः माम् पातु विश्व-ईश्वरी
yā caṇḍī madhukaiṭabhādidaityadalanī yā māhiṣonmūlinī yā dhūmra-īkṣaṇa-caṇḍa-muṇḍa-mathanī yā rakta-bīja-aśanī śaktiḥ śumbhaniśumbhadaityadalanī yā siddhi-dātrī parā sā devī nava-koṭi-mūrti-sahitāḥ mām pātu viśva-īśvarī
॥ अथ अर्गलास्तोत्रम् ॥
अथ अर्गलास्तोत्रम्
atha argalāstotram
ॐ अस्य श्रीअर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुरृषिः
श्रीमहालक्ष्मीर्देवता
śrīmahālakṣmīrdevatā
अनुष्टुप् छन्दः
अनुष्टुप् छन्दः
anuṣṭup chandaḥ
श्रीजगदम्बाप्रीतये सप्तशतिपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ।
श्री-जगत् अम्बा प्रीतये सप्तशतिपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः
śrī-jagat ambā prītaye saptaśatipāṭhāṅgatvena jape viniyogaḥ
ॐ नमश्चण्डिकायै ।
ॐनमः चण्डिकायै
oṃnamaḥ caṇḍikāyai
मार्कण्डेय उवाच ।
ॐ जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतापहारिणि । जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते ॥ १॥
ॐजय त्वम् देवि चामुण्डे जय भूत-अपहारिणि जय सर्व-गते देवि काल-रात्रि नमः अस्तु ते
oṃjaya tvam devi cāmuṇḍe jaya bhūta-apahāriṇi jaya sarva-gate devi kāla-rātri namaḥ astu te
जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी । दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ॥ २॥
जयन्ती मङ्गला काली भद्र-काली कपालिनी दुर्गा शिवा क्षमा-धात्री स्वाहा स्वधा नमः अस्तु ते
jayantī maṅgalā kālī bhadra-kālī kapālinī durgā śivā kṣamā-dhātrī svāhā svadhā namaḥ astu te
मधुकैटभविद्राविविधातृवरदे नमः । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ३॥
मधु कैटभ विद्रावि विधातृ वरदे नमः रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
madhu kaiṭabha vidrāvi vidhātṛ varade namaḥ rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे नमः । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ४॥
महिषासुरनिर्णाशि भक्तानाम् सुखदे नमः रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
mahiṣāsuranirṇāśi bhaktānām sukhade namaḥ rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
धूम्रनेत्रवधे देवि धर्मकामार्थदायिनि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ५॥
धूम्र-नेत्र-वधे देवि धर्म-काम-अर्थ-दायिनि रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
dhūmra-netra-vadhe devi dharma-kāma-artha-dāyini rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ६॥
रक्त-बीज-वधे देवि चण्ड-मुण्ड-विनाशिनि रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
rakta-bīja-vadhe devi caṇḍa-muṇḍa-vināśini rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ७॥
निशुम्भ शुम्भ निः-नाशि त्रैलोक्य-शुभ-दे नमः रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
niśumbha śumbha niḥ-nāśi trailokya-śubha-de namaḥ rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ८॥
वन्दित-अङ्घ्रि युगे देवि सर्व-सौभाग्य-दायिनि रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
vandita-aṅghri yuge devi sarva-saubhāgya-dāyini rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ९॥
अचिन्त्य-रूप-चरिते सर्व-शत्रु-विनाशिनि रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
acintya-rūpa-carite sarva-śatru-vināśini rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चापर्णे दुरितापहे । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १०॥
न तेभ्यः सर्वदा भक्त्या च अपर्णे दुरित-अपहे रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
na tebhyaḥ sarvadā bhaktyā ca aparṇe durita-apahe rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ११॥
स्तुवद्भ्यः भक्ति-पूर्वम् त्वाम् चण्डिके व्याधि-नाशिनि रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
stuvadbhyaḥ bhakti-pūrvam tvām caṇḍike vyādhi-nāśini rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
चण्डिके सततं युद्धे जयन्ति पापनाशिनि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १२॥
चण्डिके सततम् युद्धे जयन्ति पाप-नाशिनि रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
caṇḍike satatam yuddhe jayanti pāpa-nāśini rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि देवि परं सुखम् । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १३॥
देहि सौभाग्यम् आरोग्यम् देहि देवि परम् सुखम् रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
dehi saubhāgyam ārogyam dehi devi param sukham rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि विपुलां श्रियम् । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १४॥
विधेहि देवि कल्याणम् विधेहि विपुलाम् श्रियम् रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
vidhehi devi kalyāṇam vidhehi vipulām śriyam rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १५॥
विधेहि द्विषताम् नाशम् विधेहि बलम् उच्चकैः रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
vidhehi dviṣatām nāśam vidhehi balam uccakaiḥ rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १६॥
सुर-असुर-शिरः-रत्न-निघृष्ट-चरणे अम्बिके रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
sura-asura-śiraḥ-ratna-nighṛṣṭa-caraṇe ambike rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तञ्च मां कुरु । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १७॥
विद्यावन्तम् यशस्वन्तम् लक्ष्मीवन्तम् च माम् कुरु रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
vidyāvantam yaśasvantam lakṣmīvantam ca mām kuru rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पनिषूदिनि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १८॥
देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पनिषूदिनि रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
devi pracaṇḍadordaṇḍadaityadarpaniṣūdini rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १९॥
प्रचण्ड-दैत्य-दर्प-घ्ने चण्डिके प्रणताय मे रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
pracaṇḍa-daitya-darpa-ghne caṇḍike praṇatāya me rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २०॥
चतुः-भुजे चतुः-वक्त्र-संस्तुते परमेश्वरि रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
catuḥ-bhuje catuḥ-vaktra-saṃstute parameśvari rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २१॥
कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वत् भक्त्या सदा अम्बिके रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
kṛṣṇena saṃstute devi śaśvat bhaktyā sadā ambike rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २२॥
हि मा चल-सुता नाथ-संस्तुते परमेश्वरि रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
hi mā cala-sutā nātha-saṃstute parameśvari rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २३॥
इन्द्राणी पति-सत् भाव-पूजिते परमेश्वरि रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
indrāṇī pati-sat bhāva-pūjite parameśvari rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २४॥
देवि भक्त-जन-उद्दाम-दत्त-आनन्द-उदये अम्बिके रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
devi bhakta-jana-uddāma-datta-ānanda-udaye ambike rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
भार्यां मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २५॥
भार्याम् मनः-रमाम् देहि मनः वृत्त-अनुसारिणीम् रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
bhāryām manaḥ-ramām dehi manaḥ vṛtta-anusāriṇīm rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
तारिणि दुर्गसंसारसागरस्याचलोद्भवे । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २६॥
तारिणि दुर्ग-संसार-सागरस्य अचल-उद्भवे रूपम् देहि जयम् देहि यशः देहि द्विषः जहि
tāriṇi durga-saṃsāra-sāgarasya acala-udbhave rūpam dehi jayam dehi yaśaḥ dehi dviṣaḥ jahi
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः । सप्तशतीं समाराध्य वरमाप्नोति दुर्लभम् ॥ २७॥
इदम् स्तोत्रम् पठित्वा तु महा-स्तोत्रम् पठेत् नरः सप्त-शतीम् समाराध्य वरम् आप्नोति दुर्लभम्
idam stotram paṭhitvā tu mahā-stotram paṭhet naraḥ sapta-śatīm samārādhya varam āpnoti durlabham
॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे अर्गलास्तोत्रं समाप्तम् ॥
इति श्री-मार्कण्डेय-पुराणे अर्गलास्तोत्रम् समाप्तम्
iti śrī-mārkaṇḍeya-purāṇe argalāstotram samāptam

Kelaka Strotam

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॥ अथ कीलकस्तोत्रम् ॥
अथ कीलक-स्तोत्रम्
atha kīlaka-stotram
ॐ अस्य श्रीकीलकमन्त्रस्य शिवऋषिः
श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थं
śrījagadambāprītyarthaṃ
श्रीमहासरस्वती देवता
श्री-महा-सरस्वती देवता
śrī-mahā-sarasvatī devatā
सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ।
सप्त-शती पाठाम् गत्वा इन जपे विनियोगः
sapta-śatī pāṭhām gatvā ina jape viniyogaḥ
ॐ नमश्चण्डिकायै ।
ॐनमः चण्डिकायै
oṃnamaḥ caṇḍikāyai
मार्कण्डेय उवाच ।
ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे । श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे ॥ १॥
ॐविशुद्ध-ज्ञान-देहाय त्रिवेदी दिव्य-चक्षुषे श्रेयः प्राप्ति-निमित्ताय नमः सोम-अर्ध-धारिणे
oṃviśuddha-jñāna-dehāya trivedī divya-cakṣuṣe śreyaḥ prāpti-nimittāya namaḥ soma-ardha-dhāriṇe
सर्वमेतद्विजानीयान्मन्त्राणामपि कीलकम् । सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जप्यतत्परः ॥ २॥
सर्वम् एतत् विजानीयात् मन्त्राणाम् अपि कीलकम् सः अपि क्षेमम् अवाप्नोति सततम् जप्य-तत्-परः
sarvam etat vijānīyāt mantrāṇām api kīlakam saḥ api kṣemam avāpnoti satatam japya-tat-paraḥ
सिद्ध्यन्त्युच्चाटनादीनि वस्तूनि सकलान्यपि । एतेन स्तुवतां देवीं स्तोत्रमात्रेण सिद्ध्यति ॥ ३॥
सिद्धी अन्ति उच्चाटन-आदीनि वस्तूनि सकलानि अपि एतेन स्तुवताम् देवीम् स्तोत्र मात्रेण सिद्ध्यति
siddhī anti uccāṭana-ādīni vastūni sakalāni api etena stuvatām devīm stotra mātreṇa siddhyati
न मन्त्रो नौषधं तत्र न किञ्चिदपि विद्यते । विना जाप्येन सिद्ध्येत सर्वमुच्चाटनादिकम् ॥ ४॥
न मन्त्रः न औषधम् तस्य न किञ्चित् अपि विद्यते विना जप्येन सिद्ध्येत सर्वम् उच्चाटन-आदिकम्
na mantraḥ na auṣadham tasya na kiñcit api vidyate vinā japyena siddhyeta sarvam uccāṭana-ādikam
समग्राण्यपि सिद्ध्यन्ति लोकशङ्कामिमां हरः । कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं शुभम् ॥ ५॥
समग्राणि अपि सिद्ध्यन्ति लोक-शङ्काम् इमाम् हरः कृत्वा निमन्त्रयाम् आस सर्वम् एवम् इदम् शुभम्
samagrāṇi api siddhyanti loka-śaṅkām imām haraḥ kṛtvā nimantrayām āsa sarvam evam idam śubham
स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च गुप्तं चकार सः । समाप्तिर्न च पुण्यस्य तां यथावन्निमन्त्रणाम् ॥ ६॥
स्तोत्रम् वै चण्डिकायाः तु तत् च गुप्तं चकार सः समाप्तिर्न च पुण्यस्य ताम् यथा अवत्-निमन्त्रणाम्
stotram vai caṇḍikāyāḥ tu tat ca guptaṃ cakāra saḥ samāptirna ca puṇyasya tām yathā avat-nimantraṇām
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेव न संशयः । कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः ॥ ७॥
सः अपि क्षेमम् अवाप्नोति सर्वम् एव न संशयः कृष्णायाम् वा चतुर्दश्याम् अष्टम्याम् वा समाहितः
saḥ api kṣemam avāpnoti sarvam eva na saṃśayaḥ kṛṣṇāyām vā caturdaśyām aṣṭamyām vā samāhitaḥ
ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति । इत्थं रूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम् ॥ ८॥
ददाति प्रतिगृह्णाति न अन्यथा एषा प्रसीदति इत्थम् रूपेण कीलेन महा-देवेन कीलितम्
dadāti pratigṛhṇāti na anyathā eṣā prasīdati ittham rūpeṇa kīlena mahā-devena kīlitam
यो निष्कीलां विधायैनां चण्डीं जपति संस्फुटम् । स सिद्धः स गणः सोऽथ गन्धर्वो जायते ध्रुवम् ॥ ९॥
यः निष्कीलाम् विधाय एनाम् चण्डीम् जपति संस्फुटम् स सिद्धः स गणः सः अथ गन्धर्वः जायते ध्रुवम्
yaḥ niṣkīlām vidhāya enām caṇḍīm japati saṃsphuṭam sa siddhaḥ sa gaṇaḥ saḥ atha gandharvaḥ jāyate dhruvam
न चैवाप्यटतस्तस्य भयं क्वापीह जायते । नापमृत्युवशं याति मृते च मोक्षमाप्नुयात् ॥ १०॥
न चैवाप्यटतस् तस्य भयम् क्वापि ह जायते न अपमृत्यु-वशम् याति मृते च मोक्षम् आप्नुयात्
na caivāpyaṭatas tasya bhayam kvāpi ha jāyate na apamṛtyu-vaśam yāti mṛte ca mokṣam āpnuyāt
ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत ह्यकुर्वाणो विनश्यति । ततो ज्ञात्वैव सम्पूर्णमिदं प्रारभ्यते बुधैः ॥ ११॥
ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत ह्यकुर्वाणः विनश्यति ततः ज्ञात्वा एव सम्पूर्णम् इदम् प्रारभ्यते बुधैः
jñātvā prārabhya kurvīta hyakurvāṇaḥ vinaśyati tataḥ jñātvā eva sampūrṇam idam prārabhyate budhaiḥ
सौभाग्यादि च यत्किञ्चिद् दृश्यते ललनाजने । तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जप्यमिदं शुभम् ॥ १२॥
सौभाग्य-आदि च यत् किञ्चित् दृश्यते ललना जने तत् सर्वम् तत्-प्रसादेन तेन जप्यम् इदम् शुभम्
saubhāgya-ādi ca yat kiñcit dṛśyate lalanā jane tat sarvam tat-prasādena tena japyam idam śubham
शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे सम्पत्तिरुच्चकैः । भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव तत् ॥ १३॥
शनैः तु जप्यमाने अस्मिन् स्तोत्रे सम्पत्तिः उच्चकैः भवति एव समग्रा अपि ततः प्रारभ्यम् एव तत्
śanaiḥ tu japyamāne asmin stotre sampattiḥ uccakaiḥ bhavati eva samagrā api tataḥ prārabhyam eva tat
ऐश्वर्यं तत्प्रसादेन सौभाग्यारोग्यसम्पदः। शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैः ॥ १४॥
ऐश्वर्यम् तत्-प्रसादेन सौभाग्य-आरोग्यम् सम्पदः शत्रु-हानिः परः मोक्षः स्तूयते सा न किम् जनैः
aiśvaryam tat-prasādena saubhāgya-ārogyam sampadaḥ śatru-hāniḥ paraḥ mokṣaḥ stūyate sā na kim janaiḥ
चण्डिकां हृदयेनापि यः स्मरेत् सततं नरः । हृद्यं काममवाप्नोति हृदि देवी सदा वसेत् ॥ १५॥
चण्डिकाम् हृदयेन अपि यः स्मरेत् सततम् नरः हृद्यम् कामम् अवाप्नोति हृदि देवी सदा वसेत्
caṇḍikām hṛdayena api yaḥ smaret satatam naraḥ hṛdyam kāmam avāpnoti hṛdi devī sadā vaset
अग्रतोऽमुं महादेवकृतं कीलकवारणम् । निष्कीलञ्च तथा कृत्वा पठितव्यं समाहितैः ॥ १६॥
अग्रतः अमुम् महा-देव-कृतम् कीलक-वारणम् निः-कीलम् च तथा कृत्वा पठितव्यम् समाहितैः
agrataḥ amum mahā-deva-kṛtam kīlaka-vāraṇam niḥ-kīlam ca tathā kṛtvā paṭhitavyam samāhitaiḥ
॥ इति श्रीभगवत्याः कीलकस्तोत्रं समाप्तम् ॥
इति श्री-भगवत्याः कीलक-स्तोत्रम् समाप्तम्
iti śrī-bhagavatyāḥ kīlaka-stotram samāptam

Devi Kavacham

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॥ अथ देवी कवचम् ॥
अथ देवी कवचम्
atha devī kavacam
अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः
अनुष्टुप् छन्दः
anuṣṭup chandaḥ
चामुण्डा देवता
अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम्
aṅganyāsoktamātaro bījam
दिग्बन्धदेवतास्तत्वम्
श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ।
śrījagadambāprītyarthe jape viniyogaḥ .
ॐ नमश्चण्डिकायै ।
ॐनमः चण्डिकायै
oṃnamaḥ caṇḍikāyai
मार्कण्डेय उवाच ।
ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् । यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १॥
ॐयत् गुह्यम् परमम् लोके सर्व-रक्षा-करम् नृणाम् यत् न कस्यचित् आख्यातम् तत् मे ब्रूहि पितामह
oṃyat guhyam paramam loke sarva-rakṣā-karam nṛṇām yat na kasyacit ākhyātam tat me brūhi pitāmaha
ब्रह्मोवाच ।
अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम् । देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने ॥ २॥
अस्ति गुह्यतमम् विप्र सर्व-भूत-उपकारकम् देव्याः तु कवचम् पुण्यम् तत् शृणुष्व महा-मुने
asti guhyatamam vipra sarva-bhūta-upakārakam devyāḥ tu kavacam puṇyam tat śṛṇuṣva mahā-mune
प्रथमं शैलपुत्रीति द्वितीयं ब्रह्मचारिणी । तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥ ३॥
प्रथमम् शैल-पुत्री इति द्वितीयम् ब्रह्म-चारिणी तृतीयम् चन्द्र-घण्टा इति कूष्माण्ड-ईति चतुर्थकम्
prathamam śaila-putrī iti dvitīyam brahma-cāriṇī tṛtīyam candra-ghaṇṭā iti kūṣmāṇḍa-īti caturthakam
पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनी तथा । सप्तमं कालरात्रिश्च महागौरीति चाष्टमम् ॥ ४॥
पञ्चमम् स्कन्द-माता इति षष्ठम् कात्यायनी तथा सप्तमम् काल-रात्रिः च महा-गौरी इति च अष्टमम्
pañcamam skanda-mātā iti ṣaṣṭham kātyāyanī tathā saptamam kāla-rātriḥ ca mahā-gaurī iti ca aṣṭamam
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः । उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ॥ ५॥
नवमम् सिद्धि-दात्री च नव-दुर्गाः प्रकीर्तिताः उक्तानि एतानि नामानि ब्रह्मणा एव महा-आत्मना
navamam siddhi-dātrī ca nava-durgāḥ prakīrtitāḥ uktāni etāni nāmāni brahmaṇā eva mahā-ātmanā
अग्निना दह्यमानास्तु शत्रुमध्यगता रणे । विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः ॥ ६।
अग्निना दह्यमानाः तु शत्रु-मध्य-गताः रणे विषमे दुर्गमे च एव भय-आर्ताः शरणम् गताः
agninā dahyamānāḥ tu śatru-madhya-gatāḥ raṇe viṣame durgame ca eva bhaya-ārtāḥ śaraṇam gatāḥ
न तेषां जायते किञ्चिदशुभं रणसङ्कटे । आपदं न च पश्यन्ति शोकदुःखभयङ्करीम् ॥ ७॥
न तेषाम् जायते किञ्चिद्-अशुभम् रण-सङ्कटे आपदम् न च पश्यन्ति शोक-दुःख-भयम् करीम्
na teṣām jāyate kiñcid-aśubham raṇa-saṅkaṭe āpadam na ca paśyanti śoka-duḥkha-bhayam karīm
यैस्तु भक्त्या स्मृता नित्यं तेषां वृद्धिः प्रजायते । ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसि तान्न संशयः ॥ ८॥
यैः तु भक्त्या स्मृताः नित्यम् तेषाम् वृद्धिः प्रजायते ये त्वाम् स्मरन्ति देव-ईशि रक्षसि ताम् न संशयः
yaiḥ tu bhaktyā smṛtāḥ nityam teṣām vṛddhiḥ prajāyate ye tvām smaranti deva-īśi rakṣasi tām na saṃśayaḥ
प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना । ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना ॥ ९॥
प्रेत-संस्था तु चामुण्डा-वाराही महिष-आसना ऐन्द्री गज-समारूढाः वैष्णवी गरुड-आसना
preta-saṃsthā tu cāmuṇḍā-vārāhī mahiṣa-āsanā aindrī gaja-samārūḍhāḥ vaiṣṇavī garuḍa-āsanā
नारसिंही महावीर्या शिवदूती महाबला । माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना ॥ १०॥
नार-सिंही महा-वीर्या शिव-दूती महा-बला माहेश्वरी वृष-आरूढा कौमारी शिखि-वाह-ना
nāra-siṃhī mahā-vīryā śiva-dūtī mahā-balā māheśvarī vṛṣa-ārūḍhā kaumārī śikhi-vāha-nā
लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया । श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना ॥ ११॥
लक्ष्मीः पद्म-आसनाः देवी पद्म-हस्ताः हरि-प्रिया श्वेत-रूपधराः देवी ईश्वरी वृष-वाह-ना
lakṣmīḥ padma-āsanāḥ devī padma-hastāḥ hari-priyā śveta-rūpadharāḥ devī īśvarī vṛṣa-vāha-nā
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता । इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः ॥ १२॥
ब्राह्मी हंस-समारूढा सर्व-आभरण-भूषिता इति एताः मातरः सर्वाः सर्व-योग-समन्विताः
brāhmī haṃsa-samārūḍhā sarva-ābharaṇa-bhūṣitā iti etāḥ mātaraḥ sarvāḥ sarva-yoga-samanvitāḥ
नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः । श्रैष्ठैश्च मौक्तिकैः सर्वा दिव्यहारप्रलम्बिभिः ॥ १३॥
नाना आभरण-शोभा-आढ्याः नाना रत्न-उपशोभिताः श्रैष्ठैश्च मौक्तिकैः सर्वा दिव्यहारप्रलम्बिभिः
nānā ābharaṇa-śobhā-āḍhyāḥ nānā ratna-upaśobhitāḥ śraiṣṭhaiśca mauktikaiḥ sarvā divyahārapralambibhiḥ
इन्द्रनीलैर्महानीलैः पद्मरागैः सुशोभनैः । दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः ॥ १४॥
इन्द्र-नीलैः महा-नीलैः पद्म-रागैः सुशोभनैः दृश्यन्ते रथम् आरूढाः देव्यः क्रोध-सम-आकुलाः
indra-nīlaiḥ mahā-nīlaiḥ padma-rāgaiḥ suśobhanaiḥ dṛśyante ratham ārūḍhāḥ devyaḥ krodha-sama-ākulāḥ
शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम् । खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च ॥ १५॥
शङ्खम् चक्रम् गदाम् शक्तिम् हलम् च मुसल-आयुधम् खेटकम् तोमरम् च एव परशुम् पाशम् एव च
śaṅkham cakram gadām śaktim halam ca musala-āyudham kheṭakam tomaram ca eva paraśum pāśam eva ca
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम् । दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च ॥ १६॥
कुन्त-आयुधम् त्रि-शूलम् च शार्ङ्गम् आयुधम् उत्तमम् दैत्यानाम् देह-नाशाय भक्तानाम् अभयाय च
kunta-āyudham tri-śūlam ca śārṅgam āyudham uttamam daityānām deha-nāśāya bhaktānām abhayāya ca
धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै । नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे ॥ १७॥
धारयन्ति आयुधानि इत्थम् देवानाम् च हिताय वै नमः ते अस्तु महा-रौद्रे महा-घोर-पराक्रमे
dhārayanti āyudhāni ittham devānām ca hitāya vai namaḥ te astu mahā-raudre mahā-ghora-parākrame
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि । त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि ॥ १८॥
महा-बले महा-उत्साहे महा-भय-विनाशिनि त्राहि माम् देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणाम् भय-वर्धिनि
mahā-bale mahā-utsāhe mahā-bhaya-vināśini trāhi mām devi duṣprekṣye śatrūṇām bhaya-vardhini
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता । दक्षिणेऽवतु वाराही नैरृत्यां खड्गधारिणी ॥ १९॥
प्राच्याम् रक्षतु माम् ऐन्द्री आग्नेय्याम् अग्नि-देवता दक्षिणे अवतु वाराही न ऐः ऋत्याम् खड्ग-धारिणी
prācyām rakṣatu mām aindrī āgneyyām agni-devatā dakṣiṇe avatu vārāhī na aiḥ ṛtyām khaḍga-dhāriṇī
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद्वायव्यां मृगवाहिनी । उदीच्यां पातु कौबेरी ईशान्यां शूलधारिणी ॥ २०॥
प्रतीच्याम् वारुणी रक्षेत् वायव्याम् मृग-वाहिनी उदीच्याम् पातु कौबेरी ईशान्याम् शूल-धारिणी
pratīcyām vāruṇī rakṣet vāyavyām mṛga-vāhinī udīcyām pātu kauberī īśānyām śūla-dhāriṇī
ऊर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा । एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना ॥ २१॥
ऊर्ध्वम् ब्रह्म-आणी मे रक्षेत् अधस्तात् वैष्णवी तथा एवम् दश दिशः रक्षेत् चामुण्डा शव-वाह-ना
ūrdhvam brahma-āṇī me rakṣet adhastāt vaiṣṇavī tathā evam daśa diśaḥ rakṣet cāmuṇḍā śava-vāha-nā
जया मामग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः । अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता ॥ २२॥
जया माम् अग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः अजिताः वाम-पार्श्वे तु दक्षिणे च अपराजिता
jayā mām agrataḥ pātu vijayā pātu pṛṣṭhataḥ ajitāḥ vāma-pārśve tu dakṣiṇe ca aparājitā
शिखां मे द्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता । मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद्यशस्विनी ॥ २३॥
शिखाम् मे द्योतिनी रक्षेत् उमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेत् यशस्विनी
śikhām me dyotinī rakṣet umā mūrdhni vyavasthitā mālādharī lalāṭe ca bhruvau rakṣet yaśasvinī
नेत्रयोश्चित्रनेत्रा च यमघण्टा तु पार्श्वके । त्रिनेत्रा च त्रिशूलेन भ्रुवोर्मध्ये च चण्डिका ॥ २४॥
नेत्रयोः चित्र-नेत्रा च यम-घण्टा तु पार्श्वके त्रिनेत्रा च त्रि-शूलेन भ्रुवोः मध्ये च चण्डिका
netrayoḥ citra-netrā ca yama-ghaṇṭā tu pārśvake trinetrā ca tri-śūlena bhruvoḥ madhye ca caṇḍikā
शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी । कपोलौ कालिका रक्षेत् कर्णमूले तु शङ्करी ॥ २५॥
शङ्खिनी चक्षुषोः मध्ये श्रोत्रयोः द्वार-वासिनी कपोलौ कालिका रक्षेत् कर्ण-मूले तु शङ्करी
śaṅkhinī cakṣuṣoḥ madhye śrotrayoḥ dvāra-vāsinī kapolau kālikā rakṣet karṇa-mūle tu śaṅkarī
नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका । अधरे चामृताबाला जिह्वायां च सरस्वती ॥ २६॥
नासिकायाम् सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका अधरे च अमृता बालाः जिह्वायाम् च सरस्वती
nāsikāyām sugandhā ca uttaroṣṭhe ca carcikā adhare ca amṛtā bālāḥ jihvāyām ca sarasvatī
दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका । घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ॥ २७॥
दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठ-देशे तु चण्डिका घण्टिकाम् चित्र-घण्टा च महा-माया च तालु के
dantān rakṣatu kaumārī kaṇṭha-deśe tu caṇḍikā ghaṇṭikām citra-ghaṇṭā ca mahā-māyā ca tālu ke
कामाक्षी चिबुकं रक्षेद्वाचं मे सर्वमङ्गला । ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी ॥ २८॥
काम-अक्षी चिबुकम् रक्षेत् वाचम् मे सर्व-मङ्गला ग्रीवायाम् भद्र-काली च पृष्ठ-वंशे धनुर्धरी
kāma-akṣī cibukam rakṣet vācam me sarva-maṅgalā grīvāyām bhadra-kālī ca pṛṣṭha-vaṃśe dhanurdharī
नीलग्रीवा बहिः कण्ठे नलिकां नलकूबरी । स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी ॥ २९॥
नील-ग्रीवाः बहिः कण्ठे नलिकाम् नल-कूबरी स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेत् बाहू मे वज्र-धारिणी
nīla-grīvāḥ bahiḥ kaṇṭhe nalikām nala-kūbarī skandhayoḥ khaḍginī rakṣet bāhū me vajra-dhāriṇī
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च । नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत् कुक्षौ रक्षेन्नरेश्वरी ॥ ३०॥
हस्तयोः दण्डिनी रक्षेत् अम्बिका च अङ्गुलीषु च नखान् शूल-ईश्वरी रक्षेत् कुक्षौ रक्षेत् नर-ईश्वरी
hastayoḥ daṇḍinī rakṣet ambikā ca aṅgulīṣu ca nakhān śūla-īśvarī rakṣet kukṣau rakṣet nara-īśvarī
स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनःशोकविनाशिनी । हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी ॥ ३१॥
स्तनौ रक्षेत् महा-देवी मनः शोक-विनाशिनी हृदये ललिता देवी उदरे शूल-धारिणी
stanau rakṣet mahā-devī manaḥ śoka-vināśinī hṛdaye lalitā devī udare śūla-dhāriṇī
नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा । मेढ्रं रक्षतु दुर्गन्धा पायुं मे गुह्यवाहिनी ॥ ३२॥
नाभौ च कामिनी रक्षेत् गुह्यम् गुह्य-ईश्वरी तथा मेढ्रम् रक्षतु दुर्गन्धा पायुम् मे गुह्य-वाहिनी
nābhau ca kāminī rakṣet guhyam guhya-īśvarī tathā meḍhram rakṣatu durgandhā pāyum me guhya-vāhinī
कट्यां भगवती रक्षेदूरू मे मेघवाहना । जङ्घे महाबला रक्षेत् जानू माधवनायिका ॥ ३३॥
कट्याम् भगवती रक्षेत् ऊरू मे मेघ-वाह-ना जङ्घे महा-बलाः रक्षेत् जानु उ माधव-नायिका
kaṭyām bhagavatī rakṣet ūrū me megha-vāha-nā jaṅghe mahā-balāḥ rakṣet jānu u mādhava-nāyikā
गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु कौशिकी । पादाङ्गुलीः श्रीधरी च तलं पातालवासिनी ॥ ३४॥
गुल्फयोः नार-सिंही च पाद-पृष्ठे तु कौशिकी पाद-अङ्गुलीः श्रीधरी च तलम् पाताल-वासिनी
gulphayoḥ nāra-siṃhī ca pāda-pṛṣṭhe tu kauśikī pāda-aṅgulīḥ śrīdharī ca talam pātāla-vāsinī
नखान् दंष्ट्रकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी । रोमकूपेषु कौमारी त्वचं योगीश्वरी तथा ॥ ३५॥
नखान् दंष्ट्रकराली च केशान् च एव ऊर्ध्व-केशिनी रोम-कूपेषु कौमारी त्वचम् योगि-ईश्वरी तथा
nakhān daṃṣṭrakarālī ca keśān ca eva ūrdhva-keśinī roma-kūpeṣu kaumārī tvacam yogi-īśvarī tathā
रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती । अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी ॥ ३६॥
रक्त-मज्जा वसा-मांसानि अस्थि-मेदांसि पार्वती अन्त्राणि काल-रात्रिः च पित्तम् च मुकुट-ईश्वरी
rakta-majjā vasā-māṃsāni asthi-medāṃsi pārvatī antrāṇi kāla-rātriḥ ca pittam ca mukuṭa-īśvarī
पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा । ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसन्धिषु ॥ ३७॥
पद्मावती पद्म-कोशे कफे चूडा-मणिः तथा ज्वालामुखी नख-ज्वालाम् अभेद्या सर्व-सन्धिषु
padmāvatī padma-kośe kaphe cūḍā-maṇiḥ tathā jvālāmukhī nakha-jvālām abhedyā sarva-sandhiṣu
शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा । अहङ्कारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी ॥ ३८॥
शुक्रम् ब्रह्म-आणी मे रक्षेत् छायाम् छत्र-ईश्वरी तथा अहङ्कारम् मनः बुद्धिम् रक्षेत् मे धर्म-धारिणी
śukram brahma-āṇī me rakṣet chāyām chatra-īśvarī tathā ahaṅkāram manaḥ buddhim rakṣet me dharma-dhāriṇī
प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम् । वज्रहस्ता च मे रक्षेत् प्राणान् कल्याणशोभना ॥ ३९॥
प्राण-अपानौ तथा व्यानम् उदानम् च सम-आनकम् वज्र-हस्ता च मे रक्षेत् प्राणान् कल्याण-शोभना
prāṇa-apānau tathā vyānam udānam ca sama-ānakam vajra-hastā ca me rakṣet prāṇān kalyāṇa-śobhanā
रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी । सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा ॥ ४०॥
रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी सत्त्वम् रजः-तमः च एव रक्षेत् नारायणी सदा
rase rūpe ca gandhe ca śabde sparśe ca yoginī sattvam rajaḥ-tamaḥ ca eva rakṣet nārāyaṇī sadā
आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु पार्वती । यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च सदा रक्षतु वैष्णवी ॥ ४१॥
आयू रक्षतु वाराही धर्मम् रक्षतु पार्वती यशः कीर्तिम् च लक्ष्मीम् च सदा रक्षतु वैष्णवी
āyū rakṣatu vārāhī dharmam rakṣatu pārvatī yaśaḥ kīrtim ca lakṣmīm ca sadā rakṣatu vaiṣṇavī
गोत्रमिन्द्राणी मे रक्षेत् पशून् रक्षेच्च चण्डिका । पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी ॥ ४२॥
गोत्रम् इन्द्राणी मे रक्षेत् पशून् रक्षेत् च चण्डिका पुत्रान् रक्षेत् महा-लक्ष्मीः भार्याम् रक्षतु भैरवी
gotram indrāṇī me rakṣet paśūn rakṣet ca caṇḍikā putrān rakṣet mahā-lakṣmīḥ bhāryām rakṣatu bhairavī
धनेश्वरी धनं रक्षेत् कौमारी कन्यकां तथा । पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमङ्करी तथा ॥ ४३॥
धन-ईश्वरी धनम् रक्षेत् कौमारी कन्यकाम् तथा पन्थानम् सुपथा रक्षेत् मार्गम् क्षेमङ्करी तथा
dhana-īśvarī dhanam rakṣet kaumārī kanyakām tathā panthānam supathā rakṣet mārgam kṣemaṅkarī tathā
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सतत स्थिता । रक्षाहीनं तु यत् स्थानं वर्जितं कवचेन तु ॥ ४४॥
राज-द्वारे महा-लक्ष्मीः विजया सतत स्थिता रक्षा-हीनम् तु यत् स्थानम् वर्जितम् कवचेन तु
rāja-dvāre mahā-lakṣmīḥ vijayā satata sthitā rakṣā-hīnam tu yat sthānam varjitam kavacena tu
तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी । सर्वरक्षाकरं पुण्यं कवचं सर्वदा जपेत् ॥ ४५॥
तत् सर्वम् रक्ष मे देवि जयन्ती पाप-नाशिनी सर्व-रक्षा-करम् पुण्यम् कवचम् सर्वदा जपेत्
tat sarvam rakṣa me devi jayantī pāpa-nāśinī sarva-rakṣā-karam puṇyam kavacam sarvadā japet
इदं रहस्यं विप्रर्षे भक्त्या तव मयोदितम् । पादमेकं न गच्छेत् तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः ॥ ४६॥
इदम् रहस्यम् विप्र-ऋषे भक्त्या तव मया उदितम् पादम् एकम् न गच्छेत् तु यदि इच्छेत् शुभम् आत्मनः
idam rahasyam vipra-ṛṣe bhaktyā tava mayā uditam pādam ekam na gacchet tu yadi icchet śubham ātmanaḥ
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति । तत्र तत्रार्थलाभश्व विजयः सार्वकालिकः ॥ ४७॥
कवचेन आवृतः नित्यम् यत्र यत्र एव गच्छति तत्र तत्र अर्थ-लाभ-श्व विजयः सार्व-कालिकः
kavacena āvṛtaḥ nityam yatra yatra eva gacchati tatra tatra artha-lābha-śva vijayaḥ sārva-kālikaḥ
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् । परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान् ॥ ४८॥
यम् यम् चिन्तयते कामम् तम् तम् प्राप्नोति निश्चितम् परम् ऐश्वर्यम् अतुलम् प्राप्स्यते भू-तले पुमान्
yam yam cintayate kāmam tam tam prāpnoti niścitam param aiśvaryam atulam prāpsyate bhū-tale pumān
निर्भयो जायते मर्त्यः सङ्ग्रामेष्वपराजितः । त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान् ॥ ४९॥
निर्भयः जायते मर्त्यः सङ्ग्रामेषु अपराजितः त्रैलोक्ये तु भवेत् पूज्यः कवचेन आवृतः पुमान्
nirbhayaḥ jāyate martyaḥ saṅgrāmeṣu aparājitaḥ trailokye tu bhavet pūjyaḥ kavacena āvṛtaḥ pumān
इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् । यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः ॥ ५०॥
इदम् तु देव्याः कवचम् देवानाम् अपि दुर्लभम् यः पठेत् प्रयतः नित्यम् त्रि-सन्ध्यम् श्रद्धया अन्वितः
idam tu devyāḥ kavacam devānām api durlabham yaḥ paṭhet prayataḥ nityam tri-sandhyam śraddhayā anvitaḥ
दैवीकला भवेत्तस्य त्रैलोक्ये चापराजितः । जीवेद्वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ॥ ५१॥
दैवी कला भवेत् तस्य त्रैलोक्ये च अपराजितः जीवेत् वर्ष-शतम् साग्रम् अपमृत्यु-विवर्जितः
daivī kalā bhavet tasya trailokye ca aparājitaḥ jīvet varṣa-śatam sāgram apamṛtyu-vivarjitaḥ
नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः । स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चैव यद्विषम् ॥ ५२॥
नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूता-अवि-स्फोटक-आदयः स्थावरम् जङ्गमम् च एव कृत्रिमम् च एव यत् विषम्
naśyanti vyādhayaḥ sarve lūtā-avi-sphoṭaka-ādayaḥ sthāvaram jaṅgamam ca eva kṛtrimam ca eva yat viṣam
अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले । भूचराः खेचराश्चैव कुलजाश्चौपदेशिकाः ॥ ५३॥
अभिचार-आणि सर्वाणि मन्त्र-यन्त्राणि भू-तले भू-चराः खेचराः च एव कुलजाः च औपदेशिकाः
abhicāra-āṇi sarvāṇi mantra-yantrāṇi bhū-tale bhū-carāḥ khecarāḥ ca eva kulajāḥ ca aupadeśikāḥ
सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा । अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महारवाः ॥ ५४॥
सहजा कुलजाः माला-डाकिनी शाकिनी तथा अन्तरिक्ष-चराः घोराः डाकिन्यः च महा-रवाः
sahajā kulajāḥ mālā-ḍākinī śākinī tathā antarikṣa-carāḥ ghorāḥ ḍākinyaḥ ca mahā-ravāḥ
ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः । ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ॥ ५५॥
ग्रह-भूत-पिशाचाः च यक्ष-गन्धर्व-राक्षसाः ब्रह्म-राक्षस-वेतालाः कूष्माण्डाः भैरव-आदयः
graha-bhūta-piśācāḥ ca yakṣa-gandharva-rākṣasāḥ brahma-rākṣasa-vetālāḥ kūṣmāṇḍāḥ bhairava-ādayaḥ
नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचेनावृतो हि यः । मानोन्नतिर्भवेद्राज्ञस्तेजोवृद्धिः परा भवेत् ॥ ५६॥
नश्यन्ति दर्शनात् तस्य कवचेन आवृतः हि यः मा न उन्नतिः भवेत् राज्ञः तेजः-वृद्धिः परा भवेत्
naśyanti darśanāt tasya kavacena āvṛtaḥ hi yaḥ mā na unnatiḥ bhavet rājñaḥ tejaḥ-vṛddhiḥ parā bhavet
यशोवृद्धिर्भवेत् पुंसां कीर्तिवृद्धिश्च जायते । तस्मात् जपेत् सदा भक्तः कवचं कामदं मुने ॥ ५७॥
यशः वृद्धिः भवेत् पुंसाम् कीर्ति-वृद्धिः च जायते तस्मात् जपेत् सदा भक्तः कवचम् कामदम् मुने
yaśaḥ vṛddhiḥ bhavet puṃsām kīrti-vṛddhiḥ ca jāyate tasmāt japet sadā bhaktaḥ kavacam kāmadam mune
जपेत् सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा । निर्विघ्नेन भवेत् सिद्धिश्चण्डीजपसमुद्भवा ॥ ५८॥
जपेत् सप्त-शतीम् चण्डीम् कृत्वा तु कवचम् पुरा निर्विघ्नेन भवेत् सिद्धिः चण्डी-जप-समुद्भवा
japet sapta-śatīm caṇḍīm kṛtvā tu kavacam purā nirvighnena bhavet siddhiḥ caṇḍī-japa-samudbhavā
यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम् । तावत्तिष्ठति मेदिन्यां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी ॥ ५९॥
यावत् भू-मण्डलम् धत्ते सशैल-वन-काननम् तावत् तिष्ठति मेदिन्याम् सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी
yāvat bhū-maṇḍalam dhatte saśaila-vana-kānanam tāvat tiṣṭhati medinyām santatiḥ putrapautrikī
देहान्ते परमं स्थानं सुरैरपि सुदुर्लभम् । प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः ॥ ६०॥
देह-अन्ते परमम् स्थानम् सुरैः अपि सुदुर्लभम् प्राप्नोति पुरुषः नित्यम् महा-माया प्रसादतः
deha-ante paramam sthānam suraiḥ api sudurlabham prāpnoti puruṣaḥ nityam mahā-māyā prasādataḥ
तत्र गच्छति गत्वासौ पुनश्चागमनं नहि । लभते परमं स्थानं शिवेन समतां व्रजेत् ॥ ६१॥
तत्र गच्छति गत्वा असौ पुनः च आगमनम् न हि लभते परमम् स्थानम् शिवेन समताम् व्रजेत्
tatra gacchati gatvā asau punaḥ ca āgamanam na hi labhate paramam sthānam śivena samatām vrajet
॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे हरिहरब्रह्मविरचितं
इति श्री-मार्कण्डेय-पुराणे हरिहरब्रह्मविरचितं
iti śrī-mārkaṇḍeya-purāṇe hariharabrahmaviracitaṃ
देवीकवचं समाप्तम् ॥
देवी कवचम् समाप्तम्
devī kavacam samāptam

Pratham Adhyaya

Collapse

॥ देवी माहात्म्यम् ॥
देवी माहात्म्यम्
devī māhātmyam
॥ श्रीदुर्गायै नमः ॥
श्री-दुर्गायै नमः
śrī-durgāyai namaḥ
1 ॥ श्रीदुर्गायै नमः ॥
श्री-दुर्गायै नमः
śrī-durgāyai namaḥ
॥ अथ श्रीदुर्गासप्तशती ॥
अथ श्रीदुर्गासप्तशती
atha śrīdurgāsaptaśatī
॥ १. मधुकैटभवधो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥
मधु-कैटभ-वधः नाम प्रथमः अध्यायः
madhu-kaiṭabha-vadhaḥ nāma prathamaḥ adhyāyaḥ
विनियोगः
विनियोगः
viniyogaḥ
अस्य श्री प्रथमचरित्रस्य । ब्रह्मा ऋषिः । महाकाली देवता । गायत्री छन्दः । नन्दा शक्तिः । रक्तदन्तिका बीजम् । अग्निस्तत्त्वम् । ऋग्वेदः स्वरूपम् । श्रीमहाकालीप्रीत्यर्थे प्रथमचरित्रजपे विनियोगः । ऋग्वेदः स्वरूपम् । श्रीमहाकालीप्रीत्यर्थे प्रथमचरित्रजपे विनियोगः ।
अस्य श्री प्रथम-चरित्रस्य ब्रह्मा ऋषिः महा-काली देवता-गायत्री छन्दः नन्दा शक्तिः रक्त-दन्ति का बीजम् अग्निः तत्त्वम् ऋक्-वेदः स्व-रूपम् श्री-महा-काली-प्रीति-अर्थे प्रथम-चरित्र-जपे विनियोगः ऋक्-वेदः स्व-रूपम् श्री-महा-काली-प्रीति-अर्थे प्रथम-चरित्र-जपे विनियोगः
asya śrī prathama-caritrasya brahmā ṛṣiḥ mahā-kālī devatā-gāyatrī chandaḥ nandā śaktiḥ rakta-danti kā bījam agniḥ tattvam ṛk-vedaḥ sva-rūpam śrī-mahā-kālī-prīti-arthe prathama-caritra-jape viniyogaḥ ṛk-vedaḥ sva-rūpam śrī-mahā-kālī-prīti-arthe prathama-caritra-jape viniyogaḥ
। ध्यानम् ।
ध्यानम्
dhyānam
ॐ खड्गं चक्रगदेषुचापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः शङ्खं सन्दधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम् । नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम् ॥ ॐ नमश्चण्डिकायै ॥ ॐ ऐं मार्कण्डेय उवाच ॥ १.१॥
ॐखड्गम् चक्र-गदेषु चाप-परिघाम् शूलम् भुशुण्डीम् शिरः शङ्खम् सन्दधतीम् करैः त्रि-नयनाम् सर्व-अङ्ग-भूषा वृताम् नील-अश्म-द्युतिम् आस्य-पाद-दश काम् सेवे महा-कालिकाम् याम् अस्तौत् स्व-पि ते हरौ कमल-जः हन्तुम् मधुम् कैटभम् ॐनमः चण्डिकायै ॐऐम् मार्कण्डेयः उवाच
oṃkhaḍgam cakra-gadeṣu cāpa-parighām śūlam bhuśuṇḍīm śiraḥ śaṅkham sandadhatīm karaiḥ tri-nayanām sarva-aṅga-bhūṣā vṛtām nīla-aśma-dyutim āsya-pāda-daśa kām seve mahā-kālikām yām astaut sva-pi te harau kamala-jaḥ hantum madhum kaiṭabham oṃnamaḥ caṇḍikāyai oṃaim mārkaṇḍeyaḥ uvāca
सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः । निशामय तदुत्पत्तिं विस्तराद्गदतो मम ॥ १.२॥
सावर्णिः सूर्य-तनयः यः मनुः कथ्यते अष्टमः निशामय तत्-उत्पत्तिम् विस्तरात् गदतः मम
sāvarṇiḥ sūrya-tanayaḥ yaḥ manuḥ kathyate aṣṭamaḥ niśāmaya tat-utpattim vistarāt gadataḥ mama
महामायानुभावेन यथा मन्वन्तराधिपः । स बभूव महाभागः सावर्णिस्तनयो रवेः ॥ १.३॥
महा-माया अनुभावेन यथा मनु-अन्तर-अधिपः स बभूव महा-भागः सावर्णिः तनयः रवेः
mahā-māyā anubhāvena yathā manu-antara-adhipaḥ sa babhūva mahā-bhāgaḥ sāvarṇiḥ tanayaḥ raveḥ
स्वारोचिषेऽन्तरे पूर्वं चैत्रवंशसमुद्भवः । सुरथो नाम राजाभूत्समस्ते क्षितिमण्डले ॥ १.४॥
स्वारोचिषे अन्तरे पूर्वम् चैत्र-वंश-समुद्भवः सुरथः नाम राजा अभूत् समस्ते क्षिति-मण्डले
svārociṣe antare pūrvam caitra-vaṃśa-samudbhavaḥ surathaḥ nāma rājā abhūt samaste kṣiti-maṇḍale
तस्य पालयतः सम्यक् प्रजाः पुत्रानिवौरसान् । बभूवुः शत्रवो भूपाः कोलाविध्वंसिनस्तदा ॥ १.५॥
तस्य पालयतः सम्यक् प्रजाः पुत्रान् इव औरसान् बभूवुः शत्रवः भू-पाः कोला विध्वंसिनः तदा
tasya pālayataḥ samyak prajāḥ putrān iva aurasān babhūvuḥ śatravaḥ bhū-pāḥ kolā vidhvaṃsinaḥ tadā
तस्य तैरभवद् युद्धमतिप्रबलदण्डिनः । न्यूनैरपि स तैर्युद्धे कोलाविध्वंसिभिर्जितः ॥ १.६॥
तस्य तैः अभवत् युद्धम् अतिप्रबल-दण्डिनः न्यूनैः अपि स तैः युद्धे कोला विध्वंसिभिः जितः
tasya taiḥ abhavat yuddham atiprabala-daṇḍinaḥ nyūnaiḥ api sa taiḥ yuddhe kolā vidhvaṃsibhiḥ jitaḥ
ततः स्वपुरमायातो निजदेशाधिपोऽभवत् । आक्रान्तः स महाभागस्तैस्तदा प्रबलारिभिः ॥ १.७॥
ततः स्व-पुरम् आयातः निज-देश-अधिपः अभवत् आक्रान्तः स महा-भागः तैः तदा प्रबल-अरिभिः
tataḥ sva-puram āyātaḥ nija-deśa-adhipaḥ abhavat ākrāntaḥ sa mahā-bhāgaḥ taiḥ tadā prabala-aribhiḥ
अमात्यैर्बलिभिर्दुष्टैर्दुर्बलस्य दुरात्मभिः । कोशो बलं चापहृतं तत्रापि स्वपुरे ततः ॥ १.८॥
अमात्यैः बलिभिः दुष्टैः दुर्बलस्य दुरात्मभिः कोशः बलम् च अपहृतम् तत्र अपि स्व-पुरे ततः
amātyaiḥ balibhiḥ duṣṭaiḥ durbalasya durātmabhiḥ kośaḥ balam ca apahṛtam tatra api sva-pure tataḥ
ततो मृगयाव्याजेन हृतस्वाम्यः स भूपतिः । एकाकी हयमारुह्य जगाम गहनं वनम् ॥ १.९॥
ततः मृगया-व्याजेन हृत-स्व-आम्यः स भू-पतिः एकाकी हयम् आरुह्य जगाम गहनम् वनम्
tataḥ mṛgayā-vyājena hṛta-sva-āmyaḥ sa bhū-patiḥ ekākī hayam āruhya jagāma gahanam vanam
स तत्राश्रममद्राक्षीद्द्विजवर्यस्य मेधसः । प्रशान्तश्वापदाकीर्णं मुनिशिष्योपशोभितम् ॥ १.१०॥
स तत्र आश्रमम् अद्राक्षीत् द्विज-वर्यस्य मेधसः प्रशान्त-श्वापद-आकीर्णम् मुनि-शिष्य-उपशोभितम्
sa tatra āśramam adrākṣīt dvija-varyasya medhasaḥ praśānta-śvāpada-ākīrṇam muni-śiṣya-upaśobhitam
तस्थौ कञ्चित्स कालं च मुनिना तेन सत्कृतः । इतश्चेतश्च विचरंस्तस्मिन् मुनिवराश्रमे ॥ १.११॥
तस्थौ कञ्चित् स कालम् च मुनिना तेन सत्कृतः इतः चेतः च विचरन् तस्मिन् मुनि-वर-आश्रमे
tasthau kañcit sa kālam ca muninā tena satkṛtaḥ itaḥ cetaḥ ca vicaran tasmin muni-vara-āśrame
सोऽचिन्तयत्तदा तत्र ममत्वाकृष्टमानसः । मत्पूर्वैः पालितं पूर्वं मया हीनं पुरं हि तत् ॥ १.१२॥
सः अचिन्तयत् तदा तत्र मम तु आकृष्ट-मानसः मत्पूर्वैः पालितम् पूर्वम् मया हीनम् पुरम् हि तत्
saḥ acintayat tadā tatra mama tu ākṛṣṭa-mānasaḥ matpūrvaiḥ pālitam pūrvam mayā hīnam puram hi tat
मद्भृत्यैस्तैरसद्वृत्तैर्धर्मतः पाल्यते न वा । न जाने स प्रधानो मे शूरो हस्ती सदामदः ॥ १.१३॥
मत्-भृत्यैः तैः असत्-वृत्तैः धर्मतः पाल्यते न वा न जाने स प्रधानः मे शूरः हस्ती सदा मदः
mat-bhṛtyaiḥ taiḥ asat-vṛttaiḥ dharmataḥ pālyate na vā na jāne sa pradhānaḥ me śūraḥ hastī sadā madaḥ
मम वैरिवशं यातः कान् भोगानुपलप्स्यते । ये ममानुगता नित्यं प्रसादधनभोजनैः ॥ १.१४॥
मम वैरि-वशम् यातः कान् भोगान् उपलप्स्यते ये मम अनुगता नित्यम् प्रसाद-धन-भोजनैः
mama vairi-vaśam yātaḥ kān bhogān upalapsyate ye mama anugatā nityam prasāda-dhana-bhojanaiḥ
अनुवृत्तिं ध्रुवं तेऽद्य कुर्वन्त्यन्यमहीभृताम् । असम्यग्व्ययशीलैस्तैः कुर्वद्भिः सततं व्ययम् ॥ १.१५॥
अनुवृत्तिम् ध्रुवम् ते अद्य कुर्वन्ति अन्य-मही-भृताम् असम्यग्व्ययशीलैस्तैः कुर्वद्भिः सततम् व्ययम्
anuvṛttim dhruvam te adya kurvanti anya-mahī-bhṛtām asamyagvyayaśīlaistaiḥ kurvadbhiḥ satatam vyayam
सञ्चितः सोऽतिदुःखेन क्षयं कोशो गमिष्यति । एतच्चान्यच्च सततं चिन्तयामास पार्थिवः ॥ १.१६॥
सञ्चितः सः अति दुःखेन क्षयम् कोशः गमिष्यति एतत् च अन्यत् च सततम् चिन्तया मा स पार्थिवः
sañcitaḥ saḥ ati duḥkhena kṣayam kośaḥ gamiṣyati etat ca anyat ca satatam cintayā mā sa pārthivaḥ
तत्र विप्राश्रमाभ्याशे वैश्यमेकं ददर्श सः । स पृष्टस्तेन कस्त्वं भो हेतुश्चागमनेऽत्र कः ॥ १.१७॥
तत्र विप्र-आश्रम-अभ्याशे वैश्यम् एकम् ददर्श सः स पृष्टः तेन कः त्वम् भोः हेतुः च आगमने अत्र कः
tatra vipra-āśrama-abhyāśe vaiśyam ekam dadarśa saḥ sa pṛṣṭaḥ tena kaḥ tvam bhoḥ hetuḥ ca āgamane atra kaḥ
सशोक इव कस्मात्त्वं दुर्मना इव लक्ष्यसे । इत्याकर्ण्य वचस्तस्य भूपतेः प्रणयोदितम् ॥ १.१८॥
सशोकः इव कस्मात् त्वम् दुर्मनाः इव लक्ष्यसे इति आकर्ण्य वचः तस्य भू-पतेः प्रणय-उदितम्
saśokaḥ iva kasmāt tvam durmanāḥ iva lakṣyase iti ākarṇya vacaḥ tasya bhū-pateḥ praṇaya-uditam
प्रत्युवाच स तं वैश्यः प्रश्रयावनतो नृपम् ॥ १.१९॥
प्रत्युवाच स तम् वैश्यः प्रश्रयावनतः नृपम्
pratyuvāca sa tam vaiśyaḥ praśrayāvanataḥ nṛpam
वैश्य उवाच ॥ १.२०॥
समाधिर्नाम वैश्योऽहमुत्पन्नो धनिनां कुले ॥ १.२१॥
समाधिः नाम वैश्यः अहम् उत्पन्नः धनिनाम् कुले
samādhiḥ nāma vaiśyaḥ aham utpannaḥ dhaninām kule
पुत्रदारैर्निरस्तश्च धनलोभादसाधुभिः । विहीनश्च धनैर्दारैः पुत्रैरादाय मे धनम् ॥ १.२२॥
पुत्र-दारैः निरस्तः च धन-लोभात् असाधुभिः विहीनः च धनैः दारैः पुत्रैः आदाय मे धनम्
putra-dāraiḥ nirastaḥ ca dhana-lobhāt asādhubhiḥ vihīnaḥ ca dhanaiḥ dāraiḥ putraiḥ ādāya me dhanam
वनमभ्यागतो दुःखी निरस्तश्चाप्तबन्धुभिः । सोऽहं न वेद्मि पुत्राणां कुशलाकुशलात्मिकाम् ॥ १.२३॥
वनम् अभ्यागतः दुःखी निरस्तः च आप्त-बन्धुभिः सः अहम् न वेद्मि पुत्राणाम् कुशला कुशल-आत्मिकाम्
vanam abhyāgataḥ duḥkhī nirastaḥ ca āpta-bandhubhiḥ saḥ aham na vedmi putrāṇām kuśalā kuśala-ātmikām
प्रवृत्तिं स्वजनानां च दाराणां चात्र संस्थितः । किं नु तेषां गृहे क्षेममक्षेमं किं नु साम्प्रतम् ॥ १.२४॥
प्रवृत्तिम् स्व-जनानाम् च दाराणाम् च अत्र संस्थितः किम् नु तेषाम् गृहे क्षेमम् अक्ष इमम् किम् नु साम्प्रतम्
pravṛttim sva-janānām ca dārāṇām ca atra saṃsthitaḥ kim nu teṣām gṛhe kṣemam akṣa imam kim nu sāmpratam
कथं ते किं नु सद्वृत्ता दुर्वृत्ताः किं नु मे सुताः ॥ १.२५॥
कथम् ते किम् नु सत्-वृत्ताः दुर्वृत्ताः किम् नु मे सुताः
katham te kim nu sat-vṛttāḥ durvṛttāḥ kim nu me sutāḥ
राजोवाच ॥ १.२६॥
यैर्निरस्तो भवाँल्लुब्धैः पुत्रदारादिभिर्धनैः ॥ १.२७॥
यैः निरस्तः भवांल्लुब्धैः पुत्र-दार-आदिभिः धनैः
yaiḥ nirastaḥ bhavāṃllubdhaiḥ putra-dāra-ādibhiḥ dhanaiḥ
तेषु किं भवतः स्नेहमनुबध्नाति मानसम् ॥ १.२८॥
तेषु किम् भवतः स्नेहम् अनुबध्नाति मानसम्
teṣu kim bhavataḥ sneham anubadhnāti mānasam
वैश्य उवाच ॥ १.२९॥
एवमेतद्यथा प्राह भवानस्मद्गतं वचः ॥ १.३०॥
एवम् एतत् यथा प्राह भवान् अस्मत्-गतम् वचः
evam etat yathā prāha bhavān asmat-gatam vacaḥ
किं करोमि न बध्नाति मम निष्ठुरतां मनः । यैः सन्त्यज्य पितृस्नेहं धनलुब्धैर्निराकृतः ॥ १.३१॥
किम् करोमि न बध्नाति मम निष्ठुरताम् मनः यैः सन्त्यज्य पितृ-स्नेहम् धन-लुब्धैः निराकृतः
kim karomi na badhnāti mama niṣṭhuratām manaḥ yaiḥ santyajya pitṛ-sneham dhana-lubdhaiḥ nirākṛtaḥ
पतिस्वजनहार्दं च हार्दितेष्वेव मे मनः । किमेतन्नाभिजानामि जानन्नपि महामते ॥ १.३२॥
पति-स्व-जन-हार्दम् च ह अर्दितेषु एव मे मनः किम् एतत् न अभिजानामि जानन् अपि महा-मते
pati-sva-jana-hārdam ca ha arditeṣu eva me manaḥ kim etat na abhijānāmi jānan api mahā-mate
यत्प्रेमप्रवणं चित्तं विगुणेष्वपि बन्धुषु । तेषां कृते मे निःश्वासो दौर्मनस्यं च जायते ॥ १.३३॥
यत्प्रेमप्रवणम् चित्तम् विगुणेषु अपि बन्धुषु तेषाम् कृते मे निःश्वासः दौर्मनस्यम् च जायते
yatpremapravaṇam cittam viguṇeṣu api bandhuṣu teṣām kṛte me niḥśvāsaḥ daurmanasyam ca jāyate
करोमि किं यन्न मनस्तेष्वप्रीतिषु निष्ठुरम् ॥ १.३४॥
करोमि किम् यत् न मनस्तेष्वप्रीतिषु निष्ठुरम्
karomi kim yat na manasteṣvaprītiṣu niṣṭhuram
मार्कण्डेय उवाच ॥ १.३५॥
ततस्तौ सहितौ विप्र तं मुनिं समुपस्थितौ ॥ १.३६॥
ततः तौ सहितौ विप्र तम् मुनिम् समुपस्थितौ
tataḥ tau sahitau vipra tam munim samupasthitau
समाधिर्नाम वैश्योऽसौ स च पार्थिवसत्तमः । कृत्वा तु तौ यथान्यायं यथार्हं तेन संविदम् ॥ १.३७॥
समाधिः नाम वैश्यः असौ स च पार्थिव-सत्तमः कृत्वा तु तौ यथा न्यायम् यथा अर्हम् तेन संविदम्
samādhiḥ nāma vaiśyaḥ asau sa ca pārthiva-sattamaḥ kṛtvā tu tau yathā nyāyam yathā arham tena saṃvidam
उपविष्टौ कथाः काश्चिच्चक्रतुर्वैश्यपार्थिवौ ॥ १.३८॥
उपविष्टौ कथाः काश्चित् चक्रतुः वैश्य-पार्थिवौ
upaviṣṭau kathāḥ kāścit cakratuḥ vaiśya-pārthivau
राजोवाच ॥ १.३९॥
भगवंस्त्वामहं प्रष्टुमिच्छाम्येकं वदस्व तत् ॥ १.४०॥
भगवंस्त्वामहम् प्रष्टुम् इच्छामि एकम् वदस्व तत्
bhagavaṃstvāmaham praṣṭum icchāmi ekam vadasva tat
दुःखाय यन्मे मनसः स्वचित्तायत्ततां विना । ममत्वं गतराज्यस्य राज्याङ्गेष्वखिलेष्वपि ॥ १.४१॥
दुःखाय यत् मे मनसः स्व-चित्ता यत् तताम् विना ममत्वम् गत-राज्यस्य राज्य-अङ्गेषु अखिलेषु अपि
duḥkhāya yat me manasaḥ sva-cittā yat tatām vinā mamatvam gata-rājyasya rājya-aṅgeṣu akhileṣu api
जानतोऽपि यथाज्ञस्य किमेतन्मुनिसत्तम । अयं च निकृतः पुत्रैर्दारैर्भृत्यैस्तथोज्झितः ॥ १.४२॥
जानतः अपि यथा-ज्ञस्य किम् एतत् मुनि-सत्तम अयम् च निकृतः पुत्रैः दारैः भृत्यैः तथा उज्झितः
jānataḥ api yathā-jñasya kim etat muni-sattama ayam ca nikṛtaḥ putraiḥ dāraiḥ bhṛtyaiḥ tathā ujjhitaḥ
स्वजनेन च सन्त्यक्तस्तेषु हार्दी तथाप्यति । एवमेष तथाहं च द्वावप्यत्यन्तदुःखितौ ॥ १.४३॥
स्व-जनेन च सन्त्यक्तः तेषु हार्दी तथापि अति एवम् एष तथा अहम् च द्वौ अपि अत्यन्त-दुःखितौ
sva-janena ca santyaktaḥ teṣu hārdī tathāpi ati evam eṣa tathā aham ca dvau api atyanta-duḥkhitau
दृष्टदोषेऽपि विषये ममत्वाकृष्टमानसौ । तत्किमेतन्महाभाग यन्मोहो ज्ञानिनोरपि ॥ १.४४॥
दृष्ट-दोषे अपि विषये मम तु आकृष्ट-मानसौ तत् किम् एतत् महा-भाग यत् मोहः ज्ञानिनोः अपि
dṛṣṭa-doṣe api viṣaye mama tu ākṛṣṭa-mānasau tat kim etat mahā-bhāga yat mohaḥ jñāninoḥ api
ममास्य च भवत्येषा विवेकान्धस्य मूढता ॥ १.४५॥
मम अस्य च भवति एषा विवेक-अन्धस्य मूढता
mama asya ca bhavati eṣā viveka-andhasya mūḍhatā
ऋषिरुवाच ॥ १.४६॥
ज्ञानमस्ति समस्तस्य जन्तोर्विषयगोचरे ॥ १.४७॥
ज्ञानम् अस्ति समस्तस्य जन्तोः विषय-गोचरे
jñānam asti samastasya jantoḥ viṣaya-gocare
विषयाश्च महाभाग यान्ति चैवं पृथक्पृथक् । दिवान्धाः प्राणिनः केचिद्रात्रावन्धास्तथापरे ॥ १.४८॥
विषयाः च महा-भाग यान्ति च एवम् पृथक् पृथक् दिव-अन्धाः प्राणिनः केचित् रात्रौ अन्धाः तथा अपरे
viṣayāḥ ca mahā-bhāga yānti ca evam pṛthak pṛthak diva-andhāḥ prāṇinaḥ kecit rātrau andhāḥ tathā apare
केचिद्दिवा तथा रात्रौ प्राणिनस्तुल्यदृष्टयः । ज्ञानिनो मनुजाः सत्यं किं तु ते न हि केवलम् ॥ १.४९॥
केचित् दिवा तथा रात्रौ प्राणिनस्तुल्यदृष्टयः ज्ञानिनः मनुजाः सत्यम् किम् तु ते न हि केवलम्
kecit divā tathā rātrau prāṇinastulyadṛṣṭayaḥ jñāninaḥ manujāḥ satyam kim tu te na hi kevalam
यतो हि ज्ञानिनः सर्वे पशुपक्षिमृगादयः । ज्ञानं च तन्मनुष्याणां यत्तेषां मृगपक्षिणाम् ॥ १.५०॥
यतः हि ज्ञानिनः सर्वे पशु-पक्षि-मृग-आदयः ज्ञानम् च तत् मनुष्याणाम् यत् तेषाम् मृग-पक्षिणाम्
yataḥ hi jñāninaḥ sarve paśu-pakṣi-mṛga-ādayaḥ jñānam ca tat manuṣyāṇām yat teṣām mṛga-pakṣiṇām
मनुष्याणां च यत्तेषां तुल्यमन्यत्तथोभयोः । ज्ञानेऽपि सति पश्यैतान् पतङ्गाञ्छावचञ्चुषु ॥ १.५१॥
मनुष्याणाम् च यत् तेषाम् तुल्यमन्यत्तथोभयोः ज्ञाने अपि सति पश्य एतान् पतङ्गान् शाव-चञ्चुषु
manuṣyāṇām ca yat teṣām tulyamanyattathobhayoḥ jñāne api sati paśya etān pataṅgān śāva-cañcuṣu
कणमोक्षादृतान् मोहात्पीड्यमानानपि क्षुधा । मानुषा मनुजव्याघ्र साभिलाषाः सुतान् प्रति ॥ १.५२॥
कण-मोक्ष-आदृतान् मोहात् पीड्यमानान् अपि क्षुधा मानुषाः मनुज-व्याघ्र सा अभिलाषाः सुतान् प्रति
kaṇa-mokṣa-ādṛtān mohāt pīḍyamānān api kṣudhā mānuṣāḥ manuja-vyāghra sā abhilāṣāḥ sutān prati
लोभात् प्रत्युपकाराय नन्वेतान् किं न पश्यसि । तथापि ममतावर्त्ते मोहगर्ते निपातिताः ॥ १.५३॥
लोभात् प्रत्युपकाराय ननु एतान् किम् न पश्यसि तथापि ममतावर्त्ते मोह-गर्ते निपातिताः
lobhāt pratyupakārāya nanu etān kim na paśyasi tathāpi mamatāvartte moha-garte nipātitāḥ
महामायाप्रभावेण संसारस्थितिकारिणा । तन्नात्र विस्मयः कार्यो योगनिद्रा जगत्पतेः ॥ १.५४॥
महा-माया-प्रभावेण संसार-स्थिति-कारिणा तत् न अत्र विस्मयः कार्यः योग-निद्रा-जगत्-पतेः
mahā-māyā-prabhāveṇa saṃsāra-sthiti-kāriṇā tat na atra vismayaḥ kāryaḥ yoga-nidrā-jagat-pateḥ
महामाया हरेश्चैषा तया सम्मोह्यते जगत् । ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा ॥ १.५५॥
महा-माया हरेः च एषा तया सम्मोह्यते जगत् ज्ञानिनाम् अपि चेतांसि देवी भगवती हि सा
mahā-māyā hareḥ ca eṣā tayā sammohyate jagat jñāninām api cetāṃsi devī bhagavatī hi sā
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति । तया विसृज्यते विश्वं जगदेतच्चराचरम् ॥ १.५६॥
बलात् आकृष्य मोहाय महा-माया प्रयच्छति तया विसृज्यते विश्वम् जगत्-एतत्-चर-अचरम्
balāt ākṛṣya mohāya mahā-māyā prayacchati tayā visṛjyate viśvam jagat-etat-cara-acaram
सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये । सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी ॥ १.५७॥
सा एषा प्रसन्ना वरदाः नृणाम् भवति मुक्तये सा विद्या परमा मुक्तेः हेतु-भूता सनातनी
sā eṣā prasannā varadāḥ nṛṇām bhavati muktaye sā vidyā paramā mukteḥ hetu-bhūtā sanātanī
संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी ॥ १.५८॥
संसार-बन्ध-हेतुः च सा एव सर्व-ईश्वर-ईश्वरी
saṃsāra-bandha-hetuḥ ca sā eva sarva-īśvara-īśvarī
राजोवाच ॥ १.५९॥
भगवन् का हि सा देवी महामायेति यां भवान् ॥ १.६०॥
भगवन् का हि सा देवी महा-माया इति याम् भवान्
bhagavan kā hi sā devī mahā-māyā iti yām bhavān
ब्रवीति कथमुत्पन्ना सा कर्मास्याश्च किं द्विज । यत्प्रभावा च सा देवी यत्स्वरूपा यदुद्भवा ॥ १.६१॥
ब्रवीति कथम् उत्पन्ना सा कर्म अस्याः च किम् द्विज यत्-प्रभावा च सा देवी यत् स्व-रूपाः यत्-उद्भवा
bravīti katham utpannā sā karma asyāḥ ca kim dvija yat-prabhāvā ca sā devī yat sva-rūpāḥ yat-udbhavā
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तो ब्रह्मविदां वर ॥ १.६२॥
तत् सर्वम् श्रोतुम् इच्छामि त्वत्तः ब्रह्म-विदाम् वर
tat sarvam śrotum icchāmi tvattaḥ brahma-vidām vara
ऋषिरुवाच ॥ १.६३॥
नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तया सर्वमिदं ततम् ॥ १.६४॥
नित्या एव सा जगत्-मूर्तिः तया सर्वम् इदम् ततम्
nityā eva sā jagat-mūrtiḥ tayā sarvam idam tatam
तथापि तत्समुत्पत्तिर्बहुधा श्रूयतां मम । देवानां कार्यसिद्ध्यर्थमाविर्भवति सा यदा ॥ १.६५॥
तथापि तत् स-मुत् पत्तिः बहुधा श्रूयताम् मम देवानाम् कार्य-सिद्धि-अर्थम् आविर्भवति सा यदा
tathāpi tat sa-mut pattiḥ bahudhā śrūyatām mama devānām kārya-siddhi-artham āvirbhavati sā yadā
उत्पन्नेति तदा लोके सा नित्याप्यभिधीयते । योगनिद्रां यदा विष्णुर्जगत्येकार्णवीकृते ॥ १.६६॥
उत्पन्ना इति तदा लोके सा नित्या अपि अभिधीयते योग-निद्राम् यदा विष्णुः जगती-एक-अर्णवी-कृते
utpannā iti tadā loke sā nityā api abhidhīyate yoga-nidrām yadā viṣṇuḥ jagatī-eka-arṇavī-kṛte
आस्तीर्य शेषमभजत् कल्पान्ते भगवान् प्रभुः । तदा द्वावसुरौ घोरौ विख्यातौ मधुकैटभौ ॥ १.६७॥
आस्तीर्य शेषम् अभजत् कल्प-अन्ते भगवान् प्रभुः तदा द्वौ असुरौ घोरौ विख्यातौ मधु-कैटभौ
āstīrya śeṣam abhajat kalpa-ante bhagavān prabhuḥ tadā dvau asurau ghorau vikhyātau madhu-kaiṭabhau
विष्णुकर्णमलोद्भूतौ हन्तुं ब्रह्माणमुद्यतौ । स नाभिकमले विष्णोः स्थितो ब्रह्मा प्रजापतिः ॥ १.६८॥
विष्णु-कर्ण-मल-उद्भूतौ हन्तुम् ब्रह्माणम् उद्यतौ स नाभि-कमले विष्णोः स्थितः ब्रह्मा प्रजापतिः
viṣṇu-karṇa-mala-udbhūtau hantum brahmāṇam udyatau sa nābhi-kamale viṣṇoḥ sthitaḥ brahmā prajāpatiḥ
दृष्ट्वा तावसुरौ चोग्रौ प्रसुप्तं च जनार्दनम् । तुष्टाव योगनिद्रां तामेकाग्रहृदयः स्थितः ॥ १.६९॥
दृष्ट्वा तौ असुरौ च उग्रौ प्रसुप्तम् च जन-अर्दनम् तुष्टाव योग-निद्राम् ताम् एक-अग्र-हृदयः स्थितः
dṛṣṭvā tau asurau ca ugrau prasuptam ca jana-ardanam tuṣṭāva yoga-nidrām tām eka-agra-hṛdayaḥ sthitaḥ
विबोधनार्थाय हरेर्हरिनेत्रकृतालयाम् । विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम् ॥ १.७०॥
विबोधन् आर्थाय हरेः हरि-नेत्र-कृत-आलयाम् विश्व-ईश्वरीम् जगत्-धात्रीम् स्थिति-संहार-कारिणीम्
vibodhan ārthāya hareḥ hari-netra-kṛta-ālayām viśva-īśvarīm jagat-dhātrīm sthiti-saṃhāra-kāriṇīm
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः ॥ १.७१॥
निद्राम् भगवतीम् विष्णोः अतुलाम् तेजसः प्रभुः
nidrām bhagavatīm viṣṇoḥ atulām tejasaḥ prabhuḥ
ब्रह्मोवाच ॥ १.७२॥
त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका ॥ १.७३॥
त्वम् स्वाहा त्वम् स्वधा त्वम् हि वषट्कारः स्वर-आत्मिका
tvam svāhā tvam svadhā tvam hi vaṣaṭkāraḥ svara-ātmikā
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता । अर्धमात्रा स्थिता नित्या यानुच्चार्याविशेषतः ॥ १.७४॥
सुधा त्वम् अक्षरे नित्ये त्रिधा मातृ-आत्मिका स्थिता अर्ध-मात्रा स्थिताः नित्याः यान् उच्चार्या विशेषतः
sudhā tvam akṣare nitye tridhā mātṛ-ātmikā sthitā ardha-mātrā sthitāḥ nityāḥ yān uccāryā viśeṣataḥ
त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा । त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत् सृज्यते जगत् ॥ १.७५॥
त्वम् एव सन्ध्या सावित्री त्वम् देवि जननी परा त्वया एतत् धार्यते विश्वम् त्वया एतत् सृज्यते जगत्
tvam eva sandhyā sāvitrī tvam devi jananī parā tvayā etat dhāryate viśvam tvayā etat sṛjyate jagat
त्वयैतत् पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा । विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने ॥ १.७६॥
त्वया एतत् पाल्यते देवि त्वम् अत्सि अन्ते च सर्वदा विसृष्टौ सृष्टि-रूपा त्वम् स्थिति-रूपा च पालने
tvayā etat pālyate devi tvam atsi ante ca sarvadā visṛṣṭau sṛṣṭi-rūpā tvam sthiti-rūpā ca pālane
तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये । महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः ॥ १.७७॥
तथा संहृति-रूप-अन्ते जगतः अस्य जगत्-मये महा-विद्या-महा-माया-महा-मेधा-महा-स्मृतिः
tathā saṃhṛti-rūpa-ante jagataḥ asya jagat-maye mahā-vidyā-mahā-māyā-mahā-medhā-mahā-smṛtiḥ
महामोहा च भवती महादेवी महेश्वरी । प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी ॥ १.७८॥
महा-मोहा च भवती महा-देवी महेश्वरी प्रकृतिः त्वम् च सर्वस्य गुण-त्रय-विभाविनी
mahā-mohā ca bhavatī mahā-devī maheśvarī prakṛtiḥ tvam ca sarvasya guṇa-traya-vibhāvinī
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा । त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा ॥ १.७९॥
काल-रात्रिः महा-रात्रिः मोह-रात्रिः च दारुणा त्वम् श्रीः त्वम् ईश्वरी त्वम् ह्रीः त्वम् बुद्धिः बोध-लक्षणा
kāla-rātriḥ mahā-rātriḥ moha-rātriḥ ca dāruṇā tvam śrīḥ tvam īśvarī tvam hrīḥ tvam buddhiḥ bodha-lakṣaṇā
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च । खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा ॥ १.८०॥
लज्जा पुष्टिः तथा तुष्टिः त्वम् शान्तिः क्षान्तिः एव च खड्गिनी शूलिनी घोराः गदिनी चक्रिणी तथा
lajjā puṣṭiḥ tathā tuṣṭiḥ tvam śāntiḥ kṣāntiḥ eva ca khaḍginī śūlinī ghorāḥ gadinī cakriṇī tathā
शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा । सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी ॥ १.८१॥
शङ्खिनी चापिनी बाण-भुशुण्डी-परिघ-आयुधा सौम्या सौम्य-तर-अशेष-सौम्येभ्यः तु अति सुन्दरी
śaṅkhinī cāpinī bāṇa-bhuśuṇḍī-parigha-āyudhā saumyā saumya-tara-aśeṣa-saumyebhyaḥ tu ati sundarī
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी । यच्च किञ्चित्क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके ॥ १.८२॥
परा पराणाम् परमा त्वम् एव परमेश्वरी यत् च किञ्चित् क्वचित् वस्तु सत्-असत् वा खिल-आत्मिके
parā parāṇām paramā tvam eva parameśvarī yat ca kiñcit kvacit vastu sat-asat vā khila-ātmike
तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे मया । यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत् ॥ १.८३॥
तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वम् किम् स्तूयसे मया यया त्वया जगत्-स्रष्टा जगत्-पाती अत्ति यः जगत्
tasya sarvasya yā śaktiḥ sā tvam kim stūyase mayā yayā tvayā jagat-sraṣṭā jagat-pātī atti yaḥ jagat
सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः । विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च ॥ १.८४॥
सः अपि निद्रा-वशम् नीतः कः त्वाम् स्तोतुम् इह ईश्वरः विष्णुः शरीर-ग्रहणम् अहम् ईशानः एव च
saḥ api nidrā-vaśam nītaḥ kaḥ tvām stotum iha īśvaraḥ viṣṇuḥ śarīra-grahaṇam aham īśānaḥ eva ca
कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत् । सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता ॥ १.८५॥
कारिताः ते यतः अतः त्वाम् कः स्तोतुम् शक्तिमान् भवेत् सा त्वम् इत्थम् प्रभावैः स्वैः उदारैः देवि संस्तुता
kāritāḥ te yataḥ ataḥ tvām kaḥ stotum śaktimān bhavet sā tvam ittham prabhāvaiḥ svaiḥ udāraiḥ devi saṃstutā
मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ । प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु ॥ १.८६॥
मोहयै तौ दुराधर्षौ असुरौ मधु-कैटभौ प्रबोधम् च जगत्-स्वामी नीयताम् अच्युतः लघु
mohayai tau durādharṣau asurau madhu-kaiṭabhau prabodham ca jagat-svāmī nīyatām acyutaḥ laghu
बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ ॥ १.८७॥
बोधः च क्रियताम् अस्य हन्तुम् एतौ महा-असुरौ
bodhaḥ ca kriyatām asya hantum etau mahā-asurau
ऋषिरुवाच ॥ १.८८॥
एवं स्तुता तदा देवी तामसी तत्र वेधसा ॥ १.८९॥
एवम् स्तुता तदा देवी तामसी तत्र वेधसा
evam stutā tadā devī tāmasī tatra vedhasā
विष्णोः प्रबोधनार्थाय निहन्तुं मधुकैटभौ । नेत्रास्यनासिकाबाहुहृदयेभ्यस्तथोरसः ॥ १.९०॥
विष्णोः प्रबोधन-अर्थाय निहन्तुम् मधु-कैटभौ नेत्रा अस्य नासिका-बाहु-हृदयेभ्यः तथा उरसः
viṣṇoḥ prabodhana-arthāya nihantum madhu-kaiṭabhau netrā asya nāsikā-bāhu-hṛdayebhyaḥ tathā urasaḥ
निर्गम्य दर्शने तस्थौ ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः । उत्तस्थौ च जगन्नाथस्तया मुक्तो जनार्दनः ॥ १.९१॥
निर्गम्य दर्शने तस्थौ ब्रह्मणः अव्यक्त-जन्मनः उत्तस्थौ च जगत्-नाथः तया मुक्तः जन-अर्दनः
nirgamya darśane tasthau brahmaṇaḥ avyakta-janmanaḥ uttasthau ca jagat-nāthaḥ tayā muktaḥ jana-ardanaḥ
एकार्णवेऽहिशयनात्ततः स ददृशे च तौ । मधुकैटभौ दुरात्मानावतिवीर्यपराक्रमौ ॥ १.९२॥
एक-अर्णवे अहि-शयनात् ततः स ददृशे च तौ मधु-कैटभौ दुरात्मा न अवति वीर्य-पराक्रमौ
eka-arṇave ahi-śayanāt tataḥ sa dadṛśe ca tau madhu-kaiṭabhau durātmā na avati vīrya-parākramau
क्रोधरक्तेक्षणावत्तुं ब्रह्माणं जनितोद्यमौ । समुत्थाय ततस्ताभ्यां युयुधे भगवान् हरिः ॥ १.९३॥
क्रोध-रक्त-ईक्षणौ अत्तुम् ब्रह्माणम् जनित-उद्यमौ समुत्थाय ततः ताभ्याम् युयुधे भगवान् हरिः
krodha-rakta-īkṣaṇau attum brahmāṇam janita-udyamau samutthāya tataḥ tābhyām yuyudhe bhagavān hariḥ
पञ्चवर्षसहस्राणि बाहुप्रहरणो विभुः । तावप्यतिबलोन्मत्तौ महामायाविमोहितौ ॥ १.९४॥
पञ्च-वर्ष-सहस्राणि बाहु-प्रहरणः विभुः तौ अपि अतिबल-उन्मत्तौ महा-माया-विमोहितौ
pañca-varṣa-sahasrāṇi bāhu-praharaṇaḥ vibhuḥ tau api atibala-unmattau mahā-māyā-vimohitau
उक्तवन्तौ वरोऽस्मत्तो व्रियतामिति केशवम् ॥ १.९५॥
उक्तवन्तौ वरः अस्मत्तः व्रियताम् इति केशवम्
uktavantau varaḥ asmattaḥ vriyatām iti keśavam
श्रीभगवानुवाच ॥ १.९६॥
भवेतामद्य मे तुष्टौ मम वध्यावुभावपि ॥ १.९७॥
भवेताम् अद्य मे तुष्टौ मम वध्यौ उभौ अपि
bhavetām adya me tuṣṭau mama vadhyau ubhau api
किमन्येन वरेणात्र एतावद्धि वृतं मया ॥ १.९८॥
किम् अन्येन वरेण अत्रे एतावत् हि वृतम् मया
kim anyena vareṇa atre etāvat hi vṛtam mayā
ऋषिरुवाच ॥ १.९९॥
वञ्चिताभ्यामिति तदा सर्वमापोमयं जगत् ॥ १.१००॥
वञ्चिताभ्याम् इति तदा सर्वम् आपः मयम् जगत्
vañcitābhyām iti tadā sarvam āpaḥ mayam jagat
विलोक्य ताभ्यां गदितो भगवान् कमलेक्षणः । आवां जहि न यत्रोर्वी सलिलेन परिप्लुता ॥ १.१०१॥
विलोक्य ताभ्याम् गदितः भगवान् कमल-ईक्षणः आवाम् जहि न यत्र उर्वी सलिलेन परिप्लुता
vilokya tābhyām gaditaḥ bhagavān kamala-īkṣaṇaḥ āvām jahi na yatra urvī salilena pariplutā
ऋषिरुवाच ॥ १.१०२॥
तथेत्युक्त्वा भगवता शङ्खचक्रगदाभृता । कृत्वा चक्रेण वै छिन्ने जघने शिरसी तयोः ॥ १.१०३॥
तथा इति उक्त्वा भगवता शङ्ख-चक्र-गदा-भृता कृत्वा चक्रेण वै छिन्ने जघने शिरसी तयोः
tathā iti uktvā bhagavatā śaṅkha-cakra-gadā-bhṛtā kṛtvā cakreṇa vai chinne jaghane śirasī tayoḥ
एवमेषा समुत्पन्ना ब्रह्मणा संस्तुता स्वयम् । प्रभावमस्या देव्यास्तु भूयः शृणु वदामि ते ॥ १.१०४॥
एवम् एषा समुत्पन्ना ब्रह्मणा संस्तुता स्वयम् प्रभावम् अस्याः देव्याः तु भूयः शृणु वदामि ते
evam eṣā samutpannā brahmaṇā saṃstutā svayam prabhāvam asyāḥ devyāḥ tu bhūyaḥ śṛṇu vadāmi te
। ऐं ॐ ।
ऐम् ओं
aim oṃ
॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये मधुकैटभवधो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
स्वस्ति श्री-मार्कण्डेय-पुराणे सा वर्णिके मनु-अन्तरे देवी-माहात्म्ये मधु-कैटभ-वधः नाम प्रथमः अध्यायः
svasti śrī-mārkaṇḍeya-purāṇe sā varṇike manu-antare devī-māhātmye madhu-kaiṭabha-vadhaḥ nāma prathamaḥ adhyāyaḥ

Dvitiya Adhyaya

Collapse

उवाच १४
अर्धश्लोकाः २४
ardhaślokāḥ 24
॥ २. महिषासुरसैन्यवधो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥
महिष-असुर-सैन्य-वधः नाम द्वितीयः अध्यायः
mahiṣa-asura-sainya-vadhaḥ nāma dvitīyaḥ adhyāyaḥ
विनियोगः
विनियोगः
viniyogaḥ
अस्य श्री मध्यमचरित्रस्य विष्णुरृषिः । श्रीमहालक्ष्मीर्देवता । उष्णिक् छन्दः । शाकम्भरी शक्तिः । दुर्गा बीजम् । वायुस्तत्त्वम् । यजुर्वेदः स्वरूपम् । श्रीमहालक्ष्मीप्रीत्यर्थे मध्यमचरित्रजपे विनियोगः । यजुर्वेदः स्वरूपम् । श्रीमहालक्ष्मीप्रीत्यर्थे मध्यमचरित्रजपे विनियोगः ।
अस्य श्री मध्यम-चरित्रस्य विष्णुः ऋषिः श्री-महा-लक्ष्मीः देवता उष्णिक् छन्दः शाकम्भरी शक्तिः दुर्गा-बीजम् वायुः तत्त्वम् यजुः-वेदः स्व-रूपम् श्री-महा-लक्ष्मी-प्रीति-अर्थे मध्यम-चरित्र-जपे विनियोगः यजुः-वेदः स्व-रूपम् श्री-महा-लक्ष्मी-प्रीति-अर्थे मध्यम-चरित्र-जपे विनियोगः
asya śrī madhyama-caritrasya viṣṇuḥ ṛṣiḥ śrī-mahā-lakṣmīḥ devatā uṣṇik chandaḥ śākambharī śaktiḥ durgā-bījam vāyuḥ tattvam yajuḥ-vedaḥ sva-rūpam śrī-mahā-lakṣmī-prīti-arthe madhyama-caritra-jape viniyogaḥ yajuḥ-vedaḥ sva-rūpam śrī-mahā-lakṣmī-prīti-arthe madhyama-caritra-jape viniyogaḥ
। ध्यानम् ।
ध्यानम्
dhyānam
ॐ अक्षस्रक्परशू गदेषुकुलिशं पद्मं धनुः कुण्डिकां दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम् । शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रवालप्रभां सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम् ॥
ॐअक्ष-स्रक्-परशू गदेषु कुलिशम् पद्मम् धनुः कुण्डिकां दण्डम् शक्तिम् असिम् च चर्म जलजम् घण्टाम् सुरा-भाजनम् शूलम् पाश-सुदर्शने च दधतीम् हस्तैः प्रवालप्रभां सेवे सैरि-भ-मर्दिनीम् इह महा-लक्ष्मीम् सरोज-स्थिताम्
oṃakṣa-srak-paraśū gadeṣu kuliśam padmam dhanuḥ kuṇḍikāṃ daṇḍam śaktim asim ca carma jalajam ghaṇṭām surā-bhājanam śūlam pāśa-sudarśane ca dadhatīm hastaiḥ pravālaprabhāṃ seve sairi-bha-mardinīm iha mahā-lakṣmīm saroja-sthitām
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रवालप्रभां सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम् ॥ ॐ ह्रीं ऋषिरुवाच ॥ २.१॥
शूलम् पाश-सुदर्शने च दधतीम् हस्तैः प्रवालप्रभां सेवे सैरि-भ-मर्दिनीम् इह महा-लक्ष्मीम् सरोज-स्थिताम् ॐह्रीम् ऋषिः उवाच
śūlam pāśa-sudarśane ca dadhatīm hastaiḥ pravālaprabhāṃ seve sairi-bha-mardinīm iha mahā-lakṣmīm saroja-sthitām oṃhrīm ṛṣiḥ uvāca
देवासुरमभूद्युद्धं पूर्णमब्दशतं पुरा । महिषेऽसुराणामधिपे देवानां च पुरन्दरे ॥ २.२॥
देव-असुरम् अभूत् युद्धम् पूर्णम् अब्द-शतम् पुरा महिषे असुराणाम् अधिपे देवानाम् च पुरन्दरे
deva-asuram abhūt yuddham pūrṇam abda-śatam purā mahiṣe asurāṇām adhipe devānām ca purandare
तत्रासुरैर्महावीर्यैर्देवसैन्यं पराजितम् । जित्वा च सकलान् देवानिन्द्रोऽभून्महिषासुरः ॥ २.३॥
तत्र असुरैः महा-वीर्यैः देव-सैन्यम् पराजितम् जित्वा च सकलान् देवान् इन्द्रः अभूत् महिष-असुरः
tatra asuraiḥ mahā-vīryaiḥ deva-sainyam parājitam jitvā ca sakalān devān indraḥ abhūt mahiṣa-asuraḥ
ततः पराजिता देवाः पद्मयोनिं प्रजापतिम् । पुरस्कृत्य गतास्तत्र यत्रेशगरुडध्वजौ ॥ २.४॥
ततः पराजिताः देवाः पद्म-योनिम् प्रजापतिम् पुरस्कृत्य गताः तत्र यत्र ईश-गरुड-ध्वजौ
tataḥ parājitāḥ devāḥ padma-yonim prajāpatim puraskṛtya gatāḥ tatra yatra īśa-garuḍa-dhvajau
यथावृत्तं तयोस्तद्वन्महिषासुरचेष्टितम् । त्रिदशाः कथयामासुर्देवाभिभवविस्तरम् ॥ २.५॥
यथा वृत्तम् तयोः तद्वत् महिष-असुर-चेष्टितम् त्रिदशाः कथयाम असुः देव-अभिभव-विस्तरम्
yathā vṛttam tayoḥ tadvat mahiṣa-asura-ceṣṭitam tridaśāḥ kathayāma asuḥ deva-abhibhava-vistaram
सूर्येन्द्राग्न्यनिलेन्दूनां यमस्य वरुणस्य च । अन्येषां चाधिकारान्स स्वयमेवाधितिष्ठति ॥ २.६॥
सूर्य-इन्द्र-अग्नि-अनिल-इन्दूनाम् यमस्य वरुणस्य च अन्येषाम् च अधिकारान् स स्वयम् एव अधितिष्ठति
sūrya-indra-agni-anila-indūnām yamasya varuṇasya ca anyeṣām ca adhikārān sa svayam eva adhitiṣṭhati
स्वर्गान्निराकृताः सर्वे तेन देवगणा भुवि । विचरन्ति यथा मर्त्या महिषेण दुरात्मना ॥ २.७॥
स्वर्गात् निराकृताः सर्वे तेन देव-गणाः भुवि विचरन्ति यथा मर्त्याः महिषेण दुरात्मना
svargāt nirākṛtāḥ sarve tena deva-gaṇāḥ bhuvi vicaranti yathā martyāḥ mahiṣeṇa durātmanā
एतद्वः कथितं सर्वममरारिविचेष्टितम् । शरणं वः प्रपन्नाः स्मो वधस्तस्य विचिन्त्यताम् ॥ २.८॥
एतत् वः कथितम् सर्वम् अमर-अरि-विचेष्टितम् शरणम् वः प्रपन्नाः स्मः वधः तस्य विचिन्त्यताम्
etat vaḥ kathitam sarvam amara-ari-viceṣṭitam śaraṇam vaḥ prapannāḥ smaḥ vadhaḥ tasya vicintyatām
इत्थं निशम्य देवानां वचांसि मधुसूदनः । चकार कोपं शम्भुश्च भ्रुकुटीकुटिलाननौ ॥ २.९॥
इत्थम् निशम्य देवानाम् वचांसि मधुसूदनः चकार कोपम् शम्भुः च भ्रुकुटी-कुटिल-आननौ
ittham niśamya devānām vacāṃsi madhusūdanaḥ cakāra kopam śambhuḥ ca bhrukuṭī-kuṭila-ānanau
ततोऽतिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वदनात्ततः । निश्चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शङ्करस्य च ॥ २.१०॥
ततः अति कोप-पूर्णस्य चक्रिणः वदनात् ततः निश्चक्राम महत् तेजः ब्रह्मणः शङ्करस्य च
tataḥ ati kopa-pūrṇasya cakriṇaḥ vadanāt tataḥ niścakrāma mahat tejaḥ brahmaṇaḥ śaṅkarasya ca
अन्येषां चैव देवानां शक्रादीनां शरीरतः । निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत ॥ २.११॥
अन्येषाम् च एव देवानाम् शक्र-आदीनाम् शरीरतः निर्गतम् सुमहत् तेजः तत् च ऐक्यम् समगच्छत
anyeṣām ca eva devānām śakra-ādīnām śarīrataḥ nirgatam sumahat tejaḥ tat ca aikyam samagacchata
अतीव तेजसः कूटं ज्वलन्तमिव पर्वतम् । ददृशुस्ते सुरास्तत्र ज्वालाव्याप्तदिगन्तरम् ॥ २.१२॥
अतीव तेजसः कूटम् ज्वलन्तम् इव पर्वतम् ददृशुः ते सुराः तत्र ज्वाल-अव्याप्त-दिक्-अन्तरम्
atīva tejasaḥ kūṭam jvalantam iva parvatam dadṛśuḥ te surāḥ tatra jvāla-avyāpta-dik-antaram
अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम् । एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा ॥ २.१३॥
अतुलम् तत्र तत्-तेजः सर्व-देव-शरीर-जम् एक-स्थम् तत् अभूत् नारी व्याप्त-लोक-त्रयम् त्विषा
atulam tatra tat-tejaḥ sarva-deva-śarīra-jam eka-stham tat abhūt nārī vyāpta-loka-trayam tviṣā
यदभूच्छाम्भवं तेजस्तेनाजायत तन्मुखम् । याम्येन चाभवन् केशा बाहवो विष्णुतेजसा ॥ २.१४॥
यत् अभूत् शाम्भवम् तेजः तेन अजायत तत् मुखम् याम्येन च अभवन् केशाः बाहवः विष्णु-तेजसा
yat abhūt śāmbhavam tejaḥ tena ajāyata tat mukham yāmyena ca abhavan keśāḥ bāhavaḥ viṣṇu-tejasā
सौम्येन स्तनयोर्युग्मं मध्यं चैन्द्रेण चाभवत् । वारुणेन च जङ्घोरू नितम्बस्तेजसा भुवः ॥ २.१५॥
सौम्येन स्तनयोः युग्मम् मध्यम् च ऐन्द्रेण च अभवत् वारुणेन च जङ्घा ऊरू नितम्बः तेजसा भुवः
saumyena stanayoḥ yugmam madhyam ca aindreṇa ca abhavat vāruṇena ca jaṅghā ūrū nitambaḥ tejasā bhuvaḥ
ब्रह्मणस्तेजसा पादौ तदङ्गुल्योऽर्कतेजसा । वसूनां च कराङ्गुल्यः कौबेरेण च नासिका ॥ २.१६॥
ब्रह्मणः तेजसा पादौ तत् अङ्गुल्यः अर्क-तेजसा वसूनाम् च कर-अङ्गुल्यः कौबेरेण च नासिका
brahmaṇaḥ tejasā pādau tat aṅgulyaḥ arka-tejasā vasūnām ca kara-aṅgulyaḥ kaubereṇa ca nāsikā
तस्यास्तु दन्ताः सम्भूताः प्राजापत्येन तेजसा । नयनत्रितयं जज्ञे तथा पावकतेजसा ॥ २.१७॥
तस्याः तु दन्ताः सम्भूताः प्राजापत्येन तेजसा नयन-त्रितयम् जज्ञे तथा पावक-तेजसा
tasyāḥ tu dantāḥ sambhūtāḥ prājāpatyena tejasā nayana-tritayam jajñe tathā pāvaka-tejasā
भ्रुवौ च सन्ध्ययोस्तेजः श्रवणावनिलस्य च । अन्येषां चैव देवानां सम्भवस्तेजसां शिवा ॥ २.१८॥
भ्रुवौ च सन्ध्ययोः तेजः श्रवणौ अनिलस्य च अन्येषाम् च एव देवानाम् सम्भवः तेजसाम् शिवा
bhruvau ca sandhyayoḥ tejaḥ śravaṇau anilasya ca anyeṣām ca eva devānām sambhavaḥ tejasām śivā
ततः समस्तदेवानां तेजोराशिसमुद्भवाम् । तां विलोक्य मुदं प्रापुरमरा महिषार्दिताः । ततो देवा ददुस्तस्यै स्वानि स्वान्यायुधानि च ॥ २.१९॥
ताम् विलोक्य मुदम् प्रापुः अमराः महिष-अर्दिताः ततः देवाः ददुः तस्यै स्वानि स्वानि आयुधानि च
tām vilokya mudam prāpuḥ amarāḥ mahiṣa-arditāḥ tataḥ devāḥ daduḥ tasyai svāni svāni āyudhāni ca
शूलं शूलाद्विनिष्कृष्य ददौ तस्यै पिनाकधृक् । चक्रं च दत्तवान् कृष्णः समुत्पाट्य स्वचक्रतः ॥ २.२०॥
शूलम् शूला द्वि-निष्कृष्य ददौ तस्यै पिनाक-धृक् चक्रम् च दत्तवान् कृष्णः स-मुत् पाट्य स्वचक्रतः
śūlam śūlā dvi-niṣkṛṣya dadau tasyai pināka-dhṛk cakram ca dattavān kṛṣṇaḥ sa-mut pāṭya svacakrataḥ
शङ्खं च वरुणः शक्तिं ददौ तस्यै हुताशनः । मारुतो दत्तवांश्चापं बाणपूर्णे तथेषुधी ॥ २.२१॥
शङ्खम् च वरुणः शक्तिम् ददौ तस्यै हुताशनः मारुतः दत्तवान् चापम् बाण-पूर्णे तथा इषुधी
śaṅkham ca varuṇaḥ śaktim dadau tasyai hutāśanaḥ mārutaḥ dattavān cāpam bāṇa-pūrṇe tathā iṣudhī
वज्रमिन्द्रः समुत्पाट्य कुलिशादमराधिपः । ददौ तस्यै सहस्राक्षो घण्टामैरावताद्गजात् ॥ २.२२॥
वज्रम् इन्द्रः स-मुत् पाट्य कुलिशात् अमर-अधिपः ददौ तस्यै सहस्र-अक्षः घण्टाम् ऐरावतात् गजात्
vajram indraḥ sa-mut pāṭya kuliśāt amara-adhipaḥ dadau tasyai sahasra-akṣaḥ ghaṇṭām airāvatāt gajāt
कालदण्डाद्यमो दण्डं पाशं चाम्बुपतिर्ददौ । प्रजापतिश्चाक्षमालां ददौ ब्रह्मा कमण्डलुम् ॥ २.२३॥
काल-दण्डात् यमः दण्डम् पाशम् च अम्बु-पतिः ददौ प्रजापतिः च अक्ष-मालाम् ददौ ब्रह्मा कमण्डलुम्
kāla-daṇḍāt yamaḥ daṇḍam pāśam ca ambu-patiḥ dadau prajāpatiḥ ca akṣa-mālām dadau brahmā kamaṇḍalum
समस्तरोमकूपेषु निजरश्मीन् दिवाकरः । कालश्च दत्तवान् खड्गं तस्यै चर्म च निर्मलम् ॥ २.२४॥
समस्त-रोम-कूपेषु निज-रश्मीन् दिवा-करः कालः च दत्तवान् खड्गम् तस्यै चर्म च निर्मलम्
samasta-roma-kūpeṣu nija-raśmīn divā-karaḥ kālaḥ ca dattavān khaḍgam tasyai carma ca nirmalam
क्षीरोदश्चामलं हारमजरे च तथाम्बरे । चूडामणिं तथा दिव्यं कुण्डले कटकानि च ॥ २.२५॥
क्षीर-उदः च अमलम् हारम् अजरे च तथा अम्बरे चूडा-मणिम् तथा दिव्यम् कुण्डले कटकानि च
kṣīra-udaḥ ca amalam hāram ajare ca tathā ambare cūḍā-maṇim tathā divyam kuṇḍale kaṭakāni ca
अर्धचन्द्रं तथा शुभ्रं केयूरान् सर्वबाहुषु । नूपुरौ विमलौ तद्वद् ग्रैवेयकमनुत्तमम् ॥ २.२६॥
अर्ध-चन्द्रम् तथा शुभ्रम् केयूरान् सर्व-बाहुषु नूपुरौ विमलौ तद्वत् ग्रैवेयकम् अनुत्तमम्
ardha-candram tathā śubhram keyūrān sarva-bāhuṣu nūpurau vimalau tadvat graiveyakam anuttamam
अङ्गुलीयकरत्नानि समस्तास्वङ्गुलीषु च । विश्वकर्मा ददौ तस्यै परशुं चातिनिर्मलम् ॥ २.२७॥
अङ्गुलीयक-रत्नानि समस्तासु अङ्गुलीषु च विश्व-कर्मा ददौ तस्यै परशुम् च अति-निर्मलम्
aṅgulīyaka-ratnāni samastāsu aṅgulīṣu ca viśva-karmā dadau tasyai paraśum ca ati-nirmalam
अस्त्राण्यनेकरूपाणि तथाभेद्यं च दंशनम् । अम्लानपङ्कजां मालां शिरस्युरसि चापराम् ॥ २.२८॥
अस्त्राणि अनेक-रूपाणि तथा भेद्यम् च दंशनम् अम्ला न पङ्क-जाम् मालाम् शिरसि उरसि च अपराम्
astrāṇi aneka-rūpāṇi tathā bhedyam ca daṃśanam amlā na paṅka-jām mālām śirasi urasi ca aparām
अददज्जलधिस्तस्यै पङ्कजं चातिशोभनम् । हिमवान् वाहनं सिंहं रत्नानि विविधानि च ॥ २.२९॥
अददत् जलधिः तस्यै पङ्कजम् च अति-शोभनम् हिमवान् वाहनम् सिंहम् रत्नानि विविधानि च
adadat jaladhiḥ tasyai paṅkajam ca ati-śobhanam himavān vāhanam siṃham ratnāni vividhāni ca
ददावशून्यं सुरया पानपात्रं धनाधिपः । शेषश्च सर्वनागेशो महामणिविभूषितम् ॥ २.३०॥
ददौ अशून्यम् सुरया पान-पात्रम् धन-अधिपः शेषः च सर्व-नाग-ईशः महा-मणि-विभूषितम्
dadau aśūnyam surayā pāna-pātram dhana-adhipaḥ śeṣaḥ ca sarva-nāga-īśaḥ mahā-maṇi-vibhūṣitam
नागहारं ददौ तस्यै धत्ते यः पृथिवीमिमाम् । अन्यैरपि सुरैर्देवी भूषणैरायुधैस्तथा ॥ २.३१॥
नाग-हारम् ददौ तस्यै धत्ते यः पृथिवीम् इमाम् अन्यैः अपि सुरैः देवी भूषणैः आयुधैः तथा
nāga-hāram dadau tasyai dhatte yaḥ pṛthivīm imām anyaiḥ api suraiḥ devī bhūṣaṇaiḥ āyudhaiḥ tathā
सम्मानिता ननादोच्चैः साट्टहासं मुहुर्मुहुः । तस्या नादेन घोरेण कृत्स्नमापूरितं नभः ॥ २.३२॥
सम्मानिताः ननाद उच्चैः सा अट्ट-हासम् मुहुः मुहुः तस्याः नादेन घोरेण कृत्स्नम् आपूरितम् नभः
sammānitāḥ nanāda uccaiḥ sā aṭṭa-hāsam muhuḥ muhuḥ tasyāḥ nādena ghoreṇa kṛtsnam āpūritam nabhaḥ
अमायतातिमहता प्रतिशब्दो महानभूत् । चुक्षुभुः सकला लोकाः समुद्राश्च चकम्पिरे ॥ २.३३॥
अमाय-ताति महता प्रतिशब्दः महान् अभूत् चुक्षुभुः सकलाः लोकाः समुद्राः च चकम्पिरे
amāya-tāti mahatā pratiśabdaḥ mahān abhūt cukṣubhuḥ sakalāḥ lokāḥ samudrāḥ ca cakampire
चचाल वसुधा चेलुः सकलाश्च महीधराः । जयेति देवाश्च मुदा तामूचुः सिंहवाहिनीम् ॥ २.३४॥
चचाल वसुधा चेलुः सकलाः च मही-धराः जय इति देवाः च मुदा ताम् ऊचुः सिंह-वाहिनीम्
cacāla vasudhā celuḥ sakalāḥ ca mahī-dharāḥ jaya iti devāḥ ca mudā tām ūcuḥ siṃha-vāhinīm
तुष्टुवुर्मुनयश्चैनां भक्तिनम्रात्ममूर्तयः । दृष्ट्वा समस्तं सङ्क्षुब्धं त्रैलोक्यममरारयः ॥ २.३५॥
तुष्टुवुः मुनयः च एनाम् भक्ति-नम्र-आत्म-मूर्तयः दृष्ट्वा समस्तम् सङ्क्षुब्धम् त्रैलोक्यम् अमर-अरयः
tuṣṭuvuḥ munayaḥ ca enām bhakti-namra-ātma-mūrtayaḥ dṛṣṭvā samastam saṅkṣubdham trailokyam amara-arayaḥ
सन्नद्धाखिलसैन्यास्ते समुत्तस्थुरुदायुधाः । आः किमेतदिति क्रोधादाभाष्य महिषासुरः ॥ २.३६॥
सन्नद्धा खिल-सैन्याः ते समुत्तस्थुः उद-आयुधाः आः किम् एतत् इति क्रोधात् आभाष्य महिष-असुरः
sannaddhā khila-sainyāḥ te samuttasthuḥ uda-āyudhāḥ āḥ kim etat iti krodhāt ābhāṣya mahiṣa-asuraḥ
अभ्यधावत तं शब्दमशेषैरसुरैर्वृतः । स ददर्श ततो देवीं व्याप्तलोकत्रयां त्विषा ॥ २.३७॥
अभ्यधावत तम् शब्दम् अशेषैः असुरैः वृतः स ददर्श ततः देवीम् व्याप्त-लोक-त्र-याम् त्विषा
abhyadhāvata tam śabdam aśeṣaiḥ asuraiḥ vṛtaḥ sa dadarśa tataḥ devīm vyāpta-loka-tra-yām tviṣā
पादाक्रान्त्या नतभुवं किरीटोल्लिखिताम्बराम् । क्षोभिताशेषपातालां धनुर्ज्यानिःस्वनेन ताम् ॥ २.३८॥
पादाक्रान्त्या नतभुवम् किरीट-उल्लिखित-अम्बराम् क्षोभित-अशेष-पातालाम् धनुः-ज्या-निःस्वनेन ताम्
pādākrāntyā natabhuvam kirīṭa-ullikhita-ambarām kṣobhita-aśeṣa-pātālām dhanuḥ-jyā-niḥsvanena tām
दिशो भुजसहस्रेण समन्ताद्व्याप्य संस्थिताम् । ततः प्रववृते युद्धं तया देव्या सुरद्विषाम् ॥ २.३९॥
दिशः भुज-सहस्रेण समन्तात् व्याप्य संस्थिताम् ततः प्रववृते युद्धम् तया देव्या सुर-द्विषाम्
diśaḥ bhuja-sahasreṇa samantāt vyāpya saṃsthitām tataḥ pravavṛte yuddham tayā devyā sura-dviṣām
शस्त्रास्त्रैर्बहुधा मुक्तैरादीपितदिगन्तरम् । महिषासुरसेनानीश्चिक्षुराख्यो महासुरः ॥ २.४०॥
शस्त्र-अस्त्रैः बहुधा मुक्तैः आदीपित-दिक्-अन्तरम् महिषासुरसेनानीश्चिक्षुराख्यः महा-असुरः
śastra-astraiḥ bahudhā muktaiḥ ādīpita-dik-antaram mahiṣāsurasenānīścikṣurākhyaḥ mahā-asuraḥ
युयुधे चामरश्चान्यैश्चतुरङ्गबलान्वितः । रथानामयुतैः षड्भिरुदग्राख्यो महासुरः ॥ २.४१॥
युयुधे च अमरः च अन्यैः च तुरङ्ग-बल-अन्वितः रथानाम् अयुतैः षड्भिः उदग्र-आख्यः महा-असुरः
yuyudhe ca amaraḥ ca anyaiḥ ca turaṅga-bala-anvitaḥ rathānām ayutaiḥ ṣaḍbhiḥ udagra-ākhyaḥ mahā-asuraḥ
अयुध्यतायुतानां च सहस्रेण महाहनुः । पञ्चाशद्भिश्च नियुतैरसिलोमा महासुरः ॥ २.४२॥
अयुध्यत आयुतानाम् च सहस्रेण महा-हनुः पञ्चाशद्भिः च नियुतैः असि लोमाः महा-असुरः
ayudhyata āyutānām ca sahasreṇa mahā-hanuḥ pañcāśadbhiḥ ca niyutaiḥ asi lomāḥ mahā-asuraḥ
अयुतानां शतैः षड्भिर्बाष्कलो युयुधे रणे । गजवाजिसहस्रौघैरनेकैः परिवारितः ॥ २.४३॥
अयुतानाम् शतैः षड्भिः बाष्कलः युयुधे रणे गज-वाजि-सहस्र-ओघैः अनेकैः परिवारितः
ayutānām śataiḥ ṣaḍbhiḥ bāṣkalaḥ yuyudhe raṇe gaja-vāji-sahasra-oghaiḥ anekaiḥ parivāritaḥ
वृतो रथानां कोट्या च युद्धे तस्मिन्नयुध्यत । बिडालाख्योऽयुतानां च पञ्चाशद्भिरथायुतैः ॥ २.४४॥
वृतः रथानाम् कोट्या च युद्धे तस्मिन् अयुध्यत बिडाल-आख्यः अयुतानाम् च पञ्चाशद्भिः अथ आयुतैः
vṛtaḥ rathānām koṭyā ca yuddhe tasmin ayudhyata biḍāla-ākhyaḥ ayutānām ca pañcāśadbhiḥ atha āyutaiḥ
युयुधे संयुगे तत्र रथानां परिवारितः । अन्ये च तत्रायुतशो रथनागहयैर्वृताः ॥ २.४५॥
युयुधे संयुगे तत्र रथानाम् परिवारितः अन्ये च तत्रायुतशः रथ-नाग-हयैः वृताः
yuyudhe saṃyuge tatra rathānām parivāritaḥ anye ca tatrāyutaśaḥ ratha-nāga-hayaiḥ vṛtāḥ
युयुधुः संयुगे देव्या सह तत्र महासुराः । कोटिकोटिसहस्रैस्तु रथानां दन्तिनां तथा ॥ २.४६॥
युयुधुः संयुगे देव्या सह तत्र महा-असुराः कोटि-कोटि-सहस्रैः तु रथानाम् दन्तिनाम् तथा
yuyudhuḥ saṃyuge devyā saha tatra mahā-asurāḥ koṭi-koṭi-sahasraiḥ tu rathānām dantinām tathā
हयानां च वृतो युद्धे तत्राभून्महिषासुरः । तोमरैर्भिन्दिपालैश्च शक्तिभिर्मुसलैस्तथा ॥ २.४७॥
हयानाम् च वृतः युद्धे तत्र अभूत् महिष-असुरः तोमरैः भिन्दिपालैः च शक्तिभिः मुसलैः तथा
hayānām ca vṛtaḥ yuddhe tatra abhūt mahiṣa-asuraḥ tomaraiḥ bhindipālaiḥ ca śaktibhiḥ musalaiḥ tathā
युयुधुः संयुगे देव्या खड्गैः परशुपट्टिशैः । केचिच्च चिक्षिपुः शक्तीः केचित् पाशांस्तथापरे ॥ २.४८॥
युयुधुः संयुगे देव्या खड्गैः परशु-पट्टिशैः केचित् च चिक्षिपुः शक्तीः केचित् पाशान् तथा अपरे
yuyudhuḥ saṃyuge devyā khaḍgaiḥ paraśu-paṭṭiśaiḥ kecit ca cikṣipuḥ śaktīḥ kecit pāśān tathā apare
देवीं खड्गप्रहारैस्तु ते तां हन्तुं प्रचक्रमुः । सापि देवी ततस्तानि शस्त्राण्यस्त्राणि चण्डिका ॥ २.४९॥
देवीम् खड्ग-प्रहारैः तु ते ताम् हन्तुम् प्रचक्रमुः सा अपि देवी ततः तानि शस्त्राणि अस्त्राणि चण्डिका
devīm khaḍga-prahāraiḥ tu te tām hantum pracakramuḥ sā api devī tataḥ tāni śastrāṇi astrāṇi caṇḍikā
लीलयैव प्रचिच्छेद निजशस्त्रास्त्रवर्षिणी । अनायस्तानना देवी स्तूयमाना सुरर्षिभिः ॥ २.५०॥
लीलया एव प्रचिच्छेद निज-शस्त्र-अस्त्र-वर्षिणी अनायस्तानना देवी स्तूयमाना सुर-ऋषिभिः
līlayā eva praciccheda nija-śastra-astra-varṣiṇī anāyastānanā devī stūyamānā sura-ṛṣibhiḥ
मुमोचासुरदेहेषु शस्त्राण्यस्त्राणि चेश्वरी । सोऽपि क्रुद्धो धुतसटो देव्या वाहनकेसरी ॥ २.५१॥
मुमोच असुर-देहेषु शस्त्राणि अस्त्राणि च ईश्वरी सः अपि क्रुद्धः धुत-सटः देव्याः वाहन-केसरी
mumoca asura-deheṣu śastrāṇi astrāṇi ca īśvarī saḥ api kruddhaḥ dhuta-saṭaḥ devyāḥ vāhana-kesarī
चचारासुरसैन्येषु वनेष्विव हुताशनः । निःश्वासान् मुमुचे यांश्च युध्यमाना रणेऽम्बिका ॥ २.५२॥
चचार असुर-सैन्येषु वनेषु इव हुताशनः निःश्वासान् मुमुचे यान् च युध्यमानाः रणे अम्बिका
cacāra asura-sainyeṣu vaneṣu iva hutāśanaḥ niḥśvāsān mumuce yān ca yudhyamānāḥ raṇe ambikā
त एव सद्यः सम्भूता गणाः शतसहस्रशः । युयुधुस्ते परशुभिर्भिन्दिपालासिपट्टिशैः ॥ २.५३॥
ते एव सद्यः सम्भूताः गणाः शतसहस्रशः युयुधुः ते परशुभिः भिन्दिपाल-असि-पट्टिशैः
te eva sadyaḥ sambhūtāḥ gaṇāḥ śatasahasraśaḥ yuyudhuḥ te paraśubhiḥ bhindipāla-asi-paṭṭiśaiḥ
नाशयन्तोऽसुरगणान् देवीशक्त्युपबृंहिताः । अवादयन्त पटहान् गणाः शङ्खांस्तथापरे ॥ २.५४॥
नाशयन्तः असुर-गणान् देवी शक्ति-उपबृंहिताः अवादयन्त पटहान् गणाः शङ्खान् तथा अपरे
nāśayantaḥ asura-gaṇān devī śakti-upabṛṃhitāḥ avādayanta paṭahān gaṇāḥ śaṅkhān tathā apare
मृदङ्गांश्च तथैवान्ये तस्मिन् युद्धमहोत्सवे । ततो देवी त्रिशूलेन गदया शक्तिवृष्टिभिः ॥ २.५५॥
मृदङ्गान् च तथा एव अन्ये तस्मिन् युद्ध-महोत्सवे ततः देवी त्रि-शूलेन गदया शक्ति-वृष्टिभिः
mṛdaṅgān ca tathā eva anye tasmin yuddha-mahotsave tataḥ devī tri-śūlena gadayā śakti-vṛṣṭibhiḥ
खड्गादिभिश्च शतशो निजघान महासुरान् । पातयामास चैवान्यान् घण्टास्वनविमोहितान् ॥ २.५६॥
खड्ग-आदिभिः च शतशः निजघान महा-असुरान् पातयाम आस च एव अन्यान् घण्टा-स्वन-विमोहितान्
khaḍga-ādibhiḥ ca śataśaḥ nijaghāna mahā-asurān pātayāma āsa ca eva anyān ghaṇṭā-svana-vimohitān
असुरान् भुवि पाशेन बद्ध्वा चान्यानकर्षयत् । केचिद् द्विधाकृतास्तीक्ष्णैः खड्गपातैस्तथापरे ॥ २.५७॥
असुरान् भुवि पाशेन बद्ध्वा च अन्यान् अकर्षयत् केचित् द्विधा कृताः तीक्ष्णैः खड्ग-पातैः तथा अपरे
asurān bhuvi pāśena baddhvā ca anyān akarṣayat kecit dvidhā kṛtāḥ tīkṣṇaiḥ khaḍga-pātaiḥ tathā apare
विपोथिता निपातेन गदया भुवि शेरते । वेमुश्च केचिद्रुधिरं मुसलेन भृशं हताः ॥ २.५८॥
विपोथिता निपातेन गदया भुवि शेरते वेमुः च केचित् रुधिरम् मुसलेन भृशम् हताः
vipothitā nipātena gadayā bhuvi śerate vemuḥ ca kecit rudhiram musalena bhṛśam hatāḥ
केचिन्निपतिता भूमौ भिन्नाः शूलेन वक्षसि । निरन्तराः शरौघेण कृताः केचिद्रणाजिरे ॥ २.५९॥
केचित् निपतिताः भूमौ भिन्नाः शूलेन वक्षसि निरन्तराः शरौघेण कृताः केचित् रण-अजिरे
kecit nipatitāḥ bhūmau bhinnāḥ śūlena vakṣasi nirantarāḥ śaraugheṇa kṛtāḥ kecit raṇa-ajire
श्येनानुकारिणः प्राणान् मुमुचुस्त्रिदशार्दनाः । केषाञ्चिद् बाहवश्छिन्नाश्छिन्नग्रीवास्तथापरे ॥ २.६०॥
श्येन-अनुकारिणः प्राणान् मुमुचुः त्रि-दश-अर्दनाः केषाम् चित् बाहवः छिन्नाः छिन्न-ग्रीवाः तथा अपरे
śyena-anukāriṇaḥ prāṇān mumucuḥ tri-daśa-ardanāḥ keṣām cit bāhavaḥ chinnāḥ chinna-grīvāḥ tathā apare
शिरांसि पेतुरन्येषामन्ये मध्ये विदारिताः । विच्छिन्नजङ्घास्त्वपरे पेतुरुर्व्यां महासुराः ॥ २.६१॥
शिरांसि पेतुः अन्येषाम् अन्ये मध्ये विदारिताः विच्छिन्न-जङ्घाः तु अपरे पेतुः उर्व्याम् महा-असुराः
śirāṃsi petuḥ anyeṣām anye madhye vidāritāḥ vicchinna-jaṅghāḥ tu apare petuḥ urvyām mahā-asurāḥ
एकबाह्वक्षिचरणाः केचिद्देव्या द्विधाकृताः । छिन्नेऽपि चान्ये शिरसि पतिताः पुनरुत्थिताः ॥ २.६२॥
एक-बाहु-अक्षि-चरणाः केचित् देव्याः द्विधा कृताः छिन्ने अपि च अन्ये शिरसि पतिताः पुनः-उत्थिताः
eka-bāhu-akṣi-caraṇāḥ kecit devyāḥ dvidhā kṛtāḥ chinne api ca anye śirasi patitāḥ punaḥ-utthitāḥ
कबन्धा युयुधुर्देव्या गृहीतपरमायुधाः । ननृतुश्चापरे तत्र युद्धे तूर्यलयाश्रिताः ॥ २.६३॥
कबन्धाः युयुधुः देव्याः गृहीत-परम-आयुधाः ननृतुः च अपरे तत्र युद्धे तूर्य-लय-आश्रिताः
kabandhāḥ yuyudhuḥ devyāḥ gṛhīta-parama-āyudhāḥ nanṛtuḥ ca apare tatra yuddhe tūrya-laya-āśritāḥ
कबन्धाश्छिन्नशिरसः खड्गशक्त्यृष्टिपाणयः । तिष्ठ तिष्ठेति भाषन्तो देवीमन्ये महासुराः ॥ २.६४॥
कबन्धाः छिन्न-शिरसः खड्ग-शक्ति-ऋष्टि-पाणयः तिष्ठ तिष्ठ इति भाषन्तः देवीम् अन्ये महा-असुराः
kabandhāḥ chinna-śirasaḥ khaḍga-śakti-ṛṣṭi-pāṇayaḥ tiṣṭha tiṣṭha iti bhāṣantaḥ devīm anye mahā-asurāḥ
पातितै रथनागाश्वैरसुरैश्च वसुन्धरा । अगम्या साभवत्तत्र यत्राभूत् स महारणः ॥ २.६५॥
पातितैः रथ-नाग-अश्वैः असुरैः च वसुन्धरा अगम्या सा अभवत् तत्र यत्र अभूत् स महा-रणः
pātitaiḥ ratha-nāga-aśvaiḥ asuraiḥ ca vasundharā agamyā sā abhavat tatra yatra abhūt sa mahā-raṇaḥ
शोणितौघा महानद्यः सद्यस्तत्र प्रसुस्रुवुः । मध्ये चासुरसैन्यस्य वारणासुरवाजिनाम् ॥ २.६६॥
शोणित-ओघाः महा-नद्यः सद्यः तत्र प्रसुस्रुवुः मध्ये च असुर-सैन्यस्य वारण-असुर-वाजिनाम्
śoṇita-oghāḥ mahā-nadyaḥ sadyaḥ tatra prasusruvuḥ madhye ca asura-sainyasya vāraṇa-asura-vājinām
क्षणेन तन्महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका । निन्ये क्षयं यथा वह्निस्तृणदारुमहाचयम् ॥ २.६७॥
क्षणेन तत् महा-सैन्यम् असुराणाम् तथा अम्बिका निन्ये क्षयम् यथा वह्निः तृण-दारु-महा-चयम्
kṣaṇena tat mahā-sainyam asurāṇām tathā ambikā ninye kṣayam yathā vahniḥ tṛṇa-dāru-mahā-cayam
स च सिंहो महानादमुत्सृजन् धुतकेसरः । शरीरेभ्योऽमरारीणामसूनिव विचिन्वति ॥ २.६८॥
स च सिंहः महा-नादम् उत्सृजन् धुत-केसरः शरीरेभ्यः अमर-अरीणाम् असून् इव विचिन्वति
sa ca siṃhaḥ mahā-nādam utsṛjan dhuta-kesaraḥ śarīrebhyaḥ amara-arīṇām asūn iva vicinvati
देव्या गणैश्च तैस्तत्र कृतं युद्धं तथासुरैः । यथैषां तुतुषुर्देवाः पुष्पवृष्टिमुचो दिवि ॥ २.६९॥
देव्याः गणैः च तैः तत्र कृतम् युद्धम् तथा सुरैः यथा एषाम् तुतुषुः देवाः पुष्प-वृष्टि-मुचः दिवि
devyāḥ gaṇaiḥ ca taiḥ tatra kṛtam yuddham tathā suraiḥ yathā eṣām tutuṣuḥ devāḥ puṣpa-vṛṣṭi-mucaḥ divi
॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये महिषासुरसैन्यवधो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
स्वस्ति श्री-मार्कण्डेय-पुराणे सा वर्णिके मनु-अन्तरे देवी-माहात्म्ये महिष-असुर-सैन्य-वधः नाम द्वितीयः अध्यायः
svasti śrī-mārkaṇḍeya-purāṇe sā varṇike manu-antare devī-māhātmye mahiṣa-asura-sainya-vadhaḥ nāma dvitīyaḥ adhyāyaḥ

Tritiya Adhyaya

Collapse

उवाच १
॥ ३. महिषासुरवधो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥
महिष-असुर-वधः नाम तृतीयः अध्यायः
mahiṣa-asura-vadhaḥ nāma tṛtīyaḥ adhyāyaḥ
। ध्यानम् ।
ध्यानम्
dhyānam
ॐ उद्यद्भानुसहस्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां रक्तालिप्तपयोधरां जपवटीं विद्यामभीतिं वरम् । हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं देवीं बद्धहिमांशुरत्नमुकुटां वन्देऽरविन्दस्थिताम् ।
ॐउद्यत्-भानु-सहस्र-कान्तिम् अरुण-क्षौ माम् शिरोमालिकां रक्त-आलिप्त-पयः-धराम् जपवटीम् विद्याम भीतिम् वरम् हस्त-अब्जैः दधतीम् त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं देवीम् बद्ध-हिम-अंशु-रत्न-मुकुटाम् वन्दे अरविन्द-स्थिताम्
oṃudyat-bhānu-sahasra-kāntim aruṇa-kṣau mām śiromālikāṃ rakta-ālipta-payaḥ-dharām japavaṭīm vidyāma bhītim varam hasta-abjaiḥ dadhatīm trinetravilasadvaktrāravindaśriyaṃ devīm baddha-hima-aṃśu-ratna-mukuṭām vande aravinda-sthitām
हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं देवीं बद्धहिमांशुरत्नमुकुटां वन्देऽरविन्दस्थिताम् । ॐ ऋषिरुवाच ॥ ३.१॥
हस्त-अब्जैः दधतीम् त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं देवीम् बद्ध-हिम-अंशु-रत्न-मुकुटाम् वन्दे अरविन्द-स्थिताम् ॐऋषिः उवाच
hasta-abjaiḥ dadhatīm trinetravilasadvaktrāravindaśriyaṃ devīm baddha-hima-aṃśu-ratna-mukuṭām vande aravinda-sthitām oṃṛṣiḥ uvāca
निहन्यमानं तत्सैन्यमवलोक्य महासुरः । सेनानीश्चिक्षुरः कोपाद्ययौ योद्धुमथाम्बिकाम् ॥ ३.२॥
निहन्यमानम् तत् सैन्यम् अवलोक्य महा-असुरः सेनानीश्चिक्षुरः कोपात् ययौ योद्धुम् अथ अम्बिकाम्
nihanyamānam tat sainyam avalokya mahā-asuraḥ senānīścikṣuraḥ kopāt yayau yoddhum atha ambikām
स देवीं शरवर्षेण ववर्ष समरेऽसुरः । यथा मेरुगिरेः शृङ्गं तोयवर्षेण तोयदः ॥ ३.३॥
स देवीम् शर-वर्षेण ववर्ष समरे असुरः यथा मेरु-गिरेः शृङ्गम् तोय-वर्षेण तोय-दः
sa devīm śara-varṣeṇa vavarṣa samare asuraḥ yathā meru-gireḥ śṛṅgam toya-varṣeṇa toya-daḥ
तस्य छित्वा ततो देवी लीलयैव शरोत्करान् । जघान तुरगान्बाणैर्यन्तारं चैव वाजिनाम् ॥ ३.४॥
तस्य छित्वा ततः देवी लीलया एव शर-उत्करान् जघान तुरगान् बाणैः यन्तारम् च एव वाजिनाम्
tasya chitvā tataḥ devī līlayā eva śara-utkarān jaghāna turagān bāṇaiḥ yantāram ca eva vājinām
चिच्छेद च धनुः सद्यो ध्वजं चातिसमुच्छृतम् । विव्याध चैव गात्रेषु छिन्नधन्वानमाशुगैः ॥ ३.५॥
चिच्छेद च धनुः सद्यः ध्वजम् चातिसमुच्छृतम् विव्याध च एव गात्रेषु छिन्न-धन्वानम् आशुगैः
ciccheda ca dhanuḥ sadyaḥ dhvajam cātisamucchṛtam vivyādha ca eva gātreṣu chinna-dhanvānam āśugaiḥ
सच्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः । अभ्यधावत तां देवीं खड्गचर्मधरोऽसुरः ॥ ३.६॥
सच्छिन्नधन्वा विरथः हत-अश्वः हत-सारथिः अभ्यधावत ताम् देवीम् खड्ग-चर्म-धरः असुरः
sacchinnadhanvā virathaḥ hata-aśvaḥ hata-sārathiḥ abhyadhāvata tām devīm khaḍga-carma-dharaḥ asuraḥ
सिंहमाहत्य खड्गेन तीक्ष्णधारेण मूर्धनि । आजघान भुजे सव्ये देवीमप्यतिवेगवान् ॥ ३.७॥
सिंहम् आहत्य खड्गेन तीक्ष्ण-धारेण मूर्धनि आजघान भुजे सव्ये देवीम् अपि अति वेगवान्
siṃham āhatya khaḍgena tīkṣṇa-dhāreṇa mūrdhani ājaghāna bhuje savye devīm api ati vegavān
तस्याः खड्गो भुजं प्राप्य पफाल नृपनन्दन । ततो जग्राह शूलं स कोपादरुणलोचनः ॥ ३.८॥
तस्याः खड्गः भुजम् प्राप्य पफाल नृप-नन्दन ततः जग्राह शूलम् स कोपात् अरुण-लोचनः
tasyāḥ khaḍgaḥ bhujam prāpya paphāla nṛpa-nandana tataḥ jagrāha śūlam sa kopāt aruṇa-locanaḥ
चिक्षेप च ततस्तत्तु भद्रकाल्यां महासुरः । जाज्वल्यमानं तेजोभी रविबिम्बमिवाम्बरात् ॥ ३.९॥
चिक्षेप च ततः तत् तु भद्र-काल्याम् महा-असुरः जाज्वल्यमानम् तेजोभी रवि-बिम्बम् इव अम्बरात्
cikṣepa ca tataḥ tat tu bhadra-kālyām mahā-asuraḥ jājvalyamānam tejobhī ravi-bimbam iva ambarāt
दृष्ट्वा तदापतच्छूलं देवी शूलममुञ्चत । तेन तच्छतधा नीतं शूलं स च महासुरः ॥ ३.१०॥
दृष्ट्वा तदा पतत्-शूलम् देवी शूलम् अमुञ्चत तेन तत् शत-धाः नीतम् शूलम् स च महा-असुरः
dṛṣṭvā tadā patat-śūlam devī śūlam amuñcata tena tat śata-dhāḥ nītam śūlam sa ca mahā-asuraḥ
हते तस्मिन्महावीर्ये महिषस्य चमूपतौ । आजगाम गजारूढश्चामरस्त्रिदशार्दनः ॥ ३.११॥
हते तस्मिन् महा-वीर्ये महिषस्य चमू-पतौ आजगाम गज-आरूढः च अमरः त्रि-दश-अर्दनः
hate tasmin mahā-vīrye mahiṣasya camū-patau ājagāma gaja-ārūḍhaḥ ca amaraḥ tri-daśa-ardanaḥ
सोऽपि शक्तिं मुमोचाथ देव्यास्तामम्बिका द्रुतम् । हुङ्काराभिहतां भूमौ पातयामास निष्प्रभाम् ॥ ३.१२॥
सः अपि शक्तिम् मुमोच अथ देव्याः ताम् अम्बिका द्रुतम् हुङ्कार-अभिहताम् भूमौ पातयाम आस निष्प्रभाम्
saḥ api śaktim mumoca atha devyāḥ tām ambikā drutam huṅkāra-abhihatām bhūmau pātayāma āsa niṣprabhām
भग्नां शक्तिं निपतितां दृष्ट्वा क्रोधसमन्वितः । चिक्षेप चामरः शूलं बाणैस्तदपि साच्छिनत् ॥ ३.१३॥
भग्नाम् शक्तिम् निपतिताम् दृष्ट्वा क्रोध-समन्वितः चिक्षेप च अमरः शूलम् बाणैः तत् अपि स आच्छिनत्
bhagnām śaktim nipatitām dṛṣṭvā krodha-samanvitaḥ cikṣepa ca amaraḥ śūlam bāṇaiḥ tat api sa ācchinat
ततः सिंहः समुत्पत्य गजकुम्भान्तरे स्थितः । बाहुयुद्धेन युयुधे तेनोच्चैस्त्रिदशारिणा ॥ ३.१४॥
ततः सिंहः समुत्पत्य गज-कुम्भ-अन्तरे स्थितः बाहु-युद्धेन युयुधे तेन उच्चैः-त्रि-दश-अरिणा
tataḥ siṃhaḥ samutpatya gaja-kumbha-antare sthitaḥ bāhu-yuddhena yuyudhe tena uccaiḥ-tri-daśa-ariṇā
युध्यमानौ ततस्तौ तु तस्मान्नागान्महीं गतौ । युयुधातेऽतिसंरब्धौ प्रहारैरतिदारुणैः ॥ ३.१५॥
युध्यमानौ ततः तौ तु तस्मात् नागान् महीम् गतौ युयुधाते अति संरब्धौ प्रहारैः अति दारुणैः
yudhyamānau tataḥ tau tu tasmāt nāgān mahīm gatau yuyudhāte ati saṃrabdhau prahāraiḥ ati dāruṇaiḥ
ततो वेगात् खमुत्पत्य निपत्य च मृगारिणा । करप्रहारेण शिरश्चामरस्य पृथक् कृतम् ॥ ३.१६॥
ततः वेगात् खम् उत्पत्य निपत्य च मृग-अरिणा कर-प्रहारेण शिरः-चामरस्य पृथक् कृतम्
tataḥ vegāt kham utpatya nipatya ca mṛga-ariṇā kara-prahāreṇa śiraḥ-cāmarasya pṛthak kṛtam
उदग्रश्च रणे देव्या शिलावृक्षादिभिर्हतः । दन्तमुष्टितलैश्चैव करालश्च निपातितः ॥ ३.१७॥
उदग्रः च रणे देव्या शिला-वृक्ष-आदिभिः हतः दन्त-मुष्टि तलैः च एव करालः च निपातितः
udagraḥ ca raṇe devyā śilā-vṛkṣa-ādibhiḥ hataḥ danta-muṣṭi talaiḥ ca eva karālaḥ ca nipātitaḥ
देवी क्रुद्धा गदापातैश्चूर्णयामास चोद्धतम् । बाष्कलं भिन्दिपालेन बाणैस्ताम्रं तथान्धकम् ॥ ३.१८॥
बाष्कलम् भिन्दिपालेन बाणैः ताम्रम् तथा अन्धकम्
bāṣkalam bhindipālena bāṇaiḥ tāmram tathā andhakam
उग्रास्यमुग्रवीर्यं च तथैव च महाहनुम् । त्रिनेत्रा च त्रिशूलेन जघान परमेश्वरी ॥ ३.१९॥
उग्र-आस्यम् उग्र-वीर्यम् च तथा एव च महा-हनुम् त्रिनेत्रा च त्रि-शूलेन जघान परमेश्वरी
ugra-āsyam ugra-vīryam ca tathā eva ca mahā-hanum trinetrā ca tri-śūlena jaghāna parameśvarī
बिडालस्यासिना कायात् पातयामास वै शिरः । दुर्धरं दुर्मुखं चोभौ शरैर्निन्ये यमक्षयम् ॥ ३.२०॥
बिडालस्य असिना कायात् पातयाम आस वै शिरः दुर्धरम् दुर्मुखम् च उभौ शरैः निन्ये यम-क्षयम्
biḍālasya asinā kāyāt pātayāma āsa vai śiraḥ durdharam durmukham ca ubhau śaraiḥ ninye yama-kṣayam
एवं सङ्क्षीयमाणे तु स्वसैन्ये महिषासुरः । माहिषेण स्वरूपेण त्रासयामास तान् गणान् ॥ ३.२१॥
एवम् सङ्क्षीयमाणे तु स्व-सैन्ये महिष-असुरः माहिषेण स्व-रूपेण त्रासयाम आस तान् गणान्
evam saṅkṣīyamāṇe tu sva-sainye mahiṣa-asuraḥ māhiṣeṇa sva-rūpeṇa trāsayāma āsa tān gaṇān
कांश्चित्तुण्डप्रहारेण खुरक्षेपैस्तथापरान् । लाङ्गूलताडितांश्चान्यान् शृङ्गाभ्यां च विदारितान् ॥ ३.२२॥
कांश्चित् तुण्ड-प्रहारेण खुर-क्षेपैः तथा परान् लाङ्गूल-ताडितान् च अन्यान् शृङ्गाभ्याम् च विदारितान्
kāṃścit tuṇḍa-prahāreṇa khura-kṣepaiḥ tathā parān lāṅgūla-tāḍitān ca anyān śṛṅgābhyām ca vidāritān
वेगेन कांश्चिदपरान्नादेन भ्रमणेन च । निःश्वासपवनेनान्यान्पातयामास भूतले ॥ ३.२३॥
वेगेन कांश्चित् अपरान् नादेन भ्रमणेन च निःश्वास-पवनेन अन्यान् पातयाम आस भू-तले
vegena kāṃścit aparān nādena bhramaṇena ca niḥśvāsa-pavanena anyān pātayāma āsa bhū-tale
निपात्य प्रमथानीकमभ्यधावत सोऽसुरः । सिंहं हन्तुं महादेव्याः कोपं चक्रे ततोऽम्बिका ॥ ३.२४॥
निपात्य प्रमथ-अनीकम् अभ्यधावत सः असुरः सिंहम् हन्तुम् महा-देव्याः कोपम् चक्रे ततः अम्बिका
nipātya pramatha-anīkam abhyadhāvata saḥ asuraḥ siṃham hantum mahā-devyāḥ kopam cakre tataḥ ambikā
सोऽपि कोपान्महावीर्यः खुरक्षुण्णमहीतलः । शृङ्गाभ्यां पर्वतानुच्चांश्चिक्षेप च ननाद च ॥ ३.२५॥
सः अपि कोपात् महा-वीर्यः खुर-क्षुण्ण-मही-तलः शृङ्गाभ्याम् पर्वतान् उच्चान् चिक्षेप च ननाद च
saḥ api kopāt mahā-vīryaḥ khura-kṣuṇṇa-mahī-talaḥ śṛṅgābhyām parvatān uccān cikṣepa ca nanāda ca
वेगभ्रमणविक्षुण्णा मही तस्य व्यशीर्यत । लाङ्गूलेनाहतश्चाब्धिः प्लावयामास सर्वतः ॥ ३.२६॥
वेगभ्रमणविक्षुण्णा मही तस्य व्यशीर्यत लाङ्गूलेन आहतः च अब्धिः प्लावयाम आस सर्वतः
vegabhramaṇavikṣuṇṇā mahī tasya vyaśīryata lāṅgūlena āhataḥ ca abdhiḥ plāvayāma āsa sarvataḥ
धुतशृङ्गविभिन्नाश्च खण्डं खण्डं ययुर्घनाः । श्वासानिलास्ताः शतशो निपेतुर्नभसोऽचलाः ॥ ३.२७॥
धुत-शृङ्ग-विभिन्नाः च खण्डम् खण्डम् ययुः घनाः श्वास-अनिलाः ताः शतशः निपेतुः नभसः अचलाः
dhuta-śṛṅga-vibhinnāḥ ca khaṇḍam khaṇḍam yayuḥ ghanāḥ śvāsa-anilāḥ tāḥ śataśaḥ nipetuḥ nabhasaḥ acalāḥ
इति क्रोधसमाध्मातमापतन्तं महासुरम् । दृष्ट्वा सा चण्डिका कोपं तद्वधाय तदाकरोत् ॥ ३.२८॥
इति क्रोध-सम-आध्मातम् आपतन्तम् महा-असुरम् दृष्ट्वा सा चण्डिका कोपम् तत् वधाय तदा अकरोत्
iti krodha-sama-ādhmātam āpatantam mahā-asuram dṛṣṭvā sā caṇḍikā kopam tat vadhāya tadā akarot
सा क्षिप्त्वा तस्य वै पाशं तं बबन्ध महासुरम् । तत्याज माहिषं रूपं सोऽपि बद्धो महामृधे ॥ ३.२९॥
सा क्षिप्त्वा तस्य वै पाशम् तम् बबन्ध महा-असुरम् तत्याज माहिषम् रूपम् सः अपि बद्धः महामृधे
sā kṣiptvā tasya vai pāśam tam babandha mahā-asuram tatyāja māhiṣam rūpam saḥ api baddhaḥ mahāmṛdhe
ततः सिंहोऽभवत्सद्यो यावत्तस्याम्बिका शिरः । छिनत्ति तावत् पुरुषः खड्गपाणिरदृश्यत ॥ ३.३०॥
ततः सिंहः अभवत् सद्यः यावत् तस्य अम्बिका शिरः छिनत्ति तावत् पुरुषः खड्ग-पाणिः अदृश्यत
tataḥ siṃhaḥ abhavat sadyaḥ yāvat tasya ambikā śiraḥ chinatti tāvat puruṣaḥ khaḍga-pāṇiḥ adṛśyata
तत एवाशु पुरुषं देवी चिच्छेद सायकैः । तं खड्गचर्मणा सार्धं ततः सोऽभून्महागजः ॥ ३.३१॥
ततः एव आशु पुरुषम् देवी चिच्छेद सायकैः तम् खड्ग-चर्मणा सार्धम् ततः सः अभूत् महा-गजः
tataḥ eva āśu puruṣam devī ciccheda sāyakaiḥ tam khaḍga-carmaṇā sārdham tataḥ saḥ abhūt mahā-gajaḥ
करेण च महासिंहं तं चकर्ष जगर्ज च । कर्षतस्तु करं देवी खड्गेन निरकृन्तत ॥ ३.३२॥
करेण च महा-सिंहम् तम् चकर्ष जगर्ज च कर्षतः तु करम् देवी खड्गेन निरकृन्तत
kareṇa ca mahā-siṃham tam cakarṣa jagarja ca karṣataḥ tu karam devī khaḍgena nirakṛntata
ततो महासुरो भूयो माहिषं वपुरास्थितः । तथैव क्षोभयामास त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ ३.३३॥
ततः महा-असुरः भूयः माहिषम् वपुः आस्थितः तथा एव क्षोभयाम आस त्रैलोक्यम् सचराचरम्
tataḥ mahā-asuraḥ bhūyaḥ māhiṣam vapuḥ āsthitaḥ tathā eva kṣobhayāma āsa trailokyam sacarācaram
ततः क्रुद्धा जगन्माता चण्डिका पानमुत्तमम् । पपौ पुनः पुनश्चैव जहासारुणलोचना ॥ ३.३४॥
ततः क्रुद्धाः जगत्-माता चण्डिका पानम् उत्तमम् पपौ पुनः पुनः च एव जहास अरुण-लोचना
tataḥ kruddhāḥ jagat-mātā caṇḍikā pānam uttamam papau punaḥ punaḥ ca eva jahāsa aruṇa-locanā
ननर्द चासुरः सोऽपि बलवीर्यमदोद्धतः । विषाणाभ्यां च चिक्षेप चण्डिकां प्रति भूधरान् ॥ ३.३५॥
ननर्द च असुरः सः अपि बल-वीर्य-मद-उद्धतः विषाणाभ्याम् च चिक्षेप चण्डिकाम् प्रति भू-धरान्
nanarda ca asuraḥ saḥ api bala-vīrya-mada-uddhataḥ viṣāṇābhyām ca cikṣepa caṇḍikām prati bhū-dharān
सा च तान्प्रहितांस्तेन चूर्णयन्ती शरोत्करैः । उवाच तं मदोद्धूतमुखरागाकुलाक्षरम् ॥ ३.३६॥
सा च तान् प्रहितान् तेन चूर्णयन्ती शर-उत्करैः उवाच तम् मद-उद्धूत-मुख-राग-आकुल-अक्षरम्
sā ca tān prahitān tena cūrṇayantī śara-utkaraiḥ uvāca tam mada-uddhūta-mukha-rāga-ākula-akṣaram
देव्युवाच ॥ ३.३७॥
गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम् । मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः ॥ ३.३८॥
गर्ज गर्ज क्षणम् मूढ मधु यावत् पिबामि अहम् मया त्वयि हते अत्र एव गर्जिष्यन्ति आशु देवताः
garja garja kṣaṇam mūḍha madhu yāvat pibāmi aham mayā tvayi hate atra eva garjiṣyanti āśu devatāḥ
ऋषिरुवाच ॥ ३.३९॥
एवमुक्त्वा समुत्पत्य सारूढा तं महासुरम् । पादेनाक्रम्य कण्ठे च शूलेनैनमताडयत् ॥ ३.४०॥
एवम् उक्त्वा समुत्पत्य सा रूढा तम् महा-असुरम् पादेन आक्रम्य कण्ठे च शूलेन एनम् अताडयत्
evam uktvā samutpatya sā rūḍhā tam mahā-asuram pādena ākramya kaṇṭhe ca śūlena enam atāḍayat
ततः सोऽपि पदाक्रान्तस्तया निजमुखात्तदा । अर्धनिष्क्रान्त एवासीद्देव्या वीर्येण संवृतः ॥ ३.४१॥
ततः सः अपि पद-आक्रान्तः तया निज-मुखात् तदा अर्ध-निष्क्रान्तः एव आसीत् देव्याः वीर्येण संवृतः
tataḥ saḥ api pada-ākrāntaḥ tayā nija-mukhāt tadā ardha-niṣkrāntaḥ eva āsīt devyāḥ vīryeṇa saṃvṛtaḥ
अर्धनिष्क्रान्त एवासौ युध्यमानो महासुरः । तया महासिना देव्या शिरश्छित्त्वा निपातितः ॥ ३.४२॥
अर्ध-निष्क्रान्तः एव असौ युध्यमानः महा-असुरः तया महा-असिना देव्या शिरः छित्त्वा निपातितः
ardha-niṣkrāntaḥ eva asau yudhyamānaḥ mahā-asuraḥ tayā mahā-asinā devyā śiraḥ chittvā nipātitaḥ
ततो हाहाकृतं सर्वं दैत्यसैन्यं ननाश तत् । प्रहर्षं च परं जग्मुः सकला देवतागणाः ॥ ३.४३॥
ततः हाहा-कृतम् सर्वम् दैत्य-सैन्यम् ननाश तत् प्रहर्षम् च परम् जग्मुः सकलाः देवता-गणाः
tataḥ hāhā-kṛtam sarvam daitya-sainyam nanāśa tat praharṣam ca param jagmuḥ sakalāḥ devatā-gaṇāḥ
तुष्टुवुस्तां सुरा देवीं सहदिव्यैर्महर्षिभिः । जगुर्गन्धर्वपतयो ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ ३.४४॥
तुष्टुवुः ताम् सुराः देवीम् सह-दिव्यैः महा-ऋषिभिः जगुः गन्धर्व-पतयः ननृतुः च अप्सरः-गणाः
tuṣṭuvuḥ tām surāḥ devīm saha-divyaiḥ mahā-ṛṣibhiḥ jaguḥ gandharva-patayaḥ nanṛtuḥ ca apsaraḥ-gaṇāḥ
॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये महिषासुरवधो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
स्वस्ति श्री-मार्कण्डेय-पुराणे सा वर्णिके मनु-अन्तरे देवी-माहात्म्ये महिष-असुर-वधः नाम तृतीयः अध्यायः
svasti śrī-mārkaṇḍeya-purāṇe sā varṇike manu-antare devī-māhātmye mahiṣa-asura-vadhaḥ nāma tṛtīyaḥ adhyāyaḥ

Chaturtho Adhyaya

Collapse

उवाच ३
अर्धश्लोकाः ४१
ardhaślokāḥ 41
॥ ४. शक्रादिस्तुतिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥
शक्र-आदि स्तुतिः नाम चतुर्थः अध्यायः
śakra-ādi stutiḥ nāma caturthaḥ adhyāyaḥ
। ध्यानम् ।
ध्यानम्
dhyānam
ॐ ऋषिरुवाच ॥ ४.१॥
ॐ कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुलभयदां मौलिबद्धेन्दुरेखां शङ्खं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम् । सिंहस्कन्धाधिरूढां त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्तीं ध्यायेद्दुर्गां जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः ॥
ॐकाल-अभ्र-आभाम् कट-अक्षैः अरि-कुल-भय-दाम् मौलि-बद्ध-इन्दु-रेखाम् शङ्खम् चक्रम् कृपाणम् त्रिशिखम् अपि करैः उद्वहन्तीम् त्रिनेत्राम् सिंह-स्कन्ध-अधिरूढाम् त्रि-भुवनम् अखिलम् तेजसा पूरयन्तीम् ध्यायेत् दुर्गाम् जय-आख्याम् त्रि-दश-परिवृताम् सेविताम् सिद्धि-कामैः
oṃkāla-abhra-ābhām kaṭa-akṣaiḥ ari-kula-bhaya-dām mauli-baddha-indu-rekhām śaṅkham cakram kṛpāṇam triśikham api karaiḥ udvahantīm trinetrām siṃha-skandha-adhirūḍhām tri-bhuvanam akhilam tejasā pūrayantīm dhyāyet durgām jaya-ākhyām tri-daśa-parivṛtām sevitām siddhi-kāmaiḥ
शक्रादयः सुरगणा निहतेऽतिवीर्ये तस्मिन्दुरात्मनि सुरारिबले च देव्या ।तस्मिन्दुरात्मनि सुरारिबले च देव्या ।तां तुष्टुवुः प्रणतिनम्रशिरोधरांसावाग्भिः प्रहर्षपुलकोद्गमचारुदेहाः ॥ ४.२॥
शक्र-आदयः सुर-गणाः निहते अति वीर्ये तस्मिन् दुरात्मनि सुर-अरि बले च देव्यातस्मिन् दुरात्मनि सुर-अरि बले च देव्याताम् तुष्टुवुः प्रणतिनम्रशिरोधरांसावाग्भिः प्रहर्ष-पुलक-उद्गम-चारु-देहाः
śakra-ādayaḥ sura-gaṇāḥ nihate ati vīrye tasmin durātmani sura-ari bale ca devyātasmin durātmani sura-ari bale ca devyātām tuṣṭuvuḥ praṇatinamraśirodharāṃsāvāgbhiḥ praharṣa-pulaka-udgama-cāru-dehāḥ
देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्यानिःशेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या ।तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यांभक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः ॥ ४.३॥
देव्याः यया ततम् इदम् जगत्-आत्म-शक्त्यानिःशेष-देव-गण-शक्ति-समूह-मूर्त्यातामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यांभक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः
devyāḥ yayā tatam idam jagat-ātma-śaktyāniḥśeṣa-deva-gaṇa-śakti-samūha-mūrtyātāmambikāmakhiladevamaharṣipūjyāṃbhaktyā natāḥ sma vidadhātu śubhāni sā naḥ
यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तोब्रह्मा हरश्च न हि वक्तुमलं बलं च ।सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनायनाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु ॥ ४.४॥
यस्याः प्रभावम् अतुलम् भगवान् अनन्ता उब्रह्मा हरः च न हि वक्तुम् अलम् बलम् चसा चण्डिका-खिल-जगत्-परिपालनायनाशाय च अशुभ-भयस्य मतिम् करोतु
yasyāḥ prabhāvam atulam bhagavān anantā ubrahmā haraḥ ca na hi vaktum alam balam casā caṇḍikā-khila-jagat-paripālanāyanāśāya ca aśubha-bhayasya matim karotu
या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीःपापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः ।श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जातां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम् ॥ ४.५॥
या श्रीः स्वयम् सुकृतिनाम् भवनेष्वलक्ष्मीःपाप-आत्मनाम् कृत-धियाम् हृदयेषु बुद्धिःश्रद्धा सताम् कुल-जन-प्रभवस्य लज्जाताम् त्वाम् नताः स्म परिपालय देवि विश्वम्
yā śrīḥ svayam sukṛtinām bhavaneṣvalakṣmīḥpāpa-ātmanām kṛta-dhiyām hṛdayeṣu buddhiḥśraddhā satām kula-jana-prabhavasya lajjātām tvām natāḥ sma paripālaya devi viśvam
किं वर्णयाम तव रूपमचिन्त्यमेतत्किञ्चातिवीर्यमसुरक्षयकारि भूरि ।किं चाहवेषु चरितानि तवाति यानिसर्वेषु देव्यसुरदेवगणादिकेषु ॥ ४.६॥
किम् वर्णयाम तव रूपम् अचिन्त्यम् एतत्किञ्च अति-वीर्यम् असुर-क्षय-कारि भूरिकिम् च आहवेषु चरितानि तव अति यानिसर्वेषु देवी असुर-देव-गण-आदिकेषु
kim varṇayāma tava rūpam acintyam etatkiñca ati-vīryam asura-kṣaya-kāri bhūrikim ca āhaveṣu caritāni tava ati yānisarveṣu devī asura-deva-gaṇa-ādikeṣu
हेतुः समस्तजगतां त्रिगुणापि दोषै-र्न ज्ञायसे हरिहरादिभिरप्यपारा ।सर्वाश्रयाखिलमिदं जगदंशभूत-मव्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्वमाद्या ॥ ४.७॥
हेतुः समस्त-जगताम् त्रि-गुणा अपि दोषै॰र्न ज्ञायसे हरि-हर-आदिभिः अपि अपारासर्व-आश्रय-अखिलम् इदम् जगदंशभूत॰मव्याकृता हि परमा प्रकृतिः त्वम् आद्या
hetuḥ samasta-jagatām tri-guṇā api doṣai॰rna jñāyase hari-hara-ādibhiḥ api apārāsarva-āśraya-akhilam idam jagadaṃśabhūta॰mavyākṛtā hi paramā prakṛtiḥ tvam ādyā
यस्याः समस्तसुरता समुदीरणेनतृप्तिं प्रयाति सकलेषु मखेषु देवि ।स्वाहासि वै पितृगणस्य च तृप्तिहेतु-रुच्चार्यसे त्वमत एव जनैः स्वधा च ॥ ४.८॥
यस्याः समस्त-सुरता स-मुदि ईरणेनतृप्तिम् प्रयाति सकलेषु मखेषु देविस्वाहा असि वै पितृ-गणस्य च तृप्तिहेतु॰रुच्चार्यसे त्वम् अतः एव जनैः स्वधा च
yasyāḥ samasta-suratā sa-mudi īraṇenatṛptim prayāti sakaleṣu makheṣu devisvāhā asi vai pitṛ-gaṇasya ca tṛptihetu॰ruccāryase tvam ataḥ eva janaiḥ svadhā ca
या मुक्तिहेतुरविचिन्त्यमहाव्रता त्वंअभ्यस्यसे सुनियतेन्द्रियतत्त्वसारैः ।मोक्षार्थिभिर्मुनिभिरस्तसमस्तदोषै-र्विद्यासि सा भगवती परमा हि देवि ॥ ४.९॥
या मुक्ति-हेतुः अ-विचिन्त्य महा-व्रता त्वंअभ्यस्यसे सुनियतेन्द्रियतत्त्वसारैःमोक्षार्थिभिर्मुनिभिरस्तसमस्तदोषै॰र्विद्यासि सा भगवती परमा हि देवि
yā mukti-hetuḥ a-vicintya mahā-vratā tvaṃabhyasyase suniyatendriyatattvasāraiḥmokṣārthibhirmunibhirastasamastadoṣai॰rvidyāsi sā bhagavatī paramā hi devi
शब्दात्मिका सुविमलर्ग्यजुषां निधान-मुद्गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम् ।देवि त्रयी भगवती भवभावनायवार्तासि सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री ॥ ४.१०॥
शब्द-आत्मिका सुविमलर्ग्यजुषाम् निधान॰मुद्गीथरम्यपदपाठवताम् च साम्नाम्देवि त्रयी भगवती भव-भावनायवार्ता असि सर्व-जगताम् परम-आर्ति-हन्त्री
śabda-ātmikā suvimalargyajuṣām nidhāna॰mudgītharamyapadapāṭhavatām ca sāmnāmdevi trayī bhagavatī bhava-bhāvanāyavārtā asi sarva-jagatām parama-ārti-hantrī
मेधासि देवि विदिताखिलशास्त्रसारादुर्गासि दुर्गभवसागरनौरसङ्गा ।श्रीः कैटभारिहृदयैककृताधिवासागौरी त्वमेव शशिमौलिकृतप्रतिष्ठा ॥ ४.११॥
मेधा-असि देवि विदिता खिल-शास्त्र-सारादुर्ग-असि दुर्ग-भव-सागर-नौः असङ्गाश्रीः कैटभ-अरि-हृदया एक-कृत-अधिवासागौरी त्वम् एव शशि-मौलि-कृत-प्रतिष्ठा
medhā-asi devi viditā khila-śāstra-sārādurga-asi durga-bhava-sāgara-nauḥ asaṅgāśrīḥ kaiṭabha-ari-hṛdayā eka-kṛta-adhivāsāgaurī tvam eva śaśi-mauli-kṛta-pratiṣṭhā
ईषत्सहासममलं परिपूर्णचन्द्र-बिम्बानुकारि कनकोत्तमकान्तिकान्तम् ।अत्यद्भुतं प्रहृतमात्तरुषा तथापिवक्त्रं विलोक्य सहसा महिषासुरेण ॥ ४.१२॥
ईषत् सह-आसम् अमलम् परिपूर्णचन्द्र॰बिम्ब-अनुकारि कनक-उत्तम-कान्ति कान्तम्अति-अद्भुतम् प्रहृतम् आत्त रुषा तथापिवक्त्रम् विलोक्य सहसा महिष-असुरेण
īṣat saha-āsam amalam paripūrṇacandra॰bimba-anukāri kanaka-uttama-kānti kāntamati-adbhutam prahṛtam ātta ruṣā tathāpivaktram vilokya sahasā mahiṣa-asureṇa
दृष्ट्वा तु देवि कुपितं भ्रुकुटीकराल-मुद्यच्छशाङ्कसदृशच्छवि यन्न सद्यः ।प्राणान् मुमोच महिषस्तदतीव चित्रंकैर्जीव्यते हि कुपितान्तकदर्शनेन ॥ ४.१३॥
दृष्ट्वा तु देवि कुपितम् भ्रुकुटीकराल॰मुत् यत् शश-अङ्क-सदृश-छवि यत् न सद्यःप्राणान् मुमोच महिषः तत् अतीव चित्रंकैः जीव्यते हि कुपित-अन्तक-दर्शनेन
dṛṣṭvā tu devi kupitam bhrukuṭīkarāla॰mut yat śaśa-aṅka-sadṛśa-chavi yat na sadyaḥprāṇān mumoca mahiṣaḥ tat atīva citraṃkaiḥ jīvyate hi kupita-antaka-darśanena
देवि प्रसीद परमा भवती भवायसद्यो विनाशयसि कोपवती कुलानि ।विज्ञातमेतदधुनैव यदस्तमेत-न्नीतं बलं सुविपुलं महिषासुरस्य ॥ ४.१४॥
देवि प्रसीद परमा भवती भवायसद्यः विनाशयसि का उ पवती कुलानिविज्ञातम् एतत् अधुना एव यदस्तमेत॰न्नीतम् बलम् सु-विपुलम् महिष-असुरस्य
devi prasīda paramā bhavatī bhavāyasadyaḥ vināśayasi kā u pavatī kulānivijñātam etat adhunā eva yadastameta॰nnītam balam su-vipulam mahiṣa-asurasya
ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषांतेषां यशांसि न च सीदति बन्धुवर्गः ।धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारायेषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना ॥ ४.१५॥
ते सम्मताः जनपदेषु धनानि तेषांतेषाम् यशांसि न च सीदति बन्धु-वर्गःधन्याः ते एव निभृत-आत्मज-भृत्य-दारायेषाम् सदा अभ्युदय-दाः भवती प्रसन्ना
te sammatāḥ janapadeṣu dhanāni teṣāṃteṣām yaśāṃsi na ca sīdati bandhu-vargaḥdhanyāḥ te eva nibhṛta-ātmaja-bhṛtya-dārāyeṣām sadā abhyudaya-dāḥ bhavatī prasannā
धर्म्याणि देवि सकलानि सदैव कर्मा-ण्यत्यादृतः प्रतिदिनं सुकृती करोति ।स्वर्गं प्रयाति च ततो भवती प्रसादा-ल्लोकत्रयेऽपि फलदा ननु देवि तेन ॥ ४.१६॥
धर्म्याणि देवि सकलानि सदा एव कर्मा॰ण्यत्यादृतः प्रतिदिनम् सुकृती करोतिस्वर्गम् प्रयाति च ततः भवती प्रसादा॰ल्लोकत्रयेऽपि फल-दाः ननु देवि तेन
dharmyāṇi devi sakalāni sadā eva karmā॰ṇyatyādṛtaḥ pratidinam sukṛtī karotisvargam prayāti ca tataḥ bhavatī prasādā॰llokatraye'pi phala-dāḥ nanu devi tena
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोःस्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्यासर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता ॥ ४.१७॥
दुर्गे स्मृताः हरसि भीतिम् अशेष-जन्तोःस्वस्थैः स्मृताः मतिमती इव शुभाम् ददासिदारिद्र्य-दुःख-भय-हारिणि का त्वत् अन्यासर्व-उपकार-करणाय सदा आर्द्र-चित्ता
durge smṛtāḥ harasi bhītim aśeṣa-jantoḥsvasthaiḥ smṛtāḥ matimatī iva śubhām dadāsidāridrya-duḥkha-bhaya-hāriṇi kā tvat anyāsarva-upakāra-karaṇāya sadā ārdra-cittā
एभिर्हतैर्जगदुपैति सुखं तथैतेकुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम् ।सङ्ग्राममृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तुमत्वेति नूनमहितान्विनिहंसि देवि ॥ ४.१८॥
एभिः हतैः जगत् उपैति सुखम् तथा एतेकुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम्सङ्ग्राम-मृत्युम् अधिगम्य दिवम् प्रयान्तुमत्वा इति नूनम् अहितान् विनिहंसि देवि
ebhiḥ hataiḥ jagat upaiti sukham tathā etekurvantu nāma narakāya cirāya pāpamsaṅgrāma-mṛtyum adhigamya divam prayāntumatvā iti nūnam ahitān vinihaṃsi devi
दृष्ट्वैव किं न भवती प्रकरोति भस्मसर्वासुरानरिषु यत्प्रहिणोषि शस्त्रम् ।लोकान्प्रयान्तु रिपवोऽपि हि शस्त्रपूताइत्थं मतिर्भवति तेष्वहितेषुसाध्वी ॥ ४.१९॥
दृष्ट्वा एव किम् न भवती प्रकरोति भस्मसर्व-असुरान् अरिषु यत् प्रहिणोषि शस्त्रम्लोकान् प्रयान्तु रिपवः अपि हि शस्त्र-पूताइत्थम् मतिः भवति तेषु अहितेषु साध्वी
dṛṣṭvā eva kim na bhavatī prakaroti bhasmasarva-asurān ariṣu yat prahiṇoṣi śastramlokān prayāntu ripavaḥ api hi śastra-pūtāittham matiḥ bhavati teṣu ahiteṣu sādhvī
खड्गप्रभानिकरविस्फुरणैस्तथोग्रैःशूलाग्रकान्तिनिवहेन दृशोऽसुराणाम् ।यन्नागता विलयमंशुमदिन्दुखण्ड-योग्याननं तव विलोकयतां तदेतत् ॥ ४.२०॥
खड्गप्रभानिकरविस्फुरणैस्तथोग्रैःशूल-अग्र-कान्ति-निवहेन दृशः असुराणाम्यन्नागता विलयमंशुमदिन्दुखण्ड॰योगि-आननम् तव विलोकयताम् तत् एतत्
khaḍgaprabhānikaravisphuraṇaistathograiḥśūla-agra-kānti-nivahena dṛśaḥ asurāṇāmyannāgatā vilayamaṃśumadindukhaṇḍa॰yogi-ānanam tava vilokayatām tat etat
दुर्वृत्तवृत्तशमनं तव देवि शीलंरूपं तथैतदविचिन्त्यमतुल्यमन्यैः ।वीर्यं च हन्तृ हृतदेवपराक्रमाणांवैरिष्वपि प्रकटितैव दया त्वयेत्थम् ॥ ४.२१॥
दुर्वृत्त-वृत्त-शमनम् तव देवि शीलंरूपम् तथा एतत् अवि-चिन्त्यम् अतुल्यम् अन्यैःवीर्यम् च हन्तृ हृतदेवपराक्रमाणांवैरिषु अपि प्रकटितैव दया त्वया इत्थम्
durvṛtta-vṛtta-śamanam tava devi śīlaṃrūpam tathā etat avi-cintyam atulyam anyaiḥvīryam ca hantṛ hṛtadevaparākramāṇāṃvairiṣu api prakaṭitaiva dayā tvayā ittham
केनोपमा भवतु तेऽस्य पराक्रमस्यरूपं च शत्रुभयकार्यतिहारि कुत्र ।चित्ते कृपा समरनिष्ठुरता च दृष्टात्वय्येव देवि वरदे भुवनत्रयेऽपि ॥ ४.२२॥
केन उपमा भवतु ते अस्य पराक्रमस्यरूपम् च शत्रु-भय-कारी अति-हारि कुत्रचित्ते कृपा समरनिष्ठुरता च दृष्टात्वयि एव देवि वरदे भुवन-त्रये अपि
kena upamā bhavatu te asya parākramasyarūpam ca śatru-bhaya-kārī ati-hāri kutracitte kṛpā samaraniṣṭhuratā ca dṛṣṭātvayi eva devi varade bhuvana-traye api
त्रैलोक्यमेतदखिलं रिपुनाशनेनत्रातं त्वया समरमूर्धनि तेऽपि हत्वा ।नीता दिवं रिपुगणा भयमप्यपास्तम्अस्माकमुन्मदसुरारिभवं नमस्ते ॥ ४.२३॥
त्रैलोक्यम् एतत् अखिलम् रिपु-नाशनेनत्रातम् त्वया समर-मूर्धनि ते अपि हत्वानीताः दिवम् रिपु-गणाः भयम् अपि अपास्तम्अस्माकम् उन्मद-सुर-अरि-भवम् नमः ते
trailokyam etat akhilam ripu-nāśanenatrātam tvayā samara-mūrdhani te api hatvānītāḥ divam ripu-gaṇāḥ bhayam api apāstamasmākam unmada-sura-ari-bhavam namaḥ te
शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके । घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च ॥ ४.२४॥
शूलेन पाहि नः देवि पाहि खड्गेन च अम्बिके घण्टा-स्वनेन नः पाहि चाप-ज्या-निःस्वनेन च
śūlena pāhi naḥ devi pāhi khaḍgena ca ambike ghaṇṭā-svanena naḥ pāhi cāpa-jyā-niḥsvanena ca
प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे । भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरि ॥ ४.२५॥
प्राच्याम् रक्ष प्रतीच्याम् च चण्डिके रक्ष दक्षिणे भ्रामणेन आत्मशूलस्य उत्तरस्याम् तथा ईश्वरि
prācyām rakṣa pratīcyām ca caṇḍike rakṣa dakṣiṇe bhrāmaṇena ātmaśūlasya uttarasyām tathā īśvari
सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते । यानि चात्यन्तघोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवम् ॥ ४.२६॥
सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते यानि च अत्यन्त-घोराणि तैः रक्ष अस्मान् तथा भुवम्
saumyāni yāni rūpāṇi trailokye vicaranti te yāni ca atyanta-ghorāṇi taiḥ rakṣa asmān tathā bhuvam
खड्गशूलगदादीनि यानि चास्त्रानि तेऽम्बिके । करपल्लवसङ्गीनि तैरस्मान्रक्ष सर्वतः ॥ ४.२७॥
खड्ग-शूल-गदा-आदीनि यानि चास्त्रानि ते अम्बिके कर-पल्लव-सङ्गीनि तैः अस्मान् रक्ष सर्वतः
khaḍga-śūla-gadā-ādīni yāni cāstrāni te ambike kara-pallava-saṅgīni taiḥ asmān rakṣa sarvataḥ
ऋषिरुवाच ॥ ४.२८॥
एवं स्तुता सुरैर्दिव्यैः कुसुमैर्नन्दनोद्भवैः । अर्चिता जगतां धात्री तथा गन्धानुलेपनैः ॥ ४.२९॥
एवम् स्तुता सुरैः दिव्यैः कुसुमैः नन्दन-उद्भवैः अर्चिता जगताम् धात्री तथा गन्ध-अनुलेपनैः
evam stutā suraiḥ divyaiḥ kusumaiḥ nandana-udbhavaiḥ arcitā jagatām dhātrī tathā gandha-anulepanaiḥ
भक्त्या समस्तैस्त्रिदशैर्दिव्यैर्धूपैः सुधूपिता । प्राह प्रसादसुमुखी समस्तान् प्रणतान् सुरान् ॥ ४.३०॥
भक्त्या समस्तैः त्रिदशैः दिव्यैः धूपैः सुधूपिता प्राह प्रसाद-सुमुखी समस्तान् प्रणतान् सुरान्
bhaktyā samastaiḥ tridaśaiḥ divyaiḥ dhūpaiḥ sudhūpitā prāha prasāda-sumukhī samastān praṇatān surān
देव्युवाच ॥ ४.३१॥
व्रियतां त्रिदशाः सर्वे यदस्मत्तोऽभिवाञ्छितम् ॥ ४.३२॥
व्रियताम् त्रिदशाः सर्वे यत् अस्मत्तः अभिवाञ्छितम्
vriyatām tridaśāḥ sarve yat asmattaḥ abhivāñchitam
देवा ऊचुः ॥ ४.३३॥
भगवत्या कृतं सर्वं न किञ्चिदवशिष्यते ॥ ४.३४॥
भगवत्या कृतम् सर्वम् न किञ्चित् अवशिष्यते
bhagavatyā kṛtam sarvam na kiñcit avaśiṣyate
यदयं निहतः शत्रुरस्माकं महिषासुरः । यदि चापि वरो देयस्त्वयास्माकं महेश्वरि ॥ ४.३५॥
यत् अयम् निहतः शत्रुः अस्माकम् महिष-असुरः यदि च अपि वरः देयः त्वया अस्माकम् महेश्वरि
yat ayam nihataḥ śatruḥ asmākam mahiṣa-asuraḥ yadi ca api varaḥ deyaḥ tvayā asmākam maheśvari
संस्मृता संस्मृता त्वं नो हिंसेथाः परमापदः । यश्च मर्त्यः स्तवैरेभिस्त्वां स्तोष्यत्यमलानने ॥ ४.३६॥
संस्मृता संस्मृता त्वम् नः हिंसेथाः परम-अपदः यः च मर्त्यः स्तवैः एभिः त्वाम् स्तोष्यति अमल-आनने
saṃsmṛtā saṃsmṛtā tvam naḥ hiṃsethāḥ parama-apadaḥ yaḥ ca martyaḥ stavaiḥ ebhiḥ tvām stoṣyati amala-ānane
तस्य वित्तर्द्धिविभवैर्धनदारादिसम्पदाम् । वृद्धयेऽस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथाः सर्वदाम्बिके ॥ ४.३७॥
तस्य वित्त-ऋद्धि-विभवैः धन-दार-आदि-सम्पदाम् वृद्धये अस्मत्-प्रसन्ना त्वम् भवेथाः सर्वदा अम्बिके
tasya vitta-ṛddhi-vibhavaiḥ dhana-dāra-ādi-sampadām vṛddhaye asmat-prasannā tvam bhavethāḥ sarvadā ambike
ऋषिरुवाच ॥ ४.३८॥
इति प्रसादिता देवैर्जगतोऽर्थे तथात्मनः । तथेत्युक्त्वा भद्रकाली बभूवान्तर्हिता नृप ॥ ४.३९॥
इति प्रसादिता देवैः जगतः अर्थे तथा आत्मनः तथा इति उक्त्वा भद्र-काली बभूव अन्तर्हिताः नृप
iti prasāditā devaiḥ jagataḥ arthe tathā ātmanaḥ tathā iti uktvā bhadra-kālī babhūva antarhitāḥ nṛpa
इत्येतत्कथितं भूप सम्भूता सा यथा पुरा । देवी देवशरीरेभ्यो जगत्त्रयहितैषिणी ॥ ४.४०॥
इति एतत् कथितम् भू-प सम्भूता सा यथा पुरा देवी देव-शरीरेभ्यः जगत्-त्रय-हित-एषिणी
iti etat kathitam bhū-pa sambhūtā sā yathā purā devī deva-śarīrebhyaḥ jagat-traya-hita-eṣiṇī
पुनश्च गौरीदेहात्सा समुद्भूता यथाभवत् । वधाय दुष्टदैत्यानां तथा शुम्भनिशुम्भयोः ॥ ४.४१॥
पुनः च गौरी देहात् सा समुद्भूताः यथा अभवत् वधाय दुष्ट-दैत्यानाम् तथा शुम्भ-निशुम्भयोः
punaḥ ca gaurī dehāt sā samudbhūtāḥ yathā abhavat vadhāya duṣṭa-daityānām tathā śumbha-niśumbhayoḥ
रक्षणाय च लोकानां देवानामुपकारिणी । तच्छृणुष्व मयाख्यातं यथावत्कथयामि ते ॥ ४.४२॥
रक्षणाय च लोकानाम् देवानाम् उपकारिणी तत् शृणुष्व मे आख्यातम् यथावत् कथयामि ते
rakṣaṇāya ca lokānām devānām upakāriṇī tat śṛṇuṣva me ākhyātam yathāvat kathayāmi te
। ह्रीं ॐ ।
ह्रीम् ओं
hrīm oṃ
। ह्रीं ॐ । ॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये शक्रादिस्तुतिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
ह्रीम् ओं स्वस्ति श्री-मार्कण्डेय-पुराणे सा वर्णिके मनु-अन्तरे देवी-माहात्म्ये शक्र-आदि स्तुतिः नाम चतुर्थः अध्यायः
hrīm oṃ svasti śrī-mārkaṇḍeya-purāṇe sā varṇike manu-antare devī-māhātmye śakra-ādi stutiḥ nāma caturthaḥ adhyāyaḥ

Panchamo Adhyaya

Collapse

उवाच ५
॥ ५. देव्या दूतसंवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥
देव्याः दूत-संवादः नाम पञ्चमः अध्यायः
devyāḥ dūta-saṃvādaḥ nāma pañcamaḥ adhyāyaḥ
विनियोगः
विनियोगः
viniyogaḥ
अस्य श्री उत्तरचरित्रस्य रुद्र ऋषिः । श्रीमहासरस्वती देवता । अनुष्टुप् छन्दः । भीमा शक्तिः । भ्रामरी बीजम् । सूर्यस्तत्त्वम् । सामवेदः स्वरूपम् । श्रीमहासरस्वतीप्रीत्यर्थे उत्तरचरित्रपाठे विनियोगः । सामवेदः स्वरूपम् । श्रीमहासरस्वतीप्रीत्यर्थे उत्तरचरित्रपाठे विनियोगः ।
अस्य श्री उत्तर-चरित्रस्य रुद्रः ऋषिः श्री-महा-सरस्वती देवता अनुष्टुप् छन्दः भीमा शक्तिः भ्रामरी बीजम् सूर्यः तत्त्वम् साम-वेदः स्व-रूपम् श्री-महा-सरस्वती-प्रीति-अर्थे उत्तर-चरित्र-पाठे विनियोगः साम-वेदः स्व-रूपम् श्री-महा-सरस्वती-प्रीति-अर्थे उत्तर-चरित्र-पाठे विनियोगः
asya śrī uttara-caritrasya rudraḥ ṛṣiḥ śrī-mahā-sarasvatī devatā anuṣṭup chandaḥ bhīmā śaktiḥ bhrāmarī bījam sūryaḥ tattvam sāma-vedaḥ sva-rūpam śrī-mahā-sarasvatī-prīti-arthe uttara-caritra-pāṭhe viniyogaḥ sāma-vedaḥ sva-rūpam śrī-mahā-sarasvatī-prīti-arthe uttara-caritra-pāṭhe viniyogaḥ
। ध्यानम् ।
ध्यानम्
dhyānam
घण्टाशूलहलानि शङ्खमुसले चक्रं धनुः सायकं हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम् । गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा-पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम् ॥
घण्टा-शूल-हलानि शङ्ख-मुसले चक्रम् धनुः सायकम् हस्त-अब्जैः दधतीम् घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम् गौरी-देह-समुद्भवाम् त्रि-जगताम् आधार-भूताम् महा-पूर्वाम् अत्र सरस्वती-मनु भजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्
ghaṇṭā-śūla-halāni śaṅkha-musale cakram dhanuḥ sāyakam hasta-abjaiḥ dadhatīm ghanāntavilasacchītāṃśutulyaprabhām gaurī-deha-samudbhavām tri-jagatām ādhāra-bhūtām mahā-pūrvām atra sarasvatī-manu bhaje śumbhādidaityārdinīm
ॐ क्लीं ऋषिरुवाच ॥ ५.१॥
ॐक्लीम् ऋषिः उवाच
oṃklīm ṛṣiḥ uvāca
पुरा शुम्भनिशुम्भाभ्यामसुराभ्यां शचीपतेः । त्रैलोक्यं यज्ञभागाश्च हृता मदबलाश्रयात् ॥ ५.२॥
पुरा शुम्भ-निशुम्भाभ्याम् असुराभ्याम् शची-पतेः त्रैलोक्यम् यज्ञ-भागाः च हृता मद-बल-आश्रयात्
purā śumbha-niśumbhābhyām asurābhyām śacī-pateḥ trailokyam yajña-bhāgāḥ ca hṛtā mada-bala-āśrayāt
तावेव सूर्यतां तद्वदधिकारं तथैन्दवम् । कौबेरमथ याम्यं च चक्राते वरुणस्य च ॥ ५.३॥
तौ एव सूर्यताम् तद्वत् अधिकारम् तथैन्दवम् कौबेरमथ याम्यम् च चक्राते वरुणस्य च
tau eva sūryatām tadvat adhikāram tathaindavam kauberamatha yāmyam ca cakrāte varuṇasya ca
तावेव पवनर्द्धिं च चक्रतुर्वह्निकर्म च । ततो देवा विनिर्धूता भ्रष्टराज्याः पराजिताः ॥ ५.४॥
तौ एव पवन-ऋद्धिम् च चक्रतुः वह्नि-कर्म च ततः देवा विनिर्धूता भ्रष्टराज्याः पराजिताः
tau eva pavana-ṛddhim ca cakratuḥ vahni-karma ca tataḥ devā vinirdhūtā bhraṣṭarājyāḥ parājitāḥ
हृताधिकारास्त्रिदशास्ताभ्यां सर्वे निराकृताः । महासुराभ्यां तां देवीं संस्मरन्त्यपराजिताम् ॥ ५.५॥
हृत-अधिकाराः त्रिदशाः ताभ्याम् सर्वे निराकृताः महा-सुराभ्याम् ताम् देवीम् संस्मरन्ती-अपराजिताम्
hṛta-adhikārāḥ tridaśāḥ tābhyām sarve nirākṛtāḥ mahā-surābhyām tām devīm saṃsmarantī-aparājitām
तयास्माकं वरो दत्तो यथापत्सु स्मृताखिलाः । भवतां नाशयिष्यामि तत्क्षणात्परमापदः ॥ ५.६॥
तया अस्माकम् वरः दत्तः यथा आपत्सु स्मृता खिलाः भवताम् नाशयिष्यामि तत्-क्षणात् परम-अपदः
tayā asmākam varaḥ dattaḥ yathā āpatsu smṛtā khilāḥ bhavatām nāśayiṣyāmi tat-kṣaṇāt parama-apadaḥ
इति कृत्वा मतिं देवा हिमवन्तं नगेश्वरम् । जग्मुस्तत्र ततो देवीं विष्णुमायां प्रतुष्टुवुः ॥ ५.७॥
इति कृत्वा मतिम् देवाः हिमवन्तम् नग-ईश्वरम् जग्मुः तत्र ततः देवीम् विष्णु-मायाम् प्रतुष्टुवुः
iti kṛtvā matim devāḥ himavantam naga-īśvaram jagmuḥ tatra tataḥ devīm viṣṇu-māyām pratuṣṭuvuḥ
देवा ऊचुः ॥ ५.८॥
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः । नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ॥ ५.९॥
नमः देव्यै महा-देव्यै शिवायै सततम् नमः नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्
namaḥ devyai mahā-devyai śivāyai satatam namaḥ namaḥ prakṛtyai bhadrāyai niyatāḥ praṇatāḥ sma tām
रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमो नमः । ज्योत्स्नायै चेन्दुरूपिण्यै सुखायै सततं नमः ॥ ५.१०॥
रौद्रायै नमः नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमः नमः ज्योत्स्नायै च इन्दु-रूपिण्यै सुखायै सततम् नमः
raudrāyai namaḥ nityāyai gauryai dhātryai namaḥ namaḥ jyotsnāyai ca indu-rūpiṇyai sukhāyai satatam namaḥ
कल्याण्यै प्रणतां वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमो नमः । नैरृत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः ॥ ५.११॥
कल्याण्यै प्रणताम् वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मः नमः नमः न ऐः ऋत्यै भूभृताम् लक्ष्म्यै शर्व-आण्यै ते नमः नमः
kalyāṇyai praṇatām vṛddhyai siddhyai kurmaḥ namaḥ namaḥ na aiḥ ṛtyai bhūbhṛtām lakṣmyai śarva-āṇyai te namaḥ namaḥ
दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै । ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः ॥ ५.१२॥
दुर्गायै दुर्ग-प-आरायै सारायै सर्व-कारिण्यै ख्यात्यै तथा एव कृष्णायै धूम्रायै सततम् नमः
durgāyai durga-pa-ārāyai sārāyai sarva-kāriṇyai khyātyai tathā eva kṛṣṇāyai dhūmrāyai satatam namaḥ
अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः । नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः ॥ ५.१३॥
अति सौम्या अति रौद्रायै नताः तस्यै नमः नमः नमः जगत्-प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमः नमः
ati saumyā ati raudrāyai natāḥ tasyai namaḥ namaḥ namaḥ jagat-pratiṣṭhāyai devyai kṛtyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.१४-१६॥
या देवी सर्व-भूतेषु विष्णु-माया इति शब्दिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu viṣṇu-māyā iti śabditā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.१७-१९॥
या देवी सर्व-भूतेषु चेतना इति अभिधीयते नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu cetanā iti abhidhīyate namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.२०-२२॥
या देवी सर्व-भूतेषु बुद्धि-रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu buddhi-rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.२३-२५॥
या देवी सर्व-भूतेषु निद्रा-रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu nidrā-rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.२६-२८॥
या देवी सर्व-भूतेषु क्षुधा-रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu kṣudhā-rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु छायारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.२९-३१॥
या देवी सर्व-भूतेषु छाया-रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu chāyā-rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.३२-३४॥
या देवी सर्व-भूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu śakti-rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.३५-३७॥
या देवी सर्व-भूतेषु तृष्णा-रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu tṛṣṇā-rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.३८-४०॥
या देवी सर्व-भूतेषु क्षान्ति-रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu kṣānti-rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.४१-४३॥
या देवी सर्व-भूतेषु जाति-रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu jāti-rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.४४-४६॥
या देवी सर्व-भूतेषु लज्जा-रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu lajjā-rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.४७-४९॥
या देवी सर्व-भूतेषु शान्ति-रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu śānti-rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.५०-५२॥
या देवी सर्व-भूतेषु श्रद्धा रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu śraddhā rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.५३-५५॥
या देवी सर्व-भूतेषु कान्ति-रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu kānti-rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.५६-५८॥
या देवी सर्व-भूतेषु लक्ष्मी-रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu lakṣmī-rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.५९-६१॥
या देवी सर्व-भूतेषु वृत्ति-रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu vṛtti-rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.६२-६४॥
या देवी सर्व-भूतेषु स्मृति-रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu smṛti-rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.६५-६७॥
या देवी सर्व-भूतेषु दया-रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu dayā-rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.६८-७०॥
या देवी सर्व-भूतेषु तुष्टि-रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu tuṣṭi-rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.७१-७३॥
या देवी सर्व-भूतेषु मातृ-रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu mātṛ-rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.७४-७६॥
या देवी सर्व-भूतेषु भ्रान्ति-रूपेण संस्थिता नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
yā devī sarva-bhūteṣu bhrānti-rūpeṇa saṃsthitā namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या । भूतेषु सततं तस्यै व्याप्त्यै देव्यै नमो नमः ॥ ५.७७॥
इन्द्रियाणाम् अधिष्ठात्री भूतानाम् च अखिलेषु या भूतेषु सततम् तस्यै व्याप्त्यै देव्यै नमः नमः
indriyāṇām adhiṣṭhātrī bhūtānām ca akhileṣu yā bhūteṣu satatam tasyai vyāptyai devyai namaḥ namaḥ
चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद् व्याप्य स्थिता जगत् । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ ५.७८-८०॥
चिति-रूपेण या कृत्स्नम् एतत् व्याप्य स्थिताः जगत् नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमः नमः
citi-rūpeṇa yā kṛtsnam etat vyāpya sthitāḥ jagat namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ tasyai namaḥ namaḥ
स्तुता सुरैः पूर्वमभीष्टसंश्रया- त्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता । करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः ॥ ५.८१॥
स्तुता सुरैः पूर्वमभीष्टसंश्रया॰ त्तथा सुर-इन्द्रेण दिनेषु सेविता करोतु सा नः शुभ-हेतुः ईश्वरी शुभानि भद्राणि अभिहन्तु च आपदः
stutā suraiḥ pūrvamabhīṣṭasaṃśrayā॰ ttathā sura-indreṇa dineṣu sevitā karotu sā naḥ śubha-hetuḥ īśvarī śubhāni bhadrāṇi abhihantu ca āpadaḥ
या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितै-रस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते ।या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नःसर्वापदो भक्तिविनम्रमूर्तिभिः ॥ ५.८२॥
या साम्प्रतम् चोद्धतदैत्यतापितै॰ रस्माभिरीशा च सुरैः नमस्यते या च स्मृता तत् क्षणम् एव हन्ति नः सर्व-अपदः भक्ति-विनम्र-मूर्तिभिः
yā sāmpratam coddhatadaityatāpitai॰ rasmābhirīśā ca suraiḥ namasyate yā ca smṛtā tat kṣaṇam eva hanti naḥ sarva-apadaḥ bhakti-vinamra-mūrtibhiḥ
ऋषिरुवाच ॥ ५.८३॥
एवं स्तवाभियुक्तानां देवानां तत्र पार्वती । स्नातुमभ्याययौ तोये जाह्नव्या नृपनन्दन ॥ ५.८४॥
एवम् स्तव-अभियुक्तानाम् देवानाम् तत्र पार्वती स्नातुमभ्याययौ तोये जाह्नव्याः नृप-नन्दन
evam stava-abhiyuktānām devānām tatra pārvatī snātumabhyāyayau toye jāhnavyāḥ nṛpa-nandana
साब्रवीत्तान् सुरान् सुभ्रूर्भवद्भिः स्तूयतेऽत्र का । शरीरकोशतश्चास्याः समुद्भूताब्रवीच्छिवा ॥ ५.८५॥
सा अब्रवीत् तान् सुरान् सुभ्रूः भवद्भिः स्तूयते अत्र का शरीरक-उशतः च अस्याः समुद्भूता अब्रवीत् शिवा
sā abravīt tān surān subhrūḥ bhavadbhiḥ stūyate atra kā śarīraka-uśataḥ ca asyāḥ samudbhūtā abravīt śivā
स्तोत्रं ममैतत्क्रियते शुम्भदैत्यनिराकृतैः । देवैः समेतैः समरे निशुम्भेन पराजितैः ॥ ५.८६॥
स्तोत्रम् मम एतत् क्रियते शुम्भ-दैत्य-निराकृतैः देवैः समेतैः समरे निशुम्भेन पराजितैः
stotram mama etat kriyate śumbha-daitya-nirākṛtaiḥ devaiḥ sametaiḥ samare niśumbhena parājitaiḥ
शरीरकोशाद्यत्तस्याः पार्वत्या निःसृताम्बिका । कौशिकीति समस्तेषु ततो लोकेषु गीयते ॥ ५.८७॥
शरीर-कोशात् यत् तस्याः पार्वत्याः निःसृत-अम्बिका कौशिकी इति समस्तेषु ततः लोकेषु गीयते
śarīra-kośāt yat tasyāḥ pārvatyāḥ niḥsṛta-ambikā kauśikī iti samasteṣu tataḥ lokeṣu gīyate
तस्यां विनिर्गतायां तु कृष्णाभूत्सापि पार्वती । कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताश्रया ॥ ५.८८॥
तस्याम् विनिर्गतायाम् तु कृष्णा अभूत् सा अपि पार्वती कालिका इति सम-आख्याताः हि मा चल-कृत-आश्रया
tasyām vinirgatāyām tu kṛṣṇā abhūt sā api pārvatī kālikā iti sama-ākhyātāḥ hi mā cala-kṛta-āśrayā
ततोऽम्बिकां परं रूपं बिभ्राणां सुमनोहरम् । ददर्श चण्डो मुण्डश्च भृत्यौ शुम्भनिशुम्भयोः ॥ ५.८९॥
ततः अम्बिकाम् परम् रूपम् बिभ्राणाम् सुमनः-हरम् ददर्श चण्डः मुण्डः च भृत्यौ शुम्भ-निशुम्भयोः
tataḥ ambikām param rūpam bibhrāṇām sumanaḥ-haram dadarśa caṇḍaḥ muṇḍaḥ ca bhṛtyau śumbha-niśumbhayoḥ
ताभ्यां शुम्भाय चाख्याता सातीव सुमनोहरा । काप्यास्ते स्त्री महाराज भासयन्ती हिमाचलम् ॥ ५.९०॥
ताभ्याम् शुम्भाय च आख्याता सा अतीव सुमनः-हरा काप्याः ते स्त्री महा-राज भासयन्ती हिम-अचलम्
tābhyām śumbhāya ca ākhyātā sā atīva sumanaḥ-harā kāpyāḥ te strī mahā-rāja bhāsayantī hima-acalam
नैव तादृक् क्वचिद्रूपं दृष्टं केनचिदुत्तमम् । ज्ञायतां काप्यसौ देवी गृह्यतां चासुरेश्वर ॥ ५.९१॥
न एव तादृक् क्वचित् रूपम् दृष्टम् केनचित् उत्तमम् ज्ञायताम् का अपि असौ देवी गृह्यताम् च असुर-ईश्वर
na eva tādṛk kvacit rūpam dṛṣṭam kenacit uttamam jñāyatām kā api asau devī gṛhyatām ca asura-īśvara
स्त्रीरत्नमतिचार्वङ्गी द्योतयन्ती दिशस्त्विषा । सा तु तिष्ठति दैत्येन्द्र तां भवान् द्रष्टुमर्हति ॥ ५.९२॥
स्त्री-रत्न-मति-चारु-अङ्गी द्योतयन्ती दिशः त्विषा सा तु तिष्ठति दैत्य-इन्द्र ताम् भवान् द्रष्टुम् अर्हति
strī-ratna-mati-cāru-aṅgī dyotayantī diśaḥ tviṣā sā tu tiṣṭhati daitya-indra tām bhavān draṣṭum arhati
यानि रत्नानि मणयो गजाश्वादीनि वै प्रभो । त्रैलोक्ये तु समस्तानि साम्प्रतं भान्ति ते गृहे ॥ ५.९३॥
यानि रत्नानि मणयः गज-अश्व-आदीनि वै प्रभो त्रैलोक्ये तु समस्तानि साम्प्रतम् भान्ति ते गृहे
yāni ratnāni maṇayaḥ gaja-aśva-ādīni vai prabho trailokye tu samastāni sāmpratam bhānti te gṛhe
ऐरावतः समानीतो गजरत्नं पुरन्दरात् । पारिजाततरुश्चायं तथैवोच्चैःश्रवा हयः ॥ ५.९४॥
ऐरावतः समानीतः गज-रत्नम् पुरन्दरात् पारिजात-तरुः च अयम् तथा एव उच्चैःश्रवाः हयः
airāvataḥ samānītaḥ gaja-ratnam purandarāt pārijāta-taruḥ ca ayam tathā eva uccaiḥśravāḥ hayaḥ
विमानं हंससंयुक्तमेतत्तिष्ठति तेऽङ्गणे । रत्नभूतमिहानीतं यदासीद्वेधसोऽद्भुतम् ॥ ५.९५॥
विमानम् हंस-संयुक्तम् एतत् तिष्ठति ते अङ्गणे रत्न-भूतम् इह आनीतम् यत् आसीत् वेधसः अद्भुतम्
vimānam haṃsa-saṃyuktam etat tiṣṭhati te aṅgaṇe ratna-bhūtam iha ānītam yat āsīt vedhasaḥ adbhutam
निधिरेष महापद्मः समानीतो धनेश्वरात् । किञ्जल्किनीं ददौ चाब्धिर्मालामम्लानपङ्कजाम् ॥ ५.९६॥
निधिः एष महा-पद्मः समानीतः धन-ईश्वरात् किञ्जल्किनीम् ददौ च अब्धिः माला-मम्लान-पङ्कजाम्
nidhiḥ eṣa mahā-padmaḥ samānītaḥ dhana-īśvarāt kiñjalkinīm dadau ca abdhiḥ mālā-mamlāna-paṅkajām
छत्रं ते वारुणं गेहे काञ्चनस्रावि तिष्ठति । तथायं स्यन्दनवरो यः पुरासीत्प्रजापतेः ॥ ५.९७॥
छत्रम् ते वारुणम् गेहे का आञ्चन् अस्र-अवि तिष्ठति तथा अयम् स्यन्दन-वरः यः पुरा आसीत् प्रजापतेः
chatram te vāruṇam gehe kā āñcan asra-avi tiṣṭhati tathā ayam syandana-varaḥ yaḥ purā āsīt prajāpateḥ
मृत्योरुत्क्रान्तिदा नाम शक्तिरीश त्वया हृता । पाशः सलिलराजस्य भ्रातुस्तव परिग्रहे ॥ ५.९८॥
मृत्योरुत्क्रान्तिदा नाम शक्तिः ईश त्वया हृता पाशः सलिल-राजस्य भ्रातुः तव परिग्रहे
mṛtyorutkrāntidā nāma śaktiḥ īśa tvayā hṛtā pāśaḥ salila-rājasya bhrātuḥ tava parigrahe
निशुम्भस्याब्धिजाताश्च समस्ता रत्नजातयः । वह्निरपि ददौ तुभ्यमग्निशौचे च वाससी ॥ ५.९९॥
निशुम्भस्य अब्धि-जाताः च समस्ताः रत्न-जातयः वह्निः अपि ददौ तुभ्यम् अग्नि-शौचे च वाससी
niśumbhasya abdhi-jātāḥ ca samastāḥ ratna-jātayaḥ vahniḥ api dadau tubhyam agni-śauce ca vāsasī
एवं दैत्येन्द्र रत्नानि समस्तान्याहृतानि ते । स्त्रीरत्नमेषा कल्याणी त्वया कस्मान्न गृह्यते ॥ ५.१००॥
एवम् दैत्य-इन्द्र रत्नानि समस्तानि आहृतानि ते स्त्री-रत्नम् एषा कल्याणी त्वया कस्मात् न गृह्यते
evam daitya-indra ratnāni samastāni āhṛtāni te strī-ratnam eṣā kalyāṇī tvayā kasmāt na gṛhyate
ऋषिरुवाच ॥ ५.१०१॥
निशम्येति वचः शुम्भः स तदा चण्डमुण्डयोः । प्रेषयामास सुग्रीवं दूतं देव्या महासुरम् ॥ ५.१०२॥
निशम्य इति वचः शुम्भः स तदा चण्ड-मुण्डयोः प्रेषयाम आस सुग्रीवम् दूतम् देव्याः महा-असुरम्
niśamya iti vacaḥ śumbhaḥ sa tadā caṇḍa-muṇḍayoḥ preṣayāma āsa sugrīvam dūtam devyāḥ mahā-asuram
इति चेति च वक्तव्या सा गत्वा वचनान्मम । यथा चाभ्येति सम्प्रीत्या तथा कार्यं त्वया लघु ॥ ५.१०३॥
इति च इति च वक्तव्या सा गत्वा वचनात् मम यथा च अभ्येति सम्प्रीत्या तथा कार्यम् त्वया लघु
iti ca iti ca vaktavyā sā gatvā vacanāt mama yathā ca abhyeti samprītyā tathā kāryam tvayā laghu
स तत्र गत्वा यत्रास्ते शैलोद्देशेऽतिशोभने । तां च देवीं ततः प्राह श्लक्ष्णं मधुरया गिरा ॥ ५.१०४॥
स तत्र गत्वा यत्र आस्ते शैल-उद्देशे अति शोभने ताम् च देवीम् ततः प्राह श्लक्ष्णम् मधुरया गिरा
sa tatra gatvā yatra āste śaila-uddeśe ati śobhane tām ca devīm tataḥ prāha ślakṣṇam madhurayā girā
दूत उवाच ॥ ५.१०५॥
देवि दैत्येश्वरः शुम्भस्त्रैलोक्ये परमेश्वरः । दूतोऽहं प्रेषितस्तेन त्वत्सकाशमिहागतः ॥ ५.१०६॥
देवि दैत्य-ईश्वरः शुम्भः त्रैलोक्ये परम-ईश्वरः दूतः अहम् प्रेषितः तेन त्वत् सकाशम् इह आगतः
devi daitya-īśvaraḥ śumbhaḥ trailokye parama-īśvaraḥ dūtaḥ aham preṣitaḥ tena tvat sakāśam iha āgataḥ
अव्याहताज्ञः सर्वासु यः सदा देवयोनिषु । निर्जिताखिलदैत्यारिः स यदाह शृणुष्व तत् ॥ ५.१०७॥
अव्या हत-आज्ञः सर्वासु यः सदा देव-योनिषु निर्जिता खिल-दैत्य-अरिः स यत् आह शृणुष्व तत्
avyā hata-ājñaḥ sarvāsu yaḥ sadā deva-yoniṣu nirjitā khila-daitya-ariḥ sa yat āha śṛṇuṣva tat
मम त्रैलोक्यमखिलं मम देवा वशानुगाः । यज्ञभागानहं सर्वानुपाश्नामि पृथक् पृथक् ॥ ५.१०८॥
मम त्रैलोक्यम् अखिलम् मम देवाः वश-अनुगाः यज्ञ-भागान् अहम् सर्वानुपाश्नामि पृथक् पृथक्
mama trailokyam akhilam mama devāḥ vaśa-anugāḥ yajña-bhāgān aham sarvānupāśnāmi pṛthak pṛthak
त्रैलोक्ये वररत्नानि मम वश्यान्यशेषतः । तथैव गजरत्नं च हृतं देवेन्द्रवाहनम् ॥ ५.१०९॥
त्रैलोक्ये वर-रत्नानि मम वश्यानि अशेषतः तथा एव गज-रत्नम् च हृतम् देव-इन्द्र-वाहनम्
trailokye vara-ratnāni mama vaśyāni aśeṣataḥ tathā eva gaja-ratnam ca hṛtam deva-indra-vāhanam
क्षीरोदमथनोद्भूतमश्वरत्नं ममामरैः । उच्चैःश्रवससंज्ञं तत्प्रणिपत्य समर्पितम् ॥ ५.११०॥
क्षीर-उदम् अथ न उद्भूतम् अश्व-रत्नम् मम अमरैः उच्चैःश्रवस-सञ्ज्ञम् तत् प्रणिपत्य समर्पितम्
kṣīra-udam atha na udbhūtam aśva-ratnam mama amaraiḥ uccaiḥśravasa-sañjñam tat praṇipatya samarpitam
यानि चान्यानि देवेषु गन्धर्वेषूरगेषु च । रत्नभूतानि भूतानि तानि मय्येव शोभने ॥ ५.१११॥
यानि च अन्यानि देवेषु गन्धर्वेषु उरगेषु च रत्न-भूतानि भूतानि तानि मयि एव शोभने
yāni ca anyāni deveṣu gandharveṣu urageṣu ca ratna-bhūtāni bhūtāni tāni mayi eva śobhane
स्त्रीरत्नभूतां त्वां देवि लोके मन्यामहे वयम् । सा त्वमस्मानुपागच्छ यतो रत्नभुजो वयम् ॥ ५.११२॥
स्त्री-रत्न-भूताम् त्वाम् देवि लोके मन्यामहे वयम् सा त्वम् अस्मान् उपागच्छ यतः रत्न-भुजः वयम्
strī-ratna-bhūtām tvām devi loke manyāmahe vayam sā tvam asmān upāgaccha yataḥ ratna-bhujaḥ vayam
मां वा ममानुजं वापि निशुम्भमुरुविक्रमम् । भज त्वं चञ्चलापाङ्गि रत्नभूतासि वै यतः ॥ ५.११३॥
माम् वा मम अनुजम् वापि निशुम्भम् उरु-विक्रमम् भज त्वम् चञ्चला अप-अङ्गि रत्न-भूत-असि वै यतः
mām vā mama anujam vāpi niśumbham uru-vikramam bhaja tvam cañcalā apa-aṅgi ratna-bhūta-asi vai yataḥ
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यसे मत्परिग्रहात् । एतद्बुद्ध्या समालोच्य मत्परिग्रहतां व्रज ॥ ५.११४॥
परम् ऐश्वर्यम् अतुलम् प्राप्स्यसे मत्-परिग्रहात् एतत् बुद्ध्या समा आलोच्य मत्परिग्रहताम् व्रज
param aiśvaryam atulam prāpsyase mat-parigrahāt etat buddhyā samā ālocya matparigrahatām vraja
ऋषिरुवाच ॥ ५.११५॥
इत्युक्ता सा तदा देवी गम्भीरान्तःस्मिता जगौ । दुर्गा भगवती भद्रा ययेदं धार्यते जगत् ॥ ५.११६॥
इति उक्ता सा तदा देवी गम्भीर-अन्तः-स्मिता जगौ दुर्गा भगवती भद्राः यया इदम् धार्यते जगत्
iti uktā sā tadā devī gambhīra-antaḥ-smitā jagau durgā bhagavatī bhadrāḥ yayā idam dhāryate jagat
देव्युवाच ॥ ५.११७॥
सत्यमुक्तं त्वया नात्र मिथ्या किञ्चित्त्वयोदितम् । त्रैलोक्याधिपतिः शुम्भो निशुम्भश्चापि तादृशः ॥ ५.११८॥
सत्यम् उक्तम् त्वया न अत्र मिथ्या किञ्चित् त्वया उदितम् त्रैलोक्य-अधिपतिः शुम्भः निशुम्भः च अपि तादृशः
satyam uktam tvayā na atra mithyā kiñcit tvayā uditam trailokya-adhipatiḥ śumbhaḥ niśumbhaḥ ca api tādṛśaḥ
किं त्वत्र यत्प्रतिज्ञातं मिथ्या तत्क्रियते कथम् । श्रूयतामल्पबुद्धित्वात्प्रतिज्ञा या कृता पुरा ॥ ५.११९॥
किम् तु अत्र यत् प्रतिज्ञातम् मिथ्या तत् क्रियते कथम् श्रूयतामल्पबुद्धित्वात्प्रतिज्ञा या कृता पुरा
kim tu atra yat pratijñātam mithyā tat kriyate katham śrūyatāmalpabuddhitvātpratijñā yā kṛtā purā
यो मां जयति सङ्ग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति । यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति ॥ ५.१२०॥
यः माम् जयति सङ्ग्रामे यः मे दर्पम् व्यपोहति यः मे प्रति बलः लोके स मे भर्ता भविष्यति
yaḥ mām jayati saṅgrāme yaḥ me darpam vyapohati yaḥ me prati balaḥ loke sa me bhartā bhaviṣyati
तदागच्छतु शुम्भोऽत्र निशुम्भो वा महाबलः । मां जित्वा किं चिरेणात्र पाणिं गृह्णातु मे लघु ॥ ५.१२१॥
तदा गच्छतु शुम्भः अत्र निशुम्भः वा महा-बलः माम् जित्वा किम् चिरेण अत्र पाणिम् गृह्णातु मे लघु
tadā gacchatu śumbhaḥ atra niśumbhaḥ vā mahā-balaḥ mām jitvā kim cireṇa atra pāṇim gṛhṇātu me laghu
दूत उवाच ॥ ५.१२२॥
अवलिप्तासि मैवं त्वं देवि ब्रूहि ममाग्रतः । त्रैलोक्ये कः पुमांस्तिष्ठेदग्रे शुम्भनिशुम्भयोः ॥ ५.१२३॥
अवलिप्त-असि मा एवम् त्वम् देवि ब्रूहि मम अग्रतः त्रैलोक्ये कः पुमान् तिष्ठेत् अग्रे शुम्भ-निशुम्भयोः
avalipta-asi mā evam tvam devi brūhi mama agrataḥ trailokye kaḥ pumān tiṣṭhet agre śumbha-niśumbhayoḥ
अन्येषामपि दैत्यानां सर्वे देवा न वै युधि । तिष्ठन्ति सम्मुखे देवि किं पुनः स्त्री त्वमेकिका ॥ ५.१२४॥
अन्येषाम् अपि दैत्यानाम् सर्वे देवाः न वै युधि तिष्ठन्ति सम्मुखे देवि किम् पुनः स्त्री त्वम् एकिका
anyeṣām api daityānām sarve devāḥ na vai yudhi tiṣṭhanti sammukhe devi kim punaḥ strī tvam ekikā
इन्द्राद्याः सकला देवास्तस्थुर्येषां न संयुगे । शुम्भादीनां कथं तेषां स्त्री प्रयास्यसि सम्मुखम् ॥ ५.१२५॥
इन्द्र-आद्याः सकलाः देवाः तस्थुः येषाम् न संयुगे शुम्भ-आदीनाम् कथम् तेषाम् स्त्री प्रयास्यसि सम्मुखम्
indra-ādyāḥ sakalāḥ devāḥ tasthuḥ yeṣām na saṃyuge śumbha-ādīnām katham teṣām strī prayāsyasi sammukham
सा त्वं गच्छ मयैवोक्ता पार्श्वं शुम्भनिशुम्भयोः । केशाकर्षणनिर्धूतगौरवा मा गमिष्यसि ॥ ५.१२६॥
सा त्वम् गच्छ मया एव उक्ता पार्श्वम् शुम्भ-निशुम्भयोः केश-आकर्षण-निर्धूत-गौरवाः मा गमिष्यसि
sā tvam gaccha mayā eva uktā pārśvam śumbha-niśumbhayoḥ keśa-ākarṣaṇa-nirdhūta-gauravāḥ mā gamiṣyasi
देव्युवाच ॥ ५.१२७॥
एवमेतद् बली शुम्भो निशुम्भश्चापितादृशः । किं करोमि प्रतिज्ञा मे यदनालोचिता पुरा ॥ ५.१२८॥
एवम् एतत् बली शुम्भः निशुम्भः चापि-तादृशः किम् करोमि प्रतिज्ञा मे यदनालोचिता पुरा
evam etat balī śumbhaḥ niśumbhaḥ cāpi-tādṛśaḥ kim karomi pratijñā me yadanālocitā purā
स त्वं गच्छ मयोक्तं ते यदेतत्सर्वमादृतः । तदाचक्ष्वासुरेन्द्राय स च युक्तं करोतु यत् ॥ ५.१२९॥
स त्वम् गच्छ मया उक्तम् ते यत् एतत् सर्वम् आदृतः तत् आचक्ष्व असुर-इन्द्राय स च युक्तम् करोतु यत्
sa tvam gaccha mayā uktam te yat etat sarvam ādṛtaḥ tat ācakṣva asura-indrāya sa ca yuktam karotu yat
॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये देव्या दूतसंवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥
स्वस्ति श्री-मार्कण्डेय-पुराणे सा वर्णिके मनु-अन्तरे देवी-माहात्म्ये देव्याः दूत-संवादः नाम पञ्चमः अध्यायः
svasti śrī-mārkaṇḍeya-purāṇe sā varṇike manu-antare devī-māhātmye devyāḥ dūta-saṃvādaḥ nāma pañcamaḥ adhyāyaḥ
उवाच ९
त्रिपान्मन्त्राः ६६
tripānmantrāḥ 66

Sasto Adhyaya

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॥ ६. शुम्भनिशुम्भसेनानीधूम्रलोचनवधो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥
शुम्भ-निशुम्भ-सेनानी-धूम्र-लोचन-वधः नाम षष्ठः अध्यायः
śumbha-niśumbha-senānī-dhūmra-locana-vadhaḥ nāma ṣaṣṭhaḥ adhyāyaḥ
। ध्यानम् ।
ध्यानम्
dhyānam
ॐ नागाधीश्वरविष्टरां फणिफणोत्तंसोरु रत्नावली- भास्वद्देहलतां दिवाकरनिभां नेत्रत्रयोद्भासिताम् । मालाकुम्भकपालनीरजकरां चन्द्रार्धचूडां परां सर्वज्ञेश्वरभैरवाङ्गनिलयां पद्मावतीं चिन्तये ॥
ॐनागाधीश्वरविष्टराम् फणि-फण-उत्तम् स-ऊरु रत्नावली॰ भास्वत्-देह-लताम् दिवा कर-निभाम् नेत्र-त्रय-उद्भासिताम् माला-कुम्भ-कपाल-नीरज-कराम् चन्द्र-अर्ध-चूडाम् पराम् सर्व-ज्ञ-ईश्वर-भैरव-अङ्ग-निलयाम् पद्मावतीम् चिन्तये
oṃnāgādhīśvaraviṣṭarām phaṇi-phaṇa-uttam sa-ūru ratnāvalī॰ bhāsvat-deha-latām divā kara-nibhām netra-traya-udbhāsitām mālā-kumbha-kapāla-nīraja-karām candra-ardha-cūḍām parām sarva-jña-īśvara-bhairava-aṅga-nilayām padmāvatīm cintaye
ॐ ऋषिरुवाच ॥ ६.१॥
इत्याकर्ण्य वचो देव्याः स दूतोऽमर्षपूरितः । समाचष्ट समागम्य दैत्यराजाय विस्तरात् ॥ ६.२॥
इति आकर्ण्य वचः देव्याः स दूतः अमर्ष-पूरितः समाचष्ट समागम्य दैत्य-राजाय विस्तरात्
iti ākarṇya vacaḥ devyāḥ sa dūtaḥ amarṣa-pūritaḥ samācaṣṭa samāgamya daitya-rājāya vistarāt
तस्य दूतस्य तद्वाक्यमाकर्ण्यासुरराट् ततः । सक्रोधः प्राह दैत्यानामधिपं धूम्रलोचनम् ॥ ६.३॥
तस्य दूतस्य तत् वाक्यम् आकर्ण्य-असुर-राट् ततः सक्रोधः प्राह दैत्यानाम् अधिपम् धूम्र-लोचनम्
tasya dūtasya tat vākyam ākarṇya-asura-rāṭ tataḥ sakrodhaḥ prāha daityānām adhipam dhūmra-locanam
हे धूम्रलोचनाशु त्वं स्वसैन्यपरिवारितः । तामानय बलाद्दुष्टां केशाकर्षणविह्वलाम् ॥ ६.४॥
हे धूम्र-लोचना आशु त्वम् स्व-सैन्य-परिवारितः ताम् आनय बलात् दुष्टाम् केश-आकर्षण-विह्वलाम्
he dhūmra-locanā āśu tvam sva-sainya-parivāritaḥ tām ānaya balāt duṣṭām keśa-ākarṣaṇa-vihvalām
तत्परित्राणदः कश्चिद्यदि वोत्तिष्ठतेऽपरः । स हन्तव्योऽमरो वापि यक्षो गन्धर्व एव वा ॥ ६.५॥
तत् परित्राण-दः कश्चित् यदि वा उत्तिष्ठते अपरः स हन्तव्यः अमरः वापि यक्षः गन्धर्वः एव वा
tat paritrāṇa-daḥ kaścit yadi vā uttiṣṭhate aparaḥ sa hantavyaḥ amaraḥ vāpi yakṣaḥ gandharvaḥ eva vā
ऋषिरुवाच ॥ ६.६॥
तेनाज्ञप्तस्ततः शीघ्रं स दैत्यो धूम्रलोचनः । वृतः षष्ट्या सहस्राणामसुराणां द्रुतं ययौ ॥ ६.७॥
तेन आज्ञप्तः ततः शीघ्रम् स दैत्यः धूम्र-लोचनः वृतः षष्ट्या सहस्राणाम् असुराणाम् द्रुतम् ययौ
tena ājñaptaḥ tataḥ śīghram sa daityaḥ dhūmra-locanaḥ vṛtaḥ ṣaṣṭyā sahasrāṇām asurāṇām drutam yayau
स दृष्ट्वा तां ततो देवीं तुहिनाचलसंस्थिताम् । जगादोच्चैः प्रयाहीति मूलं शुम्भनिशुम्भयोः ॥ ६.८॥
स दृष्ट्वा ताम् ततः देवीम् तुहिन-अचल-संस्थिताम् जगाद उच्चैः प्रयाहि इति मूलम् शुम्भ-निशुम्भयोः
sa dṛṣṭvā tām tataḥ devīm tuhina-acala-saṃsthitām jagāda uccaiḥ prayāhi iti mūlam śumbha-niśumbhayoḥ
न चेत्प्रीत्याद्य भवती मद्भर्तारमुपैष्यति । ततो बलान्नयाम्येष केशाकर्षणविह्वलाम् ॥ ६.९॥
न चेत् प्रीत्या अद्य भवती मत्-भर्तारम् उपैष्यति ततः बलात् नयामि एष केश-आकर्षण-विह्वलाम्
na cet prītyā adya bhavatī mat-bhartāram upaiṣyati tataḥ balāt nayāmi eṣa keśa-ākarṣaṇa-vihvalām
देव्युवाच ॥ ६.१०॥
दैत्येश्वरेण प्रहितो बलवान्बलसंवृतः । बलान्नयसि मामेवं ततः किं ते करोम्यहम् ॥ ६.११॥
दैत्य-ईश्वरेण प्रहितः बलवान् बल-संवृतः बलात् नयसि माम् एवम् ततः किम् ते करोमि अहम्
daitya-īśvareṇa prahitaḥ balavān bala-saṃvṛtaḥ balāt nayasi mām evam tataḥ kim te karomi aham
ऋषिरुवाच ॥ ६.१२॥
इत्युक्तः सोऽभ्यधावत्तामसुरो धूम्रलोचनः । हुङ्कारेणैव तं भस्म सा चकाराम्बिका तदा ॥ ६.१३॥
इति उक्तः सः अभ्यधावत् ताम् असुरः धूम्र-लोचनः हुङ्कारेण एव तम् भस्म सा चकार अम्बिका तदा
iti uktaḥ saḥ abhyadhāvat tām asuraḥ dhūmra-locanaḥ huṅkāreṇa eva tam bhasma sā cakāra ambikā tadā
अथ क्रुद्धं महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका । ववर्ष सायकैस्तीक्ष्णैस्तथा शक्तिपरश्वधैः ॥ ६.१४॥
अथ क्रुद्धम् महा-सैन्यम् असुराणाम् तथा अम्बिका ववर्ष सायकैः तीक्ष्णैः तथा शक्ति-परशु अध ऐः
atha kruddham mahā-sainyam asurāṇām tathā ambikā vavarṣa sāyakaiḥ tīkṣṇaiḥ tathā śakti-paraśu adha aiḥ
ततो धुतसटः कोपात्कृत्वा नादं सुभैरवम् । पपातासुरसेनायां सिंहो देव्याः स्ववाहनः ॥ ६.१५॥
ततः धुत-सटः कोपात् कृत्वा नादम् सु-भैरवम् पपात असुर-सेनायाम् सिंहः देव्याः स्व-वाहनः
tataḥ dhuta-saṭaḥ kopāt kṛtvā nādam su-bhairavam papāta asura-senāyām siṃhaḥ devyāḥ sva-vāhanaḥ
कांश्चित्करप्रहारेण दैत्यानास्येन चापरान् । आक्रान्त्या चाधरेणान्यान् जघान स महासुरान् ॥ ६.१६॥
कांश्चित् कर-प्रहारेण दैत्यान् आस्येन च अपरान् आक्रान्त्या च अधरेण अन्यान् जघान स महा-असुरान्
kāṃścit kara-prahāreṇa daityān āsyena ca aparān ākrāntyā ca adhareṇa anyān jaghāna sa mahā-asurān
केषाञ्चित्पाटयामास नखैः कोष्ठानि केसरी । तथा तलप्रहारेण शिरांसि कृतवान्पृथक् ॥ ६.१७॥
केषाम् चित्-पाटया मा स नखैः कोष्ठानि केसरी तथा तल-प्रहारेण शिरांसि कृतवान् पृथक्
keṣām cit-pāṭayā mā sa nakhaiḥ koṣṭhāni kesarī tathā tala-prahāreṇa śirāṃsi kṛtavān pṛthak
विच्छिन्नबाहुशिरसः कृतास्तेन तथापरे । पपौ च रुधिरं कोष्ठादन्येषां धुतकेसरः ॥ ६.१८॥
विच्छिन्न-बाहु शिरसः कृताः तेन तथा अपरे पपौ च रुधिरम् कोष्ठात् अन्येषाम् धुत-केसरः
vicchinna-bāhu śirasaḥ kṛtāḥ tena tathā apare papau ca rudhiram koṣṭhāt anyeṣām dhuta-kesaraḥ
क्षणेन तद्बलं सर्वं क्षयं नीतं महात्मना । तेन केसरिणा देव्या वाहनेनातिकोपिना ॥ ६.१९॥
क्षणेन तत् बलम् सर्वम् क्षयम् नीतम् महा-आत्मना तेन केसरिणा देव्याः वाहनेन अति कोपिना
kṣaṇena tat balam sarvam kṣayam nītam mahā-ātmanā tena kesariṇā devyāḥ vāhanena ati kopinā
श्रुत्वा तमसुरं देव्या निहतं धूम्रलोचनम् । बलं च क्षयितं कृत्स्नं देवीकेसरिणा ततः ॥ ६.२०॥
श्रुत्वा तम् असुरम् देव्याः निहतम् धूम्र-लोचनम् बलम् च क्षयि तम् कृत्स्नम् देवी केसरिणा ततः
śrutvā tam asuram devyāḥ nihatam dhūmra-locanam balam ca kṣayi tam kṛtsnam devī kesariṇā tataḥ
चुकोप दैत्याधिपतिः शुम्भः प्रस्फुरिताधरः । आज्ञापयामास च तौ चण्डमुण्डौ महासुरौ ॥ ६.२१॥
चुकोप दैत्य-अधिपतिः शुम्भः प्रस्फुरिताधरः आज्ञापयाम आस च तौ चण्ड-मुण्डौ महा-असुरौ
cukopa daitya-adhipatiḥ śumbhaḥ prasphuritādharaḥ ājñāpayāma āsa ca tau caṇḍa-muṇḍau mahā-asurau
हे चण्ड हे मुण्ड बलैर्बहुभिः परिवारितौ । तत्र गच्छत गत्वा च सा समानीयतां लघु ॥ ६.२२॥
हे चण्ड हे मुण्ड बलैः बहुभिः परिवारितौ तत्र गच्छत गत्वा च सा समानीयताम् लघु
he caṇḍa he muṇḍa balaiḥ bahubhiḥ parivāritau tatra gacchata gatvā ca sā samānīyatām laghu
केशेष्वाकृष्य बद्ध्वा वा यदि वः संशयो युधि । तदाशेषायुधैः सर्वैरसुरैर्विनिहन्यताम् ॥ ६.२३॥
केशेषु आकृष्य बद्ध्वा वा यदि वः संशयः युधि तदा शेष-आयुधैः सर्वैः असुरैः विनिहन्यताम्
keśeṣu ākṛṣya baddhvā vā yadi vaḥ saṃśayaḥ yudhi tadā śeṣa-āyudhaiḥ sarvaiḥ asuraiḥ vinihanyatām
तस्यां हतायां दुष्टायां सिंहे च विनिपातिते । शीघ्रमागम्यतां बद्ध्वा गृहीत्वा तामथाम्बिकाम् ॥ ६.२४॥
तस्याम् हतायाम् दुष्टायाम् सिंहे च विनिपातिते शीघ्रम् आगम्यताम् बद्ध्वा गृहीत्वा ताम् अथ अम्बिकाम्
tasyām hatāyām duṣṭāyām siṃhe ca vinipātite śīghram āgamyatām baddhvā gṛhītvā tām atha ambikām
॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये शुम्भनिशुम्भसेनानीधूम्रलोचनवधो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥
स्वस्ति श्री-मार्कण्डेय-पुराणे सा वर्णिके मनु-अन्तरे देवी-माहात्म्ये शुम्भ-निशुम्भ-सेनानी-धूम्र-लोचन-वधः नाम षष्ठः अध्यायः
svasti śrī-mārkaṇḍeya-purāṇe sā varṇike manu-antare devī-māhātmye śumbha-niśumbha-senānī-dhūmra-locana-vadhaḥ nāma ṣaṣṭhaḥ adhyāyaḥ
उवाच ४
श्लोकाः २४
ślokāḥ 24

Saptamo Adhyaya

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॥ ७. चण्डमुण्डवधो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥
चण्ड-मुण्ड-वधः नाम सप्तमः अध्यायः
caṇḍa-muṇḍa-vadhaḥ nāma saptamaḥ adhyāyaḥ
। ध्यानम् ।
ध्यानम्
dhyānam
ॐ ध्यायेयं रत्नपीठे शुककलपठितं शृण्वतीं श्यामलाङ्गीं न्यस्तैकांघ्रिं सरोजे शशिशकलधरां वल्लकीं वादयन्तीम् । कल्हाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रत्नवस्त्रां मातङ्गी शङ्कपात्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्भासिभालाम् ॥
ॐध्यायेयम् रत्न-पीठे शुक-कल-पठितम् शृण्वतीम् श्यामल-अङ्गीम् न्यस्त-एक-अङ्घ्रिम् सरोजे शशि-शकल-धराम् वल्लकीम् वादयन्तीम् कल्हाराबद्धमालाम् नियमितविलसच्चोलिकाम् रत्न-वस्त्राम् मातङ्गी शङ्कपात्राम् मधुर-मधु-मदाम् चित्रक-उद्भासि-भालाम्
oṃdhyāyeyam ratna-pīṭhe śuka-kala-paṭhitam śṛṇvatīm śyāmala-aṅgīm nyasta-eka-aṅghrim saroje śaśi-śakala-dharām vallakīm vādayantīm kalhārābaddhamālām niyamitavilasaccolikām ratna-vastrām mātaṅgī śaṅkapātrām madhura-madhu-madām citraka-udbhāsi-bhālām
ॐ ऋषिरुवाच ॥ ७.१॥
आज्ञप्तास्ते ततो दैत्याश्चण्डमुण्डपुरोगमाः । चतुरङ्गबलोपेता ययुरभ्युद्यतायुधाः ॥ ७.२॥
आज्ञप्ताः ते ततः दैत्याः चण्ड-मुण्ड-पुरः-गमाः च तुरङ्ग-बल-उपेताः ययुः अभ्युद्यत-आयुधाः
ājñaptāḥ te tataḥ daityāḥ caṇḍa-muṇḍa-puraḥ-gamāḥ ca turaṅga-bala-upetāḥ yayuḥ abhyudyata-āyudhāḥ
ददृशुस्ते ततो देवीमीषद्धासां व्यवस्थिताम् । सिंहस्योपरि शैलेन्द्रशृङ्गे महति काञ्चने ॥ ७.३॥
ददृशुः ते ततः देवीम् ईषत् ह आसाम् व्यवस्थिताम् सिंहस्य उपरि शैल-इन्द्र-शृङ्गे महति काञ्चने
dadṛśuḥ te tataḥ devīm īṣat ha āsām vyavasthitām siṃhasya upari śaila-indra-śṛṅge mahati kāñcane
ते दृष्ट्वा तां समादातुमुद्यमं चक्रुरुद्यताः । आकृष्टचापासिधरास्तथान्ये तत्समीपगाः ॥ ७.४॥
ते दृष्ट्वा ताम् समा दातुम् उद्यमम् चक्रुः उद्यताः आकृष्ट-चाप-असि-धराः तथा अन्ये तत् समीप-गाः
te dṛṣṭvā tām samā dātum udyamam cakruḥ udyatāḥ ākṛṣṭa-cāpa-asi-dharāḥ tathā anye tat samīpa-gāḥ
ततः कोपं चकारोच्चैरम्बिका तानरीन्प्रति । कोपेन चास्या वदनं मषीवर्णमभूत्तदा ॥ ७.५॥
ततः कोपम् चकार उच्चैः-अम्बिका तान् अरीन् प्रति कोपेन च अस्याः वदनम् मषी-वर्णम् अभूत् तदा
tataḥ kopam cakāra uccaiḥ-ambikā tān arīn prati kopena ca asyāḥ vadanam maṣī-varṇam abhūt tadā
भ्रुकुटीकुटिलात्तस्या ललाटफलकाद्द्रुतम् । काली करालवदना विनिष्क्रान्तासिपाशिनी ॥ ७.६॥
भ्रुकुटी-कुटिलात् तस्याः ललाट-फलकात् द्रुतम् काली करालवदना विनिष्क्रान्तासिपाशिनी
bhrukuṭī-kuṭilāt tasyāḥ lalāṭa-phalakāt drutam kālī karālavadanā viniṣkrāntāsipāśinī
विचित्रखट्वाङ्गधरा नरमालाविभूषणा । द्वीपिचर्मपरीधाना शुष्कमांसातिभैरवा ॥ ७.७॥
विचित्र-खट्वा-अङ्ग-धराः नर-माला-विभूषणा द्वीपि-चर्म परी धाना शुष्कमांसातिभैरवा
vicitra-khaṭvā-aṅga-dharāḥ nara-mālā-vibhūṣaṇā dvīpi-carma parī dhānā śuṣkamāṃsātibhairavā
अतिविस्तारवदना जिह्वाललनभीषणा । निमग्नारक्तनयना नादापूरितदिङ्मुखा ॥ ७.८॥
अति विस्तार-वदनाः जिह्वा-ललन-भीषणा निमग्ना रक्त-नयनाः नाद-आपूरित-दिक्-मुखा
ati vistāra-vadanāḥ jihvā-lalana-bhīṣaṇā nimagnā rakta-nayanāḥ nāda-āpūrita-dik-mukhā
सा वेगेनाभिपतिता घातयन्ती महासुरान् । सैन्ये तत्र सुरारीणामभक्षयत तद्बलम् ॥ ७.९॥
सा वेगे नाभि-पतिताः घातयन्ती महा-असुरान् सैन्ये तत्र सुर-अरीणाम् अभक्षयत तत् बलम्
sā vege nābhi-patitāḥ ghātayantī mahā-asurān sainye tatra sura-arīṇām abhakṣayata tat balam
पार्ष्णिग्राहाङ्कुशग्राहयोधघण्टासमन्वितान् । समादायैकहस्तेन मुखे चिक्षेप वारणान् ॥ ७.१०॥
पार्ष्णि-ग्राह-अङ्कुश-ग्राह-योध-घण्टा-समन्वितान् समा-दाय-एक-हस्तेन मुखे चिक्षेप वारणान्
pārṣṇi-grāha-aṅkuśa-grāha-yodha-ghaṇṭā-samanvitān samā-dāya-eka-hastena mukhe cikṣepa vāraṇān
तथैव योधं तुरगै रथं सारथिना सह । निक्षिप्य वक्त्रे दशनैश्चर्वयन्त्यतिभैरवम् ॥ ७.११॥
तथा एव योधम् तुरगैः रथम् सारथिना सह निक्षिप्य वक्त्रे दशनैः चर्वयन्ति अति-भैरवम्
tathā eva yodham turagaiḥ ratham sārathinā saha nikṣipya vaktre daśanaiḥ carvayanti ati-bhairavam
एकं जग्राह केशेषु ग्रीवायामथ चापरम् । पादेनाक्रम्य चैवान्यमुरसान्यमपोथयत् ॥ ७.१२॥
एकम् जग्राह केशेषु ग्रीवायाम् अथ च अपरम् पादेन आक्रम्य च एव अन्यम् उरसा अन्यम् अपोथयत्
ekam jagrāha keśeṣu grīvāyām atha ca aparam pādena ākramya ca eva anyam urasā anyam apothayat
तैर्मुक्तानि च शस्त्राणि महास्त्राणि तथासुरैः । मुखेन जग्राह रुषा दशनैर्मथितान्यपि ॥ ७.१३॥
तैः मुक्तानि च शस्त्राणि महा-अस्त्राणि तथा सुरैः मुखेन जग्राह रुषा दशनैः मथितानि अपि
taiḥ muktāni ca śastrāṇi mahā-astrāṇi tathā suraiḥ mukhena jagrāha ruṣā daśanaiḥ mathitāni api
बलिनां तद्बलं सर्वमसुराणां दुरात्मनाम् । ममर्दाभक्षयच्चान्यानन्यांश्चाताडयत्तदा ॥ ७.१४॥
बलिनाम् तत् बलम् सर्वम् असुराणाम् दुरात्मनाम् ममर्द अभक्षयत् च अन्यान् अन्यान् च अताडयत् तदा
balinām tat balam sarvam asurāṇām durātmanām mamarda abhakṣayat ca anyān anyān ca atāḍayat tadā
असिना निहताः केचित्केचित्खट्वाङ्गताडिताः । जग्मुर्विनाशमसुरा दन्ताग्राभिहतास्तथा ॥ ७.१५॥
असिना निहताः केचित् केचित् खट्वा-अङ्ग-ताडिताः जग्मुः विनाशम् असुराः दन्त-अग्र-अभिहताः तथा
asinā nihatāḥ kecit kecit khaṭvā-aṅga-tāḍitāḥ jagmuḥ vināśam asurāḥ danta-agra-abhihatāḥ tathā
क्षणेन तद्बलं सर्वमसुराणां निपातितम् । दृष्ट्वा चण्डोऽभिदुद्राव तां कालीमतिभीषणाम् ॥ ७.१६॥
क्षणेन तत् बलम् सर्वम् असुराणाम् निपातितम् दृष्ट्वा चण्डः अभिदुद्राव ताम् काली-मति भीषणाम्
kṣaṇena tat balam sarvam asurāṇām nipātitam dṛṣṭvā caṇḍaḥ abhidudrāva tām kālī-mati bhīṣaṇām
शरवर्षैर्महाभीमैर्भीमाक्षीं तां महासुरः । छादयामास चक्रैश्च मुण्डः क्षिप्तैः सहस्रशः ॥ ७.१७॥
शर-वर्षैः महा-भीमैः भीम-अक्षीम् ताम् महा-असुरः छादयाम आस चक्रैः च मुण्डः क्षिप्तैः सहस्रशः
śara-varṣaiḥ mahā-bhīmaiḥ bhīma-akṣīm tām mahā-asuraḥ chādayāma āsa cakraiḥ ca muṇḍaḥ kṣiptaiḥ sahasraśaḥ
तानि चक्राण्यनेकानि विशमानानि तन्मुखम् । बभुर्यथार्कबिम्बानि सुबहूनि घनोदरम् ॥ ७.१८॥
तानि चक्राणि अनेकानि विशमानानि तत् मुखम् बभुः यथा अर्क-बिम्बानि सुबहूनि घन-उदरम्
tāni cakrāṇi anekāni viśamānāni tat mukham babhuḥ yathā arka-bimbāni subahūni ghana-udaram
ततो जहासातिरुषा भीमं भैरवनादिनी । काली करालवदना दुर्दर्शदशनोज्ज्वला ॥ ७.१९॥
ततः जहास अति रुषा भीमम् भैरव-नादिनी काली कराल-वदनाः दुर्दर्श-दशन-उज्ज्वला
tataḥ jahāsa ati ruṣā bhīmam bhairava-nādinī kālī karāla-vadanāḥ durdarśa-daśana-ujjvalā
उत्थाय च महासिंहं देवी चण्डमधावत । गृहीत्वा चास्य केशेषु शिरस्तेनासिनाच्छिनत् ॥ ७.२०॥
उत्थाय च महा-सिंहम् देवी चण्डम् अधावत गृहीत्वा च अस्य केशेषु शिरः तेन असि न आच्छिनत्
utthāya ca mahā-siṃham devī caṇḍam adhāvata gṛhītvā ca asya keśeṣu śiraḥ tena asi na ācchinat
अथ मुण्डोऽभ्यधावत्तां दृष्ट्वा चण्डं निपातितम् । तमप्यपातयद्भूमौ सा खड्गाभिहतं रुषा ॥ ७.२१॥
अथ मुण्डः अभ्यधावत् ताम् दृष्ट्वा चण्डम् निपातितम् तम् अपि अपातयत् भूमौ सा खड्ग-अभिहतम् रुषा
atha muṇḍaḥ abhyadhāvat tām dṛṣṭvā caṇḍam nipātitam tam api apātayat bhūmau sā khaḍga-abhihatam ruṣā
हतशेषं ततः सैन्यं दृष्ट्वा चण्डं निपातितम् । मुण्डं च सुमहावीर्यं दिशो भेजे भयातुरम् ॥ ७.२२॥
हत-शेषम् ततः सैन्यम् दृष्ट्वा चण्डम् निपातितम् मुण्डम् च सुमहा-वीर्यम् दिशः भेजे भय-आतुरम्
hata-śeṣam tataḥ sainyam dṛṣṭvā caṇḍam nipātitam muṇḍam ca sumahā-vīryam diśaḥ bheje bhaya-āturam
शिरश्चण्डस्य काली च गृहीत्वा मुण्डमेव च । प्राह प्रचण्डाट्टहासमिश्रमभ्येत्य चण्डिकाम् ॥ ७.२३॥
शिरः-चण्डस्य काली च गृहीत्वा मुण्डम् एव च प्राह प्रचण्ड-अट्ट-हास-मिश्रम् अभ्येत्य चण्डिकाम्
śiraḥ-caṇḍasya kālī ca gṛhītvā muṇḍam eva ca prāha pracaṇḍa-aṭṭa-hāsa-miśram abhyetya caṇḍikām
मया तवात्रोपहृतौ चण्डमुण्डौ महापशू । युद्धयज्ञे स्वयं शुम्भं निशुम्भं च हनिष्यसि ॥ ७.२४॥
मया तव अत्र उपहृतौ चण्ड-मुण्डौ महा-पशू युद्ध-यज्ञे स्वयम् शुम्भम् निशुम्भम् च हनिष्यसि
mayā tava atra upahṛtau caṇḍa-muṇḍau mahā-paśū yuddha-yajñe svayam śumbham niśumbham ca haniṣyasi
ऋषिरुवाच ॥ ७.२५॥
तावानीतौ ततो दृष्ट्वा चण्डमुण्डौ महासुरौ । उवाच कालीं कल्याणी ललितं चण्डिका वचः ॥ ७.२६॥
तौ आनीतौ ततः दृष्ट्वा चण्ड-मुण्डौ महा-असुरौ उवाच कालीम् कल्याणी ललितम् चण्डिका-वचः
tau ānītau tataḥ dṛṣṭvā caṇḍa-muṇḍau mahā-asurau uvāca kālīm kalyāṇī lalitam caṇḍikā-vacaḥ
यस्माच्चण्डं च मुण्डं च गृहीत्वा त्वमुपागता । चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवी भविष्यसि ॥ ७.२७॥
यस्मात् चण्डम् च मुण्डम् च गृहीत्वा त्वम् उपागता चामुण्डा इति ततः लोके ख्याताः देवी भविष्यसि
yasmāt caṇḍam ca muṇḍam ca gṛhītvā tvam upāgatā cāmuṇḍā iti tataḥ loke khyātāḥ devī bhaviṣyasi
॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये चण्डमुण्डवधो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥
स्वस्ति श्री-मार्कण्डेय-पुराणे सा वर्णिके मनु-अन्तरे देवी-माहात्म्ये चण्ड-मुण्ड-वधः नाम सप्तमः अध्यायः
svasti śrī-mārkaṇḍeya-purāṇe sā varṇike manu-antare devī-māhātmye caṇḍa-muṇḍa-vadhaḥ nāma saptamaḥ adhyāyaḥ
उवाच २

Astamo Adhyaya

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॥ ८. रक्तबीजवधो नामाष्टमोऽध्यायः ॥
रक्त-बीज-वधः नाम अष्टमः अध्यायः
rakta-bīja-vadhaḥ nāma aṣṭamaḥ adhyāyaḥ
। ध्यानम् ।
ध्यानम्
dhyānam
ॐ अरुणां करुणातरङ्गिताक्षीं धृतपाशाङ्कुशबाणाचापहस्ताम् । अणिमादिभिरावृतां मयूखै- रहमित्येव विभावये भवानीम् ॥
ॐअरुणाम् करुणा-तरङ्गित-अक्षीम् धृत-पाश-अङ्कुश-बाणा चाप-हस्ताम् अणिम-आदिभिः आवृताम् मयूखै॰ रह मिती एव विभावये भवानीम्
oṃaruṇām karuṇā-taraṅgita-akṣīm dhṛta-pāśa-aṅkuśa-bāṇā cāpa-hastām aṇima-ādibhiḥ āvṛtām mayūkhai॰ raha mitī eva vibhāvaye bhavānīm
ॐ ऋषिरुवाच ॥ ८.१॥
चण्डे च निहते दैत्ये मुण्डे च विनिपातिते । बहुलेषु च सैन्येषु क्षयितेष्वसुरेश्वरः ॥ ८.२॥
चण्डे च निहते दैत्ये मुण्डे च विनिपातिते बहुलेषु च सैन्येषु क्षयि तेषु असुर-ईश्वरः
caṇḍe ca nihate daitye muṇḍe ca vinipātite bahuleṣu ca sainyeṣu kṣayi teṣu asura-īśvaraḥ
ततः कोपपराधीनचेताः शुम्भः प्रतापवान् । उद्योगं सर्वसैन्यानां दैत्यानामादिदेश ह ॥ ८.३॥
ततः कोप-पराधीन-चेताः शुम्भः प्रतापवान् उद्योगम् सर्व-सैन्यानाम् दैत्यानाम् आदिदेश ह
tataḥ kopa-parādhīna-cetāḥ śumbhaḥ pratāpavān udyogam sarva-sainyānām daityānām ādideśa ha
अद्य सर्वबलैर्दैत्याः षडशीतिरुदायुधाः । कम्बूनां चतुरशीतिर्निर्यान्तु स्वबलैर्वृताः ॥ ८.४॥
अद्य सर्व-बलैः दैत्याः षडशीति-रुत्-आयुधाः कम्बूनाम् चतुः-अशीतिः निर्यान्तु स्व-बलैः वृताः
adya sarva-balaiḥ daityāḥ ṣaḍaśīti-rut-āyudhāḥ kambūnām catuḥ-aśītiḥ niryāntu sva-balaiḥ vṛtāḥ
कोटिवीर्याणि पञ्चाशदसुराणां कुलानि वै । शतं कुलानि धौम्राणां निर्गच्छन्तु ममाज्ञया ॥ ८.५॥
कोटि-वीर्याणि पञ्चाशत्-असुराणाम् कुलानि वै शतम् कुलानि धौम्राणाम् निर्गच्छन्तु मम आज्ञया
koṭi-vīryāṇi pañcāśat-asurāṇām kulāni vai śatam kulāni dhaumrāṇām nirgacchantu mama ājñayā
कालका दौर्हृदा मौर्वाः कालिकेयास्तथासुराः । युद्धाय सज्जा निर्यान्तु आज्ञया त्वरिता मम ॥ ८.६॥
कालका दौर्हृदा मौर्वाः कालिके याः तथा सुराः युद्धाय सज्जाः निर्यान्तु आज्ञया त्वरिताः मम
kālakā daurhṛdā maurvāḥ kālike yāḥ tathā surāḥ yuddhāya sajjāḥ niryāntu ājñayā tvaritāḥ mama
इत्याज्ञाप्यासुरपतिः शुम्भो भैरवशासनः । निर्जगाम महासैन्यसहस्रैर्बहुभिर्वृतः ॥ ८.७॥
इति आज्ञाप्य-असुर-पतिः शुम्भः भैरव-शासनः निर्जगाम महा-सैन्य-सहस्रैः बहुभिः वृतः
iti ājñāpya-asura-patiḥ śumbhaḥ bhairava-śāsanaḥ nirjagāma mahā-sainya-sahasraiḥ bahubhiḥ vṛtaḥ
आयान्तं चण्डिका दृष्ट्वा तत्सैन्यमतिभीषणम् । ज्यास्वनैः पूरयामास धरणीगगनान्तरम् ॥ ८.८॥
आयाम् तम् चण्डिका दृष्ट्वा तत् सैन्यम् अति-भीषणम् ज्या-स्वनैः पूरयाम आस धरणी-गगन-अन्तरम्
āyām tam caṇḍikā dṛṣṭvā tat sainyam ati-bhīṣaṇam jyā-svanaiḥ pūrayāma āsa dharaṇī-gagana-antaram
ततः सिंहो महानादमतीव कृतवान्नृप । घण्टास्वनेन तान्नादानम्बिका चोपबृंहयत् ॥ ८.९॥
ततः सिंहः महा-नादम् अतीव कृतवान् नृप घण्टा-स्वनेन ताम् नादान् अम्बिका च उपबृंह यत्
tataḥ siṃhaḥ mahā-nādam atīva kṛtavān nṛpa ghaṇṭā-svanena tām nādān ambikā ca upabṛṃha yat
धनुर्ज्यासिंहघण्टानां नादापूरितदिङ्मुखा । निनादैर्भीषणैः काली जिग्ये विस्तारितानना ॥ ८.१०॥
धनुः-ज्या-सिंह-घण्टानाम् नाद-आपूरित-दिक्-मुखा निनादैः भीषणैः काली जिग्ये विस्तारि-तान-ना
dhanuḥ-jyā-siṃha-ghaṇṭānām nāda-āpūrita-dik-mukhā ninādaiḥ bhīṣaṇaiḥ kālī jigye vistāri-tāna-nā
तं निनादमुपश्रुत्य दैत्यसैन्यैश्चतुर्दिशम् । देवी सिंहस्तथा काली सरोषैः परिवारिताः ॥ ८.११॥
तम् निनादम् उपश्रुत्य दैत्य-सैन्यैः चतुर्दिशम् देवी सिंहः तथा काली सरोषैः परिवारिताः
tam ninādam upaśrutya daitya-sainyaiḥ caturdiśam devī siṃhaḥ tathā kālī saroṣaiḥ parivāritāḥ
एतस्मिन्नन्तरे भूप विनाशाय सुरद्विषाम् । भवायामरसिंहानामतिवीर्यबलान्विताः ॥ ८.१२॥
एतस्मिन् अन्तरे भू-प विनाशाय सुर-द्विषाम् भवाय अमर-सिंहानाम् अति वीर्य-बल-अन्विताः
etasmin antare bhū-pa vināśāya sura-dviṣām bhavāya amara-siṃhānām ati vīrya-bala-anvitāḥ
ब्रह्मेशगुहविष्णूनां तथेन्द्रस्य च शक्तयः । शरीरेभ्यो विनिष्क्रम्य तद्रूपैश्चण्डिकां ययुः ॥ ८.१३॥
ब्रह्म-ईश-गुह-विष्णूनाम् तथा इन्द्रस्य च शक्तयः शरीरेभ्यः विनिष्क्रम्य तत्-रूपैः चण्डिकाम् ययुः
brahma-īśa-guha-viṣṇūnām tathā indrasya ca śaktayaḥ śarīrebhyaḥ viniṣkramya tat-rūpaiḥ caṇḍikām yayuḥ
यस्य देवस्य यद्रूपं यथा भूषणवाहनम् । तद्वदेव हि तच्छक्तिरसुरान्योद्धुमाययौ ॥ ८.१४॥
यस्य देवस्य यत् रूपम् यथा भूषण-वाहनम् तद्वत् एव हि तत् शक्तिः असुरान् योद्धुम् आययौ
yasya devasya yat rūpam yathā bhūṣaṇa-vāhanam tadvat eva hi tat śaktiḥ asurān yoddhum āyayau
हंसयुक्तविमानाग्रे साक्षसूत्रकमण्डलुः । आयाता ब्रह्मणः शक्तिर्ब्रह्माणीत्यभिधीयते ॥ ८.१५॥
हंस-युक्त-विमान-अग्रे सा अक्ष-सूत्र-कमण्डलुः आयाताः ब्रह्मणः शक्तिः ब्रह्माणि इति अभिधीयते
haṃsa-yukta-vimāna-agre sā akṣa-sūtra-kamaṇḍaluḥ āyātāḥ brahmaṇaḥ śaktiḥ brahmāṇi iti abhidhīyate
माहेश्वरी वृषारूढा त्रिशूलवरधारिणी । महाहिवलया प्राप्ता चन्द्ररेखाविभूषणा ॥ ८.१६॥
माहेश्वरी वृष-आरूढा त्रि-शूल-वर-धारिणी महा-अहि-वलया प्राप्ता चन्द्र-रेखा-विभूषणा
māheśvarī vṛṣa-ārūḍhā tri-śūla-vara-dhāriṇī mahā-ahi-valayā prāptā candra-rekhā-vibhūṣaṇā
कौमारी शक्तिहस्ता च मयूरवरवाहना । योद्धुमभ्याययौ दैत्यानम्बिका गुहरूपिणी ॥ ८.१७॥
कौमारी शक्ति-हस्ता च मयूर-वर-वाह-ना योद्धुमभ्याययौ दैत्यान् अम्बिका-गुह-रूपिणी
kaumārī śakti-hastā ca mayūra-vara-vāha-nā yoddhumabhyāyayau daityān ambikā-guha-rūpiṇī
तथैव वैष्णवी शक्तिर्गरुडोपरि संस्थिता । शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गखड्गहस्ताभ्युपाययौ ॥ ८.१८॥
तथा एव वैष्णवी शक्तिर्गरुडोपरि संस्थिता शङ्ख-चक्र-गदा-शार्ङ्ग-खड्ग-हस्त-अभ्युपाय-यौ
tathā eva vaiṣṇavī śaktirgaruḍopari saṃsthitā śaṅkha-cakra-gadā-śārṅga-khaḍga-hasta-abhyupāya-yau
यज्ञवाराहमतुलं रूपं या बिभ्रतो हरेः । शक्तिः साप्याययौ तत्र वाराहीं बिभ्रती तनुम् ॥ ८.१९॥
यज्ञ-वाराहम् अतुलम् रूपम् या बिभ्रतः हरेः शक्तिः साप्या ययौ तत्र वाराहीम् बिभ्रती तनुम्
yajña-vārāham atulam rūpam yā bibhrataḥ hareḥ śaktiḥ sāpyā yayau tatra vārāhīm bibhratī tanum
नारसिंही नृसिंहस्य बिभ्रती सदृशं वपुः । प्राप्ता तत्र सटाक्षेपक्षिप्तनक्षत्रसंहतिः ॥ ८.२०॥
नार-सिंही नृ-सिंहस्य बिभ्रती सदृशम् वपुः प्राप्ता तत्र सटा-आक्षेप-क्षिप्त-नक्षत्र-संहतिः
nāra-siṃhī nṛ-siṃhasya bibhratī sadṛśam vapuḥ prāptā tatra saṭā-ākṣepa-kṣipta-nakṣatra-saṃhatiḥ
वज्रहस्ता तथैवैन्द्री गजराजोपरि स्थिता । प्राप्ता सहस्रनयना यथा शक्रस्तथैव सा ॥ ८.२१॥
वज्र-हस्ता तथा एव ऐन्द्री गज-राज उपरि स्थिता प्राप्ता सहस्र-नयनाः यथा शक्रः तथा एव सा
vajra-hastā tathā eva aindrī gaja-rāja upari sthitā prāptā sahasra-nayanāḥ yathā śakraḥ tathā eva sā
ततः परिवृतस्ताभिरीशानो देवशक्तिभिः । हन्यन्तामसुराः शीघ्रं मम प्रीत्याह चण्डिकाम् ॥ ८.२२॥
ततः परिवृतः ताभिः ईशानः देव-शक्तिभिः हन्यन्ताम् असुराः शीघ्रम् मम प्रीत्या ह चण्डिकाम्
tataḥ parivṛtaḥ tābhiḥ īśānaḥ deva-śaktibhiḥ hanyantām asurāḥ śīghram mama prītyā ha caṇḍikām
ततो देवीशरीरात्तु विनिष्क्रान्तातिभीषणा । चण्डिका शक्तिरत्युग्रा शिवाशतनिनादिनी ॥ ८.२३॥
ततः देवी शरीरात् तु विनिष्क्रान्तातिभीषणा चण्डिका शक्तिः अत्युग्रा शिवाशतनिनादिनी
tataḥ devī śarīrāt tu viniṣkrāntātibhīṣaṇā caṇḍikā śaktiḥ atyugrā śivāśataninādinī
सा चाह धूम्रजटिलमीशानमपराजिता । दूत त्वं गच्छ भगवन् पार्श्वं शुम्भनिशुम्भयोः ॥ ८.२४॥
सा च आह धूम्र-जटिलम् ईशानम् अपराजिता दूत त्वम् गच्छ भगवन् पार्श्वम् शुम्भ-निशुम्भयोः
sā ca āha dhūmra-jaṭilam īśānam aparājitā dūta tvam gaccha bhagavan pārśvam śumbha-niśumbhayoḥ
ब्रूहि शुम्भं निशुम्भं च दानवावतिगर्वितौ । ये चान्ये दानवास्तत्र युद्धाय समुपस्थिताः ॥ ८.२५॥
ब्रूहि शुम्भम् निशुम्भम् च दानव-अवति गर्वितौ ये च अन्ये दानवाः तत्र युद्धाय समुपस्थिताः
brūhi śumbham niśumbham ca dānava-avati garvitau ye ca anye dānavāḥ tatra yuddhāya samupasthitāḥ
त्रैलोक्यमिन्द्रो लभतां देवाः सन्तु हविर्भुजः । यूयं प्रयात पातालं यदि जीवितुमिच्छथ ॥ ८.२६॥
त्रैलोक्यम् इन्द्रः लभताम् देवाः सन्तु हविर्भुजः यूयम् प्रयात पातालम् यदि जीवितुम् इच्छथ
trailokyam indraḥ labhatām devāḥ santu havirbhujaḥ yūyam prayāta pātālam yadi jīvitum icchatha
बलावलेपादथ चेद्भवन्तो युद्धकाङ्क्षिणः । तदागच्छत तृप्यन्तु मच्छिवाः पिशितेन वः ॥ ८.२७॥
बल-अवलेपात् अथ चेत् भवन्तः युद्ध-काङ्क्षिणः तदा गच्छत तृप्यन्तु मत्-शिवाः पिशितेन वः
bala-avalepāt atha cet bhavantaḥ yuddha-kāṅkṣiṇaḥ tadā gacchata tṛpyantu mat-śivāḥ piśitena vaḥ
यतो नियुक्तो दौत्येन तया देव्या शिवः स्वयम् । शिवदूतीति लोकेऽस्मिंस्ततः सा ख्यातिमागता ॥ ८.२८॥
यतः नियुक्तः दौत्येन तया देव्या शिवः स्वयम् शिव-दूती इति लोके अस्मिन् ततः सा ख्यातिम् आगता
yataḥ niyuktaḥ dautyena tayā devyā śivaḥ svayam śiva-dūtī iti loke asmin tataḥ sā khyātim āgatā
तेऽपि श्रुत्वा वचो देव्याः शर्वाख्यातं महासुराः । अमर्षापूरिता जग्मुर्यत्र कात्यायनी स्थिता ॥ ८.२९॥
ते अपि श्रुत्वा वचः देव्याः शर्वा ख्यातम् महा-असुराः अमर्ष-आपूरिताः जग्मुः यत्र कात्यायनी स्थिता
te api śrutvā vacaḥ devyāḥ śarvā khyātam mahā-asurāḥ amarṣa-āpūritāḥ jagmuḥ yatra kātyāyanī sthitā
ततः प्रथममेवाग्रे शरशक्त्यृष्टिवृष्टिभिः । ववर्षुरुद्धतामर्षास्तां देवीममरारयः ॥ ८.३०॥
ततः प्रथमम् एव अग्रे शर-शक्ति-ऋष्टि-वृष्टिभिः ववर्षुरुद्धतामर्षास्ताम् देवीम् अमर-अरयः
tataḥ prathamam eva agre śara-śakti-ṛṣṭi-vṛṣṭibhiḥ vavarṣuruddhatāmarṣāstām devīm amara-arayaḥ
सा च तान् प्रहितान् बाणाञ्छूलशक्तिपरश्वधान् । चिच्छेद लीलयाध्मातधनुर्मुक्तैर्महेषुभिः ॥ ८.३१॥
सा च तान् प्रहितान् बाणाञ्छूलशक्तिपरश्वधान् चिच्छेद लीलया आध्मात-धनुः-मुक्तैः महा-इषुभिः
sā ca tān prahitān bāṇāñchūlaśaktiparaśvadhān ciccheda līlayā ādhmāta-dhanuḥ-muktaiḥ mahā-iṣubhiḥ
तस्याग्रतस्तथा काली शूलपातविदारितान् । खट्वाङ्गपोथितांश्चारीन्कुर्वती व्यचरत्तदा ॥ ८.३२॥
तस्य अग्रतः तथा काली शूल-पात-विदारितान् खट्वा-अङ्ग-पोथितान् च अरीन् कुर्वती व्यचरत् तदा
tasya agrataḥ tathā kālī śūla-pāta-vidāritān khaṭvā-aṅga-pothitān ca arīn kurvatī vyacarat tadā
कमण्डलुजलाक्षेपहतवीर्यान् हतौजसः । ब्रह्माणी चाकरोच्छत्रून्येन येन स्म धावति ॥ ८.३३॥
कमण्डलु-जल-आक्षेप-हत-वीर्यान् हत-ओजसः ब्रह्म-आणी च अकरोत् शत्रून् येन येन स्म धावति
kamaṇḍalu-jala-ākṣepa-hata-vīryān hata-ojasaḥ brahma-āṇī ca akarot śatrūn yena yena sma dhāvati
माहेश्वरी त्रिशूलेन तथा चक्रेण वैष्णवी । दैत्याञ्जघान कौमारी तथा शक्त्यातिकोपना ॥ ८.३४॥
माहेश्वरी त्रि-शूलेन तथा चक्रेण वैष्णवी दैत्यान् जघान कौमारी तथा शक्त्या अति कोपना
māheśvarī tri-śūlena tathā cakreṇa vaiṣṇavī daityān jaghāna kaumārī tathā śaktyā ati kopanā
ऐन्द्री कुलिशपातेन शतशो दैत्यदानवाः । पेतुर्विदारिताः पृथ्व्यां रुधिरौघप्रवर्षिणः ॥ ८.३५॥
ऐन्द्री कुलिश-पातेन शतशः दैत्य-दानवाः पेतुः विदारिताः पृथ्व्याम् रुधिरौघप्रवर्षिणः
aindrī kuliśa-pātena śataśaḥ daitya-dānavāḥ petuḥ vidāritāḥ pṛthvyām rudhiraughapravarṣiṇaḥ
तुण्डप्रहारविध्वस्ता दंष्ट्राग्रक्षतवक्षसः । वाराहमूर्त्या न्यपतंश्चक्रेण च विदारिताः ॥ ८.३६॥
तुण्ड-प्रहार-विध्वस्ताः दंष्ट्रा-अग्र-क्षत-वक्षसः वाराह-मूर्त्याः न्यपतन् चक्रेण च विदारिताः
tuṇḍa-prahāra-vidhvastāḥ daṃṣṭrā-agra-kṣata-vakṣasaḥ vārāha-mūrtyāḥ nyapatan cakreṇa ca vidāritāḥ
नखैर्विदारितांश्चान्यान् भक्षयन्ती महासुरान् । नारसिंही चचाराजौ नादापूर्णदिगम्बरा ॥ ८.३७॥
नखैः विदारितान् च अन्यान् भक्षयन्ती महा-असुरान् नार-सिंही चचार आजौ नाद-आपूर्ण-दिक्-अम्बरा
nakhaiḥ vidāritān ca anyān bhakṣayantī mahā-asurān nāra-siṃhī cacāra ājau nāda-āpūrṇa-dik-ambarā
चण्डाट्टहासैरसुराः शिवदूत्यभिदूषिताः । पेतुः पृथिव्यां पतितांस्तांश्चखादाथ सा तदा ॥ ८.३८॥
चण्ड-अट्ट-हासैः असुराः शिवदूत्यभिदूषिताः पेतुः पृथिव्याम् पतितान् तान् चखाद अथ सा तदा
caṇḍa-aṭṭa-hāsaiḥ asurāḥ śivadūtyabhidūṣitāḥ petuḥ pṛthivyām patitān tān cakhāda atha sā tadā
इति मातृगणं क्रुद्धं मर्दयन्तं महासुरान् । दृष्ट्वाभ्युपायैर्विविधैर्नेशुर्देवारिसैनिकाः ॥ ८.३९॥
इति मातृ-गणम् क्रुद्धम् मर्दयन्तम् महा-असुरान् दृष्ट्वा अभ्युपायैः विविधैः नेशुः देव-अरि सैनिकाः
iti mātṛ-gaṇam kruddham mardayantam mahā-asurān dṛṣṭvā abhyupāyaiḥ vividhaiḥ neśuḥ deva-ari sainikāḥ
पलायनपरान्दृष्ट्वा दैत्यान्मातृगणार्दितान् । योद्धुमभ्याययौ क्रुद्धो रक्तबीजो महासुरः ॥ ८.४०॥
पलायन-परान् दृष्ट्वा दैत्यान् मातृ-गण-अर्दितान् योद्धुमभ्याययौ क्रुद्धः रक्त-बीजः महा-असुरः
palāyana-parān dṛṣṭvā daityān mātṛ-gaṇa-arditān yoddhumabhyāyayau kruddhaḥ rakta-bījaḥ mahā-asuraḥ
रक्तबिन्दुर्यदा भूमौ पतत्यस्य शरीरतः । समुत्पतति मेदिन्यां तत्प्रमाणो महासुरः ॥ ८.४१॥
रक्त-बिन्दुः यदा भूमौ पतति अस्य शरीरतः समुत्पतति मेदिन्याम् तत्-प्रमाणः महा-असुरः
rakta-binduḥ yadā bhūmau patati asya śarīrataḥ samutpatati medinyām tat-pramāṇaḥ mahā-asuraḥ
युयुधे स गदापाणिरिन्द्रशक्त्या महासुरः । ततश्चैन्द्री स्ववज्रेण रक्तबीजमताडयत् ॥ ८.४२॥
युयुधे स गदा-पाणिः इन्द्र-शक्त्या महा-असुरः ततः च ऐन्द्री स्व-वज्रेण रक्त-बीजम् अताडयत्
yuyudhe sa gadā-pāṇiḥ indra-śaktyā mahā-asuraḥ tataḥ ca aindrī sva-vajreṇa rakta-bījam atāḍayat
कुलिशेनाहतस्याशु बहु सुस्राव शोणितम् । समुत्तस्थुस्ततो योधास्तद्रूपास्तत्पराक्रमाः ॥ ८.४३॥
कुलिशेन आह तस्य आशु बहु सुस्राव शोणितम् समुत्तस्थुः ततः योधाः तत्-रूपाः तत्-पराक्रमाः
kuliśena āha tasya āśu bahu susrāva śoṇitam samuttasthuḥ tataḥ yodhāḥ tat-rūpāḥ tat-parākramāḥ
यावन्तः पतितास्तस्य शरीराद्रक्तबिन्दवः । तावन्तः पुरुषा जातास्तद्वीर्यबलविक्रमाः ॥ ८.४४॥
यावन्तः पतिताः तस्य शरीरात् रक्त-बिन्दवः तावन्तः पुरुषाः जाताः तत् वीर्य-बल-विक्रमाः
yāvantaḥ patitāḥ tasya śarīrāt rakta-bindavaḥ tāvantaḥ puruṣāḥ jātāḥ tat vīrya-bala-vikramāḥ
ते चापि युयुधुस्तत्र पुरुषा रक्तसम्भवाः । समं मातृभिरत्युग्रशस्त्रपातातिभीषणम् ॥ ८.४५॥
ते च अपि युयुधुः तत्र पुरुषाः रक्त-सम्भवाः समम् मातृभिः अत्युग्र-शस्त्र-पाता अति-भीषणम्
te ca api yuyudhuḥ tatra puruṣāḥ rakta-sambhavāḥ samam mātṛbhiḥ atyugra-śastra-pātā ati-bhīṣaṇam
पुनश्च वज्रपातेन क्षतमस्य शिरो यदा । ववाह रक्तं पुरुषास्ततो जाताः सहस्रशः ॥ ८.४६॥
पुनः च वज्र-पातेन क्षतम् अस्य शिरः यदा वव आह रक्तम् पुरुषाः ततः जाताः सहस्रशः
punaḥ ca vajra-pātena kṣatam asya śiraḥ yadā vava āha raktam puruṣāḥ tataḥ jātāḥ sahasraśaḥ
वैष्णवी समरे चैनं चक्रेणाभिजघान ह । गदया ताडयामास ऐन्द्री तमसुरेश्वरम् ॥ ८.४७॥
वैष्णवी समरे च एनम् चक्रेण अभिजघान ह गदया ताडयाम आसे ऐन्द्री तम् असुर-ईश्वरम्
vaiṣṇavī samare ca enam cakreṇa abhijaghāna ha gadayā tāḍayāma āse aindrī tam asura-īśvaram
वैष्णवीचक्रभिन्नस्य रुधिरस्रावसम्भवैः । सहस्रशो जगद्व्याप्तं तत्प्रमाणैर्महासुरैः ॥ ८.४८॥
वैष्णवी चक्र-भिन्नस्य रुधिर-स्राव-सम्भवैः सहस्रशः जगत्-व्याप्तम् तत्-प्रमाणैः महा-असुरैः
vaiṣṇavī cakra-bhinnasya rudhira-srāva-sambhavaiḥ sahasraśaḥ jagat-vyāptam tat-pramāṇaiḥ mahā-asuraiḥ
शक्त्या जघान कौमारी वाराही च तथासिना । माहेश्वरी त्रिशूलेन रक्तबीजं महासुरम् ॥ ८.४९॥
शक्त्या जघान कौमारी वाराही च तथा असिना माहेश्वरी त्रि-शूलेन रक्त-बीजम् महा-असुरम्
śaktyā jaghāna kaumārī vārāhī ca tathā asinā māheśvarī tri-śūlena rakta-bījam mahā-asuram
स चापि गदया दैत्यः सर्वा एवाहनत् पृथक् । मातॄः कोपसमाविष्टो रक्तबीजो महासुरः ॥ ८.५०॥
स च अपि गदया दैत्यः सर्वा एवाहनत् पृथक् मातॄः कोप-समाविष्टः रक्त-बीजः महा-असुरः
sa ca api gadayā daityaḥ sarvā evāhanat pṛthak mātṝḥ kopa-samāviṣṭaḥ rakta-bījaḥ mahā-asuraḥ
तस्याहतस्य बहुधा शक्तिशूलादिभिर्भुवि । पपात यो वै रक्तौघस्तेनासञ्छतशोऽसुराः ॥ ८.५१॥
तस्य आह तस्य बहुधा शक्ति-शूल-आदिभिः भुवि पपात यः वा ऐः रक्त-ओघ-स्तेन-आसम् शतशः असुराः
tasya āha tasya bahudhā śakti-śūla-ādibhiḥ bhuvi papāta yaḥ vā aiḥ rakta-ogha-stena-āsam śataśaḥ asurāḥ
तैश्चासुरासृक्सम्भूतैरसुरैः सकलं जगत् । व्याप्तमासीत्ततो देवा भयमाजग्मुरुत्तमम् ॥ ८.५२॥
तैः च असुर-असृक्-सम्भूतैः असुरैः सकलम् जगत् व्याप्तम् आसीत् ततः देवाः भयम् आजग्मुः उत्तमम्
taiḥ ca asura-asṛk-sambhūtaiḥ asuraiḥ sakalam jagat vyāptam āsīt tataḥ devāḥ bhayam ājagmuḥ uttamam
तान् विषण्णान् सुरान् दृष्ट्वा चण्डिका प्राहसत्वरम् । उवाच कालीं चामुण्डे विस्तीर्णं वदनं कुरु ॥ ८.५३॥
तान् विषण्णान् सुरान् दृष्ट्वा चण्डिका प्राह सत्वरम् उवाच कालीम् चामुण्डे विस्तीर्णम् वदनम् कुरु
tān viṣaṇṇān surān dṛṣṭvā caṇḍikā prāha satvaram uvāca kālīm cāmuṇḍe vistīrṇam vadanam kuru
मच्छस्त्रपातसम्भूतान् रक्तबिन्दून् महासुरान् । रक्तबिन्दोः प्रतीच्छ त्वं वक्त्रेणानेन वेगिना ॥ ८.५४॥
मत्-शस्त्र-पात-सम्भूतान् रक्त-बिन्दून् महा-असुरान् रक्त-बिन्दोः प्रति इच्छ त्वम् वक्त्रेण अनेन वेगिना
mat-śastra-pāta-sambhūtān rakta-bindūn mahā-asurān rakta-bindoḥ prati iccha tvam vaktreṇa anena veginā
भक्षयन्ती चर रणे तदुत्पन्नान्महासुरान् । एवमेष क्षयं दैत्यः क्षेणरक्तो गमिष्यति ॥ ८.५५॥
भक्षयन्ती चर रणे तत्-उत्पन्नान् महा-असुरान् एवम् एष क्षयम् दैत्यः क्षेणरक्तः गमिष्यति
bhakṣayantī cara raṇe tat-utpannān mahā-asurān evam eṣa kṣayam daityaḥ kṣeṇaraktaḥ gamiṣyati
भक्ष्यमाणास्त्वया चोग्रा न चोत्पत्स्यन्ति चापरे । इत्युक्त्वा तां ततो देवी शूलेनाभिजघान तम् ॥ ८.५६॥
भक्ष्यमाणाः त्वया च उग्राः न चोत्पत्स्यन्ति च अपरे इति उक्त्वा ताम् ततः देवी शूलेन अभिजघान तम्
bhakṣyamāṇāḥ tvayā ca ugrāḥ na cotpatsyanti ca apare iti uktvā tām tataḥ devī śūlena abhijaghāna tam
मुखेन काली जगृहे रक्तबीजस्य शोणितम् । ततोऽसावाजघानाथ गदया तत्र चण्डिकाम् ॥ ८.५७॥
मुखेन काली जगृहे रक्त-बीजस्य शोणितम् ततः असौ आजघान अथ गदया तत्र चण्डिकाम्
mukhena kālī jagṛhe rakta-bījasya śoṇitam tataḥ asau ājaghāna atha gadayā tatra caṇḍikām
न चास्या वेदनां चक्रे गदापातोऽल्पिकामपि । तस्याहतस्य देहात्तु बहु सुस्राव शोणितम् ॥ ८.५८॥
न च अस्याः वेदनाम् चक्रे गदा-पातः अल्पिकाम् अपि तस्य आह तस्य देहात् तु बहु सुस्राव शोणितम्
na ca asyāḥ vedanām cakre gadā-pātaḥ alpikām api tasya āha tasya dehāt tu bahu susrāva śoṇitam
यतस्ततस्तद्वक्त्रेण चामुण्डा सम्प्रतीच्छति । मुखे समुद्गता येऽस्या रक्तपातान्महासुराः ॥ ८.५९॥
यतः ततः तत्-वक्त्रेण चामुण्डा सम्प्रति इच्छति मुखे समुद्गताः ये अस्याः रक्त-पातात् महा-असुराः
yataḥ tataḥ tat-vaktreṇa cāmuṇḍā samprati icchati mukhe samudgatāḥ ye asyāḥ rakta-pātāt mahā-asurāḥ
तांश्चखादाथ चामुण्डा पपौ तस्य च शोणितम् । देवी शूलेन वज्रेण बाणैरसिभिरृष्टिभिः ॥ ८.६०॥
तान् चखाद अथ चामुण्डा पपौ तस्य च शोणितम् देवी शूलेन वज्रेण बाणैः असिभिः ऋष्टिभिः
tān cakhāda atha cāmuṇḍā papau tasya ca śoṇitam devī śūlena vajreṇa bāṇaiḥ asibhiḥ ṛṣṭibhiḥ
जघान रक्तबीजं तं चामुण्डापीतशोणितम् । स पपात महीपृष्ठे शस्त्रसङ्घसमाहतः ॥ ८.६१॥
जघान रक्त-बीजम् तम् चामुण्डा आपीत-शोणितम् स पपात मही-पृष्ठे शस्त्र-सङ्घ-समाहतः
jaghāna rakta-bījam tam cāmuṇḍā āpīta-śoṇitam sa papāta mahī-pṛṣṭhe śastra-saṅgha-samāhataḥ
नीरक्तश्च महीपाल रक्तबीजो महासुरः । ततस्ते हर्षमतुलमवापुस्त्रिदशा नृप ॥ ८.६२॥
नीरक्तः च मही-पाल रक्त-बीजः महा-असुरः ततः ते हर्षम् अतुलम् अवापुः त्रिदशाः नृप
nīraktaḥ ca mahī-pāla rakta-bījaḥ mahā-asuraḥ tataḥ te harṣam atulam avāpuḥ tridaśāḥ nṛpa
॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये रक्तबीजवधो नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥
स्वस्ति श्री-मार्कण्डेय-पुराणे सा वर्णिके मनु-अन्तरे देवी-माहात्म्ये रक्त-बीज-वधः नाम अष्टमः अध्यायः
svasti śrī-mārkaṇḍeya-purāṇe sā varṇike manu-antare devī-māhātmye rakta-bīja-vadhaḥ nāma aṣṭamaḥ adhyāyaḥ
उवाच १
अर्धश्लोकः १
ardhaślokaḥ 1

Navamo Adhyaya

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॥ ९. निशुम्भवधो नाम नवमोऽध्यायः ॥
निशुम्भ-वधः नाम नवमः अध्यायः
niśumbha-vadhaḥ nāma navamaḥ adhyāyaḥ
। ध्यानम् ।
ध्यानम्
dhyānam
ॐ बन्धूककाञ्चननिभं रुचिराक्षमालां पाशाङ्कुशौ च वरदां निजबाहुदण्डैः । बिभ्राणमिन्दुशकलाभरणं त्रिनेत्र- मर्धांबिकेशमनिशं वपुराश्रयामि ॥
ॐबन्धूक-काञ्चन-निभम् रुचिर-अक्ष-मालाम् पाश-अङ्कुशौ च वरदाम् निज-बाहु-दण्डैः बिभ्राणम् इन्दु-शकल-आभरणम् त्रिनेत्र॰ मर्ध अम्बिका-ईशम् अनिशम् वपुः आश्रयामि
oṃbandhūka-kāñcana-nibham rucira-akṣa-mālām pāśa-aṅkuśau ca varadām nija-bāhu-daṇḍaiḥ bibhrāṇam indu-śakala-ābharaṇam trinetra॰ mardha ambikā-īśam aniśam vapuḥ āśrayāmi
ॐ राजोवाच ॥ ९.१॥
विचित्रमिदमाख्यातं भगवन् भवता मम । देव्याश्चरितमाहात्म्यं रक्तबीजवधाश्रितम् ॥ ९.२॥
विचित्रम् इदम् आख्यातम् भगवन् भवता मम देव्याः चरित-माहात्म्यम् रक्त-बीज-वध-आश्रितम्
vicitram idam ākhyātam bhagavan bhavatā mama devyāḥ carita-māhātmyam rakta-bīja-vadha-āśritam
भूयश्चेच्छाम्यहं श्रोतुं रक्तबीजे निपातिते । चकार शुम्भो यत्कर्म निशुम्भश्चातिकोपनः ॥ ९.३॥
भूयः च इच्छामि अहम् श्रोतुम् रक्त-बीजे निपातिते चकार शुम्भः यत् कर्म निशुम्भः च अति कोपनः
bhūyaḥ ca icchāmi aham śrotum rakta-bīje nipātite cakāra śumbhaḥ yat karma niśumbhaḥ ca ati kopanaḥ
ऋषिरुवाच ॥ ९.४॥
चकार कोपमतुलं रक्तबीजे निपातिते । शुम्भासुरो निशुम्भश्च हतेष्वन्येषु चाहवे ॥ ९.५॥
चकार कोपम् अतुलम् रक्त-बीजे निपातिते शुम्भ-असुरः निशुम्भः च हतेषु अन्येषु च आहवे
cakāra kopam atulam rakta-bīje nipātite śumbha-asuraḥ niśumbhaḥ ca hateṣu anyeṣu ca āhave
हन्यमानं महासैन्यं विलोक्यामर्षमुद्वहन् । अभ्यधावन्निशुम्भोऽथ मुख्ययासुरसेनया ॥ ९.६॥
हन्यमानम् महा-सैन्यम् विलोक्य-अमर्षम् उद्वहन् अभ्यधावत् निशुम्भः अथ मुख्यया सुर-सेनया
hanyamānam mahā-sainyam vilokya-amarṣam udvahan abhyadhāvat niśumbhaḥ atha mukhyayā sura-senayā
तस्याग्रतस्तथा पृष्ठे पार्श्वयोश्च महासुराः । सन्दष्टौष्ठपुटाः क्रुद्धा हन्तुं देवीमुपाययुः ॥ ९.७॥
तस्य अग्रतः तथा पृष्ठे पार्श्वयोः च महा-असुराः सन्दष्टौष्ठपुटाः क्रुद्धाः हन्तुम् देवीम् उपाय-युः
tasya agrataḥ tathā pṛṣṭhe pārśvayoḥ ca mahā-asurāḥ sandaṣṭauṣṭhapuṭāḥ kruddhāḥ hantum devīm upāya-yuḥ
आजगाम महावीर्यः शुम्भोऽपि स्वबलैर्वृतः । निहन्तुं चण्डिकां कोपात्कृत्वा युद्धं तु मातृभिः ॥ ९.८॥
आजगाम महा-वीर्यः शुम्भः अपि स्व-बलैः वृतः निहन्तुम् चण्डिकाम् कोपात् कृत्वा युद्धम् तु मातृभिः
ājagāma mahā-vīryaḥ śumbhaḥ api sva-balaiḥ vṛtaḥ nihantum caṇḍikām kopāt kṛtvā yuddham tu mātṛbhiḥ
ततो युद्धमतीवासीद्देव्या शुम्भनिशुम्भयोः । शरवर्षमतीवोग्रं मेघयोरिव वर्षतोः ॥ ९.९॥
ततः युद्धम् अतीव आसीत् देव्या शुम्भ-निशुम्भयोः शर-वर्ष-मति इव उग्रम् मेघयोः इव वर्षतोः
tataḥ yuddham atīva āsīt devyā śumbha-niśumbhayoḥ śara-varṣa-mati iva ugram meghayoḥ iva varṣatoḥ
चिच्छेदास्ताञ्छरांस्ताभ्यां चण्डिका स्वशरोत्करैः । ताडयामास चाङ्गेषु शस्त्रौघैरसुरेश्वरौ ॥ ९.१०॥
चिच्छेद आस्ताम् शरान् ताभ्याम् चण्डिका स्व-शर-उत्करैः ताडयाम आस च अङ्गेषु शस्त्र-ओघैः असुर-ईश्वरौ
ciccheda āstām śarān tābhyām caṇḍikā sva-śara-utkaraiḥ tāḍayāma āsa ca aṅgeṣu śastra-oghaiḥ asura-īśvarau
निशुम्भो निशितं खड्गं चर्म चादाय सुप्रभम् । अताडयन्मूर्ध्नि सिंहं देव्या वाहनमुत्तमम् ॥ ९.११॥
निशुम्भः निशितम् खड्गम् चर्म च आदाय सुप्रभम् अताडयत् मूर्ध्नि सिंहम् देव्याः वाहनम् उत्तमम्
niśumbhaḥ niśitam khaḍgam carma ca ādāya suprabham atāḍayat mūrdhni siṃham devyāḥ vāhanam uttamam
ताडिते वाहने देवी क्षुरप्रेणासिमुत्तमम् । निशुम्भस्याशु चिच्छेद चर्म चाप्यष्टचन्द्रकम् ॥ ९.१२॥
ताडिते वाहने देवी क्षुर-प्रेणा असिम् उत्तमम् निशुम्भस्य आशु चिच्छेद चर्म चापि-अष्ट चन्द्रकम्
tāḍite vāhane devī kṣura-preṇā asim uttamam niśumbhasya āśu ciccheda carma cāpi-aṣṭa candrakam
छिन्ने चर्मणि खड्गे च शक्तिं चिक्षेप सोऽसुरः । तामप्यस्य द्विधा चक्रे चक्रेणाभिमुखागताम् ॥ ९.१३॥
छिन्ने चर्मणि खड्गे च शक्तिम् चिक्षेप सः असुरः ताम् अपि अस्य द्विधा चक्रे चक्रेण अभिमुख-आगताम्
chinne carmaṇi khaḍge ca śaktim cikṣepa saḥ asuraḥ tām api asya dvidhā cakre cakreṇa abhimukha-āgatām
कोपाध्मातो निशुम्भोऽथ शूलं जग्राह दानवः । आयातं मुष्टिपातेन देवी तच्चाप्यचूर्णयत् ॥ ९.१४॥
कोप-आध्मातः निशुम्भः अथ शूलम् जग्राह दानवः आयातम् मुष्टि-पातेन देवी तत् चाप्य-चूर्णयत्
kopa-ādhmātaḥ niśumbhaḥ atha śūlam jagrāha dānavaḥ āyātam muṣṭi-pātena devī tat cāpya-cūrṇayat
आविद्याथ गदां सोऽपि चिक्षेप चण्डिकां प्रति । सापि देव्यास् त्रिशूलेन भिन्ना भस्मत्वमागता ॥ ९.१५॥
आविद्य अथ गदाम् सः अपि चिक्षेप चण्डिकाम् प्रति सा अपि देव्याः त्रि-शूलेन भिन्नाः भस्म त्वम् आगता
āvidya atha gadām saḥ api cikṣepa caṇḍikām prati sā api devyāḥ tri-śūlena bhinnāḥ bhasma tvam āgatā
ततः परशुहस्तं तमायान्तं दैत्यपुङ्गवम् । आहत्य देवी बाणौघैरपातयत भूतले ॥ ९.१६॥
ततः परशु-हस्तम् तम् आयाम् तम् दैत्य-पुङ्गवम् आहत्य देवी बाण-ओघैः अपातयत भू-तले
tataḥ paraśu-hastam tam āyām tam daitya-puṅgavam āhatya devī bāṇa-oghaiḥ apātayata bhū-tale
तस्मिन्निपतिते भूमौ निशुम्भे भीमविक्रमे । भ्रातर्यतीव सङ्क्रुद्धः प्रययौ हन्तुमम्बिकाम् ॥ ९.१७॥
तस्मिन् निपतिते भूमौ निशुम्भे भीम-विक्रमे भ्रातरि अतीव सङ्क्रुद्धः प्रययौ हन्तुम् अम्बिकाम्
tasmin nipatite bhūmau niśumbhe bhīma-vikrame bhrātari atīva saṅkruddhaḥ prayayau hantum ambikām
स रथस्थस्तथात्युच्चैर्गृहीतपरमायुधैः । भुजैरष्टाभिरतुलैर्व्याप्याशेषं बभौ नभः ॥ ९.१८॥
स रथ-स्थः तथा अति उच्चैः-गृहीत-परम-आयुधैः भुजैः अष्टाभिः अतुलैः व्याप्या शेषम् बभौ नभः
sa ratha-sthaḥ tathā ati uccaiḥ-gṛhīta-parama-āyudhaiḥ bhujaiḥ aṣṭābhiḥ atulaiḥ vyāpyā śeṣam babhau nabhaḥ
तमायान्तं समालोक्य देवी शङ्खमवादयत् । ज्याशब्दं चापि धनुषश्चकारातीव दुःसहम् ॥ ९.१९॥
तम् आयाम् तम् समालोक्य देवी शङ्खम् अवादयत् ज्या-शब्दम् च अपि धनुषः चकार अतीव दुःसहम्
tam āyām tam samālokya devī śaṅkham avādayat jyā-śabdam ca api dhanuṣaḥ cakāra atīva duḥsaham
पूरयामास ककुभो निजघण्टास्वनेन च । समस्तदैत्यसैन्यानां तेजोवधविधायिना ॥ ९.२०॥
पूरयाम आस ककुभः निज-घण्टा-स्वनेन च समस्त-दैत्य-सैन्यानाम् तेजः-वध-विधायिना
pūrayāma āsa kakubhaḥ nija-ghaṇṭā-svanena ca samasta-daitya-sainyānām tejaḥ-vadha-vidhāyinā
ततः सिंहो महानादैस्त्याजितेभमहामदैः । पूरयामास गगनं गां तथैव दिशो दश ॥ ९.२१॥
ततः सिंहः महा-नादैः त्याजित-इभ-महा-मदैः पूरयाम आस गगनम् गाम् तथा एव दिशः दश
tataḥ siṃhaḥ mahā-nādaiḥ tyājita-ibha-mahā-madaiḥ pūrayāma āsa gaganam gām tathā eva diśaḥ daśa
ततः काली समुत्पत्य गगनं क्ष्मामताडयत् । कराभ्यां तन्निनादेन प्राक्स्वनास्ते तिरोहिताः ॥ ९.२२॥
ततः काली समुत्पत्य गगनम् क्ष्माम् अताडयत् कराभ्याम् तत्-निनादेन प्राक्-स्वनाः ते तिरोहिताः
tataḥ kālī samutpatya gaganam kṣmām atāḍayat karābhyām tat-ninādena prāk-svanāḥ te tirohitāḥ
अट्टाट्टहासमशिवं शिवदूती चकार ह । वैः शब्दैरसुरास्त्रेसुः शुम्भः कोपं परं ययौ ॥ ९.२३॥
अट्ट-अट्ट-हा सम-शिवम् शिव-दूती चकार ह वा ऐः शब्दैः असुराः त्रेसुः शुम्भः कोपम् परम् ययौ
aṭṭa-aṭṭa-hā sama-śivam śiva-dūtī cakāra ha vā aiḥ śabdaiḥ asurāḥ tresuḥ śumbhaḥ kopam param yayau
दुरात्मंस्तिष्ठ तिष्ठेति व्याजहाराम्बिका यदा । तदा जयेत्यभिहितं देवैराकाशसंस्थितैः ॥ ९.२४॥
दुरात्मंस्तिष्ठ तिष्ठ इति व्याजहार अम्बिका यदा तदा जय इति अभिहितम् देवैः आकाश-संस्थितैः
durātmaṃstiṣṭha tiṣṭha iti vyājahāra ambikā yadā tadā jaya iti abhihitam devaiḥ ākāśa-saṃsthitaiḥ
शुम्भेनागत्य या शक्तिर्मुक्ता ज्वालातिभीषणा । आयान्ती वह्निकूटाभा सा निरस्ता महोल्कया ॥ ९.२५॥
शुम्भेन आगत्य या शक्तिः मुक्ता-ज्वाला अति भीषणा आयान्ती वह्नि-कूट-आभा सा निरस्ताः महा-उल्कया
śumbhena āgatya yā śaktiḥ muktā-jvālā ati bhīṣaṇā āyāntī vahni-kūṭa-ābhā sā nirastāḥ mahā-ulkayā
सिंहनादेन शुम्भस्य व्याप्तं लोकत्रयान्तरम् । निर्घातनिःस्वनो घोरो जितवानवनीपते ॥ ९.२६॥
सिंह-नादेन शुम्भस्य व्याप्तम् लोक-त्रय-अन्तरम् निर्घातनिःस्वनः घोरः जितवान् अवनी पते
siṃha-nādena śumbhasya vyāptam loka-traya-antaram nirghātaniḥsvanaḥ ghoraḥ jitavān avanī pate
शुम्भमुक्ताञ्छरान्देवी शुम्भस्तत्प्रहिताञ्छरान् । चिच्छेद स्वशरैरुग्रैः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ९.२७॥
शुम्भ-मुक्तान् शरान् देवी शुम्भः तत् प्रहितान् शरान् चिच्छेद स्व-शरैः उग्रैः शतशः अथ सहस्रशः
śumbha-muktān śarān devī śumbhaḥ tat prahitān śarān ciccheda sva-śaraiḥ ugraiḥ śataśaḥ atha sahasraśaḥ
ततः सा चण्डिका क्रुद्धा शूलेनाभिजघान तम् । स तदाभिहतो भूमौ मूर्च्छितो निपपात ह ॥ ९.२८॥
ततः सा चण्डिका क्रुद्धा शूलेन अभिजघान तम् स तदा अभिहतः भूमौ मूर्च्छितः निपपात ह
tataḥ sā caṇḍikā kruddhā śūlena abhijaghāna tam sa tadā abhihataḥ bhūmau mūrcchitaḥ nipapāta ha
ततो निशुम्भः सम्प्राप्य चेतनामात्तकार्मुकः । आजघान शरैर्देवीं कालीं केसरिणं तथा ॥ ९.२९॥
ततः निशुम्भः सम्प्राप्य चेतनाम् आत्त-कार्मुकः आजघान शरैः देवीम् कालीम् केसरिणम् तथा
tataḥ niśumbhaḥ samprāpya cetanām ātta-kārmukaḥ ājaghāna śaraiḥ devīm kālīm kesariṇam tathā
पुनश्च कृत्वा बाहूनामयुतं दनुजेश्वरः । चक्रायुधेन दितिजश्छादयामास चण्डिकाम् ॥ ९.३०॥
पुनः च कृत्वा बाहूनाम् अयुतम् दनुज-ईश्वरः चक्र-आयुधेन दिति-जः छादयाम आस चण्डिकाम्
punaḥ ca kṛtvā bāhūnām ayutam danuja-īśvaraḥ cakra-āyudhena diti-jaḥ chādayāma āsa caṇḍikām
ततो भगवती क्रुद्धा दुर्गा दुर्गार्तिनाशिनी । चिच्छेद देवी चक्राणि स्वशरैः सायकांश्च तान् ॥ ९.३१॥
ततः भगवती क्रुद्धाः दुर्गा दुर्ग-आर्ति-नाशिनी चिच्छेद देवी चक्राणि स्व-शरैः सायकान् च तान्
tataḥ bhagavatī kruddhāḥ durgā durga-ārti-nāśinī ciccheda devī cakrāṇi sva-śaraiḥ sāyakān ca tān
ततो निशुम्भो वेगेन गदामादाय चण्डिकाम् । अभ्यधावत वै हन्तुं दैत्यसैन्यसमावृतः ॥ ९.३२॥
ततः निशुम्भः वेगेन गदा-मादाय चण्डिकाम् अभ्यधावत वै हन्तुम् दैत्य-सैन्य-समावृतः
tataḥ niśumbhaḥ vegena gadā-mādāya caṇḍikām abhyadhāvata vai hantum daitya-sainya-samāvṛtaḥ
तस्यापतत एवाशु गदां चिच्छेद चण्डिका । खड्गेन शितधारेण स च शूलं समाददे ॥ ९.३३॥
तस्य आपततः एव आशु गदाम् चिच्छेद चण्डिका खड्गेन शित-धारेण स च शूलम् समा-ददे
tasya āpatataḥ eva āśu gadām ciccheda caṇḍikā khaḍgena śita-dhāreṇa sa ca śūlam samā-dade
शूलहस्तं समायान्तं निशुम्भममरार्दनम् । हृदि विव्याध शूलेन वेगाविद्धेन चण्डिका ॥ ९.३४॥
शूल-हस्तम् समायाम् तम् निशुम्भम् अमर-अर्दनम् हृदि विव्याध शूलेन वेग-आविद्धेन चण्डिका
śūla-hastam samāyām tam niśumbham amara-ardanam hṛdi vivyādha śūlena vega-āviddhena caṇḍikā
भिन्नस्य तस्य शूलेन हृदयान्निःसृतोऽपरः । महाबलो महावीर्यस्तिष्ठेति पुरुषो वदन् ॥ ९.३५॥
भिन्नस्य तस्य शूलेन हृदयात् निःसृतः अपरः महा-बलः महा-वीर्यः तिष्ठ इति पुरुषः वदन्
bhinnasya tasya śūlena hṛdayāt niḥsṛtaḥ aparaḥ mahā-balaḥ mahā-vīryaḥ tiṣṭha iti puruṣaḥ vadan
तस्य निष्क्रामतो देवी प्रहस्य स्वनवत्ततः । शिरश्चिच्छेद खड्गेन ततोऽसावपतद्भुवि ॥ ९.३६॥
तस्य निष्क्रामतः देवी प्रहस्य स्वन-वत्-ततः शिरः चिच्छेद खड्गेन ततः असौ अपतत् भुवि
tasya niṣkrāmataḥ devī prahasya svana-vat-tataḥ śiraḥ ciccheda khaḍgena tataḥ asau apatat bhuvi
ततः सिंहश्चखादोग्रदंष्ट्राक्षुण्णशिरोधरान् । असुरांस्तांस्तथा काली शिवदूती तथापरान् ॥ ९.३७॥
ततः सिंहः चखाद उग्र-दंष्ट्रा-क्षुण्ण-शिरः-धरान् असुरान् तान् तथा काली शिव-दूती तथा परान्
tataḥ siṃhaḥ cakhāda ugra-daṃṣṭrā-kṣuṇṇa-śiraḥ-dharān asurān tān tathā kālī śiva-dūtī tathā parān
कौमारीशक्तिनिर्भिन्नाः केचिन्नेशुर्महासुराः । ब्रह्माणीमन्त्रपूतेन तोयेनान्ये निराकृताः ॥ ९.३८॥
कौमारी-शक्ति-निर्भिन्नाः केचित् नेशुः महा-असुराः ब्रह्म-आणी मन्त्र-पूतेन तोयेन अन्ये निराकृताः
kaumārī-śakti-nirbhinnāḥ kecit neśuḥ mahā-asurāḥ brahma-āṇī mantra-pūtena toyena anye nirākṛtāḥ
माहेश्वरीत्रिशूलेन भिन्नाः पेतुस्तथापरे । वाराहीतुण्डघातेन केचिच्चूर्णीकृता भुवि ॥ ९.३९॥
माहेश्वरी त्रि-शूलेन भिन्नाः पेतुः तथा अपरे वाराही-तुण्ड-घातेन केचित् चूर्णी-कृता भुवि
māheśvarī tri-śūlena bhinnāḥ petuḥ tathā apare vārāhī-tuṇḍa-ghātena kecit cūrṇī-kṛtā bhuvi
खण्डं खण्डं च चक्रेण वैष्णव्या दानवाः कृताः । वज्रेण चैन्द्रीहस्ताग्रविमुक्तेन तथापरे ॥ ९.४०॥
खण्डम् खण्डम् च चक्रेण वैष्णव्याः दानवाः कृताः वज्रेण च ऐन्द्री-हस्त-अग्र-विमुक्तेन तथा अपरे
khaṇḍam khaṇḍam ca cakreṇa vaiṣṇavyāḥ dānavāḥ kṛtāḥ vajreṇa ca aindrī-hasta-agra-vimuktena tathā apare
केचिद्विनेशुरसुराः केचिन्नष्टा महाहवात् । भक्षिताश्चापरे कालीशिवदूतीमृगाधिपैः ॥ ९.४१॥
केचित् विनेशुः असुराः केचित् नष्टाः महा-हवात् भक्षिताः च अपरे काली-शिव-दूती-मृग-अधिपैः
kecit vineśuḥ asurāḥ kecit naṣṭāḥ mahā-havāt bhakṣitāḥ ca apare kālī-śiva-dūtī-mṛga-adhipaiḥ
॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये निशुम्भवधो नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९॥
स्वस्ति श्री-मार्कण्डेय-पुराणे सा वर्णिके मनु-अन्तरे देवी-माहात्म्ये निशुम्भ-वधः नाम नवमः अध्यायः
svasti śrī-mārkaṇḍeya-purāṇe sā varṇike manu-antare devī-māhātmye niśumbha-vadhaḥ nāma navamaḥ adhyāyaḥ
उवाच २
अर्धश्लोकाः ३९
ardhaślokāḥ 39

Dashamo Adhyaya

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॥ १०. शुम्भवधो नाम दशमोऽध्यायः ॥
शुम्भ-वधः नाम दशमः अध्यायः
śumbha-vadhaḥ nāma daśamaḥ adhyāyaḥ
। ध्यानम् ।
ध्यानम्
dhyānam
ॐ उत्तप्तहेमरुचिरां रविचन्द्रवह्नि-नेत्रां धनुश्शरयुताङ्कुशपाशशूलम् ।रम्यैर्भुजैश्च दधतीं शिवशक्तिरूपांकामेश्वरीं हृदि भजामि धृतेन्दुलेखाम् ॥
ॐउत्तप्त-हेम-रुचिराम् रविचन्द्रवह्नि॰नेत्राम् धनुः-शर-युत-अङ्कुश-पाश-शूलम्रम्यैः भुजैः च दधतीम् शिवशक्तिरूपांकाम-ईश्वरीम् हृदि भजामि धृत-इन्दु-लेखाम्
oṃuttapta-hema-rucirām ravicandravahni॰netrām dhanuḥ-śara-yuta-aṅkuśa-pāśa-śūlamramyaiḥ bhujaiḥ ca dadhatīm śivaśaktirūpāṃkāma-īśvarīm hṛdi bhajāmi dhṛta-indu-lekhām
ॐ ऋषिरुवाच ॥ १०.१॥
निशुम्भं निहतं दृष्ट्वा भ्रातरं प्राणसम्मितम् । हन्यमानं बलं चैव शुम्भः क्रुद्धोऽब्रवीद्वचः ॥ १०.२॥
निशुम्भम् निहतम् दृष्ट्वा भ्रातरम् प्राण-सम्मितम् हन्यमानम् बलम् च एव शुम्भः क्रुद्धः अब्रवीत् वचः
niśumbham nihatam dṛṣṭvā bhrātaram prāṇa-sammitam hanyamānam balam ca eva śumbhaḥ kruddhaḥ abravīt vacaḥ
बलावलेपदुष्टे त्वं मा दुर्गे गर्वमावह । अन्यासां बलमाश्रित्य युद्ध्यसे चातिमानिनी ॥ १०.३॥
बल-अवलेप-दुष्टे त्वम् मा दुर्गे गर्वम् आवह अन्यासाम् बलम् आश्रित्य युत् हि असे च अतिमानिनी
bala-avalepa-duṣṭe tvam mā durge garvam āvaha anyāsām balam āśritya yut hi ase ca atimāninī
देव्युवाच ॥ १०.४॥
एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा । पश्यैता दुष्ट मय्येव विशन्त्यो मद्विभूतयः ॥ १०.५॥
एका एव अहम् जगती अत्र द्वितीया का मम अपरा पश्य एताः दुष्ट मयि एव विशन्त्यः मत्-विभूतयः
ekā eva aham jagatī atra dvitīyā kā mama aparā paśya etāḥ duṣṭa mayi eva viśantyaḥ mat-vibhūtayaḥ
ततः समस्तास्ता देव्यो ब्रह्माणीप्रमुखा लयम् । तस्या देव्यास्तनौ जग्मुरेकैवासीत्तदाम्बिका ॥ १०.६॥
ततः समस्ताः ताः देव्यः ब्रह्म-आणी प्रमुखाः लयम् तस्याः देव्या स्तनौ जग्मुः एका एव आसीत् तदा अम्बिका
tataḥ samastāḥ tāḥ devyaḥ brahma-āṇī pramukhāḥ layam tasyāḥ devyā stanau jagmuḥ ekā eva āsīt tadā ambikā
देव्युवाच ॥ १०.७॥
अहं विभूत्या बहुभिरिह रूपैर्यदास्थिता । तत्संहृतं मयैकैव तिष्ठाम्याजौ स्थिरो भव ॥ १०.८॥
अहम् विभूत्याः बहुभिः इह रूपैः यदा स्थिता तत्-संहृतम् मया एका एव तिष्ठामि आजौ स्थिरः भव
aham vibhūtyāḥ bahubhiḥ iha rūpaiḥ yadā sthitā tat-saṃhṛtam mayā ekā eva tiṣṭhāmi ājau sthiraḥ bhava
ऋषिरुवाच ॥ १०.९॥
ततः प्रववृते युद्धं देव्याः शुम्भस्य चोभयोः । पश्यतां सर्वदेवानामसुराणां च दारुणम् ॥ १०.१०॥
ततः प्रववृते युद्धम् देव्याः शुम्भस्य च उभयोः पश्यताम् सर्व-देवानाम् असुराणाम् च दारुणम्
tataḥ pravavṛte yuddham devyāḥ śumbhasya ca ubhayoḥ paśyatām sarva-devānām asurāṇām ca dāruṇam
शरवर्षैः शितैः शस्त्रैस्तथा चास्त्रैः सुदारुणैः । तयोर्युद्धमभूद्भूयः सर्वलोकभयङ्करम् ॥ १०.११॥
शर-वर्षैः शितैः शस्त्रैः तथा च अस्त्रैः सुदारुणैः तयोः युद्धम् अभूत् भूयः सर्व-लोक-भयङ्करम्
śara-varṣaiḥ śitaiḥ śastraiḥ tathā ca astraiḥ sudāruṇaiḥ tayoḥ yuddham abhūt bhūyaḥ sarva-loka-bhayaṅkaram
दिव्यान्यस्त्राणि शतशो मुमुचे यान्यथाम्बिका । बभञ्ज तानि दैत्येन्द्रस्तत्प्रतीघातकर्तृभिः ॥ १०.१२॥
दिव्यानि अस्त्राणि शतशः मुमुचे यानि अथ अम्बिका बभञ्ज तानि दैत्येन्द्रस्तत्प्रतीघातकर्तृभिः
divyāni astrāṇi śataśaḥ mumuce yāni atha ambikā babhañja tāni daityendrastatpratīghātakartṛbhiḥ
मुक्तानि तेन चास्त्राणि दिव्यानि परमेश्वरी । बभञ्ज लीलयैवोग्रहुङ्कारोच्चारणादिभिः ॥ १०.१३॥
मुक्तानि तेन च अस्त्राणि दिव्यानि परमेश्वरी बभञ्ज लीलया एव उग्र-हुङ्कार-उच्चारण-आदिभिः
muktāni tena ca astrāṇi divyāni parameśvarī babhañja līlayā eva ugra-huṅkāra-uccāraṇa-ādibhiḥ
ततः शरशतैर्देवीमाच्छादयत सोऽसुरः । सापि तत्कुपिता देवी धनुश्चिच्छेद चेषुभिः ॥ १०.१४॥
ततः शर-शतैः देवीम् आच्छादयत सः असुरः सा अपि तत् कुपिताः देवी धनुः चिच्छेद च इषुभिः
tataḥ śara-śataiḥ devīm ācchādayata saḥ asuraḥ sā api tat kupitāḥ devī dhanuḥ ciccheda ca iṣubhiḥ
छिन्ने धनुषि दैत्येन्द्रस्तथा शक्तिमथाददे । चिच्छेद देवी चक्रेण तामप्यस्य करे स्थिताम् ॥ १०.१५॥
छिन्ने धनुषि दैत्य-इन्द्रः तथा शक्तिम् अथ आददे चिच्छेद देवी चक्रेण ताम् अपि अस्य करे स्थिताम्
chinne dhanuṣi daitya-indraḥ tathā śaktim atha ādade ciccheda devī cakreṇa tām api asya kare sthitām
ततः खड्गमुपादाय शतचन्द्रं च भानुमत् । अभ्यधा वत तां देवीं दैत्यानामधिपेश्वरः ॥ १०.१६॥
ततः खड्गम् उपादाय शत-चन्द्रम् च भानुमत् अभ्यधा वत ताम् देवीम् दैत्यानाम् अधिप-ईश्वरः
tataḥ khaḍgam upādāya śata-candram ca bhānumat abhyadhā vata tām devīm daityānām adhipa-īśvaraḥ
तस्यापतत एवाशु खड्गं चिच्छेद चण्डिका । धनुर्मुक्तैः शितैर्बाणैश्चर्म चार्ककरामलम् । अश्वांश्च पातयामास रथं सारथिना सह ॥ १०.१७॥
तस्य आपततः एव आशु खड्गम् चिच्छेद चण्डिका धनुः-मुक्तैः शितैः बाणैः चर्म च अर्क-कर-अमलम् अश्वान् च पातयाम आस रथम् सारथिना सह
tasya āpatataḥ eva āśu khaḍgam ciccheda caṇḍikā dhanuḥ-muktaiḥ śitaiḥ bāṇaiḥ carma ca arka-kara-amalam aśvān ca pātayāma āsa ratham sārathinā saha
हताश्वः स तदा दैत्यश्छिन्नधन्वा विसारथिः । जग्राह मुद्गरं घोरमम्बिकानिधनोद्यतः ॥ १०.१८॥
हत-अश्वः स तदा दैत्यश्छिन्नधन्वा विसारथिः जग्राह मुद्गरम् घोरम् अम्बिका-निधन-उद्यतः
hata-aśvaḥ sa tadā daityaśchinnadhanvā visārathiḥ jagrāha mudgaram ghoram ambikā-nidhana-udyataḥ
चिच्छेदापततस्तस्य मुद्गरं निशितैः शरैः । तथापि सोऽभ्यधावत्तां मुष्टिमुद्यम्य वेगवान् ॥ १०.१९॥
चिच्छेद आपततः तस्य मुद्गरम् निशितैः शरैः तथापि सः अभ्यधावत् ताम् मुष्टिम् उद्यम्य वेगवान्
ciccheda āpatataḥ tasya mudgaram niśitaiḥ śaraiḥ tathāpi saḥ abhyadhāvat tām muṣṭim udyamya vegavān
स मुष्टिं पातयामास हृदये दैत्यपुङ्गवः । देव्यास्तं चापि सा देवी तलेनोरस्यताडयत् ॥ १०.२०॥
स मुष्टिम् पातयाम आस हृदये दैत्य-पुङ्गवः देव्याः तम् च अपि सा देवी तलेन उरसि अताडयत्
sa muṣṭim pātayāma āsa hṛdaye daitya-puṅgavaḥ devyāḥ tam ca api sā devī talena urasi atāḍayat
तलप्रहाराभिहतो निपपात महीतले । स दैत्यराजः सहसा पुनरेव तथोत्थितः ॥ १०.२१॥
तल-प्रहार-अभिहतः निपपात मही-तले स दैत्य-राजः सहसा पुनः एव तथा उत्थितः
tala-prahāra-abhihataḥ nipapāta mahī-tale sa daitya-rājaḥ sahasā punaḥ eva tathā utthitaḥ
उत्पत्य च प्रगृह्योच्चैर्देवीं गगनमास्थितः । तत्रापि सा निराधारा युयुधे तेन चण्डिका ॥ १०.२२॥
उत्पत्य च प्रगृह्य-उच्चैः देवीम् गगनम् आस्थितः तत्र अपि सा निराधारा युयुधे तेन चण्डिका
utpatya ca pragṛhya-uccaiḥ devīm gaganam āsthitaḥ tatra api sā nirādhārā yuyudhe tena caṇḍikā
नियुद्धं खे तदा दैत्यश्चण्डिका च परस्परम् । चक्रतुः प्रथमं सिद्धमुनिविस्मयकारकम् ॥ १०.२३॥
नियुद्धम् खे तदा दैत्यः चण्डिका च परस्परम् चक्रतुः प्रथमम् सिद्ध-मुनि-विस्मय-कारकम्
niyuddham khe tadā daityaḥ caṇḍikā ca parasparam cakratuḥ prathamam siddha-muni-vismaya-kārakam
ततो नियुद्धं सुचिरं कृत्वा तेनाम्बिका सह । उत्पाट्य भ्रामयामास चिक्षेप धरणीतले ॥ १०.२४॥
ततः नियुद्धम् सुचिरम् कृत्वा तेन अम्बिका सह उत्पाट्य भ्रामयाम आस चिक्षेप धरणी-तले
tataḥ niyuddham suciram kṛtvā tena ambikā saha utpāṭya bhrāmayāma āsa cikṣepa dharaṇī-tale
स क्षिप्तो धरणीं प्राप्य मुष्टिमुद्यम्य वेगवान् । अभ्यधावत दुष्टात्मा चण्डिकानिधनेच्छया ॥ १०.२५॥
स क्षिप्तः धरणीम् प्राप्य मुष्टिम् उद्यम्य वेगवान् अभ्यधावत दुष्ट-आत्मा चण्डिका-निधन-इच्छया
sa kṣiptaḥ dharaṇīm prāpya muṣṭim udyamya vegavān abhyadhāvata duṣṭa-ātmā caṇḍikā-nidhana-icchayā
तमायान्तं ततो देवी सर्वदैत्यजनेश्वरम् । जगत्यां पातयामास भित्त्वा शूलेन वक्षसि ॥ १०.२६॥
तम् आयाम् तम् ततः देवी सर्व-दैत्य-जन-ईश्वरम् जगत्याम् पातयाम आस भित्त्वा शूलेन वक्षसि
tam āyām tam tataḥ devī sarva-daitya-jana-īśvaram jagatyām pātayāma āsa bhittvā śūlena vakṣasi
स गतासुः पपातोर्व्यां देवी शूलाग्रविक्षतः । चालयन् सकलां पृथ्वीं साब्धिद्वीपां सपर्वताम् ॥ १०.२७॥
स गतासुः पपात उर्व्याम् देवी शूलाग्रविक्षतः चालयन् सकलाम् पृथ्वीम् सा अब्धि-द्वीपाम् स-पर्व ताम्
sa gatāsuḥ papāta urvyām devī śūlāgravikṣataḥ cālayan sakalām pṛthvīm sā abdhi-dvīpām sa-parva tām
ततः प्रसन्नमखिलं हते तस्मिन् दुरात्मनि । जगत्स्वास्थ्यमतीवाप निर्मलं चाभवन्नभः ॥ १०.२८॥
ततः प्रसन्नम् अखिलम् हते तस्मिन् दुरात्मनि जगत्-स्वास्थ्यम् अतीव आप निर्मलम् च अभवत् नभः
tataḥ prasannam akhilam hate tasmin durātmani jagat-svāsthyam atīva āpa nirmalam ca abhavat nabhaḥ
उत्पातमेघाः सोल्का ये प्रागासंस्ते शमं ययुः । सरितो मार्गवाहिन्यस्तथासंस्तत्र पातिते ॥ १०.२९॥
उत्पात-मेघाः सा उल्का ये प्राक् आसन् ते शमम् ययुः सरितः मार्ग-वाहिन्यः तथा सन् तत्र पातिते
utpāta-meghāḥ sā ulkā ye prāk āsan te śamam yayuḥ saritaḥ mārga-vāhinyaḥ tathā san tatra pātite
ततो देवगणाः सर्वे हर्षनिर्भरमानसाः । बभूवुर्निहते तस्मिन् गन्धर्वा ललितं जगुः ॥ १०.३०॥
ततः देव-गणाः सर्वे हर्ष-निर्भर-मानसाः बभूवुः निहते तस्मिन् गन्धर्वाः ललितम् जगुः
tataḥ deva-gaṇāḥ sarve harṣa-nirbhara-mānasāḥ babhūvuḥ nihate tasmin gandharvāḥ lalitam jaguḥ
अवादयंस्तथैवान्ये ननृतुश्चाप्सरोगणाः । ववुः पुण्यास्तथा वाताः सुप्रभोऽभूद्दिवाकरः ॥ १०.३१॥
अवादयन् तथा एव अन्ये ननृतुः च अप्सरः-गणाः ववुः पुण्याः तथा वाताः सुप्रभः अभूत् दिवा-करः
avādayan tathā eva anye nanṛtuḥ ca apsaraḥ-gaṇāḥ vavuḥ puṇyāḥ tathā vātāḥ suprabhaḥ abhūt divā-karaḥ
जज्वलुश्चाग्नयः शान्ताः शान्ता दिग्जनितस्वनाः ॥ १०.३२॥
जज्वलुः च अग्नयः शान्ताः शान्ताः दिक्-जनित-स्वनाः
jajvaluḥ ca agnayaḥ śāntāḥ śāntāḥ dik-janita-svanāḥ
॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये शुम्भवधो नाम दशमोऽध्यायः ॥ १०॥
स्वस्ति श्री-मार्कण्डेय-पुराणे सा वर्णिके मनु-अन्तरे देवी-माहात्म्ये शुम्भ-वधः नाम दशमः अध्यायः
svasti śrī-mārkaṇḍeya-purāṇe sā varṇike manu-antare devī-māhātmye śumbha-vadhaḥ nāma daśamaḥ adhyāyaḥ

Ekadasho Adhyaya

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॥ नारायणीस्तुतिर्नामैकादशोऽध्यायः ॥
नारायणी स्तुतिः नाम एकादशः अध्यायः
nārāyaṇī stutiḥ nāma ekādaśaḥ adhyāyaḥ
। ध्यानम् ।
ध्यानम्
dhyānam
ॐ बालरविद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्गकुचां नयनत्रययुक्ताम् । स्मेरमुखीं वरदाङ्कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम् ॥
ॐबाल-रवि-द्युतिम् इन्दु-किरीटाम् तुङ्ग-कुचाम् नयन-त्रय-युक्ताम् स्मेर-मुखीम् वरद-अङ्कुश-पाशा भीति-कराम् प्रभजे भुवनेशीम्
oṃbāla-ravi-dyutim indu-kirīṭām tuṅga-kucām nayana-traya-yuktām smera-mukhīm varada-aṅkuśa-pāśā bhīti-karām prabhaje bhuvaneśīm
ॐ ऋषिरुवाच ॥ ११.१॥
देव्या हते तत्र महासुरेन्द्रेसेन्द्राः सुरा वह्निपुरोगमास्ताम् ।कात्यायनीं तुष्टुवुरिष्टलाभाद्विकाशिवक्त्राब्जविकाशिताशाः ॥ ११.२॥
देव्याः हते तत्र महा-सुर-इन्द्रेसेन्द्राः सुराः वह्नि-पुरोगम् आस्ताम्कात्यायनीम् तुष्टुवुरिष्टलाभाद्विकाशि वक्त्र-अब्ज-विकाशिता आशाः
devyāḥ hate tatra mahā-sura-indresendrāḥ surāḥ vahni-purogam āstāmkātyāyanīm tuṣṭuvuriṣṭalābhādvikāśi vaktra-abja-vikāśitā āśāḥ
देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीदप्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य ।प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वंत्वमीश्वरी देवि चराचरस्य ॥ ११.३॥
देवि प्रपन्न-आर्ति हरे प्रसीदप्रसीद मा तर्ज गतः अखिलस्यप्रसीद विश्व-ईश्वरि पाहि विश्वंत्वम् ईश्वरी देवि चर-अचरस्य
devi prapanna-ārti hare prasīdaprasīda mā tarja gataḥ akhilasyaprasīda viśva-īśvari pāhi viśvaṃtvam īśvarī devi cara-acarasya
आधारभूता जगतस्त्वमेकामहीस्वरूपेण यतः स्थितासि ।अपां स्वरूपस्थितया त्वयैत-दाप्यायते कृत्स्नमलङ्घ्यवीर्ये ॥ ११.४॥
आधार-भूताः जगतः त्वम् एकामही-स्व-रूपेण यतः स्थिता असिअपाम् स्व-रूप-स्थितया त्वयैत॰दाप्याय ते कृत्स्नम् अलङ्घ्य-वीर्ये
ādhāra-bhūtāḥ jagataḥ tvam ekāmahī-sva-rūpeṇa yataḥ sthitā asiapām sva-rūpa-sthitayā tvayaita॰dāpyāya te kṛtsnam alaṅghya-vīrye
त्वं वैष्णवीशक्तिरनन्तवीर्याविश्वस्य बीजं परमासि माया ।सम्मोहितं देवि समस्तमेतत्त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः ॥ ११.५॥
त्वम् वैष्णवी शक्तिः अनन्त-वीर्याविश्वस्य बीजम् परम-असि मायासम्मोहितम् देवि समस्तम् एतत्त्वम् वै प्रसन्ना भुवि मुक्ति-हेतुः
tvam vaiṣṇavī śaktiḥ ananta-vīryāviśvasya bījam parama-asi māyāsammohitam devi samastam etattvam vai prasannā bhuvi mukti-hetuḥ
विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाःस्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु ।त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्का ते स्तुतिः स्तव्यपरापरोक्तिः ॥ ११.६॥
विद्याः समस्ताः तव देवि भेदाःस्त्रियः समस्ताः सकलाः जगत्सुत्वया एकया पूरितम् अम्बया एतत्का ते स्तुतिः स्तव्यपरापरोक्तिः
vidyāḥ samastāḥ tava devi bhedāḥstriyaḥ samastāḥ sakalāḥ jagatsutvayā ekayā pūritam ambayā etatkā te stutiḥ stavyaparāparoktiḥ
सर्वभूता यदा देवी भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी । त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः ॥ ११.७॥
सर्व-भूताः यदा देवी भुक्ति-मुक्ति-प्रदायिनी त्वम् स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परम-उक्तयः
sarva-bhūtāḥ yadā devī bhukti-mukti-pradāyinī tvam stutā stutaye kā vā bhavantu parama-uktayaḥ
सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते । स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ११.८॥
सर्वस्य बुद्धि-रूपेण जनस्य हृदि संस्थिते स्वर्ग-अपवर्ग-दे देवि नारायणि नमः अस्तु ते
sarvasya buddhi-rūpeṇa janasya hṛdi saṃsthite svarga-apavarga-de devi nārāyaṇi namaḥ astu te
कलाकाष्ठादिरूपेण परिणामप्रदायिनि । विश्वस्योपरतौ शक्ते नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ११.९॥
कला-काष्ठ-आदि-रूपेण परिणाम-प्रदायिनि विश्वस्य उपरतौ शक्ते नारायणि नमः अस्तु ते
kalā-kāṣṭha-ādi-rūpeṇa pariṇāma-pradāyini viśvasya uparatau śakte nārāyaṇi namaḥ astu te
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ११.१०॥
सर्व-मङ्गल-माङ्गल्ये शिवे सर्व-अर्थ-साधिके शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमः अस्तु ते
sarva-maṅgala-māṅgalye śive sarva-artha-sādhike śaraṇye tryambake gauri nārāyaṇi namaḥ astu te
सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि । गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ११.११॥
सृष्टि-स्थिति-विनाशानाम् शक्ति-भूते सनातनि गुण-आश्रये गुणमये नारायणि नमः अस्तु ते
sṛṣṭi-sthiti-vināśānām śakti-bhūte sanātani guṇa-āśraye guṇamaye nārāyaṇi namaḥ astu te
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे । सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ११.१२॥
शरण-आगत-दीन-आर्त-परित्राण-परायणे सर्वस्य आर्ति-हरे देवि नारायणि नमः अस्तु ते
śaraṇa-āgata-dīna-ārta-paritrāṇa-parāyaṇe sarvasya ārti-hare devi nārāyaṇi namaḥ astu te
हंसयुक्तविमानस्थे ब्रह्माणीरूपधारिणि । कौशाम्भःक्षरिके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ११.१३॥
हंस-युक्त-विमान-स्थे ब्रह्म-आणी रूप-धारिणि कौशाम्भःक्षरिके देवि नारायणि नमः अस्तु ते
haṃsa-yukta-vimāna-sthe brahma-āṇī rūpa-dhāriṇi kauśāmbhaḥkṣarike devi nārāyaṇi namaḥ astu te
त्रिशूलचन्द्राहिधरे महावृषभवाहिनि । माहेश्वरीस्वरूपेण नारायणि नमोऽस्तुते ॥ ११.१४॥
त्रि-शूल-चन्द्र-अहि-धरे महा-वृषभ-वाहिनि माहेश्वरी स्व-रूपेण नारायणि नमः अस्तु ते
tri-śūla-candra-ahi-dhare mahā-vṛṣabha-vāhini māheśvarī sva-rūpeṇa nārāyaṇi namaḥ astu te
मयूरकुक्कुटवृते महाशक्तिधरेऽनघे । कौमारीरूपसंस्थाने नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ११.१५॥
मयूर-कुक्कुट-वृते महा-शक्ति-धरे अनघे कौमारी-रूप-संस्थाने नारायणि नमः अस्तु ते
mayūra-kukkuṭa-vṛte mahā-śakti-dhare anaghe kaumārī-rūpa-saṃsthāne nārāyaṇi namaḥ astu te
शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गगृहीतपरमायुधे । प्रसीद वैष्णवीरूपे नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ११.१६॥
शङ्ख-चक्र-गदा-शार्ङ्ग-गृहीत-परम-आयुधे प्रसीद वैष्णवी रूपे नारायणि नमः अस्तु ते
śaṅkha-cakra-gadā-śārṅga-gṛhīta-parama-āyudhe prasīda vaiṣṇavī rūpe nārāyaṇi namaḥ astu te
गृहीतोग्रमहाचक्रे दंष्ट्रोद्धृतवसुन्धरे । वराहरूपिणि शिवे नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ११.१७॥
गृहीत-उग्र-महा-चक्रे दंष्ट्रा-उद्धृत-वसुन्धरे वराह-रूपिणि शिवे नारायणि नमः अस्तु ते
gṛhīta-ugra-mahā-cakre daṃṣṭrā-uddhṛta-vasundhare varāha-rūpiṇi śive nārāyaṇi namaḥ astu te
नृसिंहरूपेणोग्रेण हन्तुं दैत्यान् कृतोद्यमे । त्रैलोक्यत्राणसहिते नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ११.१८॥
नृ-सिंह-रूपेण उग्रेण हन्तुम् दैत्यान् कृत-उद्यमे त्रैलोक्य-त्राण-सहिते नारायणि नमः अस्तु ते
nṛ-siṃha-rūpeṇa ugreṇa hantum daityān kṛta-udyame trailokya-trāṇa-sahite nārāyaṇi namaḥ astu te
किरीटिनि महावज्रे सहस्रनयनोज्ज्वले । वृत्रप्राणहरे चैन्द्रि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ११.१९॥
किरीटिनि महा-वज्रे सहस्र-नयन-उज्ज्वले वृत्र-प्राण-हरे च ऐन्द्रि नारायणि नमः अस्तु ते
kirīṭini mahā-vajre sahasra-nayana-ujjvale vṛtra-prāṇa-hare ca aindri nārāyaṇi namaḥ astu te
शिवदूतीस्वरूपेण हतदैत्यमहाबले । घोररूपे महारावे नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ११.२०॥
शिव-दूती-स्व-रूपेण हत-दैत्य-महा-बले घोर-रूपे महा-रावे नारायणि नमः अस्तु ते
śiva-dūtī-sva-rūpeṇa hata-daitya-mahā-bale ghora-rūpe mahā-rāve nārāyaṇi namaḥ astu te
दंष्ट्राकरालवदने शिरोमालाविभूषणे । चामुण्डे मुण्डमथने नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ११.२१॥
दंष्ट्रा-कराल-वदने शिरः-माला-विभूषणे चामुण्डे मुण्ड-मथने नारायणि नमः अस्तु ते
daṃṣṭrā-karāla-vadane śiraḥ-mālā-vibhūṣaṇe cāmuṇḍe muṇḍa-mathane nārāyaṇi namaḥ astu te
लक्ष्मि लज्जे महाविद्ये श्रद्धे पुष्टि स्वधे ध्रुवे । महारात्रि महामाये नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ११.२२॥
लक्ष्मि लज्जे महा-विद्ये श्रद्धे पुष्टि स्वधे ध्रुवे महा-रात्रि महा-माये नारायणि नमः अस्तु ते
lakṣmi lajje mahā-vidye śraddhe puṣṭi svadhe dhruve mahā-rātri mahā-māye nārāyaṇi namaḥ astu te
मेधे सरस्वति वरे भूति बाभ्रवि तामसि । नियते त्वं प्रसीदेशे नारायणि नमोऽस्तुते ॥ ११.२३॥
मेधे सरस्वति वरे भूति बाभ्रवि तामसि नियते त्वम् प्रसीद ईशे नारायणि नमः अस्तु ते
medhe sarasvati vare bhūti bābhravi tāmasi niyate tvam prasīda īśe nārāyaṇi namaḥ astu te
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते । भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ॥ ११.२४॥
सर्व-स्व-रूपे सर्व-ईशे सर्व-शक्ति-समन्विते भय-इभी-अस्त्र-अहि नः देवि दुर्गे देवि नमः अस्तु ते
sarva-sva-rūpe sarva-īśe sarva-śakti-samanvite bhaya-ibhī-astra-ahi naḥ devi durge devi namaḥ astu te
एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम् । पातु नः सर्वभूतेभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते ॥ ११.२५॥
एतत् ते वदनम् सौम्यम् लोचन-त्रय-भूषितम् पातु नः सर्व-भूतेभ्यः कात्यायनि नमः अस्तु ते
etat te vadanam saumyam locana-traya-bhūṣitam pātu naḥ sarva-bhūtebhyaḥ kātyāyani namaḥ astu te
ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम् । त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते ॥ ११.२६॥
ज्वाला करालम् अत्युग्रम् अशेष-असुर-सूदनम् त्रि-शूलम् पातु नः भीतेः भद्र-कालि नमः अस्तु ते
jvālā karālam atyugram aśeṣa-asura-sūdanam tri-śūlam pātu naḥ bhīteḥ bhadra-kāli namaḥ astu te
हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत् । सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्यो नः सुतानिव ॥ ११.२७॥
हिनस्ति दैत्य-तेजांसि स्वनेन आपूर्य या जगत् सा घण्टा पातु नः देवि पापेभ्यः नः सुतान् इव
hinasti daitya-tejāṃsi svanena āpūrya yā jagat sā ghaṇṭā pātu naḥ devi pāpebhyaḥ naḥ sutān iva
असुरासृग्वसापङ्कचर्चितस्ते करोज्ज्वलः । शुभाय खड्गो भवतु चण्डिके त्वां नता वयम् ॥ ११.२८॥
असुर-असृक्-वसा-पङ्क-चर्चितः ते कर-उज्ज्वलः शुभाय खड्गः भवतु चण्डिके त्वाम् नताः वयम्
asura-asṛk-vasā-paṅka-carcitaḥ te kara-ujjvalaḥ śubhāya khaḍgaḥ bhavatu caṇḍike tvām natāḥ vayam
रोगानशेषानपहंसि तुष्टारुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।त्वामाश्रितानां न विपन्नराणांत्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥ ११.२९॥
रोगान् अशेषान् अपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकल-अनभीष्टान् त्वाम् आश्रितानाम् न विपन्नराणां त्वाम् आश्रिताः हि आश्रयताम् प्रयान्ति
rogān aśeṣān apahaṃsi tuṣṭā ruṣṭā tu kāmān sakala-anabhīṣṭān tvām āśritānām na vipannarāṇāṃ tvām āśritāḥ hi āśrayatām prayānti
एतत्कृतं यत्कदनं त्वयाद्यधर्मद्विषां देवि महासुराणाम् ।रूपैरनेकैर्बहुधात्ममूर्तिंकृत्वाम्बिके तत्प्रकरोति कान्या ॥ ११.३०॥
एतत् कृतम् यत्कदनम् त्वया अद्यधर्म-द्विषाम् देवि महा-असुराणाम्रूपैरनेकैर्बहुधात्ममूर्तिंकृत्वा अम्बिके तत् प्रकरोति का अन्या
etat kṛtam yatkadanam tvayā adyadharma-dviṣām devi mahā-asurāṇāmrūpairanekairbahudhātmamūrtiṃkṛtvā ambike tat prakaroti kā anyā
विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपे-ष्वाद्येषु वाक्येषु च का त्वदन्या ।ममत्वगर्तेऽतिमहान्धकारेविभ्रामयत्येतदतीव विश्वम् ॥ ११.३१॥
विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपे॰ष्वाद्येषु वाक्येषु च का त्वत् अन्याममत्व-गर्ते अति महा-अन्धकारेविभ्रामयति एतत् अतीव विश्वम्
vidyāsu śāstreṣu vivekadīpe॰ṣvādyeṣu vākyeṣu ca kā tvat anyāmamatva-garte ati mahā-andhakārevibhrāmayati etat atīva viśvam
रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागायत्रारयो दस्युबलानि यत्र ।दावानलो यत्र तथाब्धिमध्येतत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम् ॥ ११.३२॥
रक्षांसि यत्र उग्र-विषाः च नागायत्र अरयः दस्यु-बलानि यत्रदाव-अनलः यत्र तथा अब्धि-मध्येतत्र स्थिता त्वम् परिपासि विश्वम्
rakṣāṃsi yatra ugra-viṣāḥ ca nāgāyatra arayaḥ dasyu-balāni yatradāva-analaḥ yatra tathā abdhi-madhyetatra sthitā tvam paripāsi viśvam
विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वंविश्वात्मिका धारयसीह विश्वम् ।विश्वेशवन्द्या भवती भवन्तिविश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः ॥ ११.३३॥
विश्व-ईश्वरि त्वम् परिपासि विश्वंविश्व-आत्मिका धारयसि इह विश्वम्विश्व-ईश-वन्द्याः भवती भवन्तिविश्व-आश्रयाः ये त्वयि भक्ति-नम्राः
viśva-īśvari tvam paripāsi viśvaṃviśva-ātmikā dhārayasi iha viśvamviśva-īśa-vandyāḥ bhavatī bhavantiviśva-āśrayāḥ ye tvayi bhakti-namrāḥ
पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान् ॥ ११.३४॥
देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीते-र्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्यः ।पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशुउत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान् ॥ ११.३४॥
devi prasīda paripālaya no'ribhīte-rnityaṃ yathāsuravadhādadhunaiva sadyaḥ .pāpāni sarvajagatāṃ praśamaṃ nayāśuutpātapākajanitāṃśca mahopasargān .. 11.34..
प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि । त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा भव ॥ ११.३५॥
प्रणतानाम् प्रसीद त्वम् देवि विश्व-आर्ति-हारिणि त्रैलोक्य-वासिनाम् ईड्ये लोकानाम् वरदाः भव
praṇatānām prasīda tvam devi viśva-ārti-hāriṇi trailokya-vāsinām īḍye lokānām varadāḥ bhava
देव्युवाच ॥ ११.३६॥
वरदाहं सुरगणा वरं यन्मनसेच्छथ । तं वृणुध्वं प्रयच्छामि जगतामुपकारकम् ॥ ११.३७॥
वर-दाहम् सुर-गणाः वरम् यत् मनसा इच्छथ तम् वृणुध्वम् प्रयच्छामि जगताम् उपकारकम्
vara-dāham sura-gaṇāḥ varam yat manasā icchatha tam vṛṇudhvam prayacchāmi jagatām upakārakam
देवा ऊचुः ॥ ११.३८॥
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि । एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ॥ ११.३९॥
सर्व-अबाधा प्रशमनम् त्रैलोक्यस्य अखिल-ईश्वरि एवम् एव त्वया कार्यम् अस्मत्-वैरि-विना-अशनम्
sarva-abādhā praśamanam trailokyasya akhila-īśvari evam eva tvayā kāryam asmat-vairi-vinā-aśanam
देव्युवाच ॥ ११.४०॥
वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे । शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ ॥ ११.४१॥
वैवस्वते अन्तरे प्राप्ते अष्टा-विंशति मे युगे शुम्भः निशुम्भः च एव अन्यौ उत्पत्स्येते महा-असुरौ
vaivasvate antare prāpte aṣṭā-viṃśati me yuge śumbhaḥ niśumbhaḥ ca eva anyau utpatsyete mahā-asurau
नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा । ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी ॥ ११.४२॥
नन्द-गोप-गृहे जाताः यशोदा गर्भ-सम्भवा ततः तौ नाशयिष्यामि विन्ध्या चल-निवासिनी
nanda-gopa-gṛhe jātāḥ yaśodā garbha-sambhavā tataḥ tau nāśayiṣyāmi vindhyā cala-nivāsinī
पुनरप्यतिरौद्रेण रूपेण पृथिवीतले । अवतीर्य हनिष्यामि वैप्रचित्तांश्च दानवान् ॥ ११.४३॥
पुनः अपि अति रौद्रेण रूपेण पृथिवी-तले अवतीर्य हनिष्यामि वै प्रचित्तान् च दानवान्
punaḥ api ati raudreṇa rūpeṇa pṛthivī-tale avatīrya haniṣyāmi vai pracittān ca dānavān
भक्षयन्त्याश्च तानुग्रान् वैप्रचित्तान् महासुरान् । रक्ता दन्ता भविष्यन्ति दाडिमीकुसुमोपमाः ॥ ११.४४॥
भक्षयन्त्याः च तान् उग्रान् वै प्रचित्तान् महा-असुरान् रक्ताः दन्ताः भविष्यन्ति दाडिमी-कुसुम-उपमाः
bhakṣayantyāḥ ca tān ugrān vai pracittān mahā-asurān raktāḥ dantāḥ bhaviṣyanti dāḍimī-kusuma-upamāḥ
ततो मां देवताः स्वर्गे मर्त्यलोके च मानवाः । स्तुवन्तो व्याहरिष्यन्ति सततं रक्तदन्तिकाम् ॥ ११.४५॥
ततः माम् देवताः स्वर्गे मर्त्य-लोके च मानवाः स्तुवन्तः व्याहरिष्यन्ति सततम् रक्त-दन्ति काम्
tataḥ mām devatāḥ svarge martya-loke ca mānavāḥ stuvantaḥ vyāhariṣyanti satatam rakta-danti kām
भूयश्च शतवार्षिक्यामनावृष्ट्यामनम्भसि । मुनिभिः संस्मृता भूमौ सम्भविष्याम्ययोनिजा ॥ ११.४६॥
भूयः च शत-वार्षिक्याम् अनावृष्ट्या आमन् अम्भसि मुनिभिः संस्मृताः भूमौ सम्भविष्यामि अयोनिजा
bhūyaḥ ca śata-vārṣikyām anāvṛṣṭyā āman ambhasi munibhiḥ saṃsmṛtāḥ bhūmau sambhaviṣyāmi ayonijā
ततः शतेन नेत्राणां निरीक्षिष्याम्यहं मुनीन् । कीर्तयिष्यन्ति मनुजाः शताक्षीमिति मां ततः ॥ ११.४७॥
ततः शतेन नेत्राणाम् निरीक्षिष्याम्यहम् मुनीन् कीर्तयिष्यन्ति मनुजाः शत-अक्षीम् इति माम् ततः
tataḥ śatena netrāṇām nirīkṣiṣyāmyaham munīn kīrtayiṣyanti manujāḥ śata-akṣīm iti mām tataḥ
ततोऽहमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवैः । भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकैः ॥ ११.४८॥
ततः अहम् अखिलम् लोकम् आत्म-देह-समुद्भवैः भरिष्यामि सुराः शाकैः आवृष्टेः प्राण-धारकैः
tataḥ aham akhilam lokam ātma-deha-samudbhavaiḥ bhariṣyāmi surāḥ śākaiḥ āvṛṣṭeḥ prāṇa-dhārakaiḥ
शाकम्भरीति विख्यातिं तदा यास्याम्यहं भुवि । तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यं महासुरम् ॥ ११.४९॥
शाकम्भरी इति विख्यातिम् तदा यास्यामि अहम् भुवि तत्र एव च वधिष्यामि दुर्गम-आख्यम् महा-असुरम्
śākambharī iti vikhyātim tadā yāsyāmi aham bhuvi tatra eva ca vadhiṣyāmi durgama-ākhyam mahā-asuram
दुर्गादेवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति । पुनश्चाहं यदा भीमं रूपं कृत्वा हिमाचले ॥ ११.५०॥
दुर्गा देवी इति विख्यातम् तत् मे नाम भविष्यति पुनः च अहम् यदा भीमम् रूपम् कृत्वा हिम-अचले
durgā devī iti vikhyātam tat me nāma bhaviṣyati punaḥ ca aham yadā bhīmam rūpam kṛtvā hima-acale
रक्षांसि भक्षयिष्यामि मुनीनां त्राणकारणात् । तदा मां मुनयः सर्वे स्तोष्यन्त्यानम्रमूर्तयः ॥ ११.५१॥
रक्षांसि भक्षयिष्यामि मुनीनाम् त्राण-कारणात् तदा माम् मुनयः सर्वे स्तोष्यन्त्या नम्र-मूर्तयः
rakṣāṃsi bhakṣayiṣyāmi munīnām trāṇa-kāraṇāt tadā mām munayaḥ sarve stoṣyantyā namra-mūrtayaḥ
भीमादेवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति । यदारुणाख्यस्त्रैलोक्ये महाबाधां करिष्यति ॥ ११.५२॥
भीमा देवी इति विख्यातम् तत् मे नाम भविष्यति यदा अरुण-आख्यः त्रैलोक्ये महा-बाधाम् करिष्यति
bhīmā devī iti vikhyātam tat me nāma bhaviṣyati yadā aruṇa-ākhyaḥ trailokye mahā-bādhām kariṣyati
तदाहं भ्रामरं रूपं कृत्वासङ्ख्येयषट्पदम् । त्रैलोक्यस्य हितार्थाय वधिष्यामि महासुरम् ॥ ११.५३॥
तदा अहम् भ्रामरम् रूपम् कृत्वा सङ्ख्येय-षट् पदम् त्रैलोक्यस्य हित-अर्थाय वधिष्यामि महा-असुरम्
tadā aham bhrāmaram rūpam kṛtvā saṅkhyeya-ṣaṭ padam trailokyasya hita-arthāya vadhiṣyāmi mahā-asuram
भ्रामरीति च मां लोकास्तदा स्तोष्यन्ति सर्वतः । इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति ॥ ११.५४॥
भ्रामरी इति च माम् लोकाः तदा स्तोष्यन्ति सर्वतः इत्थम् यदा यदा बाधाः दानव-उत्थाः भविष्यति
bhrāmarī iti ca mām lokāḥ tadā stoṣyanti sarvataḥ ittham yadā yadā bādhāḥ dānava-utthāḥ bhaviṣyati
तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसङ्क्षयम् ॥ ११.५५॥
तदा तदा अवतीर्य अहम् करिष्यामि अरि-सङ्क्षयम्
tadā tadā avatīrya aham kariṣyāmi ari-saṅkṣayam
॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये नारायणीस्तुतिर्नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११॥
स्वस्ति श्री-मार्कण्डेय-पुराणे सा वर्णिके मनु-अन्तरे देवी-माहात्म्ये नारायणी स्तुतिः नाम एकादशः अध्यायः
svasti śrī-mārkaṇḍeya-purāṇe sā varṇike manu-antare devī-māhātmye nārāyaṇī stutiḥ nāma ekādaśaḥ adhyāyaḥ
उवाच ४
अर्धश्लोकः १
ardhaślokaḥ 1

Dwadasho Adhyaya

Collapse

॥ १२. भगवती वाक्यं द्वादशोऽध्यायः ॥
भगवती वाक्यम् द्वादशः अध्यायः
bhagavatī vākyam dvādaśaḥ adhyāyaḥ
। ध्यानम् ।
ध्यानम्
dhyānam
ॐ विद्युद्धामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां कन्याभिः करवाळखेटविलसधस्ताभिरासेविताम् । हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चापं गुणं तर्जनीं बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे ॥
ॐविद्युत्-धाम-सम-प्रभाम् मृग-पति-स्कन्ध-स्थिताम् भीषणां हस्तैः चक्र-गदा असि खेट-विशिखान् चापम् गुणम् तर्जनींबिभ्राणाम् अनल-आत्मिकाम् शशि-धराम् दुर्गाम् त्रिनेत्राम् भजे
oṃvidyut-dhāma-sama-prabhām mṛga-pati-skandha-sthitām bhīṣaṇāṃ hastaiḥ cakra-gadā asi kheṭa-viśikhān cāpam guṇam tarjanīṃbibhrāṇām anala-ātmikām śaśi-dharām durgām trinetrām bhaje
ॐ देव्युवाच ॥ १२.१॥
एभिः स्तवैश्च मां नित्यं स्तोष्यते यः समाहितः । तस्याहं सकलां बाधां शमयिष्याम्यसंशयम् ॥ १२.२॥
एभिः स्तवैः च माम् नित्यम् स्तोष्यते यः समाहितः तस्य अहम् सकलाम् बाधाम् शमयिष्यामि असंशयम्
ebhiḥ stavaiḥ ca mām nityam stoṣyate yaḥ samāhitaḥ tasya aham sakalām bādhām śamayiṣyāmi asaṃśayam
मधुकैटभनाशं च महिषासुरघातनम् । कीर्तयिष्यन्ति ये तद्वद्वधं शुम्भनिशुम्भयोः ॥ १२.३॥
मधु-कैटभ-नाशम् च महिष-असुर-घातनम् कीर्तयिष्यन्ति ये तद्वत् वधम् शुम्भ-निशुम्भयोः
madhu-kaiṭabha-nāśam ca mahiṣa-asura-ghātanam kīrtayiṣyanti ye tadvat vadham śumbha-niśumbhayoḥ
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां नवम्यां चैकचेतसः । श्रोष्यन्ति चैव ये भक्त्या मम माहात्म्यमुत्तमम् ॥ १२.४॥
अष्टम्याम् च चतुर्दश्याम् नवम्याम् च एक-चेतसः श्रोष्यन्ति च एव ये भक्त्या मम माहात्म्यम् उत्तमम्
aṣṭamyām ca caturdaśyām navamyām ca eka-cetasaḥ śroṣyanti ca eva ye bhaktyā mama māhātmyam uttamam
न तेषां दुष्कृतं किञ्चिद्दुष्कृतोत्था न चापदः । भविष्यति न दारिद्र्यं न चैवेष्टवियोजनम् ॥ १२.५॥
न तेषाम् दुष्कृतम् किञ्चिद्-दुष्कृत-उत्थाः न च आपदः भविष्यति न दारिद्र्यम् न च एव इष्ट-वियः जनम्
na teṣām duṣkṛtam kiñcid-duṣkṛta-utthāḥ na ca āpadaḥ bhaviṣyati na dāridryam na ca eva iṣṭa-viyaḥ janam
शत्रुभ्यो न भयं तस्य दस्युतो वा न राजतः । न शस्त्रानलतोयौघात् कदाचित् सम्भविष्यति ॥ १२.६॥
शत्रुभ्यः न भयम् तस्य दस्युतः वा न राजतः न शस्त्र-अनल-तोय-औघात् कदाचित् सम्भविष्यति
śatrubhyaḥ na bhayam tasya dasyutaḥ vā na rājataḥ na śastra-anala-toya-aughāt kadācit sambhaviṣyati
तस्मान्ममैतन्माहात्म्यं पठितव्यं समाहितैः । श्रोतव्यं च सदा भक्त्या परं स्वस्त्ययनं महत् ॥ १२.७॥
तस्मात् मम एतत् माहात्म्यम् पठितव्यम् समाहितैः श्रोतव्यम् च सदा भक्त्या परम् स्वस्ति-अयनम् महत्
tasmāt mama etat māhātmyam paṭhitavyam samāhitaiḥ śrotavyam ca sadā bhaktyā param svasti-ayanam mahat
उपसर्गानशेषांस्तु महामारीसमुद्भवान् । तथा त्रिविधमुत्पातं माहात्म्यं शमयेन्मम ॥ १२.८॥
उपसर्गान् अशेषान् तु महा-आम-अरी समुद्भवान् तथा त्रि-विधम् उत्पातम् माहात्म्यम् शमयेत् मम
upasargān aśeṣān tu mahā-āma-arī samudbhavān tathā tri-vidham utpātam māhātmyam śamayet mama
यत्रैतत्पठ्यते सम्यङ्नित्यमायतने मम । सदा न तद्विमोक्ष्यामि सान्निध्यं तत्र मे स्थितम् ॥ १२.९॥
यत्र एतत् पठ्यते सम्यक् नित्यम् आयतने मम सदा न तत् विमोक्ष्यामि सान्निध्यम् तत्र मे स्थितम्
yatra etat paṭhyate samyak nityam āyatane mama sadā na tat vimokṣyāmi sānnidhyam tatra me sthitam
बलिप्रदाने पूजायामग्निकार्ये महोत्सवे । सर्वं ममैतन्माहात्म्यम् उच्चार्यं श्राव्यमेव च ॥ १२.१०॥
बलि-प्रदाने पूजायाम् अग्नि-कार्ये महा-उत्सवे सर्वम् मम एतत् माहात्म्यम् उच्चार्यम् श्राव्यम् एव च
bali-pradāne pūjāyām agni-kārye mahā-utsave sarvam mama etat māhātmyam uccāryam śrāvyam eva ca
जानताजानता वापि बलिपूजां यथा कृताम् । प्रतीक्षिष्याम्यहं प्रीत्या वह्निहोमं तथाकृतम् ॥ १२.११॥
जानता जानता वापि बलि-पूजाम् यथा कृताम् प्रतीक्षिष्याम्यहम् प्रीत्या वह्नि-होमम् तथा कृतम्
jānatā jānatā vāpi bali-pūjām yathā kṛtām pratīkṣiṣyāmyaham prītyā vahni-homam tathā kṛtam
शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी । तस्यां ममैतन्माहात्म्यं श्रुत्वा भक्तिसमन्वितः ॥ १२.१२॥
शरत्-काले महा-पूजा क्रियते या च वार्षिकी तस्याम् मम एतत् माहात्म्यम् श्रुत्वा भक्ति-समन्वितः
śarat-kāle mahā-pūjā kriyate yā ca vārṣikī tasyām mama etat māhātmyam śrutvā bhakti-samanvitaḥ
सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसमन्वितः । मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः ॥ १२.१३॥
सर्व-अबाधा विनिर्मुक्तः धन-धान्य-समन्वितः मनुष्यः मत्-प्रसादेन भविष्यति न संशयः
sarva-abādhā vinirmuktaḥ dhana-dhānya-samanvitaḥ manuṣyaḥ mat-prasādena bhaviṣyati na saṃśayaḥ
श्रुत्वा ममैतन्माहात्म्यं तथा चोत्पत्तयः शुभाः । पराक्रमं च युद्धेषु जायते निर्भयः पुमान् ॥ १२.१४॥
श्रुत्वा मम एतत् माहात्म्यम् तथा च उत्पत्तयः शुभाः पराक्रमम् च युद्धेषु जायते निर्भयः पुमान्
śrutvā mama etat māhātmyam tathā ca utpattayaḥ śubhāḥ parākramam ca yuddheṣu jāyate nirbhayaḥ pumān
रिपवः सङ्क्षयं यान्ति कल्याणं चोपपद्यते । नन्दते च कुलं पुंसां माहात्म्यं मम शृण्वताम् ॥ १२.१५॥
रिपवः सङ्क्षयम् यान्ति कल्याणम् च उपपद्यते नन्दते च कुलम् पुंसाम् माहात्म्यम् मम शृण्वताम्
ripavaḥ saṅkṣayam yānti kalyāṇam ca upapadyate nandate ca kulam puṃsām māhātmyam mama śṛṇvatām
शान्तिकर्मणि सर्वत्र तथा दुःस्वप्नदर्शने । ग्रहपीडासु चोग्रासु माहात्म्यं शृणुयान्मम ॥ १२.१६॥
शान्ति-कर्मणि सर्वत्र तथा दुःस्वप्न-दर्शने ग्रह-पीडासु च उग्रासु माहात्म्यम् शृणुयात् मम
śānti-karmaṇi sarvatra tathā duḥsvapna-darśane graha-pīḍāsu ca ugrāsu māhātmyam śṛṇuyāt mama
उपसर्गाः शमं यान्ति ग्रहपीडाश्च दारुणाः । दुःस्वप्नं च नृभिर्दृष्टं सुस्वप्नमुपजायते ॥ १२.१७॥
उपसर्गाः शमम् यान्ति ग्रह-पीडाः च दारुणाः दुःस्वप्नम् च नृभिः दृष्टम् सु-स्वप्नम् उपजायते
upasargāḥ śamam yānti graha-pīḍāḥ ca dāruṇāḥ duḥsvapnam ca nṛbhiḥ dṛṣṭam su-svapnam upajāyate
बालग्रहाभिभूतानां बालानां शान्तिकारकम् । सङ्घातभेदे च नृणां मैत्रीकरणमुत्तमम् ॥ १२.१८॥
बाल-ग्रह-अभिभूतानाम् बालानाम् शान्ति-कारकम् सङ्घात-भेदे च नृणाम् मैत्री-करणम् उत्तमम्
bāla-graha-abhibhūtānām bālānām śānti-kārakam saṅghāta-bhede ca nṛṇām maitrī-karaṇam uttamam
दुर्वृत्तानामशेषाणां बलहानिकरं परम् । रक्षोभूतपिशाचानां पठनादेव नाशनम् ॥ १२.१९॥
दुर्वृत्तानाम् अशेषाणाम् बल-हानि-करम् परम् रक्षः-भूत-पिशाचानाम् पठनात् एव नाशनम्
durvṛttānām aśeṣāṇām bala-hāni-karam param rakṣaḥ-bhūta-piśācānām paṭhanāt eva nāśanam
सर्वं ममैतन्माहात्म्यं मम सन्निधिकारकम् । पशुपुष्पार्घ्यधूपैश्च गन्धदीपैस्तथोत्तमैः ॥ १२.२०॥
सर्वम् मम एतत् माहात्म्यम् मम सन्निधि-कारकम् पशु-पुष्प-अर्घ्य-धूपैः च गन्ध-दीपैः तथा उत्तमैः
sarvam mama etat māhātmyam mama sannidhi-kārakam paśu-puṣpa-arghya-dhūpaiḥ ca gandha-dīpaiḥ tathā uttamaiḥ
विप्राणां भोजनैर्होमैः प्रोक्षणीयैरहर्निशम् । अन्यैश्च विविधैर्भोगैः प्रदानैर्वत्सरेण या ॥ १२.२१॥
विप्राणाम् भोजनैः होमैः प्रोक्षणीयैः अहः-निशम् अन्यैः च विविधैः भोगैः प्रदानैः वत्सरेण या
viprāṇām bhojanaiḥ homaiḥ prokṣaṇīyaiḥ ahaḥ-niśam anyaiḥ ca vividhaiḥ bhogaiḥ pradānaiḥ vatsareṇa yā
प्रीतिर्मे क्रियते सास्मिन् सकृदुच्चरिते श्रुते । श्रुतं हरति पापानि तथारोग्यं प्रयच्छति ॥ १२.२२॥
प्रीतिः मे क्रियते सा अस्मिन् सकृत् उच्चरिते श्रुते श्रुतम् हरति पापानि तथा आरोग्यम् प्रयच्छति
prītiḥ me kriyate sā asmin sakṛt uccarite śrute śrutam harati pāpāni tathā ārogyam prayacchati
रक्षां करोति भूतेभ्यो जन्मनां कीर्तनं मम । युद्धेषु चरितं यन्मे दुष्टदैत्यनिबर्हणम् ॥ १२.२३॥
रक्षाम् करोति भूतेभ्यः जन्मनाम् कीर्तनम् मम युद्धेषु चरितम् यत् मे दुष्ट-दैत्य-निबर्हणम्
rakṣām karoti bhūtebhyaḥ janmanām kīrtanam mama yuddheṣu caritam yat me duṣṭa-daitya-nibarhaṇam
तस्मिञ्छ्रुते वैरिकृतं भयं पुंसां न जायते । युष्माभिः स्तुतयो याश्च याश्च ब्रह्मर्षिभिः कृताः ॥ १२.२४॥
तस्मिन् श्रुते वैरि-कृतम् भयम् पुंसाम् न जायते युष्माभिः स्तुतयः याः च याः च ब्रह्म-ऋषिभिः कृताः
tasmin śrute vairi-kṛtam bhayam puṃsām na jāyate yuṣmābhiḥ stutayaḥ yāḥ ca yāḥ ca brahma-ṛṣibhiḥ kṛtāḥ
ब्रह्मणा च कृतास्तास्तु प्रयच्छन्तु शुभां मतिम् । अरण्ये प्रान्तरे वापि दावाग्निपरिवारितः ॥ १२.२५॥
ब्रह्मणा च कृताः ताः तु प्रयच्छन्तु शुभाम् मतिम् अरण्ये प्रान्तरे वापि दाव-अग्नि परिवारितः
brahmaṇā ca kṛtāḥ tāḥ tu prayacchantu śubhām matim araṇye prāntare vāpi dāva-agni parivāritaḥ
दस्युभिर्वा वृतः शून्ये गृहीतो वापि शत्रुभिः । सिंहव्याघ्रानुयातो वा वने वा वनहस्तिभिः ॥ १२.२६॥
दस्युभिः वा वृतः शून्ये गृहीतः वापि शत्रुभिः सिंह-व्याघ्र-अनुयातः वा वने वा वन-हस्तिभिः
dasyubhiḥ vā vṛtaḥ śūnye gṛhītaḥ vāpi śatrubhiḥ siṃha-vyāghra-anuyātaḥ vā vane vā vana-hastibhiḥ
राज्ञा क्रुद्धेन चाज्ञप्तो वध्यो बन्धगतोऽपि वा । आघूर्णितो वा वातेन स्थितः पोते महार्णवे ॥ १२.२७॥
राज्ञा क्रुद्धेन च आज्ञप्तः वध्यः बन्ध-गतः अपि वा आघूर्णितः वा वातेन स्थितः पोते महा-अर्णवे
rājñā kruddhena ca ājñaptaḥ vadhyaḥ bandha-gataḥ api vā āghūrṇitaḥ vā vātena sthitaḥ pote mahā-arṇave
पतत्सु चापि शस्त्रेषु सङ्ग्रामे भृशदारुणे । सर्वाबाधासु घोरासु वेदनाभ्यर्दितोऽपि वा ॥ १२.२८॥
पतत्सु च अपि शस्त्रेषु सङ्ग्रामे भृश-दारुणे सर्व-अबाधासु घोरासु वेद-नाभि-अर्दितः अपि वा
patatsu ca api śastreṣu saṅgrāme bhṛśa-dāruṇe sarva-abādhāsu ghorāsu veda-nābhi-arditaḥ api vā
स्मरन् ममैतच्चरितं नरो मुच्येत सङ्कटात् । मम प्रभावात्सिंहाद्या दस्यवो वैरिणस्तथा ॥ १२.२९॥
स्मरन् मम एतत् चरितम् नरः मुच्येत सङ्कटात् मम प्रभावात् सिंह-आद्याः दस्यवः वैरिणः तथा
smaran mama etat caritam naraḥ mucyeta saṅkaṭāt mama prabhāvāt siṃha-ādyāḥ dasyavaḥ vairiṇaḥ tathā
दूरादेव पलायन्ते स्मरतश्चरितं मम ॥ १२.३०॥
दूरात् एव पलायन्ते स्मरतः चरितम् मम
dūrāt eva palāyante smarataḥ caritam mama
ऋषिरुवाच ॥ १२.३१॥
इत्युक्त्वा सा भगवती चण्डिका चण्डविक्रमा ॥ १२.३२॥
इति उक्त्वा सा भगवती चण्डिका चण्ड-विक्रमा
iti uktvā sā bhagavatī caṇḍikā caṇḍa-vikramā
पश्यतां सर्वदेवानां तत्रैवान्तरधीयत । तेऽपि देवा निरातङ्काः स्वाधिकारान्यथा पुरा ॥ १२.३३॥
पश्यताम् सर्व-देवानाम् तत्र एव अन्तरधीयत ते अपि देवाः निरातङ्काः स्वाधिकारान् यथा पुरा
paśyatām sarva-devānām tatra eva antaradhīyata te api devāḥ nirātaṅkāḥ svādhikārān yathā purā
यज्ञभागभुजः सर्वे चक्रुर्विनिहतारयः । दैत्याश्च देव्या निहते शुम्भे देवरिपौ युधि ॥ १२.३४॥
यज्ञ-भाग-भुजः सर्वे चक्रुः विनिहत-अरयः दैत्याः च देव्याः निहते शुम्भे देव-रिपौ युधि
yajña-bhāga-bhujaḥ sarve cakruḥ vinihata-arayaḥ daityāḥ ca devyāḥ nihate śumbhe deva-ripau yudhi
जगद्विध्वंसके तस्मिन् महोग्रेऽतुलविक्रमे । निशुम्भे च महावीर्ये शेषाः पातालमाययुः ॥ १२.३५॥
जगत्-विध्वंसके तस्मिन् महा-उग्रे अतुल-विक्रमे निशुम्भे च महा-वीर्ये शेषाः पातालम् आययुः
jagat-vidhvaṃsake tasmin mahā-ugre atula-vikrame niśumbhe ca mahā-vīrye śeṣāḥ pātālam āyayuḥ
एवं भगवती देवी सा नित्यापि पुनः पुनः । सम्भूय कुरुते भूप जगतः परिपालनम् ॥ १२.३६॥
एवम् भगवती देवी सा नित्या अपि पुनः पुनः सम्भूय कुरुते भू-प जगतः परिपालनम्
evam bhagavatī devī sā nityā api punaḥ punaḥ sambhūya kurute bhū-pa jagataḥ paripālanam
तयैतन्मोह्यते विश्वं सैव विश्वं प्रसूयते । सा याचिता च विज्ञानं तुष्टा ऋद्धिं प्रयच्छति ॥ १२.३७॥
तया एतत् मोह्यते विश्वम् सा एव विश्वम् प्रसूयते सा याचिता च विज्ञानम् तुष्टाः ऋद्धिम् प्रयच्छति
tayā etat mohyate viśvam sā eva viśvam prasūyate sā yācitā ca vijñānam tuṣṭāḥ ṛddhim prayacchati
व्याप्तं तयैतत्सकलं ब्रह्माण्डं मनुजेश्वर । महादेव्या महाकाली महामारीस्वरूपया ॥ १२.३८॥
व्याप्तम् तया एतत् सकलम् ब्रह्म-अण्डम् मनुज-ईश्वर महा-देव्या महा-काली महा-आम-अरी स्व-रूपया
vyāptam tayā etat sakalam brahma-aṇḍam manuja-īśvara mahā-devyā mahā-kālī mahā-āma-arī sva-rūpayā
सैव काले महामारी सैव सृष्टिर्भवत्यजा । स्थितिं करोति भूतानां सैव काले सनातनी ॥ १२.३९॥
सा एव काले महा-आम-अरी सा एव सृष्टिः भवति अजा स्थितिम् करोति भूतानाम् सा एव काले सनातनी
sā eva kāle mahā-āma-arī sā eva sṛṣṭiḥ bhavati ajā sthitim karoti bhūtānām sā eva kāle sanātanī
भवकाले नृणां सैव लक्ष्मीर्वृद्धिप्रदा गृहे । सैवाभावे तथालक्ष्मीर्विनाशायोपजायते ॥ १२.४०॥
भव-काले नृणाम् सा एव लक्ष्मीः वृद्धि-प्रदा गृहे सा एव अभावे तथा लक्ष्मीः विनाशाय उपजायते
bhava-kāle nṛṇām sā eva lakṣmīḥ vṛddhi-pradā gṛhe sā eva abhāve tathā lakṣmīḥ vināśāya upajāyate
स्तुता सम्पूजिता पुष्पैर्गन्धधूपादिभिस्तथा । ददाति वित्तं पुत्रांश्च मतिं धर्मे गतिं शुभाम् ॥ १२.४१॥
स्तुता सम्पूजिता पुष्पैः गन्ध-धूप-आदिभिः तथा ददाति वित्तम् पुत्रान् च मतिम् धर्मे गतिम् शुभाम्
stutā sampūjitā puṣpaiḥ gandha-dhūpa-ādibhiḥ tathā dadāti vittam putrān ca matim dharme gatim śubhām
॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये भगवती वाक्यं द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥
स्वस्ति श्री-मार्कण्डेय-पुराणे सा वर्णिके मनु-अन्तरे देवी-माहात्म्ये भगवती वाक्यम् द्वादशः अध्यायः
svasti śrī-mārkaṇḍeya-purāṇe sā varṇike manu-antare devī-māhātmye bhagavatī vākyam dvādaśaḥ adhyāyaḥ

Trayodasho Adhyaya

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॥ १३. सुरथवैश्ययोर्वरप्रदानं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥
सुरथ-वैश्ययोः वर-प्रदानम् नाम त्रयोदशः अध्यायः
suratha-vaiśyayoḥ vara-pradānam nāma trayodaśaḥ adhyāyaḥ
। ध्यानम् ।
ध्यानम्
dhyānam
ॐ बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम् । पाशाङ्कुशवराभीतिर्धारयन्तीं शिवां भजे ॥
ॐबाल-अर्क-मण्डल-आभासाम् चतुः-बाहुम् त्रि-लोचनाम् पाश-अङ्कुश-वरा भीतिः धारयन्तीम् शिवाम् भजे
oṃbāla-arka-maṇḍala-ābhāsām catuḥ-bāhum tri-locanām pāśa-aṅkuśa-varā bhītiḥ dhārayantīm śivām bhaje
ॐ ऋषिरुवाच ॥ १३.१॥
एतत्ते कथितं भूप देवीमाहात्म्यमुत्तमम् । एवं प्रभावा सा देवी ययेदं धार्यते जगत् ॥ १३.२॥
एतत् ते कथितम् भू-प देवी माहात्म्यम् उत्तमम् एवम् प्रभा वा सा देवी यया इदम् धार्यते जगत्
etat te kathitam bhū-pa devī māhātmyam uttamam evam prabhā vā sā devī yayā idam dhāryate jagat
विद्या तथैव क्रियते भगवद्विष्णुमायया । तया त्वमेष वैश्यश्च तथैवान्ये विवेकिनः ॥ १३.३॥
विद्या तथा एव क्रियते भगवत्-विष्णु मायया तया त्वम् एष वैश्यः च तथा एव अन्ये विवेकिनः
vidyā tathā eva kriyate bhagavat-viṣṇu māyayā tayā tvam eṣa vaiśyaḥ ca tathā eva anye vivekinaḥ
मोह्यन्ते मोहिताश्चैव मोहमेष्यन्ति चापरे । तामुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीम् ॥ १३.४॥
मोह्यन्ते मोहिताः च एव मोह-मेष्यन्ति च अपरे तामुपैहि महा-राज शरणम् परमेश्वरीम्
mohyante mohitāḥ ca eva moha-meṣyanti ca apare tāmupaihi mahā-rāja śaraṇam parameśvarīm
आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा ॥ १३.५॥
आराधिता सा एव नृणाम् भोग-स्वर्ग-अपवर्ग-दा
ārādhitā sā eva nṛṇām bhoga-svarga-apavarga-dā
मार्कण्डेय उवाच ॥ १३.६॥
इति तस्य वचः श्रुत्वा सुरथः स नराधिपः ॥ १३.७॥
इति तस्य वचः श्रुत्वा सुरथः स नर-अधिपः
iti tasya vacaḥ śrutvā surathaḥ sa nara-adhipaḥ
प्रणिपत्य महाभागं तमृषिं संशितव्रतम् । निर्विण्णोऽतिममत्वेन राज्यापहरणेन च ॥ १३.८॥
प्रणिपत्य महा-भागम् तम् ऋषिम् संशित-व्रतम् निर्विण्णः अति ममत्वेन राज्य-अपहरणेन च
praṇipatya mahā-bhāgam tam ṛṣim saṃśita-vratam nirviṇṇaḥ ati mamatvena rājya-apaharaṇena ca
जगाम सद्यस्तपसे स च वैश्यो महामुने । सन्दर्शनार्थमम्बाया नदीपुलिनमास्थितः ॥ १३.९॥
जगाम सद्यः तपसे स च वैश्यः महा-मुने सन्दर्शन-अर्थम् अम्बायाः नदी-पुलिनम् आस्थितः
jagāma sadyaḥ tapase sa ca vaiśyaḥ mahā-mune sandarśana-artham ambāyāḥ nadī-pulinam āsthitaḥ
स च वैश्यस्तपस्तेपे देवीसूक्तं परं जपन् । तौ तस्मिन् पुलिने देव्याः कृत्वा मूर्तिं महीमयीम् ॥ १३.१०॥
स च वैश्यः तपः तेपे देवी सूक्तम् परम् जपन् तौ तस्मिन् पुलिने देव्याः कृत्वा मूर्तिम् महीमयीम्
sa ca vaiśyaḥ tapaḥ tepe devī sūktam param japan tau tasmin puline devyāḥ kṛtvā mūrtim mahīmayīm
अर्हणां चक्रतुस्तस्याः पुष्पधूपाग्नितर्पणैः । निराहारौ यतात्मानौ तन्मनस्कौ समाहितौ ॥ १३.११॥
अर्हणाम् चक्रतुः तस्याः पुष्प-धूप-अग्नि-तर्पणैः निराहारौ यतात्मानौ तत् मनः कौ समाहितौ
arhaṇām cakratuḥ tasyāḥ puṣpa-dhūpa-agni-tarpaṇaiḥ nirāhārau yatātmānau tat manaḥ kau samāhitau
ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम् । एवं समाराधयतोस्त्रिभिर्वर्षैर्यतात्मनोः ॥ १३.१२॥
ददतुः तौ बलिम् च एव निज-गात्र-असृक्-उक्षितम् एवम् समाराधयतोः त्रिभिः वर्षैः यतात्मनोः
dadatuḥ tau balim ca eva nija-gātra-asṛk-ukṣitam evam samārādhayatoḥ tribhiḥ varṣaiḥ yatātmanoḥ
परितुष्टा जगद्धात्री प्रत्यक्षं प्राह चण्डिका ॥ १३.१३॥
परितुष्टाः जगत्-धात्री प्रत्यक्षम् प्राह चण्डिका
parituṣṭāḥ jagat-dhātrī pratyakṣam prāha caṇḍikā
देव्युवाच ॥ १३.१४॥
यत्प्रार्थ्यते त्वया भूप त्वया च कुलनन्दन । मत्तस्तत्प्राप्यतां सर्वं परितुष्टा ददामिते ॥ १३.१५॥
यत् प्रार्थ्यते त्वया भू-प त्वया च कुल-नन्दन मत्तः तत् प्राप्यताम् सर्वम् परितुष्टाः ददामि ते
yat prārthyate tvayā bhū-pa tvayā ca kula-nandana mattaḥ tat prāpyatām sarvam parituṣṭāḥ dadāmi te
मार्कण्डेय उवाच ॥ १३.१६॥
ततो वव्रे नृपो राज्यमविभ्रंश्यन्यजन्मनि । अत्रैव च निजं राज्यं हतशत्रुबलं बलात् ॥ १३.१७॥
ततः वव्रे नृपः राज्यम् अवि-भ्रंशि-अन्य-जन्मनि अत्र एव च निजम् राज्यम् हत-शत्रु बलम् बलात्
tataḥ vavre nṛpaḥ rājyam avi-bhraṃśi-anya-janmani atra eva ca nijam rājyam hata-śatru balam balāt
सोऽपि वैश्यस्ततो ज्ञानं वव्रे निर्विण्णमानसः । ममेत्यहमिति प्राज्ञः सङ्गविच्युतिकारकम् ॥ १३.१८॥
सः अपि वैश्यः ततः ज्ञानम् वव्रे निर्विण्ण-मानसः मम इति अहम् इति प्राज्ञः सङ्ग-विच्युति-कारकम्
saḥ api vaiśyaḥ tataḥ jñānam vavre nirviṇṇa-mānasaḥ mama iti aham iti prājñaḥ saṅga-vicyuti-kārakam
देव्युवाच ॥ १३.१९॥
स्वल्पैरहोभिर्नृपते स्वं राज्यं प्राप्स्यते भवान् ॥ १३.२०॥
स्वल्पैः अहोभिः नृपते स्वम् राज्यम् प्राप्स्यते भवान्
svalpaiḥ ahobhiḥ nṛpate svam rājyam prāpsyate bhavān
हत्वा रिपूनस्खलितं तव तत्र भविष्यति ॥ १३.२१॥
हत्वा रिपू न स्खलितम् तव तत्र भविष्यति
hatvā ripū na skhalitam tava tatra bhaviṣyati
मृतश्च भूयः सम्प्राप्य जन्म देवाद्विवस्वतः ॥ १३.२२॥
मृतः च भूयः सम्प्राप्य जन्म देवात् विवस्वतः
mṛtaḥ ca bhūyaḥ samprāpya janma devāt vivasvataḥ
सावर्णिको मनुर्नाम भवान्भुवि भविष्यति ॥ १३.२३॥
सा वर्णिकः मनुः नाम भवान् भुवि भविष्यति
sā varṇikaḥ manuḥ nāma bhavān bhuvi bhaviṣyati
वैश्यवर्य त्वया यश्च वरोऽस्मत्तोऽभिवाञ्छितः ॥ १३.२४॥
वैश्य-वर्य त्वया यः च वरः अस्मत्तः अभिवाञ्छितः
vaiśya-varya tvayā yaḥ ca varaḥ asmattaḥ abhivāñchitaḥ
तं प्रयच्छामि संसिद्ध्यै तव ज्ञानं भविष्यति ॥ १३.२५॥
तम् प्रयच्छामि संसिद्ध्यै तव ज्ञानम् भविष्यति
tam prayacchāmi saṃsiddhyai tava jñānam bhaviṣyati
मार्कण्डेय उवाच ॥ १३.२६॥
इति दत्त्वा तयोर्देवी यथाभिलषितं वरम् ॥ १३.२७॥
इति दत्त्वा तयोः देवी यथा अभिलषितम् वरम्
iti dattvā tayoḥ devī yathā abhilaṣitam varam
बभूवान्तर्हिता सद्यो भक्त्या ताभ्यामभिष्टुता । एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः ॥ १३.२८॥
बभूव अन्तर्हिता सद्यः भक्त्या ताभ्याम् अभिष्टुता एवम् देव्याः वरम् लब्ध्वा सुरथः क्षत्रिय-ऋषभः
babhūva antarhitā sadyaḥ bhaktyā tābhyām abhiṣṭutā evam devyāḥ varam labdhvā surathaḥ kṣatriya-ṛṣabhaḥ
सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः ॥ १३.२९॥
सूर्यात् जन्म समासाद्य सावर्णिः भविता मनुः
sūryāt janma samāsādya sāvarṇiḥ bhavitā manuḥ
एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः । सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः ॥ क्लीं ॐ ॥
एवम् देव्याः वरम् लब्ध्वा सुरथः क्षत्रिय-ऋषभः सूर्यात् जन्म समासाद्य सावर्णिः भविता मनुः क्लीम् ओं
evam devyāḥ varam labdhvā surathaḥ kṣatriya-ṛṣabhaḥ sūryāt janma samāsādya sāvarṇiḥ bhavitā manuḥ klīm oṃ
॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये सुरथवैश्ययोर्वरप्रदानं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३॥
स्वस्ति श्री-मार्कण्डेय-पुराणे सा वर्णिके मनु-अन्तरे देवी-माहात्म्ये सुरथ-वैश्ययोः वर-प्रदानम् नाम त्रयोदशः अध्यायः
svasti śrī-mārkaṇḍeya-purāṇe sā varṇike manu-antare devī-māhātmye suratha-vaiśyayoḥ vara-pradānam nāma trayodaśaḥ adhyāyaḥ
उवाच ६
अर्धश्लोकाः ११
ardhaślokāḥ 11
समस्ता उवाचमन्त्राः ५७
अर्धश्लोकाः ४२
ardhaślokāḥ 42
॥ श्रीसप्तशतीदेवीमाहात्म्यं समाप्तम् ॥
श्री-सप्त-शती देवी माहात्म्यम् समाप्तम्
śrī-sapta-śatī devī māhātmyam samāptam
॥ ॐ तत् सत् ॐ ॥
ॐतत् सत् ओं
oṃtat sat oṃ

Apradha Kshama Strotam

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॥ अथ अपराधक्षमापणस्तोत्रम् ॥
अथ अपराध-क्षमा-पण-स्तोत्रम्
atha aparādha-kṣamā-paṇa-stotram

Apradha Shama Strotam

Collapse

ॐ अपराधशतं कृत्वा जगदम्बेति चोच्चरेत् । यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ॥ १॥
ॐअपराध-शतम् कृत्वा जगत्-अम्बा इति च उच्चरेत् याम् गतिम् समवाप्नोति न ताम् ब्रह्म-आदयः सुराः
oṃaparādha-śatam kṛtvā jagat-ambā iti ca uccaret yām gatim samavāpnoti na tām brahma-ādayaḥ surāḥ
सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जगदम्बिके । इदानीमनुकम्प्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ॥ २॥
सा अपराधः अस्मि शरणम् प्राप्तः त्वाम् जगत्-अम्बिके इदानीम् अनुकम्प्यः अहम् यथा इच्छसि तथा कुरु
sā aparādhaḥ asmi śaraṇam prāptaḥ tvām jagat-ambike idānīm anukampyaḥ aham yathā icchasi tathā kuru
अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रान्त्या यन्न्यूनमधिकं कृतम् । तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ॥ ३॥
अज्ञा ना द्वि-स्मृतेः भ्रान्त्याः यत् न्यूनम् अधिकम् कृतम् तत् सर्वम् क्षम्यताम् देवि प्रसीद परमेश्वरि
ajñā nā dvi-smṛteḥ bhrāntyāḥ yat nyūnam adhikam kṛtam tat sarvam kṣamyatām devi prasīda parameśvari
कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानन्दविग्रहे । गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ॥ ४॥
काम-ईश्वरि जगत्-मातः सत्-चित्-आनन्द-विग्रहे गृहाण अर्चामि माम् प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि
kāma-īśvari jagat-mātaḥ sat-cit-ānanda-vigrahe gṛhāṇa arcāmi mām prītyā prasīda parameśvari
सर्वरूपमयी देवी सर्वं देवीमयं जगत् । अतोऽहं विश्वरूपां त्वां नमामि परमेश्वरीम् ॥ ५॥
सर्वरूपमयी देवी सर्वम् देवीम् अयम् जगत् अतः अहम् विश्व-रूपाम् त्वाम् नमामि परमेश्वरीम्
sarvarūpamayī devī sarvam devīm ayam jagat ataḥ aham viśva-rūpām tvām namāmi parameśvarīm
यदक्षरं परिभ्रष्टं मात्राहीनञ्च यद्भवेत् । पूर्णं भवतु तत् सर्वं त्वत्प्रसादान्महेश्वरि ॥ ६॥
यत् अक्षरम् परि भ्रष्टम् मात्रा-हीनम् च यत् भवेत् पूर्णम् भवतु तत् सर्वम् त्वत् प्रसादात् महेश्वरि
yat akṣaram pari bhraṣṭam mātrā-hīnam ca yat bhavet pūrṇam bhavatu tat sarvam tvat prasādāt maheśvari
यदत्र पाठे जगदम्बिके मयाविसर्गबिन्द्वक्षरहीनमीरितम् ।तदस्तु सम्पूर्णतमं प्रसादतःसङ्कल्पसिद्धिश्च सदैव जायताम् ॥ ७॥
यत् अत्र पाठे जगत्-अम्बिके मयाविसर्ग-बिन्दु-अक्षर-हीनम् ईरितम्तत् अस्तु सम्पूर्णतमम् प्रसादतःसङ्कल्प-सिद्धिः च सदा एव जायताम्
yat atra pāṭhe jagat-ambike mayāvisarga-bindu-akṣara-hīnam īritamtat astu sampūrṇatamam prasādataḥsaṅkalpa-siddhiḥ ca sadā eva jāyatām
यन्मात्राबिन्दुबिन्दुद्वितयपदपदद्वन्द्ववर्णादिहीनं भक्त्याभक्त्यानुपूर्वं प्रसभकृतिवशात् व्यक्तमव्यक्तमम्ब । मोहादज्ञानतो वा पठितमपठितं साम्प्रतं ते स्तवेऽस्मिन् तत् सर्वं साङ्गमास्तां भगवति वरदे त्वत्प्रसादात् प्रसीद ॥ ८॥
भक्त्या भक्ति-आनुपूर्वम् प्रसभ-कृति-वशात् व्यक्तम् अव्यक्तम् अम्ब मोहात् अज्ञानतः वा पठितमपठितम् साम्प्रतम् ते स्तवे अस्मिन् तत् सर्वम् सा अङ्गम् आस्ताम् भगवति वरदे त्वत् प्रसादात् प्रसीद
bhaktyā bhakti-ānupūrvam prasabha-kṛti-vaśāt vyaktam avyaktam amba mohāt ajñānataḥ vā paṭhitamapaṭhitam sāmpratam te stave asmin tat sarvam sā aṅgam āstām bhagavati varade tvat prasādāt prasīda
प्रसीद भगवत्यम्ब प्रसीद भक्तवत्सले । प्रसादं कुरु मे देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ॥ ९॥
प्रसीद भगवति अम्ब प्रसीद भक्त-वत्सले प्रसादम् कुरु मे देवि दुर्गे देवि नमः अस्तु ते
prasīda bhagavati amba prasīda bhakta-vatsale prasādam kuru me devi durge devi namaḥ astu te
॥ इति अपराधक्षमापणस्तोत्रं समाप्तम् ॥
इति अपराध-क्षमा-पण-स्तोत्रम् समाप्तम्
iti aparādha-kṣamā-paṇa-stotram samāptam

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